नए साल की ढेरो शुभकामनाएं

Posted By Geetashree On 5:38 AM 5 comments

दोस्तों

बस एक सप्ताह और...ब्लाग से दूरी। फिर लौट कर इसी दुनिया में आना है। नीत्शे के बाद टूर शुरु जो अभी तक जारी है...।
सोचा, आप सबको नए साल की शुभकामनाएं देते चले..आप जश्न में डूबे होंगे..मै भी जश्न मना लूं..कहीं दूर..कोलाहल से...जहां प्रकृति की घनेरी छावं हो...पगडंडियां हों..एक नदी हो...घास के मीलो फैले मैदान हो...चिडियों का कलरव हो..सामने पहाड़ हो..जहां से कुंवारी हवाएं आएं..
शहर का शोर शराबा ना हो..मन इतना घबरा गया है यहां से...रोज हाईवे से आते शोर को मैं निगलती हूं हर सांस के साथ..रोज अपनी आवाज कम और टेलीफोन की ज्यादा सुनती हूं...कुछ दिन हो आऊं...जहां मैं खुद को सुन सकूं और इतनी ऊर्जा बटोर सकूं कि आगे एक साल तक जम कर काम कर सकूं..शहर को शोर निगल सकूं...
ये शांति भी कुछ ही दिन अच्छी लगती है..फिर याद आने लगते हैं...यहां का सब कुछ..खासकर लोग बाग..अपने पराए..दोस्त दुश्मन..छल-प्रपंच..इनसे कब तककहां तक भागा जा सकता है..सो लौटकर तो आना ही है..लौटना नियति है..सो मैं भी लौट आऊंगी..इसी ब्लाग पर हमले करने..हमले झेलने...अपनी बात कहने..आपकी सुनने...
तब तक आप लोग जश्न मनाइए...नए नए संकल्प करिए..पुरानी आदतो के साथ नया साल शुरु कीजिए..इस साल भी वही संकल्प दोहराइए जो पिछले कई सालों से दोहराते आ रहे हैं..संकल्प होते ही हैं..दोहराने के लिए..पूरा कर लिया तो क्या मजा...
मैंने तो दस संकल्प लिया है...अगले पोस्ट में बताएंगे..अभी बता दूं तो आप नकल कर सकते हैं..उन पर मेरा अधिकार है..वैसे कोई नया नहीं है..पांच साल से दोहरा रहें हैं...एक भी पूरा नहीं कर पाई...

अंत में मेरे दोस्त ने एक संदेश भेजा है..आप भी पढे...
many people look forword to the new year for a new start on old habits...
आप क्या करने वाले हैं....

हमेशा तारीफ सुनना चाहता है ईश्वर

Posted By Geetashree On 2:19 AM 11 comments

नीत्शे के बहाने मनुष्य की प्रवृत्तियों को याद करते हुए...क्योंकि हम लोग भी हमेशा अपनी तारीफ सुनना चाहते है... शायद ईश्वर होना चाहते हैं. नभाटा पढते हुए नीत्शे का पुराना राग फिर नजरो के सामने से गुजरा...और कई चेहरे झिलमिलाए। हम जिस व्यवस्था में जी रहे हैं...वहां तारीफ की बहुत कद्र है। ये एक कला है जो आपको आना चाहिए। चाहे और कुछ आए या ना आए..। इसके दम पर दुनिया का कुछ हिस्सा तो आप जीत ही सकते हैं...कमसेकम किसी का दिल तो अवश्य। तारीफ एक किस्म की बीमारी भी है और इलाज भी। किसी का इगो सहलाता है तो कहीं शक्ति पैदा करता है..कई खूबियो और दुर्गुणों से भरी है ये तारीफ...जिन्हे ये कला नहीं आती...वे बेहद पिछड़े हैं..जिन्हें महारत हासिल है वे चमत्कार कर रहे हैं....खैर..मैं फिलहाल अपनी तारीफ सुनने के मूड में हूं..सो नीत्शे के विचार को यहां रख रही हूं...
नीत्शे (1844-1900) जर्मन विचारक और दार्शनिक थे, जिन्हें अपने क्रांतिकारी और लीक से बिल्कुल ही अलग विचारों के लिए जाना जाता है। नीत्शे के जिस कथन से सबसे ज्यादा खलबली मचाई, वह था : ईश्वर मर चुका है।

नीत्शे के कई विचारों पर खासा विवाद भी रहा है। नीत्शे 24 साल की उम्र में ही दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बन गए थे। कुछ दिनों बाद वह बीमार रहने लगे और एक लंबा अर्सा बीमारी के इलाज में जगह-जगह घूमते हुए गुजरा। इसी दौरान उनके क्रांतिकारी विचार सामने आए। नीत्शे के विचार, आस्था क्या है, सत्य को न जानने की इच्छा। ईश्वर एक विचार है, जो हर सीधी-सादी चीज को जटिल चीज में तब्दील कर देता है।

मैं ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता। वह हर वक्त अपनी तारीफ सुनना चाहता है। यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वर, तू कितना महान है। क्या इंसान ईश्वर की सबसे बड़ी गलतियों में से एक है? या फिर ईश्वर ही इंसान की सबसे बड़ी गलती है? डर नैतिकता की मां है। इंसान नैतिक रहता है क्योंकि वह डरता है। सारी समझदारी, सत्य के सभी सबूत अपनी खुद की सोचने-परखने की क्षमता से हासिल होते है। किसी एक अतिवादी स्थिति की परिणित किसी बीच के रास्ते में नहीं, बल्कि दूसरे अतिवादी तरीके में होती है।

ओह, ये औरतें! ये ऊंचे इंसान को और भी ऊंचा बना देती हैं और नीचे को ओर भी नीचे गिरा देती हैं। दुनिया के सारे महान विचार टहलने के दौरान लोगों के दिमाग में आए हैं। हमें हर उस दिन को गंवाया हुआ मानना चाहिए, जिस दिन हम एक बार खुशी से नहीं थिरके या किसी दूसरे के चेहरे पर मुस्कान नहीं फैलाई। शैतान से लड़ते वक्त सबसे ज्यादा सावधानी इस बात की बरती जानी चाहिए कि कहीं हम खुद ही तो शैतान नहीं बनते जा रहें है।

अब मर्दों की भी एक रौनक गली

Posted By Geetashree On 3:48 AM 9 comments

शिखा गुप्ता
लास वेगास(अमेरिका) की रंगीनियत के किस्से दुनिया को पता है। कहते हैं, जो कहीं नहीं होता, वो वहां होता है...वहां गैर कानूनी कुछ भी नहीं। कैसीनो से लेकर देह व्यापार तक..यानि कुछ भी..कोई भी शय। जिनकी जेब गरम रहती है उनके लिए वह स्वर्गगाह है। लास वेगास से एक ताजा खबर आई है एजेंसियों के हवाले से, पुरुष सेक्सवर्कर के बारे में। अभी तक आपने सिर्फ उन वेश्यालयों के बारे में सुना होगा जहां महिलाएं धंधा करती हैं लेकिन जल्द ही पुरुष वेश्यालय भी होगा। अमेरिकी शहर लास वेगास के करीब नेवादा के ग्रामीण इलाकों में अब जल्द ही पुरुष सेक्स वर्करों की एक कॉलोनी बनने वाली है, जहां पर ये पुरुष अपनी सेवाएं देने लगेंगे। सूत्रों का कहना है कि नेवादा में बनने वाले इस वेश्यालय का नाम होगा 'शेडी लेडी रॉन्चÓ यहां से मेल प्रोस्टीटयूट को हायर किया जा सकता है। अमेरिका के इस छोटे से शहर में वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता है। हालांकि लंबे समय तक केवल महिला वेश्यावृत्ति को ही यहां मान्यता हासिल थी लेकिन अब यहां मेल वेश्यावृत्ति को भी मान्यता दे दी गई है। मान्यता मिलने के साथ ही इस शहर में पुरुष वेश्यालयों को बनाने का काम शुरू हो गया है।
जैसे ही यह खबर आई की नेवादा में मेल सेक्स वर्कर्स को कानूनी मान्यता मिल गई वैसे ही इस शहर में दूसरी जगहों से सेक्स वर्कर्स का आना शुरू हो गया। सूत्रों का कहना है कि अब तक यहां लगभग 20 हजार से अधिक मेल सेक्स वर्कर्स आ चुके हैं। जो पुरुष इस वेश्यालय में रहना चाहते हैं उन्हें अपने आपको यहां रजिस्टर कराना होगा। वहां उसका स्वास्थ्य परीक्षण किया जाएगा। स्वास्थ्य परीक्षण पास होने के बाद उन्हें एक नंबर एलॉट किया जाएगा।इसके बाद ही वे इस धंधा करने लायक हो पाएंगे। इतनी भारी संख्या में पुरुषो का इसमें दिलचस्पी लेना उस देश के आर्थिक स्वास्थ्य के बारे में खुलासे करता है।
वैसे भारत समेत दुनिया के तमाम देशो में जिगोलो पहले ही देह व्यापार के धंधे में लगे हुए हैं। उनमें खुलेआम उतरने की हिम्मत अभी नहीं आई है। लुकाछिपी का खेल वैसे ही करते हैं जैसे कॉलगल्र्स। महानगरो में ये नया चलन है..इस पर यदा कदा अखबारो में छुपता भी रहता है। कई बार स्टिंग आपरेशन भी हुए..हाल के दिनों में इस विषय पर फिल्में भी आईं..मुंबई के कुछ जिगोलो ने अपनी पहचान जानबूझ कर उजागर भी कर दी। जानबूझ कर, शायद वे ऐसा चाहते थे कि धनाढय और तन्हा महिलाएं उन्हें पहचाने और उन तक पहुंचने में आसानी हो।
वह दिन दूर नहीं जब भारत तक इसकी आंच पहुंचेगी और कल तक अंधेरे में खेल खेलने वाले मर्द, फीमेल सेक्सवर्कर की तरह अपने लिए भी कानूनी मान्यता मांगने लगे।

