नए साल की ढेरो शुभकामनाएं
Posted By Geetashree On 5:38 AM 5 commentsहमेशा तारीफ सुनना चाहता है ईश्वर
Posted By Geetashree On 2:19 AM 11 commentsनीत्शे के बहाने मनुष्य की प्रवृत्तियों को याद करते हुए...क्योंकि हम लोग भी हमेशा अपनी तारीफ सुनना चाहते है... शायद ईश्वर होना चाहते हैं. नभाटा पढते हुए नीत्शे का पुराना राग फिर नजरो के सामने से गुजरा...और कई चेहरे झिलमिलाए। हम जिस व्यवस्था में जी रहे हैं...वहां तारीफ की बहुत कद्र है। ये एक कला है जो आपको आना चाहिए। चाहे और कुछ आए या ना आए..। इसके दम पर दुनिया का कुछ हिस्सा तो आप जीत ही सकते हैं...कमसेकम किसी का दिल तो अवश्य। तारीफ एक किस्म की बीमारी भी है और इलाज भी। किसी का इगो सहलाता है तो कहीं शक्ति पैदा करता है..कई खूबियो और दुर्गुणों से भरी है ये तारीफ...जिन्हे ये कला नहीं आती...वे बेहद पिछड़े हैं..जिन्हें महारत हासिल है वे चमत्कार कर रहे हैं....खैर..मैं फिलहाल अपनी तारीफ सुनने के मूड में हूं..सो नीत्शे के विचार को यहां रख रही हूं...
नीत्शे (1844-1900) जर्मन विचारक और दार्शनिक थे, जिन्हें अपने क्रांतिकारी और लीक से बिल्कुल ही अलग विचारों के लिए जाना जाता है। नीत्शे के जिस कथन से सबसे ज्यादा खलबली मचाई, वह था : ईश्वर मर चुका है।
नीत्शे के कई विचारों पर खासा विवाद भी रहा है। नीत्शे 24 साल की उम्र में ही दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बन गए थे। कुछ दिनों बाद वह बीमार रहने लगे और एक लंबा अर्सा बीमारी के इलाज में जगह-जगह घूमते हुए गुजरा। इसी दौरान उनके क्रांतिकारी विचार सामने आए। नीत्शे के विचार, आस्था क्या है, सत्य को न जानने की इच्छा। ईश्वर एक विचार है, जो हर सीधी-सादी चीज को जटिल चीज में तब्दील कर देता है।
मैं ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता। वह हर वक्त अपनी तारीफ सुनना चाहता है। यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वर, तू कितना महान है। क्या इंसान ईश्वर की सबसे बड़ी गलतियों में से एक है? या फिर ईश्वर ही इंसान की सबसे बड़ी गलती है? डर नैतिकता की मां है। इंसान नैतिक रहता है क्योंकि वह डरता है। सारी समझदारी, सत्य के सभी सबूत अपनी खुद की सोचने-परखने की क्षमता से हासिल होते है। किसी एक अतिवादी स्थिति की परिणित किसी बीच के रास्ते में नहीं, बल्कि दूसरे अतिवादी तरीके में होती है।
ओह, ये औरतें! ये ऊंचे इंसान को और भी ऊंचा बना देती हैं और नीचे को ओर भी नीचे गिरा देती हैं। दुनिया के सारे महान विचार टहलने के दौरान लोगों के दिमाग में आए हैं। हमें हर उस दिन को गंवाया हुआ मानना चाहिए, जिस दिन हम एक बार खुशी से नहीं थिरके या किसी दूसरे के चेहरे पर मुस्कान नहीं फैलाई। शैतान से लड़ते वक्त सबसे ज्यादा सावधानी इस बात की बरती जानी चाहिए कि कहीं हम खुद ही तो शैतान नहीं बनते जा रहें है।
अब मर्दों की भी एक रौनक गली
