मैं दिल्ली से निकलने वाली आउटलुक साप्ताहिक (हिंदी) पत्रिका की फीचर संपादक हूँ. मैं इस एक अनचिन्हीं दुनिया में शामिल होना चाहती थी, जहाँ मैं खुद को व्यक्त कर सकूँ. बिना संपादन के. यहाँ मैं ही लेखक हूँ, रिपोर्टर हूँ, संपादक हूँ अदृश्य पाठकों के बीच. अब इन असंपादित बेलगाम अभिव्य्क्तियों के लिए तैयार हो जाइये. यहाँ वे घिसे-पिटे टेक, बाजारवाद के फार्मूले और मर्दवादी मानसिकता के गुलाम शब्दों के सौदागरों की कोई दखल नहीं है.एक बानगीमैं मर्दों की बनाई हुई दुनिया (?) में एक चुनौती हूँ. मेरी नज़र में औरत एक रात है जो सुबह होने के इंतज़ार में अँधेरे को पीती रहती है. मगर हिस्से में अँधेरा ज़्यादा है. सुबह मर्दों की मुट्ठी में कसमसा रही है.
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