ईश्वर के देस में असुरक्षित लड़के

Posted By Geetashree On 2:16 AM 10 comments


वह काले-चमकीले रंगत और मिचमिची आंखों वाला बच्चा था। उसके होश उड़े हुए थे। एजेंट ने लगभग उसे दबोच रखा था। मैडम जी..देखिए, ऐसे लड़के मिलेंगे सेवा के लिए। जब तक आप चाहे पास रखें। काम की गारंटी मैं लेता हूं, हर तरह का काम करेगा, अभी नया है...आप सिखा देना....चबा चबा कर अंग्रेजी बोलता हुआ मल्लू एजेंट दांत निपोर रहा रहा था।
मैंने गौर से देखा..उसकी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। देह पर पुराने कपड़े, नंगे पांव, एकटक मुझे घूरे जा रहा था। मैने पूछा, कोई अनुभवी नहीं मिलेगा। मैडम ..खाली नहीं हैं बच्चे। सीजन पीक पर है..सब काम पर लगे हुए हैं...उसने विवशता जताई।
त्रिवेंद्रम के सबसे सनसनीखेज कोवलम तट पर मैं स्टोरी के लिए लोकल लोगो के साथ घूम रही थी। मैं पिछले दिनों केरल गई थी तंबाकू पर स्टोरी के लिए, वहां हमारे होस्ट ने केरल के बारे में कुछ चौंकाने वाली बातें बताई और कहा आप खुद वहां जाकर, खरीदार बनकर मामले की तह तक जाओ। मलयालमभाषी राजू मेरे साथ सहयोग के लिए तैयार हो गए।
मैंने अपने लिए कोवलम बीच पर एक कमरे का अर्पाटमेंट और एक सेवक की तलाश करने लगी। राजू मेरे भारतीय एजेंट के रुप में मेरे लिए सौदा पटा रहे थे। तट पर ही स्थित एक ट्रेवेल एजेंट मुझे गैरभारतीय समझ कर खुल गया और हाथ के हाथ सौदा पट गया। आधे घंटे के अंदर मनचाहे लोकेशन पर सारी सुविधाओं से लैस अर्पाटमेंट भी दिखाया और सेवक भी पकड़ लाया। सेवक के लिए 20,000 रुपये महीना तय हुआ और अर्पाटमेंट भी लगभग उसी मूल्य पर वो भी नगद एडवांस। मुझे मामले की तह तक जाना था सो गहरे गई। मेरे एजेंट बने राजू ने कहा ट्रेवेल एजेंट को भरोसा दिया कि हम अभी एटीएम से पैसे निकाल कर आते हैं...और हम वहां से किसी दूसरे ट्रेवेल एजेंट के पास फिर ऐसा ही सौदा पटाने चल पड़े।
राजू एक स्वंयसेवी संगठन में काम करते हैं। उस दिन त्रिवेंद्रम से मेरे साथ हालात का जायजा लेकर घर लौटे। एक बार बदहवास से राजू ने घर में घुसते ही अपनी बीबी को पहला वाक्य बोला, बी केयरफुल्ल....अपने दोनों बेटों को कभी किसी अजनबी के साथ ना घुलने-मिलने देना ना ही कहीं बाहर भेजना। राजू का परिवार तब से बहुत चिंतित हैं। अपने दो किशोर होते बेटो की चिंता उन्हेंसता रही है। उन्हें लगता है उनके बेटो की अस्मत सुरक्षित नहीं है। आमतौर पर घरों में लड़कियों को लेकर चिंताएं देखी गई हैं। यहां उल्टा माजरा दिखाई देता है। राजू स्पष्ट कहते हैं, ईश्वर के अपने देश में केरल में लड़कियां सुरक्षित हैं लड़के नहीं। वजह स्पष्ट है, गोवा के बाद त्रिवेंद्रम का कोवलम बीच सेक्स टूरिज्म का दूसरा सबसे बड़ा गढ बन गया है।जब चार्टर्ड विमानों से पर्यटकों के आने का सिलसिला शुरु हुआ तो कोवलम बीच पर पर्यटन का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। इस तरह के पर्यटकों का खुले बाजार से कोई वास्ता नहीं था। इनके लिए पहले से ही होटल के कमरे और घूमने के लिए टैक्सियां बुक होती थी। ऐसे में सिर्फ बड़े-बड़े होटलों को ही भारी मुनाफा हो रहा था। पर्यटक आमतौर पर होटल में ही रहते थे और उनके लिए आवश्यक सेवाएं एवं सुविधाएं होटल में ही उपलब्ध करा दी जाती थी।
इस तरह के पर्यटकों से कोवलम बीच में पर्यटन व्यवसाय से जुड़े आम स्थानीय लोगों की कमाई में भारी कमी आई और उन्होंने इसकी भरपाई के लिए गैर कानूनी तरीक अपनाने शुरु कर दिए। इसका परिणाम यह निकला कि कोवलम बीच पर शराब, मादक पदार्थ और सेक्स का धंधा शुरु हुआ। कोवलम बीच के आसपास रहने वाले लोग अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए इस गैर कानूनी धंधे का संचालन करने लगे। शुरुआती दौर में इस धंधे से सिर्फ पुरुष जुड़े लेकिन समय बीतने के साथ महिलाएं भी इसमें लिप्त हुईं। इससे माहौल ऐसा बना कि जो लोग पर्यटन के धंधे से जुड़े नहीं थे, वे भी पर्यटकों को सेक्स सेवाएं उपलब्ध कराने वाले लोगों को सहानुभूति की नजर से देखने लगे। कोवलम बीच पर दलाली का काम करने वाले राममूर्ति के अनुसार कम उम्र के ऐसे दर्जनों लड़के हैं जो बड़ी उम्र के पुरुष पर्यटकों के साथ सेक्स करते हैं। यह सही काम नहीं है लेकिन ये लड़के चूंकि गरीब हैं इसलिए वे मजबूरी में ऐसा काम करते हैं और किसी को इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। कोवलम बीच पर मुख्य रूप से छोटी उम्र के लड़के ही पर्यटकों को उपलब्ध कराते हैं।
पूरी दुनिया में छोटी उम्र के लड़कों के साथ सेक्स करने वाले पर्यटकों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। विकसित देशों में चूंकि इस पर प्रतिबंध लगाने और इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने के लिए नए-नए कानून बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं इसलिए ऐसे पर्यटक मौज-मस्ती का सिलसिला जारी रखने के लिए नए-नए पर्यटन स्थलों की तलाश करते हैं। इस तलाश का एक परिणाम कोवलम बीच भी है। छोटे बच्चों के साथ मौज-मस्ती करने के लिए कोवलम बीच पर सैकड़ों देशी-विदेशी पुरुष पर्यटक नियमित रूप से आते हैं। ऐसे कई विदेशी पर्यटक तो कोवलम बीच के आसपास बस गए हैं और उन्होंने घर तक खरीद लिया है। इन घरों में वे छोटी उम्र के बच्चों के साथ रहते हैं। चूंकि विदेशी अकेले यहां घर नहीं खरीद सकते, इसलिए उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ साझेदारी में घर खरीदे हैं। पूरा पैसा विदेशी ही देते हैं। इस तरह का सौदा स्थानीय लड़कों और उनके परिवारों के लिए अक्सर फायदेमंद साबित होता है। परिवार के सदस्य या मध्यस्थ ही कम उम्र के लड़कों को इस तरह का सौदा करने के लिए उपलब्ध कराते हैं। सौदा होने पर इससे जुड़े कई लोगों को मोटा कमीशन मिलता है। इसके अलावा बेहद गरीब परिवार के लड़के कम उम्र में ही सड़कछाप हो जाते हैं। वे अपने परिवार की आर्थिक मदद के लिए हर तरह का काम करने को तैयार रहते हैं। इनमें से कुछ संबंध लंबा नहीं चलता है। लेकिन अधिकतर संबंध काफी लंबे समय तक चलता है। क्योंकि कम उम्र के बच्चों के साथ मौज-मस्ती करने वाले पर्यटक घर खरीदने के लिए मोटी रकम खर्च करते हैं और जिसके और जिसके साथ मौज-मस्ती करते हैं उसके पढऩे का खर्च उपलब्ध कराते हैं।
पुलिस और स्थानीय लोगों को भी यह मालूम है कि सैकड़ों पर्यटक छोटी उम्र के लड़कों के साथ मौज-मस्ती के लिए कोवलम बीच आते हैँ लेकिन यहां के गरीब लोगों को इससे इतनी अधिक आर्थिक मदद मिलती है कि वे भी इस तरह की गतिविधियों से अपनी आंखें फेर लेते हैं। कोवलम बीच पर तैनात एक पुलिसकर्मी के अनुसार, 'यहां सेक्स का धंधा होता है। इस धंधे से अधिकतर छोटी उम्र के लड़के जुड़े हैं। इस धंधे में महिलाएं भी लिप्त हैं। कहा जाता है कि तिरुवनंतपुरम के आसपास के पर्यटन स्थलों के अलावा अन्य जगहों पर पहले से ही सेक्स का व्यावसायिक कारोबार फल-फूल रहा था और इसी वजह से देशी-विदेशी पर्यटकों ने कोवलम बीच को अपनी मौज-मस्ती का अड्डा बनाया। कई मामलों में कम उम्र के लड़कों के साथ सेक्स करने वाले देशी-विदेशी पर्यटक अपनी निगरानी में लड़कों के समूह रखते हैं जिन्हें यहां 'स्टेबलÓ (घुड़साल) के नाम से जाना जाता है। ये पर्यटक अपने समूह के लड़कों को जोश दिलाने और अपने ऊपर निर्भरता बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में शराब पिलाते हैं और मादक पदार्थों का सेवन करवाते हैं।अक्सर यह होता है कि ये लड़के जब बड़े होते हैं तो इनका आकर्षण कम हो जाता है और उन्हें समूह से निकाल दिया जाता है। इन लड़कों को समूह से बाहर निकलने के बाद गुजर-बसर अपने बूते पर करना पड़ता है। इस समय तक उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो चुकी होती है। उन्हें शराब और मादक पदार्थों की लत लगी होती है। इसलिए उन्हें अच्छी नौकरी नहीं मिलती। ऐसे में जिंदा रहने के लिए उनके पास गैर कानूनी गतिविधियों में लिप्त होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। ऐसे में उन्हें बीच 'बीच ब्यायजÓ बनकर पर्यटकों को सेक्स सेवाएं उपलब्ध कराने वाला दलाल बनना पड़ता है या फिर छोटी उम्र के लड़कों को पर्यटकों के समक्ष मौज-मस्ती के लिए परोसना पड़ता है।कोवलम बीच पर 'होमोसेक्सुएलÓ टूरिज्म के रूप में एक नई सेक्स गतिविधि सामने आई है। स्थानीय लोग पुरुषों के बीच सेक्स संबंधों को स्वीकार नहीं करते और 'गे कल्चरÓ को बुरी निगाह से देखते हैं। तिरुवनंतपुरम में रहने वाले जी.एस.पी. रामास्वामी के अनुसार 'गे कल्चरÓ पर्यटन से पैदा हुआ है। पहले यहां ऐसा नहीं होता था। लेकिन किसी भी सेवा के लिए मोटा पैसा मिलने की वजह से सेक्स टूरिज्म के नए-नए और घिनौने रूप सामने आ रहे हैं।कोवलम बीच पर तैनात एक पुलिसकर्मी ने भी बताया कि यहां 'गे सेक्सÓ की ज्यादा मांग है। पश्चिमी देशों के लोग यहां आते हैं और लड़कों के लिए खूब पैसा खर्च करते हैं। पहले यहां यह सब नहीं होता था लेकिन अब आप जहां भी नजर दौड़ाएंगे यही सब हो रहा है। पर्यटक यहां सिर्फ छोटी उम्र के बच्चों के साथ मौज-मस्ती के लिए आते हैं।पश्चिमी देशों के बूढ़े पर्यटकों के साथ कम उम्र के भारतीय लड़के, यह एक बहुत बड़ा सेक्स बाजार बन गया है। ये पर्यटक मौज-मस्ती के लिए साल में कई बार कोवलम बीच का चक्कर लगाते हैं। इस तरह के पर्यटक 16 साल या इससे भी कम उम्र के लड़कों की तलाश में रहते हैं, वे घर किराए पर लेते हैं, लड़कों को नौकरी देते हैं और उनके साथ सेक्स करते हैं। यह बहुत गंदा काम है लेकिन पैसे के लिए सब कुछ चलता है।दर्जनों बीच ब्वॉयज पुरुषों और महिलाओं दोनों के साथ सेक्स संबंध रखते हैं। उन्हें इस काम के लिए पैसा, तोहफा, लजीज खाना, शराब, मादक पदार्थ मिलता है। इस तरह के लड़के विदेशी पर्यटकों को खुश कर पश्चिमी देशों का वीजा प्राप्त करने के चक्कर में रहते हैं। ऐसे हालात में यह हैरानी की बात नहीं है कि ये लड़के अधिक से अधिक पैसा कमाने और फायदा उठाने के लिए जरूरत के हिसाब से अपने सेक्स का इस्तेमाल करते हैं।
आउटलुक (हिंदी), दिसंबर अंक में प्रकाशित

