सुप्रीम कोर्ट ने भले ही तल्ख होकर केंद्र सरकार को कहा कि वह अगर दुनिया के सबसे प्राचीनतम धंधा यानी वेश्यवृति को नहीं रोक सकती तो क्यों नहीं उसे कानूनी मान्यता दे देती है। वैध हो जाने के बाद कमसेकम उनकी हालत तो सुधर जाएगी। अभी तो सरकार ना ही इस पर रोक लगा पा रही है, ना निगरानी रख पा रही है और ना उनके लिए कोई पुनर्वास की योजना है। अदालत खीझ में है..इसलिए संवेदनशील नस पर हाथ रख दिया। सरकार चुप है। ना हां कहते बनेगा ना ना। अदालत ने एक आंदोलन को हवा दे दी...जो सेक्सवर्करो का संगठन कबसे चला रहा है। वे चाहते ही है कि इस धंधे को कानूनी मान्यता मिस जाए, पश्चिम के कुछ देशो की तरह उन्हें भी इसका लाइसेंस मिल जाए..फिर उनकी मुशिकलें थोड़ी आसान हो जाएगीं। अभी तो सरकार उनके विकास के लिए कोई कदम नहीं उठा पा रही है। कुछ भी करना उनके अस्तित्व को सरकारी रुप से स्वीकार करना है। सरकार यह जोखिम नहीं उठाना चाहती। जवाब देना आसान नहीं। हो सकता है केंद्र सरकार राज्य सरकार पर इसकी जिम्मेदारी डाले और अपना पल्ला झाड़ ले।
सच्चाई से कब तक आंखें मूंदेगे। कौन नहीं जानता कि यह धंधा किसकी मिलीभगत से चलता है। पुलिस और स्थानीय प्रशासन का क्या रोल है, किससे छुपा है। राजनेता कैसे इनके वोट से जीत कर आते हैं। अदालत के इस रवैये से सेक्सवर्करो के आंदोलन को थोड़ा बल मिला होगा। लेकिन उनकी राहे इतनी आसान नहीं। हमारे देश में छुपा कर किया गया कोई भी काम पाप नहीं..अनैतिक नहीं..खुले में किए तो घोर पाप..संस्कृति खतरे में..इसके ठेकेदार छाती पीटने लगेंगे.. कहेंगे,,,हाय हाय...ये आप कैसा भारत बनाना चाहते हैं..जब तक हम जिंदा हैं ये नहीं होने देंगे। सरकार इन्हीं ठेकेदारो से तो घबराती है।
अगर आपने इस विषय पर लिखा तब भी नैतिकतावादियों को यह बात रास नहीं आती। इनमें कुछ वे लोग भी शामिल हैं जो एसे कोठे आबाद करते हैं या जिनके दम पर ये गलियां रोशन होती हैं। जिनकी ना जानें कितनी औलादें(नाजायज नहीं) गलियों में फिरती हैं...। इन पर या एसे विषयो पर लिखना आपको उनके कठघरे में खड़ा कर देता है...या व नहीं तो उन जैसे जरुर थोड़े थोड़ मान लिए जाते हैं..खासकर एक स्त्री लेखिका..यह हमारी भाषाई मानसिकता की देन है। मगर जो डट कर लिख रही हैं वे अपने लिखने को लेकर कतई क्षमाप्रार्थी नहीं हैं जैसे सोनागाछी की सेक्सवर्कर..जिन्हें अपने धंधे पर कतई शरम नहीं है. वे शान से बताती हैं, अपने काम के बारे में..। वे श्रमिक का दर्जा पाना चाहती है।
खरीदार कभी समझ भी नहीं सकते एसी औरतो को।
बेहतर हो खरीदारो को भी कोठे पर जाने के लिए परमिट लेना पड़े..जैसे गुजरात में शराब पीने के लिए परमिट लेना पड़ता है और दूकान के बाहर शराबी का नाम, बाप का नाम और पता लिखा होता है। खरीदार जब तक मौजूद हैं तब तक यह धंधा चलता रहेगा। मांग और पूर्ति का सीधा संबंध है यहां।
अभी सरकार लाइसेंस देने के बारे में बयान भी देगी तो तूफान उठ खड़ा होगा...तूफान वही उठाएंगे जो चोरी छिपे उन गलियों में फेरा लगाते हैं। अगर सेक्स बेचना अनैतिक है तो खरीदना उससे बड़ा अपराध..फिर सीना ठोक कर खरीदार क्यों नहीं खड़ा होता कि हां..हमने खरीदा या हम हैं खरीदार...पकड़े जाने पर चेहरे पर मफलर लपेट कर कैसे बच निकलते हैं...टीवी पर दिख जाते हैं। उनमें आंखें मिलाने का साहस नहीं...साहस है श्रमिक में। जो श्रम बेच रहा है बाजार में। काल गर्ल की बात छोड़ दें तो आप किसी भी सेक्स वर्कर से बात करें...उनमें अपने काम को लोकर कोई शरम नहीं..क्योंकि जिंदगी इस शरम से बहुत आगे की चीज है।
यहां कवि ऱघुवीर सहाय की काव्य पंक्तियां...
कई कोठरियां थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया
उसी रोने में हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा.....
इन औरतों के बारे में ही कवि निशांत ने भी लिखा है...
इन औरतो को
गुजरना पड़ता है एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया से
तय करनी पड़ती है एक लंबी दूरी
झेलनी पड़ती है गर्म सलाखो की पैनी निगाहें
फाड़ने पड़ते हैं सपनो को
रद्दी कागजों की तरह
चलाना पड़ता है अपने को खोटे सिक्को की तरह
एक दूकान से दूसरे दूकान तक....