गीताश्री
१.तस्वीर से ज्यादा सुंदर
१.तस्वीर से ज्यादा सुंदर
एक पुरानी भूटानी कहावत के अनुसार भूटान एक ऐसी पुण्यभूमि है जहां साम्राज्य का कोई भी ऐसा चप्पा नहीं है जिसे गुरु रिम्पोचे का आर्शीवाद प्राप्त ना हो। जैसे हिमालय की गोद में धरा हुआ, तांत्रिक रहस्यमयता से लिपटा एक सुंदर और शांत शहर। लोग इसलिए धीमे बोलते हैं मानो बुद्ध अभी किसी पहाड़ी पर ध्यानरत हैं। जोर से बोलेंगे तो खलल पड़ जाएगा। पड़ोसी देश के एक महान दार्शनिक कन्फ्यूसिएश ने कहा था कि आओ खामोश रहें ताकि देवताओं की कानाफूसी सुन सकें। भूटानी यानी स्थानीय भाषा में द्रूपका लोगो ने सुन लिया पड़ोस से आए इस दर्शन को। तब से लोग यहां चिल्लाते कम हैं। कहीं कोई पुकार तक नहीं सुनाई देती। हवा का शोर ना हो तो अपनी धडक़न भी सुन सकते हैं। ट्रेफिक लाइट के बिना ट्रेफिक चलती है। पुलिस कहीं दिखती नहीं। मैंने मुनीरा से पूछा। उसने मुस्कुरा कर कहा-पुलिस है, उसकी आंखें आपको देख रही है। गल्ती करेंगे तो सामने आ जाएगी। ना पुलिस की सीटियां ना व्यर्थ के हॉर्न बजते हैं। दिल्ली के कोलाहल से भाग कर वहां जाएंगे तो तेज और कानफोड़ू आवाज के लिए तरस जाएंगे। धुली धुली पहाडियां, कुंवारी और शादीशुदा नदियो का कल कल दूर से सुनाई देता है। यहां एक शादीशुदा नदी भी है। पुनाखा घाटी में अलग अलग रंगो की एक पुरुष नदी और एक स्त्री नदी आपस में मिलते हैं और एक होकर सफर करते हैं। गाइड फुंगशू मजाक करता है..देखा है कहीं मैरिड नदी..। रास्ते में झरने ही झरने। खेतो में धान ललहाते हुए। बादल जैसे ठिठके से घरो की छतो पर। हवा भी जैसे पत्तो पर ठहरी सी। बच्चो के चेहरे फूल से या फूल बच्चो से, आप र्फक ही नहीं कर पाएंगे, इतने गुलाबी और खिलखिलाते। ये सब कुछ किसी तस्वीर सा सुंदर है जो आपकी बेचैनी को आराम दे देता है।
२.थोड़ा है थोड़े की जरुरत है
उनके लिए खुशहाली सर्वोपरि है, विकास का वही पैमाना भी। भूटान को अपनी सांस्कृतिक पहचान, ऐतिहासिक विरासत से बहुत लगाव है। आर्थिक प्रगति की दौड़ में इनसानी मूल्य, संस्कृति, अतीत की धरोहर नष्ट ना हो जाए, लोग अपनी जड़ो से ना कट जाएं, इसके प्रति बेहद सजग है। नेपाल के हश्र और चीन के व्यापार से डरे हुए इस देश ने विकास की राह पर चलने की अपनी अलग नीति बनाई गई है। उनकी नीति दुनिया की आंखें खोलने का माद्दा रखती है। सकल राष्ट्रीय खुशी (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) शब्द एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। भूटान के चौथे राजा जिगमे सिगवे वांगचुंग ने इस अवधारणा की नींव रखी। ये शब्द भी उन्हीं का अविष्कार है। इसमें आर्थिक निर्भरता, पर्यावरण, भूटानी संस्कृति और सभ्यता के संरक्षण जैसी चिंताएं शामिल थीं। इसके लिए एक आयोग का भी गठन किया गया है। इसीलिए आज भी वहां मकान के डिजाइन पारंपरिक रखे जाते हैं। सरकारी-प्राइवेट सभी ऑफिस में पारंंपरिक पोशाक (स्त्री-टेगो और कीरा, पुरुष-घो) पहन कर जाना अनिर्वाय है। सूचना और संचार मंत्रालय के सचिव दाशो किनले दोरजी एक विशेष मुलाकात में