आधी दुनिया का एक अंधेरा कोना

Posted By Geetashree On 5:57 AM 5 comments

सुप्रीम कोर्ट ने भले ही तल्ख होकर केंद्र सरकार को कहा कि वह अगर दुनिया के सबसे प्राचीनतम धंधा यानी वेश्यवृति को नहीं रोक सकती तो क्यों नहीं उसे कानूनी मान्यता दे देती है। वैध हो जाने के बाद कमसेकम उनकी हालत तो सुधर जाएगी। अभी तो सरकार ना ही इस पर रोक लगा पा रही है, ना निगरानी रख पा रही है और ना उनके लिए कोई पुनर्वास की योजना है। अदालत खीझ में है..इसलिए संवेदनशील नस पर हाथ रख दिया। सरकार चुप है। ना हां कहते बनेगा ना ना। अदालत ने एक आंदोलन को हवा दे दी...जो सेक्सवर्करो का संगठन कबसे चला रहा है। वे चाहते ही है कि इस धंधे को कानूनी मान्यता मिस जाए, पश्चिम के कुछ देशो की तरह उन्हें भी इसका लाइसेंस मिल जाए..फिर उनकी मुशिकलें थोड़ी आसान हो जाएगीं। अभी तो सरकार उनके विकास के लिए कोई कदम नहीं उठा पा रही है। कुछ भी करना उनके अस्तित्व को सरकारी रुप से स्वीकार करना है। सरकार यह जोखिम नहीं उठाना चाहती। जवाब देना आसान नहीं। हो सकता है केंद्र सरकार राज्य सरकार पर इसकी जिम्मेदारी डाले और अपना पल्ला झाड़ ले।

सच्चाई से कब तक आंखें मूंदेगे। कौन नहीं जानता कि यह धंधा किसकी मिलीभगत से चलता है। पुलिस और स्थानीय प्रशासन का क्या रोल है, किससे छुपा है। राजनेता कैसे इनके वोट से जीत कर आते हैं। अदालत के इस रवैये से सेक्सवर्करो के आंदोलन को थोड़ा बल मिला होगा। लेकिन उनकी राहे इतनी आसान नहीं। हमारे देश में छुपा कर किया गया कोई भी काम पाप नहीं..अनैतिक नहीं..खुले में किए तो घोर पाप..संस्कृति खतरे में..इसके ठेकेदार छाती पीटने लगेंगे.. कहेंगे,,,हाय हाय...ये आप कैसा भारत बनाना चाहते हैं..जब तक हम जिंदा हैं ये नहीं होने देंगे। सरकार इन्हीं ठेकेदारो से तो घबराती है।

अगर आपने इस विषय पर लिखा तब भी नैतिकतावादियों को यह बात रास नहीं आती। इनमें कुछ वे लोग भी शामिल हैं जो एसे कोठे आबाद करते हैं या जिनके दम पर ये गलियां रोशन होती हैं। जिनकी ना जानें कितनी औलादें(नाजायज नहीं) गलियों में फिरती हैं...। इन पर या एसे विषयो पर लिखना आपको उनके कठघरे में खड़ा कर देता है...या व नहीं तो उन जैसे जरुर थोड़े थोड़ मान लिए जाते हैं..खासकर एक स्त्री लेखिका..यह हमारी भाषाई मानसिकता की देन है। मगर जो डट कर लिख रही हैं वे अपने लिखने को लेकर कतई क्षमाप्रार्थी नहीं हैं जैसे सोनागाछी की सेक्सवर्कर..जिन्हें अपने धंधे पर कतई शरम नहीं है. वे शान से बताती हैं, अपने काम के बारे में..। वे श्रमिक का दर्जा पाना चाहती है।
खरीदार कभी समझ भी नहीं सकते एसी औरतो को।
बेहतर हो खरीदारो को भी कोठे पर जाने के लिए परमिट लेना पड़े..जैसे गुजरात में शराब पीने के लिए परमिट लेना पड़ता है और दूकान के बाहर शराबी का नाम, बाप का नाम और पता लिखा होता है। खरीदार जब तक मौजूद हैं तब तक यह धंधा चलता रहेगा। मांग और पूर्ति का सीधा संबंध है यहां।
अभी सरकार लाइसेंस देने के बारे में बयान भी देगी तो तूफान उठ खड़ा होगा...तूफान वही उठाएंगे जो चोरी छिपे उन गलियों में फेरा लगाते हैं। अगर सेक्स बेचना अनैतिक है तो खरीदना उससे बड़ा अपराध..फिर सीना ठोक कर खरीदार क्यों नहीं खड़ा होता कि हां..हमने खरीदा या हम हैं खरीदार...पकड़े जाने पर चेहरे पर मफलर लपेट कर कैसे बच निकलते हैं...टीवी पर दिख जाते हैं। उनमें आंखें मिलाने का साहस नहीं...साहस है श्रमिक में। जो श्रम बेच रहा है बाजार में। काल गर्ल की बात छोड़ दें तो आप किसी भी सेक्स वर्कर से बात करें...उनमें अपने काम को लोकर कोई शरम नहीं..क्योंकि जिंदगी इस शरम से बहुत आगे की चीज है।

