मेरे शहर में मेरा बचपन
कृष्ण बिहारी
कानपुर, यह नाम यह संज्ञा मेरे लिए दूसरे नामों की तरह यह केवल एक नाम नहीं है और न दुनिया या हिन्दुस्तान के अन्य शहरों की तरह यह कोई शहर भर है. कानपुर वह शहर है जो मेरी सांसों में वैसे ही बसा है जैसे किसी आशिक के दिल में उसकी महबूबा. इसे ऐसे भी कह सकता हूं कि मेरे महबूब शहर का नाम कानपुर है. मैं इसका आशिक और इसकी महबूबा दोनों ही हूं. स्मृतियों में मिठास और दंश का विचित्र सा सम्मिश्रण होता है. यह शहर मुझे धक्के मार मारकर बाहर भगाता रहा है और मैं हूं कि हर बार लौट लौटकर इसके पास आता रहा हूं या शायद यह कि शहर मुझे बार बार अपने आगोश में बुलाता रहा है.
मगर अफसोस, रात दिन जागने वाले मेरे जिन्दा शहर को नेताओं और प्रशासन ने इस तरह मार डाला कि न अब यह जीने में है और न मरने में. जब मुम्बई को लोग आज की तरह जानते भी नहीं थे तब मेरा शहर हिन्दुस्तान का मेनचेस्टर कहलाता था. लोगों को रोजी रोटी देने वाला शहर परिवारों को जिलाने वाला मेरा शहर किसी कोरामिन की उम्मीद में सांस रोक रोककर जी रहा है. कि शायद कोई मसीहा उतर आए. कोई अवतार जन्म ले और इस शहर की किस्मत को भाग्योदय का नजारा देखने को मिले. उद्योग धंधे नेतागिरी लील गई और प्रशासन उन सुविधाओं को हजम कर गया जो आम लागों के लिए थीं. निर्भीक पत्रकार और देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी का यह शहर थानेदारों को सलाम करके खबर जुटाने वाले पत्रकारों और लुच्चई की राजनीति करने वाले गुण्डों का शहर होता गया. खैर जो है वह भी मेरा ही अपना है. बात को अगर एक सिरा दे दूं तो शायद बात बने.
होश संभालने की वह कोई ऐसी उमर भी नहीं थी जब तीन साल की अवस्था में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के गांव कुण्डाभरथ से इस शहर के सबसे साफ सुथरे इलाके अर्मापुर इस्टेट में मुझे बाबूजी ले आए. उस उमर में क्या पता चलता कि वहां कौन लोग रहते हैं और मैं कानपुर के किस विशिष्ट क्षेत्र में रहने लगा हूं. यह तो बहुत बाद में पता चला कि इस बस्ती में सरकार के सुरक्षा विभाग से जुड़े वे कर्मचारी और अफसर रहते है, जो आयुध निर्माणी और लघु अस्त्र निर्माणी कारखानों में काम करते हैं.
आर्म्स बनाने वाली फैक्ट्री के निवासियों की इस बस्ती का नाम भी आर्म्स से अर्मापुर पंडा. कर्मचारियों को पद के हिसाब से क्वार्टर मिले थे. बाबूजी न तो लेबर थे और न अधिकारी. स्टाफ में सबसे निचला दर्जा. काउण्टर का पद. इस हिसाब से उन्हें जो क्वार्टर मिला वह लेबर को ही मिलता था. आर टाइप 45. इस क्वार्टर में एक कमरा एक बरामदा और एक आंगन होता था. बरामदे में ही खाना बनाने के लिए रसोईघर की व्यवस्था करनी होती थी. नहाने और बाथरूम जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी.
एक लाइन में बारह क्वार्टर आगे और बारह उसके पीछे थे. दो लाइनों के दोनों सिरों पर सरकारी नल थे जिनसे पानी भरकर लोग अपने क्वार्टरों में रखते थे. क्वार्टर में आंगन के आगे मुख्य दरवाजा होता था, जिसके आगे बाहर की दुनिया थी. यूं तो इससे निचले दर्जों के भी क्वार्टर थे जिन्हें एस टाइप कहा जाता था.
एस टाइप में केवल एक कमरा और बहुत छोटा सा बराम्दा होता था. आर और एस टाइप के क्वार्टरों की कुल संख्या लगभग ढाई हजार थी. आज तक कहा जाता है कि अंगरेजों ने ये क्वार्टर अस्तबल के रूप में बनाए और इनमें घोड़े रहा करते थे.
आजादी के बाद इन क्वार्टरों को श्रमिकों को अलॉट किया गया और तब इनमें हिन्दुस्तानी गोरे साहबों के घोड़ेनुमा नौकर रहने लगे. इन क्वार्टरों के अलावा जो दूसरे टाइप के थे वे भी कई श्रेणियों के थे और पद के अनुकूल अलॉट किए गए थे. इस तरह कुल मिलाकर चार हजार से अधिक क्वार्टर थे जिनमें रहने वालों की संख्या लगभग पचीस हजार रही होगी. लेकिन इस स्थिति को क्या कहूं कि जहां श्रमिक अंग्रजों के बनवाए अस्तबलों में रहते थे वहीं उनके बंगलों में हिन्दुस्तानी गोरे अधिकारी रहने लगे. एक एक बंगला कई कई एकड़ में है.
खैर वक्त को क्राइटेरिया मानूं तो उस बस्ती में अमन चैन था. वातावरण गुलजार रहता था. अद्भुत् भाईचारा था. आज वही बस्ती भुतहे डेरे जैसी हो गई है. शायद मैं इसे आगे लिखूं. फिलहाल अभी तो यह कि जिस क्वार्टर में बाबूजी मुझे लाए थे उसके बाहर की दुनिया वह मेरे होने को बताने वाली मुझे बनाने वाली एक अलग किस्म की दुनिया थी.