बताते हैं, इस बड़ी सी दुनिया में भूटान एक छोटा सा देश है। हमारे पास अर्थव्यवस्था की ताकत नहीं है। सांस्कृतिक पहचान ही हमारी असली ताकत है। सरकार की जिम्मेदारी है इसे संरक्षित करने की। भूटान के प्रधानमंत्री बताते हैं, हमारी कोशिश है कि हम भौतिक रुप से नहीं, दिल से खुश रहें। वित्तीय समस्या होने के बावजूद संतुलित रहें। जीवन में हमने क्या पाया, हमें कितनी संतुष्टि मिली, ज्यादा महत्वपूर्ण है। हम इच्छाएं ज्यादा नहीं रखतें। इसीलिए हमने भौतिक स्वरुप के बजाए संतुष्टि का मानक रखा है। दस साल बाद किसी भूटानी नागरिक को रोटी के लिए मशक्कत ना करनी पड़े, ये हमारा लक्ष्य है। भूटान सरकार यह भी दावा कर रही है कि उनका पैमान दुनियाभर में लोकप्रिय हो रहा है। उन्हें अंतराष्ट्रीय समुदाय में खूब वाहवाही मिल रही है।
३.सच्चे किस्से
हिमालय पर्वत की सुंदर वादियों में बसे छोटे से देश के एक गांव में एक परिवार बरसों से सामाजिक बहिष्कार झेल रहा था। पूरे गांव तो क्या पूरे इलाके में कोई उनके घर का अन्न जल नहीं खाता था। इस परिवार पर जादू टोने करने का कलंक लगा था। पूरे इलाके में अपवाह थी कि इस परिवार के घर को अन्न जल जो भी ग्रहण करेगा, वो मर जाएगा। ये परिवार एक शापित जिंदगी जी रहा था कि एक दिन इस देश का राजा अचानक उनके द्वार पर आ पहुंचा। घर के मालिक को कहा कि अपनी पत्नी से मेरे लिए खाना बनवाओ, आज मैं तुम्हारे घर खाना खाऊंगा और यहीं रात बिताऊंगा। पूरे इलाके में राजा के आने की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई लोग इक्कठे हो गए और राजा को समझाया कि इस घर का पानी भी नहीं छूना चाहिए। राजा नहीं माने। राजा ने उस घर में खाना खाया और वहीं रात बितायी। वो राजा आज भी जिंदा हैं, भला चंगा है और अपने देश का युवा राजा है। शापित परिवार के माथे से जादू-टोने का कलंक धुल गया अब पूरा गांव उनके साथ अच्छे संबंध रखता है। ये किस्से कहानियों की बात नहीं ,ना ही नानी दादी की कहानियां हैं। ये सच्ची घटना है। ये वर्तमान राजा हैं, जो नहीं चाहते कि उनकी प्रजा अंधविश्वास और रुढियो में जकड़ी रहे।
एक घटना और..वहां राजा प्रजा के बीच संवादहीनता नहीं है, इसका एक उदाहरण है। चौथे राजा ने चार शादी की। चारो सगी बहने हैं। वर्तमान राजा दूसरी बहन के बेटे हैं। एक बार चौथे राजा किसी पब्लिक मीटिंग में भाषण देने के बाद लोगो के सवालो के जवाब दे रहे थे। एक व्यक्ति ने उठकर पूछा-आप राजा हैं, आपने चार शादियां क्यो की? राजा ने शांत उत्तर दिया--आप चिंता ना करें, आपका अगला राजा एक ही शादी करेगा।
एक घटना और..वहां राजा प्रजा के बीच संवादहीनता नहीं है, इसका एक उदाहरण है। चौथे राजा ने चार शादी की। चारो सगी बहने हैं। वर्तमान राजा दूसरी बहन के बेटे हैं। एक बार चौथे राजा किसी पब्लिक मीटिंग में भाषण देने के बाद लोगो के सवालो के जवाब दे रहे थे। एक व्यक्ति ने उठकर पूछा-आप राजा हैं, आपने चार शादियां क्यो की? राजा ने शांत उत्तर दिया--आप चिंता ना करें, आपका अगला राजा एक ही शादी करेगा।
कुछ कुछ होता है..