यहां कवि ऱघुवीर सहाय की काव्य पंक्तियां...
कई कोठरियां थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया
उसी रोने में हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा.....
इन औरतों के बारे में ही कवि निशांत ने भी लिखा है...
इन औरतो को
गुजरना पड़ता है एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया से
तय करनी पड़ती है एक लंबी दूरी
झेलनी पड़ती है गर्म सलाखो की पैनी निगाहें
फाड़ने पड़ते हैं सपनो को
रद्दी कागजों की तरह
चलाना पड़ता है अपने को खोटे सिक्को की तरह
एक दूकान से दूसरे दूकान तक....

आउटलुक (हिंदी-अंग्रेजी) का सेक्स सर्वे

Posted By Geetashree On 11:18 PM 14 comments

आधुनिकता को तेजी के साथ आगोश में लेते दिल्ली से सटे गुडग़ांव शहर में 32 साल के युवा ईशान अवस्थी का मानना है, 'पश्चिमी लिबास और मूल्यों वाली महिलाओं की ओर मैं ज्यादा तेजी के साथ आकर्षित होता हूं, बजाय परंपरागत भारतीय महिला के। वहीं पटना के पुनाईचक में रहने वाले और पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर रवि प्रकाश संबंधों को लेकर लिबास और फितरत में पाश्चात्य महिला के पक्षधर हैं पर मूल्यों के प्रति उनकी आस्था परंपरागत भारतीयता में ही है। हालांकि गुडग़ांव के 22 और पटना के 20 फीसदी युवा पुरुष ईशान की सोच के साथ खड़े है लेकिन आज भी पटना के 11, गुडग़ांव के 16 और लखनऊ के 10 फीसदी युवा परंपरागत मूल्यों की स्वामिनी और साड़ी पहने या सलवार-कमीज के साथ दुपट्टा डाले महिला से किसी भी हद तक दोस्ती करने को उत्सुक हैं। एक बात साफ है, बदलाव हर कहीं दस्तक दे रहा है। कहीं हौले से तो कहीं तेजी के साथ।दरअसल ईशान और रवि युवाओं के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जो बदलते परिवेश में कहीं खुद को साथ पाता है और कहीं बदलाव से असंपृक्त रहकर परंपरा के साथ खड़ा दिखता हैं।

आउटलुक और मार्केटिंग एंड डेवलपमेंट रिसर्च एसोसिएट्स (एमडीआरए) ने इस बार राष्ट्रव्यापी यौन सर्वेक्षण में भारत के उन दस शहरों को लक्ष्य बनाया जिनका शुमार महानगरों में नहीं होता। बावजूद वहां बदलाव की बयार साफ नजर आ रही है। इन शहरों में कहीं वर्जनाओं के हक में और परंपराओं के साथ तो कहीं बदलती जिंदगी के नए मायने हासिल करने की खातिर पुरुषों के विरोध का स्वर सुनाई दे रहा है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से गुजरते समाज में यौन संबंधों को लेकर कहीं जुंबिश है तो कहीं हड़कंप। कहीं स्वागत का भाव है तो कहीं दुहाई की पुकार। एक बात तो साफ है कि बदलाव हो रहा है। यह वे युवा हैं जो यौन संबंधों की बंद किताब पर अब सार्वजनिक बहस को तैयार हैं। आपसी बातचीत में विपरीत सेक्स को प्रभावित करने के तरीकों पर विचार करते हैं। गुडग़ांव के 28 फीसदी युवाओं का मानना है कि महिलाएं एक सुगठित देह वाले पुरुष पर फिदा हो जाती है। जबकि लखनऊ 24 फीसदी युवाओं की दलील है कि आधुनिक पोशाक कहीं ज्यादा अहमियत रखते हैं। सर्वे से साफ हुआ कि खुद को व्यक्त करने में साफगोई पिछले एक-दो दशकों के मुकाबले अब कहीं तेज ध्वनित हो रही है। लखनऊ के 27 फीसदी और पटना के 13 फीसदी युवा ऐसे मिले जो अब तक के जीवन में यौन संतुष्टि के लिए तीन से पांच बार तक वेश्याओं से यौन संपर्क साध चुके थे। पटना के 31 फीसदी, लखनऊ के 18 फीसदी, चंडीगढ़ के 22 फीसदी और गुडग़ांव के 23 फीसदी पुरुषों का मानना है कि यौन संतुष्टि के लिए ओरल-सेक्स बेहद जरूरी है। जबकि इन सभी शहरों में गैरजरूरी मानने वाले पुरुषों की संख्या 15 से 21 फीसदी के दरम्यान मिली। परिवर्तन की इस गति में सही मन:स्थिति की दुरुस्त तस्वीर हासिल करने के लिए आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण के तहत 24 से 34 साल के पुरुषों से महिलाओं के प्रति, खासतौर पर महिलाओं के साथ यौन संबंधों की बाबत, ढेरों सवाल पूछे गए। ऐसे में एक सवाल मौजूं है कि आखिर इस यौन सर्वेक्षण का मकसद क्या है। जवाब है, इस आयु वर्ग की यौन संबंधी बदलती सोच करवट लेते भारत के लिए खास मायने रखती है। जाहिर है, यही तबका आने वाले भारत की संतति और गढ़ते समाज के सामाजिक मूल्यों को नए सिरे से परिभाषित करने जा रहा है। खास बात तो यह है कि इस सर्वेक्षण में उन युवाओं की बदलती मानसिकता को समझने की कोशिश की गई है जो समाज की चकाचौंध के हिस्से नहीं हैं। जो मेहनती सफेदपोश हैं और जिनकी तस्वीरें सड़कों के किनारे खड़े दानवाकार होर्डिंग्स में नहीं झलकती। जो गलियों में चाय की दुकान चलाते हैं, ट्यूशन पढ़ा कर परिवार चलाते हैं। यूं कहें कि रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी-छोटी ख्वाहिशों को हासिल करने के लिए जी भर मशक्कत करते हैं। थक कर सो जाते हैं। इसके बावजूद सपने देखते हैं, दबाते-सकुचाते समाज की बाबत बेहतरीन समझ रखते हैं। सर्वेक्षण में शामिल युवा यह भी बताते हैं कि परंपरागत समाज के मूल्यों की चहारदीवारी में कहां और किस हद तक दरकन पैदा हो चुकी है। मूल्यों में इन परिवर्तनों की स्वीकृति के मानक क्या हैं? कोई विवाद नहीं कि सर्वेक्षण में शामिल आयु वर्ग के युवा पुरुष बदलते भारत में शहरीकरण के विस्फोट के बीच परिपक्व हुए हैं। उन्होंने परंपरागत सामाजिक मूल्यों को ढहते और रिश्तों की परिभाषा को नया अर्थ पाते हुए देखा और महसूस किया है। इनके पास निजस्वता है। जानकारी के लिए, सर्वेक्षण देश के दस शहरों में हुआ पर हम आंकड़े और नतीजे उन चार मुख्य शहरों के दे रहे हैं जो हिंदी मानस के राज्यों में स्थित हैं। इनमें परिवर्तन और जकडऩ की कसक कहीं ज्यादा तीखी है। कहावत है कि सिर्फ शहर ही नहीं बदलते, इंसान भी बदलते हैं। यह बात झलकती है इंसानी रिश्तों में। सर्वेक्षण नतीजे बताते हैं कि बदलाव की यह बयार अब सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं रही, जमीनी स्तर पर भी रिश्तों के प्रति सोच में परिवर्तन साफ नजर आ रहा है। खासतौर पर पुरुष और स्त्री के रिश्तों में, यौन संबंधों में। एक परंपरावादी समाज में बदलाव की इस बयार का रुख साफ होने जा रहा है आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण में।

