तंग गलियों के विरूद्द

Posted By Geetashree On 2:51 AM 5 comments
हाल ही में एक मीडिया पोर्टल में हमारी एक पत्रकार साथी(इरा झा) ने पत्रकारिता के अनुभवों का वर्णन करते हुए लिखा कि पुरूष वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में लड़कियों के लिए पत्रकार होना एक गुनाह है। उनके निजी अनुभवों का सम्मान करने के बावजूद लेख के अंत में यह पढ़कर दुख और आश्चर्य हुआ कि उन्हें लगता है यह पेशा महिलाओं के लिए उचित नहीं। आज जब महिलाओं ने दुर्गम माने जाने वाले पेशों में भी अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया है हम पत्रकारिता की गलियों को तंग केवल इसलिए मान ले क्योंकि यहां पुरूषों की मानसिकता जंग खाई है।

ऐसा नहीं साथी, गलियां तंग ही सही पर अभी भी उसमें ठंडे हवाओं के झोकें बहते हैं। इन तंग गलियों में कुछ साहसी मानवियों ने ऐसे झरोखे बनाए हैं कि गलियों के संकरे होने का अहसास ही नहीं होता। ऐसा केवल पत्रकारिता में नहीं कि महिलाओं को पुरूषों की तंग सोच का सामना करना पड़े। घर से बाहर कदम रखने वाली हर महिला हर कदम पर ऐसी संकुचित सोच को झेलती है। किसी भी व्यवसाय में ऐसे अनुभवों से महिलाओं को रूबरू होना पड़ता है। लेकिन महिलाओं ने पत्रकारिता सहित हर पेशे में इन तंग या बंद गलियों के विरूद्द मोर्चे खोल दिए हैं।

यह सब पढ़ कर तो मुझे दिल्ली के एक पत्रकारिता संस्थान में पढने वाली उस लड़की का चेहरा याद आता है जिसके गांव में अभी भी बिजली की रोशनी नहीं पहुंची है और उसके गांव में लड़कियों को स्कूल भेजना अपराध से कम नहीं है। ऐसे में उसका दिल्ली जैसे महानगर में आकर पत्रकारिता की पढ़ाई करना और घर से शुरू हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई किसी अजूबे से कम नहीं।

ऐसी बहुत सी लड़कियां पत्रकारिता में प्रवेश कर चुकी हैं जो प्रतिकूल वातावरण में पलने के बावजूद आज पत्रकारिता के गलियारों में अपने पुरूष साथियों से कहीं आगे निकल चुकी हैं। ''पत्रकारिता की दुनिया में लड़की होना ऐसा गुनाह है जिसकी कोई सजा नहीं सिर्फ घुट घुट कर बर्दाश्त करने के'' जैसा कि लेख में बताया गया है, सही नहीं। ऐसा कहना उन बहुत सी युवा पत्रकारों के सपनों को धूमिल कर सकता है जो पत्रकारिता में नए आयाम बनाने की आकाक्षाएं रखती हैं।

मेरा मानना तो यह है कि हम शहरों में पढ़ी लिखी महिलाओं के लिए कार्यालयों और आस -पडोस के माहौल की छोटी सोच कोई चुनौती नहीं बल्कि ऐसी पगडंडी है जिस पर चलने और संभल कर चल अपनी मंजिल पाने की कला हम महिलाएं अपनी परवरिश के दौरान ही सीख लेती हैं। वास्तविक चुनौती तो हमारे लिए भी एक पत्रकार के रूप में बेहतर रिपोर्टर, कापी एडिटर या संपादक बनने के साथ घर परिवार की जिम्मेदारियां को उचित ढंग से निभाने की होती है और लेखिका स्वयं इसे साबित कर चुकी है। फिर तंग गलियों की शिकायत क्यों? गलिया तंग ही नहीं बंद भी थीं और होंगी लेकिन इन बंद गलियों से रास्ते निकल चुके हैं। पत्रकारिता संस्थानों और अखबारों से लेकर चैनलों तक में छोटे छोटे शहरों और गांवो से आने वाली लड़कियों की बढ़ती संख्या इसकी गवाह है।

