दोस्तो
मैं एक बार फिर से हाजिर हूं...लंबी चुप्पी के बाद। मैंने पिछले दिनों अपने शोधकार्य के सिलसिले में खूब यात्राएं की..
वन वन भटकी..देश विदेश चक्कर काट आई..अब थिर हो गई हूं...अब लिखने का काम शुरु...इन दिनों कविताएं, कहानियां..रचनात्मक लेखन का जुनून सा है...दोबारा ब्लाग से जुड़ रही हूं...सो सोचा..पहले आपको एक अनगढ कविता पढवाऊं..अनछपी..यात्रा के दौरान लिखी गई..किसी एकांत में..गीताश्री
तुम अपनी देह पहले अनुपस्थित करो यहां से,
मैं उठूंगी यहां से और मन के उस सिरे से उस सिरे तक जाऊंगी
तुम्हारी दुर्दम्य आकांक्षाओं को तुमसे बेदखल करके
उतर जाऊंगी उस पार
मैं जाऊंगी तुम्हारी अनुपस्थित देह के पास
जो धरी है किसी विस्तर पर
खाली चादर सी
धुली धुली खुली खुली.
तुम जब भी आओ मेरे पास
अपनी देह को इसी तरह वहीं कहीं छोड़ आया करो,
कि मुझे नहीं मालूम कि प्रेम में देह का दाखिल होना
कितना रौनक है कितना विराना
प्रेम है तो उत्सव-स्वांग है तो विराना...तुम उठते हो, इतना कहते हो
और अपनी देह को थामे दोनों हाथों से
प्रस्थान बिंदु के पास जाकर धर आते हो.