यौन सर्वेक्षण कैसे, कहां और किनके बीच

आउटलुक पत्रिका ने प्रमुख शोध संगठन एमडीआरए के साथ मिलकर गुडग़ांव, चंडीगढ़, लखनऊ, अहमदाबाद, पटना, नागपुर, गुवाहाटी, हैदराबाद, बेंगलुरू और कोच्चि शहर के 24 से 34 साल की उम्र वाले आधुनिक और शिक्षित शहरी पुरुषों के बीच यौन सर्वेक्षण किया। मुकम्मल नतीजे पाने के लिए एस-3 नियम का कड़ाई से पालन किया। एस-3 यानि नमूने का आकार , फैलाव और चयन । नतीजों में आग्रह न दिखे, इसके लिए लक्षित वर्ग के बीच से औचक तौर पर नमूने उठाए गए। लक्षित वर्ग के पुरुषों से सवाल पूछने के लिए टीम के सदस्यों को खासतौर पर प्रशिक्षित किया गया और सवालों के जवाब आमने-सामने की बातचीत से जुटाए गए। सर्वे अभियान 14 से 23 नवंबर 2009 के बीच इन शहरों में चला। नतीजतन हमें गैरमहानगरीय शहरों के पुरुषों की सोच की व्यापक तस्वीर हासिल हो सकी। सर्वे में 24 से 27 वर्ष के शामिल शहरी पुरुषों का प्रतिशत 31.2, 28 से 30 उम्र के 30.6 और 31 से 34 आयु वर्ग के 38.2 है। इनमें संयुक्त परिवार के 65.5 और एकल परिवार के 34.5 फीसदी पुरुष थे। सर्वे की व्यापकता को विस्तृत करने के लिए इन पुरुषों में से 64.2 फीसदी शहरी युवा ऐसे थे जिनकी कोई संतान नहीं थी वहीं 33 फीसदी पुरुष एक से दो बच्चों के पिता थे। जबकि दो संतानों से अधिक वाले पुरुषों का प्रतिनिधित्व 2.8 फीसदी रहा। वहीं, पत्नी के साथ रह रहे शादीशुदा पुरुषों का प्रतिनिधित्व इस सर्वे में 48.9, शादीशुदा पर एकाकी रह रहे शहरी पुरुष 3.8 फीसदी अविवाहित पर एक महिला दोस्त के प्रति समर्पित 17.7 फीसदी शहरी पुरुष और अविवाहित एवं बिना महिला दोस्त के पुरुषों का प्रतिनिधित्व 29.6 है। बावजूद सभी सावधानियों के सर्वे के नतीजों में +2.97 फीसदी की त्रुटि संभव है।
(साभार)

गोवा की संस्कृति खतरे में

Posted By Geetashree On 7:05 AM 1 comments

गोवा ही करता रहेगा मेजबानी

अभिनेत्री नंदिता दास ने उबाल खाकर बयान दिया कि एक ना एक दिन अपना फिल्म समारोह विश्वस्तर का जरुर हो जाएगा। काफी हद तक सचाई बयान कर गईं। जिस तरह से फिल्म समारोह निदेशालय और गोवा इंटरटेनमेंट सोसाइटी के बीच तालमेल हुआ वो एक अच्छे भविष्य की उम्मीद जताता है। पिछले साल तक दोनों के बीच टसल चलता रहा और श्रेय लेने की जो एक दूसरे से होड़ चलती रही उससे समारोह की गुणवत्ता पर फर्क पड़ता नजर आया था। इस बार लगता है दोनों में बेहतर समझदारी पैदा हुई है. गोवा में फिल्म प्रेमियों के लिए तमाम मुश्किलों के बाबजूद समारोह यहां बना रहेगा। फिलहाल केंदेर सरकार गोवा को ही स्थाई वेन्यु मान रही है. जब समारोह को गोवा लाने का फैसला किया गया था तब केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार थी। निदेशालय को इस बात का अहसास है कि गोवा की वजह से नेशनल मीडिया दूर हो गया है। इस शहर में विश्व स्तरीय सुविधाओं की कमी है, खर्चीला है। निदेशालय के एक सूत्र ने बताया कि फिलहाल गोवा पर कोई पुर्नविचार संभव नहीं है.जगह बदलना जरुरी होते हुए भी कोई सरकार एक अलोकप्रिय फैसला नहीं लेना चाहती। हालांकि कैबिनेट जब चाहे जगह बदलने का फैसला ले सकती है। लेकिन अब बात सरकार के हाथ से निकल चुकी है क्योंकि कई साल हो गए और दुनिया भर में कांस की तरह गोवा की छवि भी बनती जा रही है।
लेकिन गोवन नाराज हैं। उन्हें अपनी संस्कृति खतरे में पड़ी नजर आ रही है। वे मानते हैं कि लोकल लोगो की जानबूझ कर उपेक्षा की जा रही है क्योंकि ये दिल्ली-तमाशा है। जेरी फर्नांडिस ने तो लोकल अखबार में पत्र लिख कर गोवन लोगो की तरफ से गुस्सा जता दिया है। हालांकि इस साल लोकल लोगो ने जमकर फिल्में देखीं। हर बार उन्हें पास बनवाने में दिक्कत होती थी। इस बार सहूलियत थी। समारोह के बीच भी पास बनावने की सुविधा थी। टेनशन लेने का नहीं देने का...नारा देने वाले गोवन लोग इस बार इफ्फी को लेकर टेनशन में दिखें।
पंजिम के रहने वाले जेरी फर्नांडिज का गुस्सा फूटा कि गोवन लोग संगीत प्रेमी हैं फिल्म प्रेमी नहीं। उन्हें दुनिया भर के संगीत की समझ है, फिल्म की नहीं। उन पर फिल्म सामरोह क्यों थोपा जा रहा है। उन्हें लगता है कि समारोह में सिर्फ आर्ट फिल्में ही आती हैं।
जेरी पूछते हैं-फिल्म समारोह से गोवा को क्या लाभ। इससे हमारी संस्कृति खतरें में पड़ जाएगी। अगर से ही आयोजित होता रहा तो हम लोकल लोग अपना सपोर्ट बंद कर देंगे। उनका गुस्सा इस बात पर भी है कि गोवा के मशहूर गायको, रेमो, हेमा सरदेसाई, आलीवर सीन को ना उदघाटन में ना समापन समारोह में बुलाया जाता है। उनकी जानबूझ कर उपेक्षा की जाती है। गोवा के लोगो का ताजा गुस्सा इस बात पर भी है कि कोंकणी फिल्मकार को रेड कारपेट वेलकम का आफर देर से मिला जब उनकी फिल्म को देश से बाहर सम्मान मिला। फिल्मकार ने वेलकम लेने ले इनकार कर दिया। अखबारो में यह खबर प्रमुखता से छपी।
गोवा को खतरा अपनों से नहीं, ड्रग माफिया से होना चाहिए...टूरिज्म से होना चाहिए जो अपने साथ ढेर सारी बुराईया लेकर इलाके में अड्डे जमा चुकी है। जिन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त है। इस पर बात फिर कभी...फिलहाल समारोह समाप्त...लहरें उसी गति से उठ गिर रही हैं...

पैशन आफ लाइफ

Posted By Geetashree On 12:28 AM 5 comments

गोवा में अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह में अबकि कई फिल्में देर तक याद रह जाने वाली हैं। वे आपके जेहन में घुस कर बैठ गई हैं, जैसे मेरे। मैं दिल्ली लौट आई मगर उनके किरदार मेरे जेहन में कुबुला रहे हैं। शायद मैं लंबे समय तक इन्हें झटक नहीं पाऊंगी। हमें शायद अपनी भारतीय संवेदना और भावुकता पर बड़ा नाज है। रिश्तो की भी हमारी जमीन बड़ी पुख्ता है। इन मूल्यों के कारण ही हम अपनी पीठ थपथपाते हैं और खुद को पश्चिम से अलग कर लेते हैं. उनकी फिल्मों को देखा तो कई चीजें साफ हुईं। पश्चिमी समाज सेक्स से ऊब गया है और उन मूल्यों की तलाश में है, जो उनके भीतर का भय दूर कर दे, जो उन्हें खुद से मिला दे। वे प्रेम और सेक्स को अलग अलग करके देखना सीख रहे हैं। उन्हें अब रिश्तों की गरमाई चाहिए, जिसमें अपने दर्द सेंक सकें। मैं दो फिल्मों का विशेष तौर पर यहां जिक्र करने वाली हूं, जिसने मुझे छू लिया। पैशन आफ लाइफ(जर्मनी) और बेस्ट आफ टाइम(थाईलैंड)।

पैशन..के शो से पहले इसके डायरेक्टर हाल में आए और कहा कि यह फिल्म थोड़ी जटिल है। आपको समझने में मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन एक गांठ खुल गई तो आप सहज हो जाएंगे। वही हुआ..फिल्म ज्यों ज्यों आगे बढती रही..उलझाती रही..सुलझाती रही..गांठे बनती और खुलती रहीं। पूरी फिल्म एक औरत के आवेग की कहानी है। वह अपनी सेक्सुआलिटी की खोज में लगी है, पूरे आवेग के साथ। वह प्रेम और सेक्स को अलग रखती है। वह सेक्स के जरिए प्रेम नहीं पाना चाहती। इसके जरिए अपने करीब आए पुरुष को ठुकरा देती है। यहां पर एक थ्योरी पलट जाती है कि औरत सेक्स करती है प्यार पाने के लिए...। नायिका प्रेम की तलाश में नहीं है..वह अपनी कामनाओं की खोज में है। इस खोज में वह यूरोटिक पार्लर में जाकर हर तरह के प्रयोग कर डालती है और अंत में कामुकता के आवेग में आकर वहीं एक नंगी नर्तकी (स्ट्रिपर) होकर रह जाती है।