पेशा कोई भी हो पुरूषों द्वारा लड़कियों को काम में नाबराबर या कमतर आंकना, उनकी उनमुक्तता पर टिप्पणी करना या फिर उसके चरित्र पर आक्षेप लगाकर उसे आगे बढ़ने से रोकना अधिकतर कार्यालयों की प्रवृति बन चुका है। कईं बार तो महिलाएं भी पुरूष साथियों की ऐसी साजिशों का साथ देने लगतीं हैं। ऐसी मिसालों की कमी नहीं। लेकिन इस निराशाजनक चर्चाओं में मुझे उन महिलाओं के अनुभव बेहद बल देते है जो उस माहौल में पैदा होतीं है जहां लड़कियों के जन्म पर ढोल बजाकर या बंदूके चलाकर खुशी नहीं मनाई जाती। पैदाइश से लेकर वह बडे होने तक केवल लड़की होने की खिलाफत झेलती हैं। लेकिन आज वहीं महिलाएं कहीं पुरूषों की चैपाल में बैठकर, पंचायतों की सरपंच बनकर या फिर किसी संगठन का नेतृत्व कर पुरूषों की चैधराहट को खत्म कर रही हैं। इन्होंने साबित कर दिया है कि लड़की होना कोई गुनाह नहीं है। हर प्रकार की विपरीत परिस्थिति का सामना कर अपनी सबलता को मिसाल बनाने वाली ये महिलाएं हमें यही सबक देती है कि गली तंग नहीं।

अन्नू आनंद

शादीशुदा मर्द के प्यार में औरत की गत बुरी

Posted By Geetashree On 9:09 AM 6 comments

रविवार के नवभारत टाइम्स, दिल्ली के संपादकीय पेज पर रंजना कुमारी का यह विचारोत्तेजक लेख छपा है.चांद और फिजा के मोहबब्त का जो हश्र हुआ है, उसके बाद इस तरह के संबंधों पर बहस जरुरी है. हालांकि ऐसा न तो पहली बार हुआ है और ना ही इसे आखिरी माना जा सकता है. बहसें तो चलती रहती हैं. रंजना जी का यह लेख उसी बहस का हिस्सा है.

एक स्त्री जब किसी दूसरी स्त्री का घर उजाड़ रही होती है तो उसके सामने यह सवाल क्यों नहीं आता कि किसी की उज़ड़ी दुनिया की राख से कोई अपने आंगन में कैसे रंगोली बना सकता है..कितनी दुर्दांत कल्पना है..जहां एक चालाक पुरुष एक औरत को दूसरी औरत के खिलाफ औजार की तरह इस्तेमाल कर लेता है. 

रंजना जी ने जो सवाल उठाए हैं मैं उन्ही का जवाब अपने सजग दोस्तो, अनदेखे साथियों से चाहती हूं- गीताश्री

शादीशुदा मर्द के प्यार में औरत की गत बुरी

रंजना कुमारी


 


एक परिपक्व शादीशुदा आदमी जब नया प्रेम संबंध बनाता है तो वह सिर्फ प्रेम को नहीं देखता है. इसमें स्टेटस, फाइनेंशल सिक्युरिटी और फैमिली जैसे फैक्टर भी जुड़े होते हैं. यह भी तय है कि वह व्यक्ति अपने परिवार के प्रति प्रतिबध्द नहीं है और परिवार की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है. वह दूसरी महिला से रिश्ता बना तो लेता है, लेकिन उसे निभाना इतना आसान नहीं होता. शुरूआती आकर्षण जल्द ही खत्म हो जाता है और जिंदगी की हकीकत सामने आती है. ऐसे में दोनों के बीच तनाव बढ़ता है और रिश्ता टूटने के कगार पर पहुंच जाता है. इस सबमें बेशक पुरुष को भी दिक्कतें आती हैं लेकिन अंतत: भुगतना महिला को ही पड़ता है. 

