0 प्रतीभा कटियार 0इश्किया देखने के बाद आकांक्षा पारे ने जो सवाल उठाए हैं उस पर कई कमेंटस आए...प्रतिभा जी ने भी कुछ लिखा है। बहस पर नई रोशनी डालता हुआ उनका लेख .यहां पेश हैं। इश्किया में इस्तेमाल गालियों पर बहुत बहस हुई..अखबारों में लेख लिखे गए, चैनलों पर बहसें हुईं...मगर एक संवाद अनदेखा रह गया जिसमें एक स्त्री के जरिए समूची स्त्री जाति को कठघरे में खड़ा कर दिया। तिलमिला देने वाले इस संवाद को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता..लोगबाग अब सफाई दे रहे हैं...तरह तरह के तर्क गढे जा रहे हैं...इस संवाद से हामारा वजूद खतरे में भले ना पड़ा हो..हमारी विश्वसनीयता पर हमले किए गए हैं...उसका प्रतिकार जरुरी...यह लेख उसी सिलसिले की कड़ी है... गीताश्री
औरत होने का क्या अर्थ है। विन्रम, सुशील, सच्ची...नैतिक, पारंपरिक उच्च चरित्रवाली ईमानदार, मृदुभाषी...ये फेहरिस्त काफी लंबी है।
अक्सर आसपास ऐसे जुमले सुनने में आते रहते हैं, एक औरत होकर उसने ये किया...देखो औरत होकर भी कैसा काम किया. उसकी भाषा देखो, औरतों की नाक कटा दी. एक औरत होकर क्राइम में...
पिछले दिनों रवीश कुमार जी के ब्लॉग पर एक तस्वीर चस्पां की गई कि औरतें भी जेबकतरी हो सकती हैं...सावधान. कमेंट्स भी आये कि लो जी औरतों से तो ये उम्मीद नहीं थी या यहां भी आ गईं महिलाएं. संभ्रांत तबकों से आवाजें और घनी होती हैं. कोई औरत अगर आगे बढ़ जाती है तो उसका चरित्र निशाने पर, पर अगर नहीं बढ़ पाती तो उसकी कार्यक्षमता निशाने पर. घर के मोर्चे पर असफल तो नौकरी को दोष, नौकरी के मोर्चे पर ढीली पड़ी कभी तो घर को दोष. अगर सब साध ही लिया ठीक से उसकी स्मार्टनेस उसकी चालाकी कहलाती है. ये है आज का आधुनिक युग और आधुनिक सोच. औरत होने का अर्थ क्या होता है बार-बार सोचना पड़ता है. स्त्री विषयों पर मुखर होने के कारण अक्सर ऐसे मौकों पर जब कोई महिला कहीं भी किसी भी मामले में दोषी पाई जाती है तो मुझे घेरा जाता है कि देखा औरतों को आजादी देने का नतीजा. हम सब जानते हैं कि ऐसे जुमले कसने वाले बेहद एलीट, पढ़े-लिखे लोग होते हैं. ऐसे जुमलों से ज्यादा खतरनाक होती है उसकेपीछे की नीयत.
एक अजीब किस्म का सैडिस्ट अप्रोच. जो आगे बढऩे वाली महिलाओं में खामियां देखते या ढूंढते ही खिल उठता है. समझ में नहीं आता कि ये लोग कब समझेंगे औरत होने का अर्थ. औरत होते ही सारे गुणों की चादर में क्यों लपेट दिया जाता है किसी को. औरत होना भी इंसान होना ही तो है. सारे गुण-दोषों से युक्त. उसकी गलतियों की सफाई देना मेरा मकसद नहीं न ही उसका पक्ष लेने का. सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि जो इंसान है वो इंसानी गुणों से भी तो भरपूर होगा, दोषों से भी. गलत फिर गलत ही है एक जैसा चाहे स्त्री करे या पुरुष. इसमें लिंग भेद की गुंजाइश कब, कहां, कैसे आ जाती है. स्त्री भी एक इंसान है. उसमें भी गुण दोष सब हैं. आगे बढऩे के लिए वो भी वो सब कर सकती है जो अब तक सिर्फ पुरुष करते आये हैं. दांव-पेंच, झूठ-सच, अच्छा-बुरा सब कुछ. क्यों उसे अलग खांचे में फिट किया जाता है और एक की गलती के बहाने पूरी औरतों की बिरादरी और उनके संघर्ष पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाता है. इतने बरसों से तो पुरुषों ने एक-दूसरे का गला काटा है. भाई ने भाई का, बाप ने बेटे का, दोस्त ने दोस्त का. एक की टांग घसीट कर पीछे करना, खुद को आगे निकालना यही सब तो होता रहा है, हो रहा है. लेकिन गलती से कोई एक औरत अपनी किसी सहयोगी की आलोचना करे तो हो जाती है औरत ही औरत की दुश्मन. पुरुष ऐसे मौकों को हथियाने को तैयार बैठे रहते हैं. क्या स्त्रियों को इन खांचों से मुक्त होकर एक स्वतंत्र इंसान के तौर पर कभी देखा जायेगा. जहां उनसे किसी देवी होने की उम्मीद नहीं की जायेगी. उनकी गलतियां भी वैसी ही हैं जैसी किसी पुरुष की. न कम न ज्यादा. गलत को गलत कहना बुरा नहीं. बुरा है उसे जेंडर के खांचे में डालकर आनंद लेना.
प्रतिभा कटियार