फिल्म और भी कुंठा के मारे किरदार हैं। सबको अपनी तलाश है। सबके भीतर भय है। कुछ किरदार अपने कंधे पर अपना सलीब ढो रहे हैं। मन की गुप्त इच्छाओं और समाज के बनाए दोहरे मानदंडो के बीच निरंतर संर्घष चल रहा है। लेडी मारिया इन सबकी मार्गदर्शक हैं। सोशियोलाजिस्ट की भूमिका में।

सेक्स और लव दो अलग अलग चीजें हैं। सेक्सुआलिटि ही इनसान की असली पहचान होती है। शर्म एक किस्म का भय होता है। पाप की अवधारणा नैतिकतावादियों की देन है जो नहीं चाहते कि लोग अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी जिएं। जर्मनी की फिल्म पैशन आफ लाइफ(निर्देशक..रोनाल्ड रेबर) फिल्म की नायिका अपने ग्राहको को ट्रेंड करने से पहले सेक्स, जीवन, रिश्ते और प्रेम के बारे में साफ साफ समझाती है। समारोह में इन दिनों जितनी फिल्में आई हैं उन्हें देखकर दुनिया के रुझान का पता चलता है। सेक्स से ऊबा पश्चिमी समाज अब रिश्तों के तार सुलझाने और समझने, समझाने में लगा है। शायद इसीलिए रिश्तों पर केंद्रित फिल्मों की भरमार रही इस बार। ये फिल्में नकली वातावरण से ऊबकर जिंदगी के आम समस्याओं से जूझती दिखाई देती हैं। आम आदमी की जिंदगी को किस तरह सिनेमा में बदल दिया जा रहा है इसका उदाहरण कई फिल्में हैं।
थाईलैंड की फिल्म बेस्ट आफ टाइम भी दो अकेले इनसानों की जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती हुई एक नया रिश्ता कायम करने की जद्दोजहद में दिखाई देती है। रिश्तों का महाकाव्य रचती हुई इन फिल्मों में सिर्फ प्रेम की तलाश है। खुद के नए सिरे से तलाशने में जुटे दो अलग किस्म के लोग अपनी मर्जी का रिश्ता टटोल रहे हैं, जहां है उनकी चुनी और बनाई हुई दुनिया, उसके लोग और अर्जित की हुई आजादी। पैशन ाफ लाइफ की नायिका एक जगह स्वीकारती है कि वह कभी कभी खुद को बुद्द की तरह पाती है जो भोग में लिप्त हैं और एक दिन उसे उसकी आंख खुलती है तो वह यथार्थ से टकराता है। नायिका जानती हा कि वह जिस सेक्सुआलिटि की खोज में भाग रही है उससे एक दिन उसका भी मोह भंग होना है। वही होता भी है और उसका जीवन यथार्थ की फंतासी में उलझ कर रह जाता है।

जर्मनी की एक और फिल्म विदाउट यू आई एम नथिंग(निर्देशक..फ्लोरियन ईशिंगर) में एक २५ वर्षीय नायक की मुलाकात आठ साल के अलगाव के बाद अपने पिता से होती है। लेकिन पिता अपनी युवा प्रेमिका के चक्कर में आकर बदल चुका है। बेटा इस बदलाव को महसूस करता है। उसी समय पिता की प्रेमिका पिता-पुत्र के संबंधों में झांकने की कोशिश करती है। शायद इसके जरिए वह कोई ठोस रिश्ते की तरफ पहुंचना चाहती है। लेकिन संबंधों की तरफ जाने वाला यह असहज रास्ता उनमें से प्रत्येक को गहरे गर्त में ले जाता है।

विवादो के साए में उत्सव

Posted By Geetashree On 12:14 AM 1 comments
इस साल अपनी उम्र के चालीसवें साल में प्रवेश कर गया अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह लेकिन विवादों ने अभी तक इसका दामन नहीं छोड़ा है। अभी तक इस पर अपरिपक्व होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। समारोह में शामिल कुछ महत्वपूर्ण हस्तियों को यह आशंका सता रही है कि कहीं आने वाले दिनों में इंटरनेशनल समारोह गोवा के स्थानीय फिल्म समारोह में बदल कर ना रह जाए।
अभिनेत्री नंदिता दास बहुत कुछ बोल गईं। उनकी फिल्म फिराक बिना इंगलिश सबटाइटिल के दिखाई गई और उन्हें सवाल जवाब का सत्र भी नहीं दिया गया बस आयोजको के गैर पेशेवाराना रवैये पर उनका पारा चढ गया। फिर क्या था। अनौपचारिक बातचीत में उनका गुस्सा खूब छलका। नंदिता ने कहा कि इफ्फी को आने वाले दिनों में विश्वस्तरीय समारोह की तरह बनना होगा। नहीं तो कोई छवि नहीं बन पाएगी। समारोह में उम्मीद की जाती है कि विश्व सिनेमा की महान हस्तियां समारोह स्थल पर दिखेंगी। दुनिया के सभी कोनो से महान फिल्में देखने को मिलेंगी।

दोनों बाते सच हैं। एक तो विश्व सिनेमा खंड मे फिल्मों के चयन को लेकर खूब सवाल उठाए गए वहीं समारोह में ज्यादातर बौद्धिक किस्म के सितारों का जमावड़ा लगा। जिनकी फिल्में अच्छी तो होती है मगर उनका कोई स्टार वैल्यु नहीं. फिल्म समारोह निदेशालय के डायरेक्टर एसएम खान भी सितारो की गैर मौजूदगी को स्वीकारते हुए तर्क देते हैं, यहां वहीं सितारे आते हैं जिनकी फिल्म होती है या जिन्हें बुलाया जाता है। महज घूमने के लिए व्यस्त सितारे नहीं आते हैं।

समारोह के साथ विवादो की लंबी सूची है। एक मामला अभी तक दिल्ली हाईकोर्ट में पेंडिग है। भारतीय पैनोरमा के एक ज्यूरी सदस्य का आयोजकों से अपमानित होने से मामला तूल पकड़ गया। जूरी के एक सदस्य, वरिष्ठ पत्रकार गौतमन भास्करन ने फिल्मों के चयन प्रक्रिया पर आरोप जड़ा कि जूरी के कई सदस्य फिल्मों के चयन के वक्त मौजूद नहीं थे। उनका इशारा मुजफ्फरअली और बाबी बेदी की तरफ था. गौतमन ने खफा होकर चयनित फिल्मों की सूची एक वेबसाइट पर लीक कर दी। यहां से वबाल शुरु हो गया। मलयाली फिल्मकार सुजित ने निदेशालय पर दिल्ली हाईकोर्ट में केस कर दिया कि दक्षिण के फिल्मकारों के साथ नाइंसाफी हुई है और बंगाली फिल्में ज्यादा चुनी गई हैं। कोर्ट ने फिल्मों की सूची जारी करने से मना कर दिया।

समारोह
जब करीब आया तो निदेशालय ने कोर्ट से अपील कर सूची खुद नहीं बल्कि प्रेस इनफामेर्शन ब्यूरो से जारी करवा दिया। आमतौर पर निदेशालय यह खुद ही जारी करता है। इस लड़ाई की छाया समारोह में इस कदर पड़ी कि भारतीय पैनोरमा के सभी जूरी सदस्य का परिचय कराया गया और गौतमन का नाम नहीं लिया गया। ना ही उन्हें कोई सुविधा दी गई. गौतमन ने जब बवाल मचाया तो उन्हें दो टूक जवाब मिला कि कोर्ट ने आपको समारोह से अलग रखने को कहा है। इधर गौतम कहते रहे यह सरासर झूठ है।

मां बनिए या फाइटर पायलट

Posted By Geetashree On 8:51 PM 14 comments
गीताश्री
पुरुषवादी सोच का फरमान आ चुका है...अगर मां बनना है तो फाइटर प्लेन उड़ाने का सपना भूल जाइए। वायु सेना महिलाओ को फाइटर पायलट बनाने की योजना पर विचार तो कर रही है लेकिन सशर्त्त। इसमें शर्त्त ये है कि यह मौका उन्हीं महिलाओं को मिलेगा जो एक तय उम्र तक मां बनेगी। यानी पारिवारिक दायित्वों के कारण महिलाओं को युध्दक विमान उड़ाने की फिलहाल अनुमति देने को वायुसेना तैयार नहीं है। भारतीय वायुसेना के उप प्रमुख एयर मार्शल पीके बारबोरा ने कहा है कि अगले कुथ सालों में हम यह परिवर्तन देखेंगे महिलाए फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं, लेकिन उन्हें एक शर्त्त माननी पड़ेगी। वो शर्त्त है...महिलाएं शादी तो कर सकती हैं लेकिन मां नहीं बन सकतीं। वायुसेना में 13-14 साल तक नौकरी कर लेने के बाद ही मां बनने की इजाजत होगी। यानी अपनी नौकरी पूरी कर लें फिर चाहे मां बनती रहें। सेवा में रहते उन्हें ये सौभाग्य नहीं मिलेगा।