चांद मोहम्मद और फिजा (पहले चंद्रमोहन और अनुराधा बाली) के मामले में भी अभी तक मिली जानकारी से यही लगता है. वैसे भी धर्म बदल कर दूसरी शादी करने को किसी कीमत पर जायज नहीं ठहराया जा सकता. खुद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धर्म परिवर्तन करके अगर कोई दूसरी शादी करता है तो वह पहली पत्नी की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता.

इस तरह के मामलों में एक नहीं, बल्कि दोनों महिलाओं के साथ नाइंसाफी होती है. जो लोग ऐसा करते हैं, वे सही सामाजिक और कानूनी व्यवस्था नहीं अपना रहे हैं. सामाजिक इसलिए कि वे पहली पत्नी से पति धर्म नहीं निभा रहे हैं. अगर किसी को दूसरी शादी करनी है तो उसे पहले तलाक लेना चाहिए. ऐसा न होने पर दूसरी महिला को कभी भी पत्नी का उचित दर्जा नहीं मिलता. उसे हमेशा धिक्कार की निगाहों से देखा जाता है. इस मामले में तो चांद मोहम्मद ने अपनी जायदाद पहले ही पहली पत्नी के नाम कर दी. इससे दूसरी महिला की आर्थिक सुरक्षा भी खत्म हो गई. जो प्रेम धोखाधड़ी की बुनियाद पर खड़ा हो, उसकी नींव कितनी मजबूत होगी, यह साफ है. 

लेकिन सच यही है कि इन सब तमाम खामियों के बावजूद लोग इस तरह के संबंध बनाते हैं. इसकी वजह यह है कि प्रेम किसी भी समाज में पनपने वाली सतत भावना है. लेकिन हमारा समाज प्रेम संबंधों के प्रति अनुदार है. प्रेम को जाति और धर्म के दायरे में शादी के बंधन में बांधा जाता है. खासकर लड़कियों को शादी के रूप में जबरन प्रेम (फोर्स्ड लव) के लिए मजबूर किया जाता है. शादी जैसी संस्था प्रेम के लिए नहीं, बल्कि वंश चलाने या यूं कहें कि मानव जाति को बचाए रखने के लिए बनाई गई थी, जबकि शादी के बिना या शादी के बाहर भी प्रेम हो सकता है.

यह बड़ी बात है कि हमारे पौराणिक ग्रंथों के चरित्रों से लेकर देवताओं तक को प्रेम में लिप्त दिखाया गया है और हम बड़े गर्व से उन्हें स्वीकार करते हैं. कृष्ण की रासलीलाएं खुले प्रेम की स्वीकृति देती हैं. कुंती के बारे में कहा जाता है कि कर्ण की प्राप्ति उन्हें सूर्य से हुई. तो क्या मानें कि कुंती और सूर्य के बीच कोई प्रेम प्रसंग था! हम इन प्रसंगों पर गर्व के साथ बात करते हैं लेकिन जब हकीकत में प्रेम की बात आती है तो विरोधी हो जाते हैं. असलियत यह है कि औरत और मर्द होंगे तो प्रेम होगा.

बहरहाल, इस तरह के मामलों से उपजने वाला सबसे बड़ा सवाल यह है कि महिलाएं इस तरह के रिश्ते में पड़ती ही क्यों हैं? आखिरकार प्रताड़ता तो उन्हें ही झेलनी पड़ती है. उन्हें कोई भी कदम उठाने से पहले सोचना-समझना चाहिए. फिर उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि वे किसी दूसरी महिला की जिंदगी बर्बाद करने की वजह न बनें. यह सच भी स्वीकारना चाहिए कि जो व्यक्ति उसके लिए पहली पत्नी को छोड़ सकता है, वह किसी तीसरी के लिए उसे भी छोड़ सकता है. पहली पत्नी को भी यह समझना होगा कि जबरन किसी को बांधकर नहीं रखा जा सकता, लेकिन उसे आर्थिक रूप से सबल बनना चाहिए और पति से पूरा भरण-पोषण आदि लेना चाहिए.

(लेखिका सेंटर फॉर सोशल रिसर्च में डायरेक्टर हैं.)
बातचीत : प्रियंका सिंह