Posted By Geetashree On 3:48 AM 9 commentsलास वेगास(अमेरिका) की रंगीनियत के किस्से दुनिया को पता है। कहते हैं, जो कहीं नहीं होता, वो वहां होता है...वहां गैर कानूनी कुछ भी नहीं। कैसीनो से लेकर देह व्यापार तक..यानि कुछ भी..कोई भी शय। जिनकी जेब गरम रहती है उनके लिए वह स्वर्गगाह है। लास वेगास से एक ताजा खबर आई है एजेंसियों के हवाले से, पुरुष सेक्सवर्कर के बारे में। अभी तक आपने सिर्फ उन वेश्यालयों के बारे में सुना होगा जहां महिलाएं धंधा करती हैं लेकिन जल्द ही पुरुष वेश्यालय भी होगा। अमेरिकी शहर लास वेगास के करीब नेवादा के ग्रामीण इलाकों में अब जल्द ही पुरुष सेक्स वर्करों की एक कॉलोनी बनने वाली है, जहां पर ये पुरुष अपनी सेवाएं देने लगेंगे। सूत्रों का कहना है कि नेवादा में बनने वाले इस वेश्यालय का नाम होगा 'शेडी लेडी रॉन्चÓ यहां से मेल प्रोस्टीटयूट को हायर किया जा सकता है। अमेरिका के इस छोटे से शहर में वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता है। हालांकि लंबे समय तक केवल महिला वेश्यावृत्ति को ही यहां मान्यता हासिल थी लेकिन अब यहां मेल वेश्यावृत्ति को भी मान्यता दे दी गई है। मान्यता मिलने के साथ ही इस शहर में पुरुष वेश्यालयों को बनाने का काम शुरू हो गया है।
ईश्वर के देस में असुरक्षित लड़के
Posted By Geetashree On 2:16 AM 10 commentsवह काले-चमकीले रंगत और मिचमिची आंखों वाला बच्चा था। उसके होश उड़े हुए थे। एजेंट ने लगभग उसे दबोच रखा था। मैडम जी..देखिए, ऐसे लड़के मिलेंगे सेवा के लिए। जब तक आप चाहे पास रखें। काम की गारंटी मैं लेता हूं, हर तरह का काम करेगा, अभी नया है...आप सिखा देना....चबा चबा कर अंग्रेजी बोलता हुआ मल्लू एजेंट दांत निपोर रहा रहा था।
आधी दुनिया का एक अंधेरा कोना
Posted By Geetashree On 5:57 AM 5 commentsआउटलुक (हिंदी-अंग्रेजी) का सेक्स सर्वे
Posted By Geetashree On 11:18 PM 14 commentsआधुनिकता को तेजी के साथ आगोश में लेते दिल्ली से सटे गुडग़ांव शहर में 32 साल के युवा ईशान अवस्थी का मानना है, 'पश्चिमी लिबास और मूल्यों वाली महिलाओं की ओर मैं ज्यादा तेजी के साथ आकर्षित होता हूं, बजाय परंपरागत भारतीय महिला के। वहीं पटना के पुनाईचक में रहने वाले और पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर रवि प्रकाश संबंधों को लेकर लिबास और फितरत में पाश्चात्य महिला के पक्षधर हैं पर मूल्यों के प्रति उनकी आस्था परंपरागत भारतीयता में ही है। हालांकि गुडग़ांव के 22 और पटना के 20 फीसदी युवा पुरुष ईशान की सोच के साथ खड़े है लेकिन आज भी पटना के 11, गुडग़ांव के 16 और लखनऊ के 10 फीसदी युवा परंपरागत मूल्यों की स्वामिनी और साड़ी पहने या सलवार-कमीज के साथ दुपट्टा डाले महिला से किसी भी हद तक दोस्ती करने को उत्सुक हैं। एक बात साफ है, बदलाव हर कहीं दस्तक दे रहा है। कहीं हौले से तो कहीं तेजी के साथ।दरअसल ईशान और रवि युवाओं के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जो बदलते परिवेश में कहीं खुद को साथ पाता है और कहीं बदलाव से असंपृक्त रहकर परंपरा के साथ खड़ा दिखता हैं।