कैसा संयोग है कि यह बयान तब आया है जब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल सुखोई विमान में उड़ान भरने जा रही हैं। इसके साथ ही वे इतिहास में दर्ज हो जाएंगी। वे जंगी जहाज में उड़ान भरने वाली दुनिया की पहली महिला राष्ट्राध्यक्ष होंगी।

उसी देश में महिलाओं को फाइटर पायलट बनने की राह में कितने रोड़े अटकाए जा रहे हैं..देखिए..यहां औरत की कोख पर बवाल है। मार्शल का तर्क है कि एक महिला को फाइटर पायलट बनाने में लगभग 11 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। अगर वे बीत में ही मां बन गई तो उनकी कार्य क्षमता पर असर पड़ेगा और उन पर खर्च किए गए रुपये बेकार हो जाएंगे। जाहिर है बच्चा पैदा करनें में जो समय लगेगा वो उससे लंबा गैप आएगा। ये दिन तो हर कामकाजी महिला के जीवन में आता है। क्या सभी नौकरियों में एसी शर्त्ते रखी जाएंगी। देखा जाए तो नुकसान हर संस्थान को होता है तो क्या महिलाएं मां बनना छोड़ दें। भाई साहब..अब कोख पर तो पहरे ना लगाइए।

कुछ महिला संगठनों ने इस पर आपत्ति जताई कि महिलाओं को लैंगिक भेदभाव के कारण लड़ाकू विमान नहीं उड़ाने दिया जाता है। इस पर मार्शल साहब बेहद तल्ख हो उठे। उनका बयान सुनिए...महिलाओं की प्रकृति कुछ अलग होती है। उन्हें पारिवारिक जीवन में प्रवेश के बाद 10 से 12 महीने तक मातृत्व अवकाश की जरुरत पड़ती है। इसीलिए उन्हें बतौर पायलट ट्रेंड करना लाभकारी नहीं है। दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं की उपयोगिता भरपूर है तो फिर एसी जगह पर उन्हें क्यों जाना चाहिए, जहां उन पर खर्च कर तुलना में उनका उपयोग न हो पाए।

इनके मुताबिक महिलाओं को पारंपरिक क्षेत्रों में ही काम करना चाहिए। जोखिम वाले इलाके पुरुषों की बपौती है। उनके गढ में प्रवेश करने से क्या उनका वर्चस्व टूट जाएगा या इसके पीछे सचमुच कोई वाजिब चिंता है। चिंता जो साफ दिख रही है वो है पैसे की। ट्रेनिंग पर खर्च होने वाले पैसों की...मां बनना तो किसी भी औरत का अपना फैसला होता है। चाहे वह नौकरी करें या ना करें। आप थोप नहीं सकते। ये मामला स्वैच्छिक होता तो बात कुछ और होती। जैसे आज बहुत सी औरतें करियर को ध्यान में रख कर मां नहीं बनना चाहतीं। ये उनकी मर्जी। ना वहां जोर चलाएं ना यहां चलाएं।

जब पाकिस्तान जैसे दकियानूसी मुल्क में महिलाएं फाइटर पायलट हैं तो हमारे यहां एसी सोच क्यों। पाकिस्तान समेत दुनिया के पांच मुल्को में महिलाएं फाइटर पायलट हैं। मुझे नहीं लगता कि वहां एसा कोई बवाल है। मैं अभी इस विषय पर काम करुंगी ताकि पता चले कि इंगलैंड, अमरीका ने आखिर महिलाओं से क्या कुर्बानी ली है बदले में।

कुछ साल पहले हमने महिलाओं को सामाजिक पहलुओं के बारे में सोच कर वार में नहीं भेजने का फैसला किया था। क्योंकि वार के दौरान बंदी होने की संभावना होती है फिर उनके साथ महिला होने के कारण क्या व्यवहार होगा वो चिंताजनक बात थी। बाद में इस चिंता पर भी काबू पा लिया गया। आखिर देह की वजह से कबतक महिलाओं को वंचित और अपमानित होते रहना पड़ेगा।

अभी मन में बेहद आक्रोश हैं...कई तरह के सवाल हैं...मैं अभी ठीक से खुद को व्यक्त नहीं कर पा रही हूं..चाहती हूं आप सब इस बहस में हिस्सा लें..अपनी राय दें...क्या महिलाएं सुन रही है....कुछ बोलिए...

प्रेम में वासना

Posted By Geetashree On 11:24 PM 9 comments
कृष्ण बिहारी
मैं
इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि प्रेम में वासना का कोई स्थान नहीं है. मैं न स्वयं से झूठ बोल सकता हूं और न दूसरों से. प्रेम में आदर्श और अशरीरी जैसी स्थिति की जो लोग वकालत करते हैं, वह मेरी समझ में केवल लाचारी है. हमारे देश में चूंकि प्रेम को लेकर समाज स्त्री- पुरूष की सोच में बंटा हुआ है और स्त्री आज भी यह कह पाने की स्वतंत्र स्थिति में नहीं है कि उसने अपने प्रेमी के साथ जिस्म शेयर किया है. इसलिए वह ज़ोर देकर झूठ बोलती है कि प्रेम में शरीर की मांग बेमानी है. वह डरती है कि यदि उसने शरीर के सच को स्वीकार किया तो उसका भविष्य नष्ट हो जाएगा.
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क्या पुरुष दाता है और स्त्री याचक

Posted By Geetashree On 9:46 PM 19 comments
गीताश्री

लव गुरु की प्रेमिका का महान लेख मेरे सामने हैं। इनके ब्लाग और एक अखबार में छपा हुआ। तमाम महिला संगठनो और महिला आंदोलनो को मुंह चिढाता हुआ. उसे व्यर्थ साबित करने पर आमादा। स्त्रियों ने अपने अधिकारो के लिए अब तक जितनी लड़ाईंयां लडी और सशक्तिकरण का अधूरा-सा ही सही, लक्ष्य हासिल किया, उसपर सवाल खड़े कर दिए। मेरे समेत तमाम महिलाओं के होठो पर एक सवाल खौल रहा है..कि ये कौन बोल रहा है उनकी जुबान से। कौन है जो उनके भीतर पुरुष भाव बन बैठ गया है। कौन है जो एक स्त्री को महिला संगठनो को अप्राकृतिक घटना मानने पर विवश कर रहा है और उसकी असफलता के लिए बददुआएं दे रहा है। कोई तो हैं इसके पीछे। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन छिप कर वार कर रहा है, अपनी ही छाया से छाया-युद्द के लिए तैयार कर रहा है। इनके बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि हे महिलाओं इन्हे माफ करना कि ये नहीं जानती ये क्या कर गई है। ये कहना जरुरी है कि ये जानती हैं कि उनसे क्या लिखवा लिया गया है। अभी जिस फंतासी में ये जी रही है वहां पुरुषों का महिमा गान अनिवार्य है। इनके पास उपाय क्या है। कहां जाएंगी..क्या करेंगी। दूसरी महिला का हक छिनने वाली सित्रयां हमेशा पुरुषो की भाषा बोलती हुई पाई गई हैं। इस अंधेरे और क्रूर समय में जहां स्त्री के लिए उजाला अब भी एक उम्मीद की तरह है...एसे में कोई स्त्री अपनी ही बिरादरी की अस्मिता को कैसे नकार सकती है। हैरानी के सिवा क्या किया जा सकता है। अब इनकी बातें सुनिए....ये कहती हैं, पुरुष वीर्यदान करता है और स्त्री उसे ग्रहण करती है। ये कैसी आत्मस्वीकारोक्ति है...क्या कोई स्वाभिमानी स्त्री इनकी इस स्थापना को स्वीकार कर पाएगी। कभी नहीं...तब तो बलात्कार करने वाला पुरुष भी इनके हिसाब से वीर्य दान करता है और लड़कियों को चुपचाप उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए। हाय तौबा मचाने की क्या जरुरत। इनकी नजर में स्त्री- पुरुष का यही पारंपरिक रिश्ता है। एक सवाल पूछना चाहती हूं कि क्या कभी कोई पुरुष प्लान करके वीर्य दान करने चला है क्या। क्या स्त्री याचक है...पुरुष कर्ण की तरह दानवीर। कर्ण जैसे बड़े बड़े दानवीर भी बिना मांगे दान नहीं देते। फिर ये पुरुष किस स्त्री से पूछ कर अपनी वीर्य दानदिया। ये दान है या स्त्रियों को गटर समझ कर उड़ेल दिया गया कचरा है,कुंठा है, राहत है, आंनंद है, शरीर का वो तत्व है जिसकी नियती प्रवाहित होना है... ये पुरुष कब से दाता हो गए। क्या औरते उनसे उनका कचरा मांगने याचक की मुद्रा में खड़ी है..कहीं दिखती हैं क्या।ये स्त्री-पुरुष के बीच दाता और याचक का रिश्ता कौन बना रहा है। कौन दे रहा है अपनी नई स्थापनाएं। कवि राजकमल चौधरी का एक वक्तव्य यहां लिखना जरुरी है। वह लिखते हैं...स्त्री का शरीर बहुत स्वास्थ्यप्रद है। लेकिन कविता के लिए नहीं, संभोग करने के लिए। स्त्री शरीर को राजनीतिज्ञों,सेठो, बनियों और इनके प्रचारको ने अपना हथियार बनाया है, हमलोगो को अपना क्रीतदास बनाए रखने के लिए.... राजकमल जी बहुत साल पहले कैसी नंगी सचाई लिख गए हैं..पढिए। स्त्री शरीर को एसा स्टोरेज मत बनाए कि कई बार जबरन उड़ेला गया कचरा भी ग्रहण करने के भाव से कबूल किया जाए। आगे मैं राजकमलजी के स्त्री के बारे में और भी बयान लिखने वाली हूं..ताकि पता चले कि पुरुष क्या सोचते हैं। बेहतर होता कि पुरुषों को हितैषी बताने वाले वक्तव्य देने से पहले कुछ महान लोगो के विचार पढ लिए जाते। उदाहरण और भी हैं...

