शब्दों का सिरा

Posted By Geetashree On 12:54 AM 7 comments
विपिन चौधरी
दिन-रात शब्दों की श्रृंखालाओं से साक्षात्कार के बावजूद कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो जब भी सामने आते हैं, हर बार नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर देते हैं। ऐसे ही दोशब्द आते हैं- नारीवादी और शील-अश्लिल के बीच का भेद। तीन चार दिनों
के अंतराल में एक बार फिर इन दोनों शब्दों से मेरा सामना हुआ था।
हाल ही में एक वरिष्ठ आलोचक ने शील या अश्लिल के मसले पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा है कि साहित्य में इसे इतना सतही तौर पर नहीं लिया जा सकता। मंटों ने कभी अपने साहित्य पर लगे आरोपों के बारे में कहा था कि समाज में ही इतनी गंदगी है और दरअसल मैं समाज के सच को ही लिखता हूँ। क्या साहित्य और कला में आकर श्लीलता और अश्लीलता के मायने दूसरे हो जाते हैं या कला -सत्यता की आड में कुछ भी उकेरे जाने की छूट है। यहाँ आकर मेरा 'जड' और 'संस्कारी' मन मुझसे अकसर बहस करने लगता है।इसी तरह फेमिनिज्म या नारीवादी शब्द से भी कुछ समय पहले मेरी मुठभेड हुई। उस दिन दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार में काम कर रही एक महिला छायाकार से मिलने गई। उनसे यह मेरी पहली मुलाकात थी और काफी समय तक याद रखने वाली साबित हुई। जीवन की तमाम परेशानियों को झेलते हुए अपनी अदम्य जिजीविषा के बल पर उन्होनें अपनी राह खुद बनाई जो निश्चय तौर पर काबिले- तारीफ है।कुछ साल पहले जब कादम्बिनी पत्रिका में उनका लेख पढा था, तभी से ही उनसे मिलने का मन था और कुछ रोज़ पहले टेलिविज़न पर उन्हें देख कर एक बार उनसे मिलने की इच्छा बलवती हो उठी। बडी आसानी से उनका फोन नम्बर भी मिल गया। अगले ही दिन मुलाकात तय हुई। हँसते-हँसाते चलती हुई हमारी बातों के बीच में अचानक उनका चेहरा उस वक्त बेहद सख्त हो गया था। एक आम पुरूष के प्रति मेरा नरम रूख उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं आया। समाज में महिलाओं की समस्याओं के बारे में बातें करते-करते आदत के मुताबिक कुछ आधुनिक महिलाओं के आचरण पर मैनें सवाल उठा दिया। इसके बाद उन्होनें अपनी कामान के सारे तीर मुझ पर चला डाले। उनकी बात का समापन इस बात से हुआ किऔर मैंने उन्हें लाख समझाया पर सब व्यर्थ और उस किस्से का समापन इस वाक्य से हुआ कि "तुममें बचपना बहुत है और तुमने अभी दुनिया देखी ही कहां है" ?घर वापिस लौटते समय बार-बार मन में यही ख्याल आ रहे थे कि एक महिला जब समाज में अपनेआप को सार्थक करने की राह पकड़ती है तो इस दौर से गुजरते हुए वह पुरूषों से इतनी नफरत क्यों करने लगती है। क्या खुद की कोशिशों से आगे बढने के इस सारे घटनाक्रम में सामने आये सभी पुरूष उसे छलते हैं।
हमारे यहां यों भी नारीवाद के बारे में अलग-अलग विचारधाराएं बन गई हैं। सवाल है कि नारीवाद अपने असली अर्थों में है क्या?यह सही है कि हमारी इस सामाजिक दुनिया में नारीवादी विचारधारा, लैंगिक भेदभाव के सामने एक चुनौती पेश कर रही है। महिलाओं के सार्वभौमिक दमन को लेकर नारीवाद सामाजिक परिवर्तन के लिए एक प्रतिबद्धता है और समतावादी समाज में ही वह एकमात्र हल दिखाई देता है जो पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना को बदलने में सक्षम है।मेरा मानना है कि नारीवादी होने का मतलब पुरूषजाति के प्रति द्वेष तो बिलकुल नहीं है। स्त्री के हितों की बात करते-करते पुरुषों को दोष देते हुए हम नारी के उत्थान की दिशा से भटकते हुए कहीं ओर निकल जाते हैं। पुरूष क्या केवल इस लिए दोषी है, कि उसे पितृसत्तात्मकता विरासत में मिली है । महिला सशक्तिकरण में नारीवाद की भूमिका तभी सार्थक होगी जब नारी चेतना संपन्न होगी और शिक्षा इस दिशा में सबसे भूमिका निभायेगी। ध्यान देने की बात यह भी है जहाँ पश्चिम में नारीवाद की शुरूआत महिलाओं ने की वहीं भारत में नारीवादी सुधारों की शुरूआत पुरूषों ने की जिसे बाद में महिलाओं ने आगे बढ़ाया और वे इस दिशा में बहुत आगे तक बढती गई।. नारीवादी सिद्धांत पर पश्चिमी बहस भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश पर आज तक हावी रही है। हमारे यहाँ नारीवाद हमेशा विविध रूप धारण कर लेता है। समूचे संसार का भूगोल और इतिहास अलग-अलग है और नारीवाद चूंकि काफि पुराना सैद्धांतिक मॉडल हो चुका है, इसलिए उसमें टूट होना भी स्वभाविक है। यही कारण है कि भारतीय नारीवाद की अनेकों शाखायें हैं और उनके सैद्धांतिक रास्ते भी अलग- अलग हैं। भारत में इस सोच और उसके विकास की दिशा में अब तक कोई ठोस काम नहीं हुआ है।
नारीवाद में शामिल दूसरे विषय जैसे संपत्ति के अधिकार, भत्ते, विरासत, और बच्चे के रखरखाव सब कहीं पीछे छूटते दिखाई देते हैं। आज लगभग हर चीज़ को बाज़ार निर्धारित करता है। जाहिर है, बाजार उस स्त्री के साथ है जो विश्व में उसका उत्पाद बेचेगी। ऐसे में महिलाओं को अपनी गरिमा का ध्यान खुद रखना होगा, अपनी युवा और स्रजनात्मक सोच के साथ क्योंकि युवा होने का मतलब अपने ही द्वारा संशोधित और मानीखेज विचारधारा को साथ लेकर चलना भी है।