आउटलुक और मार्केटिंग एंड डेवलपमेंट रिसर्च एसोसिएट्स (एमडीआरए) ने इस बार राष्ट्रव्यापी यौन सर्वेक्षण में भारत के उन दस शहरों को लक्ष्य बनाया जिनका शुमार महानगरों में नहीं होता। बावजूद वहां बदलाव की बयार साफ नजर आ रही है। इन शहरों में कहीं वर्जनाओं के हक में और परंपराओं के साथ तो कहीं बदलती जिंदगी के नए मायने हासिल करने की खातिर पुरुषों के विरोध का स्वर सुनाई दे रहा है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से गुजरते समाज में यौन संबंधों को लेकर कहीं जुंबिश है तो कहीं हड़कंप। कहीं स्वागत का भाव है तो कहीं दुहाई की पुकार। एक बात तो साफ है कि बदलाव हो रहा है। यह वे युवा हैं जो यौन संबंधों की बंद किताब पर अब सार्वजनिक बहस को तैयार हैं। आपसी बातचीत में विपरीत सेक्स को प्रभावित करने के तरीकों पर विचार करते हैं। गुडग़ांव के 28 फीसदी युवाओं का मानना है कि महिलाएं एक सुगठित देह वाले पुरुष पर फिदा हो जाती है। जबकि लखनऊ 24 फीसदी युवाओं की दलील है कि आधुनिक पोशाक कहीं ज्यादा अहमियत रखते हैं। सर्वे से साफ हुआ कि खुद को व्यक्त करने में साफगोई पिछले एक-दो दशकों के मुकाबले अब कहीं तेज ध्वनित हो रही है। लखनऊ के 27 फीसदी और पटना के 13 फीसदी युवा ऐसे मिले जो अब तक के जीवन में यौन संतुष्टि के लिए तीन से पांच बार तक वेश्याओं से यौन संपर्क साध चुके थे। पटना के 31 फीसदी, लखनऊ के 18 फीसदी, चंडीगढ़ के 22 फीसदी और गुडग़ांव के 23 फीसदी पुरुषों का मानना है कि यौन संतुष्टि के लिए ओरल-सेक्स बेहद जरूरी है। जबकि इन सभी शहरों में गैरजरूरी मानने वाले पुरुषों की संख्या 15 से 21 फीसदी के दरम्यान मिली। परिवर्तन की इस गति में सही मन:स्थिति की दुरुस्त तस्वीर हासिल करने के लिए आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण के तहत 24 से 34 साल के पुरुषों से महिलाओं के प्रति, खासतौर पर महिलाओं के साथ यौन संबंधों की बाबत, ढेरों सवाल पूछे गए। ऐसे में एक सवाल मौजूं है कि आखिर इस यौन सर्वेक्षण का मकसद क्या है। जवाब है, इस आयु वर्ग की यौन संबंधी बदलती सोच करवट लेते भारत के लिए खास मायने रखती है। जाहिर है, यही तबका आने वाले भारत की संतति और गढ़ते समाज के सामाजिक मूल्यों को नए सिरे से परिभाषित करने जा रहा है। खास बात तो यह है कि इस सर्वेक्षण में उन युवाओं की बदलती मानसिकता को समझने की कोशिश की गई है जो समाज की चकाचौंध के हिस्से नहीं हैं। जो मेहनती सफेदपोश हैं और जिनकी तस्वीरें सड़कों के किनारे खड़े दानवाकार होर्डिंग्स में नहीं झलकती। जो गलियों में चाय की दुकान चलाते हैं, ट्यूशन पढ़ा कर परिवार चलाते हैं। यूं कहें कि रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी-छोटी ख्वाहिशों को हासिल करने के लिए जी भर मशक्कत करते हैं। थक कर सो जाते हैं। इसके बावजूद सपने देखते