आज बावन साल बाद जब मैं अपनी स्मृति से |
लेकिन इससे पहले कि मैं निर्मल की चाय की दूकान पर जाऊं दो काम रूटीन बन चुके थे, एक तो सुबह बिस्तर से उठते ही सुलेमान के घर जाना और उनकी अम्मी के सामने आंख मलते हुए बैठना. अम्मी चाय के साथ एक रोटी देतीं. उसे खाने के बाद घर आना.
दातून या मंजन करना भी जरूरी है यह बात उन दिनों कोई मायने नहीं रखती थी. सुलेमान का छोटा भाई उस्मान मेरी ही अवस्था का था लेकिन उससे कभी मेरी दोस्ती रही हो ऐसा याद नहीं पड़ता. आज बावन साल बाद जब मैं अपनी स्मृति से गुजर रहा हूं तो यह सोचने के लिए ठहर सा गया हूं कि क्या नियति ने ही यह तय कर रखा था कि अपनी उमर का बहुत सा हिस्सा मैं इस्लामिक मुल्क में गुजारूंगा.
जब पन्द्रह- बीस साल का ही था तो मुझे गांव घर के लोग तुर्क कहने लगे थे. तुर्क माने उनकी दृष्टि में मुसलमान. आज यह भी सोचता हूं कि कट्टर ब्राह्मण परिवार का सबसे बड़ा लड़का मैं बचपन से ही इतना विद्रोही क्यों था. खैर, सुलेमान के अब्बा और अम्मी मुझे बहुत प्यार करते थे. मुझे भी मेरी अम्मां और बाबूजी ने सुलेमान के घर जाने से कभी मना नहीं किया.
दूसरा काम. बाबूजी को गाय पालने का शौक था.
अम्मां क्वार्टर से बाहर नहीं निकलती थीं. गांव का परदा शहर में भी लागू था. दूसरी बात कि अपनापे और भाईचारे के उस माहौल में किसी खतरे या दुर्घटना की आशंका किसी को भी नहीं थी. आज क्या तीन साल के बच्चे को कोई इस तरह निर्द्वन्द्व घर से बाहर छोड़ सकता है.
शाम को साढे पांच बजे बाबूजी आते और गाय को वापस खूंटे पर लाते. सानी पानी करते. उसे दूहते और फिर कच्चे गर्म दूध का एक गिलास भरकर मुझे पिलाने के लिए निर्मल की दूकान के पास खड़े होते.
वहीं उस समय एक गुब्बारे वाला आ जाता था. उसके पास गैस वाले गुब्बारे होते थे. एक पैसे का एक गुब्बारा. एक पैसे का सिक्का छोटा भी होता था और बड़ा भी. जो बड़ा होता था उसमें छेद होता था. उसे छेदहा पैसा कहते थे. ये दोनों सिक्के तांबे के होते थे. मैं एक घूंट दूध पीता और एक गुब्बारा उड़ाता. कभी गिलास दस पैसे में खाली होता तो कभी बीस पैसे में. निर्मल की दूकान का हिसाब होता और शाम ढलने को हो जाती.
ऐसा करीब चार साल तक चला. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा उसी क्वार्टर में शुरू हुई. दामोदर त्रिपाठी मेरे पहले शिक्षक थे. घर आकर पढाते थे. हिंदी और अंकगणित. अंग्र्रेजी मुझे बाबूजी ने पढाई. बाबूजी गांव के पहले व्यक्ति थे जिसने हाई स्कूल यू. पी. बोर्ड से अंग्रेजी विषय लेकर पास किया था. उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी जो उन्होंने स्वाध्याय से अर्जित की थी. बाबूजी ने मुझे चार पांच साल ही पढाया होगा क्योंकि उमर के बहुत कच्चे मुकाम पर ही मैं उनका घोर विरोधी हो गया और ऐसी स्थिति हो गई कि हम एक दूसरे को सहने लगे. लेकिन यह उनकी पढाई हुई अंग्रेजी ही है जिसके बल पर मैं कहीं भी किसी भी जगह आत्मविश्वास के साथ खड़ा हो सकता हूं.
अपनी प्रारंभिक शिक्षा के उस दौर की एक घटना बताना चाहूंगा. दामोदर त्रिपाठी मुझे पढाने आते थे. आए. बैठे. पढाना शुरू किया.
मैंने कहा 'आप आंखें बन्द कीजिए' उन्होंने आंखें बन्द कीं. मैं घर में गया. वापस आया. उनकी आंखें तब तक बन्द थीं. जब उन्होंने चीखते हुए आंखें खोलीं तब तक मैं अपना काम कर चुका था.
मैंने उनकी नाक पर चाकू फेर दिया था. वह हड़ाबड़ा हुए खून पोंछ रहे थे और मैं हकबकाया हुआ इस अप्रत्याशित स्थिति से उत्पन्न परिस्थिति के आसन्न संकट को सोचते हुए थरथरा रहा था. हुआ यह था कि बीती रात को बाबूजी मुझे रामलीला दिखाने ले गये थे और मैंने सुर्पणखा अंग भंग देखा था. मैं लक्ष्मण क्यों बना, याद नहीं. आज मैं स्वयं अध्यापक हूं और अपने बचपन की इस गतिविधि पर लज्जित हूं मगर ऐसा दूसरी बार भी हुआ और इससे भी ज्यादा दुखद ढंग से. कभी आगे या अगले भाग में इस घटना के बारे में लिखूंगा और तब तक शहर को कुछ और सांद्रता के साथ जियूंगा.