क्या एक पुरुष के प्रति अगाध प्रेम एक स्त्री को घोर स्त्री विरोधी बना देता है। यही तो पुरुषो की चाल है...वह प्रेम करता है स्त्री को पाने के लिए, उस पर आधिपत्य जमाने के लिए..स्त्री सदियों से उसकी चाल नहीं समझ रही है और शिकार हो रही है। स्त्री के धड़ पर कई पुरुष चेहरे इन दिनों दिखने लगे हैं...अब आवाज भी भारी हो गई है। ये एक स्त्रीद्रोही मुद्रा है। आप महिला संगठन में शामिल ना होइए..आंदोलन ना चलाइए...मगर आप सालों के संघर्ष पर ऊंगली ना उठाइए। आप क्या जाने कि इस लड़ाई में कितनी महिलाओं ने अपना सबकुछ छोड़ा, सुरक्षा और सुविधाओं का लालच छोड़ा, आवाजे बुलंद की तब जाकर आधी आबादी ने सम्मान से सिर उठाना शुरु किया।


स्त्री स्वाधीनता का क्या अर्थ है इनके लिए नहीं, लेख से पता नहीं चलता। ये पुरुष के दिमाग से सोचने वाली लेखिकाएं नहीं जानतीं। क्योंकि खुद वे अपना मन भी नहीं जानती कि वो क्या चाहता है। उनका हाथ थामे कोई आगे आगे चल रहा है, जो उसे डिक्टेट भी कर रहा है...अपना मन तो बहुत पीछे छूट गया है। राजकमल जी के आईने में ही देखें तो इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि स्त्री स्वाधीनता का अर्थ है स्त्री जिस पारंपरिक संबंध को निभा रही है उससे मुक्त हो। ये मुक्ति कैसे संभव है। उसे सबसे पहले अपने लिए जीना होगा ना। स्वंय को कामना की वस्तु बनाए रखने के जतन करने में उम्र गुजारने वाली औरतो से क्या उम्मीद की जाए। पुरुष को तो वहीं स्त्री पसंद है जो आसानी से उसकी अधीनता स्वीकार कर ले।लेखिका जिसे दान कह रही हैं, वो पुरुषो की भाषा है। पुरुष की असली भाषासुनना हो तो राजकमल को पढा जाना चाहिए। वे जैसे नशा लेते हैं वैसे ही औरत लेते हैं। वे लेते हैं...देते नहीं। गौर फरमाए... भाषा को ध्यान से सुनिए...डिक्टेशन से ध्यान हटा कर। आदिम संबंधों में दान पुण्य जैसी कोई भावना नहीं होती। वहां आनंद का खेल है..एक दूसरे को परास्त करने और स्त्री को दमित करने का खेल.. यहीं से स्त्री को गुलाम बनाए रखने का कुचक्र शुरु होता है। स्त्री समझ नहीं पाती..वह याचक होने के आंनंद में डूब कर दानी के दर्शन कर धन्य हो जाती है। लेखिका ने जो कुछ भी कहा लिखा है वो एक मामूली सा सच है। अभी राजकमल का उल्लेख कर रही हूं. इनसे आगे पीछे जाने में बहस लंबी हो सकती है। सोउन्ही का कहा सामने रख कर अपनी बात समाप्त करती हूं....कोई भी मामूली-सा सच कह लेने के बाद खुश हो कर, निवृत्त होकर, औरतें शरमाती है..यह शर्म गलत नहीं है। लेकिन कविता नहीं है। एसी शर्म में सुंदरता नहीं होती, एक हल्के किस्म का नंगापन होता है। लेकिन अपना नंगापन कह लेने के बाद वे या तो फिर सिर झुका कर फैसले की प्रतीक्षा करने लगती है या फिर अपनी जीत का एलान करके वहां से चली जाती हैं। फिर कभी वापस आने के लिए। वापस जाना स्त्रियो की विवशता है।

स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानने वाले लोग किस मानसिकता में जी रहे हैं। क्या ये कोई वस्तुएं हैं जो बिना एक दूसरे के पूरी नहीं होंगी। वे दिन गए जब पूरक और अन्योनाश्रय संबंध वाली बातें की जाती थीं। ये अवधारणा भी मर्दवादियों की फैलाई हुई है। एसा नहीं कहेंगे तो स्त्री में पूर्ण होने की ख्वाहिश कैसे जागेगी और वह फिर उनके चंगुल में आएगी। ये सब स्त्री को गुलाम बनाए रखने वाली अवधारणाएं हैं। कुछ मामले में मैं मान सकती हूं कि एक दूसरे का साथ बहुत जरुरी है...मगर एक दूसरे के बिना बात नहीं बनेगी ये बात पुराने प्रतीको की तरह ही बहुत पुरानी पड़ चुकी है।अगर एक दूसरे के बिना अधूरे हैं तो एसा मानने वालों को तर्क देकर, उदाहरण देकर बताना चाहिए कि कैसे और किस तरह अधूरे हैं। दुनिया भर में एसे उदाहरण भरे भरे हैं कि एक अकेली स्त्री भी अपनी दुनिया बना सकती है, जहां पुरुष का साथ उसे गुलाम नहीं बना सकता। कहा जा रहा है कि स्त्री-पुरुष आपसी लड़ाई में झुलस जाएंगे, पस्त हो जाएंगे। एसा नहीं हुआ अब तक ना आगे होगा। अपनी चहारदीवारी से बाहर निकल कर जरुर झांकना चाहिए। इस निर्णायक लड़ाई ने दुनिया की सूरत कितनी बदल दी। ये लड़ाई किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं है। ये लड़ाई प्रवृत्ति के खिलाफ है, उस मानसिकता के खिलाफ है जो औरतो को गुलाम बनाए रखने की हिमायत करती है। जब लक्ष्य पवित्र हो, सामने हो, तो कोई झुलसता नहीं। हौसले पस्त नहीं होते। हौसलो का जो सिलसिला शुरु होता है उसकी धमक कई पीढियों तक जाती है। तभी विरासत में आजादी भी हासिल होती है। जैसे अंधड़ में जंग लगे दरवाजे भी भरभरा कर खुल जाते हैं, उसी तरह ये लड़ाई भी बंद दरवाजो और खिड़कियों के सांकल खोल देती है। साहस पूर्वक वह एक आजाद दुनिया की दहलीज पर पैर रखती है...देवी की छवि से मुक्त होकर वह साथी बनती हुई दिखती है। जिस घरेलु हिंसा का हवाला दिया गया है वो गलत है। कुछ केस इस तरह के आए हैं जिसमें ऊपरी तौर पर एसा लगता है कि घरेलु हिंसा कानून का इस्तेमाल गलत किया गया है। मगर उसकी तह में जाए बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा। पता नहीं कैसे इन्हें पुरुष-प्रताड़ना का लंबा इतिहास दिख रहा है।ये इतिहास ज्ञान कितना छिछला है। एक तरफ पूरक होने की बात कही जा रही हैदूसरी तरफ कहा जा रहा है कि पुरुषत्व को स्त्रीत्व द्वारा ही पराजित किया जा सकता है। रणचंडी बन कर नहीं...स्त्री को कोमलता और सहिष्णुता बनाए रखनी चाहिए। ये जुबान किसी समकालीन स्त्री की नहीं हो सकती। ये डिक्टेशन का असर है। यहां स्त्रीत्व की परिभाषा स्पष्ट नहीं की गई है। कोमलता और सहिष्णुता तो सदियों से रही है फिर क्यों नहीं जीत पाए पुरुषत्व को। ना जाने कितने सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। खारिज करना बेहद आसान है, लड़ाई के पीछे छुपे दर्द को मर्दो के चश्मे से समझना बहुत मुश्किल।