हैं, दबाते-सकुचाते समाज की बाबत बेहतरीन समझ रखते हैं। सर्वेक्षण में शामिल युवा यह भी बताते हैं कि परंपरागत समाज के मूल्यों की चहारदीवारी में कहां और किस हद तक दरकन पैदा हो चुकी है। मूल्यों में इन परिवर्तनों की स्वीकृति के मानक क्या हैं? कोई विवाद नहीं कि सर्वेक्षण में शामिल आयु वर्ग के युवा पुरुष बदलते भारत में शहरीकरण के विस्फोट के बीच परिपक्व हुए हैं। उन्होंने परंपरागत सामाजिक मूल्यों को ढहते और रिश्तों की परिभाषा को नया अर्थ पाते हुए देखा और महसूस किया है। इनके पास निजस्वता है। जानकारी के लिए, सर्वेक्षण देश के दस शहरों में हुआ पर हम आंकड़े और नतीजे उन चार मुख्य शहरों के दे रहे हैं जो हिंदी मानस के राज्यों में स्थित हैं। इनमें परिवर्तन और जकडऩ की कसक कहीं ज्यादा तीखी है। कहावत है कि सिर्फ शहर ही नहीं बदलते, इंसान भी बदलते हैं। यह बात झलकती है इंसानी रिश्तों में। सर्वेक्षण नतीजे बताते हैं कि बदलाव की यह बयार अब सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं रही, जमीनी स्तर पर भी रिश्तों के प्रति सोच में परिवर्तन साफ नजर आ रहा है। खासतौर पर पुरुष और स्त्री के रिश्तों में, यौन संबंधों में। एक परंपरावादी समाज में बदलाव की इस बयार का रुख साफ होने जा रहा है आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण में।
यौन सर्वेक्षण कैसे, कहां और किनके बीच
आउटलुक पत्रिका ने प्रमुख शोध संगठन एमडीआरए के साथ मिलकर गुडग़ांव, चंडीगढ़, लखनऊ, अहमदाबाद, पटना, नागपुर, गुवाहाटी, हैदराबाद, बेंगलुरू और कोच्चि शहर के 24 से 34 साल की उम्र वाले आधुनिक और शिक्षित शहरी पुरुषों के बीच यौन सर्वेक्षण किया। मुकम्मल नतीजे पाने के लिए एस-3 नियम का कड़ाई से पालन किया। एस-3 यानि नमूने का आकार , फैलाव और चयन । नतीजों में आग्रह न दिखे, इसके लिए लक्षित वर्ग के बीच से औचक तौर पर नमूने उठाए गए। लक्षित वर्ग के पुरुषों से सवाल पूछने के लिए टीम के सदस्यों को खासतौर पर प्रशिक्षित किया गया और सवालों के जवाब आमने-सामने की बातचीत से जुटाए गए। सर्वे अभियान 14 से 23 नवंबर 2009 के बीच इन शहरों में चला। नतीजतन हमें गैरमहानगरीय शहरों के पुरुषों की सोच की व्यापक तस्वीर हासिल हो सकी। सर्वे में 24 से 27 वर्ष के शामिल शहरी पुरुषों का प्रतिशत 31.2, 28 से 30 उम्र के 30.6 और 31 से 34 आयु वर्ग के 38.2 है। इनमें संयुक्त परिवार के 65.5 और एकल परिवार के 34.5 फीसदी पुरुष थे। सर्वे की व्यापकता को विस्तृत करने के लिए इन पुरुषों में से 64.2 फीसदी शहरी युवा ऐसे थे जिनकी कोई संतान नहीं थी वहीं 33 फीसदी पुरुष एक से दो बच्चों के पिता थे। जबकि दो संतानों से अधिक वाले पुरुषों का प्रतिनिधित्व 2.8 फीसदी रहा। वहीं, पत्नी के साथ रह रहे शादीशुदा पुरुषों का प्रतिनिधित्व इस सर्वे में 48.9, शादीशुदा पर एकाकी रह रहे शहरी पुरुष 3.8 फीसदी अविवाहित पर एक महिला दोस्त के प्रति समर्पित 17.7 फीसदी शहरी पुरुष और अविवाहित एवं बिना महिला दोस्त के पुरुषों का प्रतिनिधित्व 29.6 है। बावजूद सभी सावधानियों के सर्वे के नतीजों में +2.97 फीसदी की त्रुटि संभव है।
