वरिष्ठ लेखिका अनामिका का खत, गीताश्री के नाम
राजनटनी उपन्यास पढ़ने के बाद उपजी प्रतिक्रिया जो खत में ढली....
प्रिय गीता,
इतिहास के साथ, वह भी मिथिलांचल ओर तिरहुत - जैसे श्रुतिबहुल क्षेत्रों के साथ महाकाल की लुकाछिपी अपने साहित्य में मंचित करने वाली उषाकिरण खान की परम्परा में आज तुम भी खड़ी हो -अपनी ‘राजनटनी’ की मृणाल-सदृश बाँहें गले में लपेटे हुई। यह देखकर मेरी माँ, तुम्हारी ‘जायसी-स्पेशल’की पुरानी प्रोफेसर कितनी खुश है, यह तो यहाँ आकर ही देख सकती हो !
‘रिक्त स्थानों की
पूर्ति’ वैसे तो स्कूली
बच्चों का प्रिय होमवर्क होता है, पर यही होमवर्क जब लेखक करने बैठते हैं — ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखक— तो उनसे एक चूक यह हो जाती है कि वे उस समय की
भाषा और तत्कालीन परिवेश ‘ज्यों की त्यों’ धर दीनी चदरिया’
भाव से उतार नहीं पाते।
तुमने ‘लोक’ का बायस्कोप पकड़ा है जो मिथिलांचल में अभी भी बहुत नहीं
बदला है, और बोली-बानी, प्रकृति-पर्यावरण की छाँव में यह पूरा प्रसंग मंचित किया है कि कैसे एक
अज्ञातकुलशील स्त्री या (जाति-वर्ण -संप्रदाय आदि के) फ़्रेम से बाहर पड़ने वाली
तथाकथित रूप से ‘अवर्ण’ स्त्री भी उतनी ही उच्चाशाय हो सकती है, जितनी
सामान्य स्त्री नहीं होती। गीता की नायिका, रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘गोरा’ की तरह ‘देश’ की सामान्य चौहद्दी
के बाहर की है यानी मिथिला के बाहर की, कहीं और से आकर बसी हुई ‘अदर’ है वह फिर भी देशहित के लिए उतनी प्रतिबद्ध है जितनी स्थानीय
जनता भी नहीं। इस बहाने तुमने, ‘देशप्रेम’ की संकीर्ण
परिभाषा को स्पष्ट चुनौती दी है और यह काम आज के संदर्भ में बहुत जरूरी माना जाएगा
जब ‘बाहर से आकर बसे हुओं’
को ‘अपना’ मानने को जल्दी कोई तैयार ही नहीं होता।
दूसरी बात इसमें
यह ध्यान देने लायक है कि ‘पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ’ की श्रेणी में पड़ने वाले, सार तुम्हारे अपने शब्दों में ’सारा दिन किताब में मुण्ड घुसाए रखने वाले’
वाले राजकुमार की तुलना
में एक सामान्य लोक कलाकार की चेतना अधिक विकसित हो सकती है! स्वयं औपचारिक शिक्षा
से विरत रहकर भी वह अपनी नैसर्गिक प्रज्ञा से यह समझ सकती है कि देश किसी देश
प्रदेश की असली थाती उसकी कलाकृतियाँ और पाण्डुलिपियाँ होती हैं, उसके साधना ग्रंथ! और किसी लूट-पाट से अधिक दूरगामी
व्याप्ति रख सकती है ज्ञान-थाती की चोरी! बंगाल का राजा अपनी सांस्कृतिक निधि
चौगुनी करने की सूक्ष्म लालसा से प्रेरित है जो वह छल-बल से स्वयं हासिल नहीं कर पाता,
वैचारिक राग-द्वेष से
पीड़ित गद्दारों की मदद से उसका बेटा हासिल करता है, पर ‘शठे शाठ्यं समाचरेत’ की नीति आजमाती हुई राजनटनी उसका पासा पलट देती
है, अपनी जान हथेली पर लिए हुए साथी नटों की मदद से पाण्डुलिपियों वाले बक्से ही
बदल देती हे नाव पर लदवाने के पहले।
हालाँकि राजकुमार
उसे नए देश की महारानी बनाकर साथ ले जा रहा है! उसका यह निर्णय फॉर्स्टर के निर्णय
की याद दिला देता है :
" I have to choose between betrayaing my country and but betraying my
friend, I would rather betray my country."
नटनी का जीवन फॉस्टर्र
की उक्ति का सजग प्रतिपक्ष गढ़ता है और उसी शिद्दत से यह अनपढ औरत ग्रंथों का मोल चुकाती
है जिस शिद्दत से रोजेविक की कविता में ऋवान्त अपने प्रतिपक्ष का मोल—
‘‘और सफेदी का सही बखान है
रंग सुरमई
पक्षी का पत्थर
सूरजमुखी का दिसम्बर...
रोटी का सबसे सटीक बखान
भूख...
उसके भीतर ही है
एक नम छिद्रकोष
एक ऊष्म, भीतरी सतह,
सूरजमुखी रात के...
प्यास की स्रोत-सदृश परिभाषा है
राख, रेगिस्तान...”
इस क्रम में आगे कहें तो गीताश्री का सही बखान हैं यह उपन्यास, ‘लिट्टी चोखा’ के बाद की ये रचनाएँ जो ‘आम्रपाली’ गाथा से होती हुई अब ‘राजनटनी’ के मनोलोक तक पहुँची है और गंगा ‘उस पार’ वाले नैतिक भूगोल के बतरसप्रवण भाषिक अवचेतन तक। उपन्यास अपने निर्बाध, रोचक कथाप्रवाह के कारण भी पठनीय है।
तुम्हारी
अनामिका