(साभार)
गोवा की संस्कृति खतरे में
Posted By Geetashree On 7:05 AM 1 commentsअभिनेत्री नंदिता दास ने उबाल खाकर बयान दिया कि एक ना एक दिन अपना फिल्म समारोह विश्वस्तर का जरुर हो जाएगा। काफी हद तक सचाई बयान कर गईं। जिस तरह से फिल्म समारोह निदेशालय और गोवा इंटरटेनमेंट सोसाइटी के बीच तालमेल हुआ वो एक अच्छे भविष्य की उम्मीद जताता है। पिछले साल तक दोनों के बीच टसल चलता रहा और श्रेय लेने की जो एक दूसरे से होड़ चलती रही उससे समारोह की गुणवत्ता पर फर्क पड़ता नजर आया था। इस बार लगता है दोनों में बेहतर समझदारी पैदा हुई है. गोवा में फिल्म प्रेमियों के लिए तमाम मुश्किलों के बाबजूद समारोह यहां बना रहेगा। फिलहाल केंदेर सरकार गोवा को ही स्थाई वेन्यु मान रही है. जब समारोह को गोवा लाने का फैसला किया गया था तब केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार थी। निदेशालय को इस बात का अहसास है कि गोवा की वजह से नेशनल मीडिया दूर हो गया है। इस शहर में विश्व स्तरीय सुविधाओं की कमी है, खर्चीला है। निदेशालय के एक सूत्र ने बताया कि फिलहाल गोवा पर कोई पुर्नविचार संभव नहीं है.जगह बदलना जरुरी होते हुए भी कोई सरकार एक अलोकप्रिय फैसला नहीं लेना चाहती। हालांकि कैबिनेट जब चाहे जगह बदलने का फैसला ले सकती है। लेकिन अब बात सरकार के हाथ से निकल चुकी है क्योंकि कई साल हो गए और दुनिया भर में कांस की तरह गोवा की छवि भी बनती जा रही है।
पैशन आफ लाइफ
Posted By Geetashree On 12:28 AM 5 commentsथाईलैंड की फिल्म बेस्ट आफ टाइम भी दो अकेले इनसानों की जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती हुई एक नया रिश्ता कायम करने की जद्दोजहद में दिखाई देती है। रिश्तों का महाकाव्य रचती हुई इन फिल्मों में सिर्फ प्रेम की तलाश है। खुद के नए सिरे से तलाशने में जुटे दो अलग किस्म के लोग अपनी मर्जी का रिश्ता टटोल रहे हैं, जहां है उनकी चुनी और बनाई हुई दुनिया, उसके लोग और अर्जित की हुई आजादी। पैशन ाफ लाइफ की नायिका एक जगह स्वीकारती है कि वह कभी कभी खुद को बुद्द की तरह पाती है जो भोग में लिप्त हैं और एक दिन उसे उसकी आंख खुलती है तो वह यथार्थ से टकराता है। नायिका जानती हा कि वह जिस सेक्सुआलिटि की खोज में भाग रही है उससे एक दिन उसका भी मोह भंग होना है। वही होता भी है और उसका जीवन यथार्थ की फंतासी में उलझ कर रह जाता है।
जर्मनी की एक और फिल्म विदाउट यू आई एम नथिंग(निर्देशक..फ्लोरियन ईशिंगर) में एक २५ वर्षीय नायक की मुलाकात आठ साल के अलगाव के बाद अपने पिता से होती है। लेकिन पिता अपनी युवा प्रेमिका के चक्कर में आकर बदल चुका है। बेटा इस बदलाव को महसूस करता है। उसी समय पिता की प्रेमिका पिता-पुत्र के संबंधों में झांकने की कोशिश करती है। शायद इसके जरिए वह कोई ठोस रिश्ते की तरफ पहुंचना चाहती है। लेकिन संबंधों की तरफ जाने वाला यह असहज रास्ता उनमें से प्रत्येक को गहरे गर्त में ले जाता है।
विवादो के साए में उत्सव
Posted By Geetashree On 12:14 AM 1 commentsअभिनेत्री नंदिता दास बहुत कुछ बोल गईं। उनकी फिल्म फिराक बिना इंगलिश सबटाइटिल के दिखाई गई और उन्हें सवाल जवाब का सत्र भी नहीं दिया गया बस आयोजको के गैर पेशेवाराना रवैये पर उनका पारा चढ गया। फिर क्या था। अनौपचारिक बातचीत में उनका गुस्सा खूब छलका। नंदिता ने कहा कि इफ्फी को आने वाले दिनों में विश्वस्तरीय समारोह की तरह बनना होगा। नहीं तो कोई छवि नहीं बन पाएगी। समारोह में उम्मीद की जाती है कि विश्व सिनेमा की महान हस्तियां समारोह स्थल पर दिखेंगी। दुनिया के सभी कोनो से महान फिल्में देखने को मिलेंगी।
समारोह के साथ विवादो की लंबी सूची है। एक मामला अभी तक दिल्ली हाईकोर्ट में पेंडिग है। भारतीय पैनोरमा के एक ज्यूरी सदस्य का आयोजकों से अपमानित होने से मामला तूल पकड़ गया। जूरी के एक सदस्य, वरिष्ठ पत्रकार गौतमन भास्करन ने फिल्मों के चयन प्रक्रिया पर आरोप जड़ा कि जूरी के कई सदस्य फिल्मों के चयन के वक्त मौजूद नहीं थे। उनका इशारा मुजफ्फरअली और बाबी बेदी की तरफ था. गौतमन ने खफा होकर चयनित फिल्मों की सूची एक वेबसाइट पर लीक कर दी। यहां से वबाल शुरु हो गया। मलयाली फिल्मकार सुजित ने निदेशालय पर दिल्ली हाईकोर्ट में केस कर दिया कि दक्षिण के फिल्मकारों के साथ नाइंसाफी हुई है और बंगाली फिल्में ज्यादा चुनी गई हैं। कोर्ट ने फिल्मों की सूची जारी करने से मना कर दिया।
समारोह जब करीब आया तो निदेशालय ने कोर्ट से अपील कर सूची खुद नहीं बल्कि प्रेस इनफामेर्शन ब्यूरो से जारी करवा दिया। आमतौर पर निदेशालय यह खुद ही जारी करता है। इस लड़ाई की छाया समारोह में इस कदर पड़ी कि भारतीय पैनोरमा के सभी जूरी सदस्य का परिचय कराया गया और गौतमन का नाम नहीं लिया गया। ना ही उन्हें कोई सुविधा दी गई. गौतमन ने जब बवाल मचाया तो उन्हें दो टूक जवाब मिला कि कोर्ट ने आपको समारोह से अलग रखने को कहा है। इधर गौतम कहते रहे यह सरासर झूठ है।
मां बनिए या फाइटर पायलट
Posted By Geetashree On 8:51 PM 14 commentsप्रेम में वासना
Posted By Geetashree On 11:24 PM 9 commentsमैं इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि प्रेम में वासना का कोई स्थान नहीं है. मैं न स्वयं से झूठ बोल सकता हूं और न दूसरों से. प्रेम में आदर्श और अशरीरी जैसी स्थिति की जो लोग वकालत करते हैं, वह मेरी समझ में केवल लाचारी है. हमारे देश में चूंकि प्रेम को लेकर समाज स्त्री- पुरूष की सोच में बंटा हुआ है और स्त्री आज भी यह कह पाने की स्वतंत्र स्थिति में नहीं है कि उसने अपने प्रेमी के साथ जिस्म शेयर किया है. इसलिए वह ज़ोर देकर झूठ बोलती है कि प्रेम में शरीर की मांग बेमानी है. वह डरती है कि यदि उसने शरीर के सच को स्वीकार किया तो उसका भविष्य नष्ट हो जाएगा.
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क्या पुरुष दाता है और स्त्री याचक
Posted By Geetashree On 9:46 PM 19 commentsलव गुरु की प्रेमिका का महान लेख मेरे सामने हैं। इनके ब्लाग और एक अखबार में छपा हुआ। तमाम महिला संगठनो और महिला आंदोलनो को मुंह चिढाता हुआ. उसे व्यर्थ साबित करने पर आमादा। स्त्रियों ने अपने अधिकारो के लिए अब तक जितनी लड़ाईंयां लडी और सशक्तिकरण का अधूरा-सा ही सही, लक्ष्य हासिल किया, उसपर सवाल खड़े कर दिए। मेरे समेत तमाम महिलाओं के होठो पर एक सवाल खौल रहा है..कि ये कौन बोल रहा है उनकी जुबान से। कौन है जो उनके भीतर पुरुष भाव बन बैठ गया है। कौन है जो एक स्त्री को महिला संगठनो को अप्राकृतिक घटना मानने पर विवश कर रहा है और उसकी असफलता के लिए बददुआएं दे रहा है। कोई तो हैं इसके पीछे। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन छिप कर वार कर रहा है, अपनी ही छाया से छाया-युद्द के लिए तैयार कर रहा है। इनके बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि हे महिलाओं इन्हे माफ करना कि ये नहीं जानती ये क्या कर गई है। ये कहना जरुरी है कि ये जानती हैं कि उनसे क्या लिखवा लिया गया है। अभी जिस फंतासी में ये जी रही है वहां पुरुषों का महिमा गान अनिवार्य है। इनके पास उपाय क्या है। कहां जाएंगी..क्या करेंगी। दूसरी महिला का हक छिनने वाली सित्रयां हमेशा पुरुषो की भाषा बोलती हुई पाई गई हैं। इस अंधेरे और क्रूर समय में जहां स्त्री के लिए उजाला अब भी एक उम्मीद की तरह है...एसे में कोई स्त्री अपनी ही बिरादरी की अस्मिता को कैसे नकार सकती है। हैरानी के सिवा क्या किया जा सकता है। अब इनकी बातें सुनिए....ये कहती हैं, पुरुष वीर्यदान करता है और स्त्री उसे ग्रहण करती है। ये कैसी आत्मस्वीकारोक्ति है...क्या कोई स्वाभिमानी स्त्री इनकी इस स्थापना को स्वीकार कर पाएगी। कभी नहीं...तब तो बलात्कार करने वाला पुरुष भी इनके हिसाब से वीर्य दान करता है और लड़कियों को चुपचाप उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए। हाय तौबा मचाने की क्या जरुरत। इनकी नजर में स्त्री- पुरुष का यही पारंपरिक रिश्ता है। एक सवाल पूछना चाहती हूं कि क्या कभी कोई पुरुष प्लान करके वीर्य दान करने चला है क्या। क्या स्त्री याचक है...पुरुष कर्ण की तरह दानवीर। कर्ण जैसे बड़े बड़े दानवीर भी बिना मांगे दान नहीं देते। फिर ये पुरुष किस स्त्री से पूछ कर अपनी वीर्य दानदिया। ये दान है या स्त्रियों को गटर समझ कर उड़ेल दिया गया कचरा है,कुंठा है, राहत है, आंनंद है, शरीर का वो तत्व है जिसकी नियती प्रवाहित होना है...। ये पुरुष कब से दाता हो गए। क्या औरते उनसे उनका कचरा मांगने याचक की मुद्रा में खड़ी है..कहीं दिखती हैं क्या।ये स्त्री-पुरुष के बीच दाता और याचक का रिश्ता कौन बना रहा है। कौन दे रहा है अपनी नई स्थापनाएं। कवि राजकमल चौधरी का एक वक्तव्य यहां लिखना जरुरी है। वह लिखते हैं...स्त्री का शरीर बहुत स्वास्थ्यप्रद है। लेकिन कविता के लिए नहीं, संभोग करने के लिए। स्त्री शरीर को राजनीतिज्ञों,सेठो, बनियों और इनके प्रचारको ने अपना हथियार बनाया है, हमलोगो को अपना क्रीतदास बनाए रखने के लिए....। राजकमल जी बहुत साल पहले कैसी नंगी सचाई लिख गए हैं..पढिए। स्त्री शरीर को एसा स्टोरेज मत बनाए कि कई बार जबरन उड़ेला गया कचरा भी ग्रहण करने के भाव से कबूल किया जाए। आगे मैं राजकमलजी के स्त्री के बारे में और भी बयान लिखने वाली हूं..ताकि पता चले कि पुरुष क्या सोचते हैं। बेहतर होता कि पुरुषों को हितैषी बताने वाले वक्तव्य देने से पहले कुछ महान लोगो के विचार पढ लिए जाते। उदाहरण और भी हैं...।