हिंदी सिनेमा के नाम पर भूटान में युवाओ को कुछ कुछ होता है.. .। जिसे देखो, उसके ऊपर शाहरुख खान और काजोल का नशा छाया हुआ है और गाने के बोल फूटते हैं..क्या करुं हाय, कुछ कुछ होता है..।इस गिरफ्त में युवा राजा भी हैं। वैसे बॉलीवुड के और भी सितारे यहां पसंद किए जाते हैं, लेकिन काजोल के प्रति दीवानगी के क्या कहने। हिंदी सिनेमा और सास बहू वाले धारावाहिको ने यहां के नागरिको को हिंदी बोलना सीखा दिया है। दाशो किन्ले हंस कर कहते हैं, बॉलीवुड ने हमारे युवाओं को अपने प्रभाव में ले लिया है। उनकी तर्ज पर उनके हाव भाव, चाल ढाल बदल रहे हैं। नई फिल्मों के शौकीन लोग राजधानी थिंपु से तीन चार घंटे की यात्रा करके भारत-भूटान बार्डर पर स्थित शहर फुंसलिंग शहर जाकर फिल्म देख आते हैं। दबंग का नया नया नशा वहां की हवाओं में बदनाम हो रहा है।टीवी की तरह भूटानी फिल्मों का इतिहास भी महज एक दशक पुराना है। वहां हर साल 17-18 फिल्में बनती हैं। भूटानी फिल्मों की प्रेरणा बॉलीवुड है। इसके अनेको उदाहरण है। जैसे हिंदी फिल्म कहो ना प्यार है का भूटानी वर्जन बनता है सेरेगिल नाम से। मुन्नाभाई का भूटानी भूटानी वर्जन कुजू(भूटानी में अर्थ हैलो) नाम से रिलीज होता है। हिंदी फिल्मों की पाइरेटेड डीवीडी के लिए भूटान अच्छा बाजार है। वहां के युवा नई फिल्में जल्दी देखना चाहते हैं। उनतक पाइरेटेड डीवीडी आसानी से पहुंच जाती है।
पर्यटको के प्रति रवैयाभूटान के व्यस्त बाजार में आप घूमे तो एक सामान्य नजारा दिखेगा। कहीं स्टार प्लस के सीरियल आ रहे हैं तो कहीं सोनी टीवी के सीरियल तो कहीं सिनेमा चैनल पर फिल्में चल रही हैं। दूकानो पर ज्यादातर लड़कियां बैठी होती हैं। उनमें सामान बेचने की वो आतुरता नहीं जो चीनी बाजार में दिखाई देती है। वे आपको बुलाती भी नहीं हैं। हैंडीक्राफ्टस के दूकानो की भरमार है। बेहद महंगे सामान कि खरीदने से पहले कुछ देर सोचना पड़े। ऐसे ही एक दूकान पर बैठी प्रतिमा से बातचीत होती है. उससे पूछती हूं कि चीजें यहां इतनी महंगी क्यों हैं, तुम लोग बेचने के प्रति इतने उदासीन क्यो हो? प्रतिमा की मां बंगाली है पिता भूटानी। इसीलिए वह हिंदी, बांगला और भूटानी भाषा जोंगखा अच्छे से बोल लेती है। वह बताती है, हमें पता है जिन्हें खरीदना है, वे खरीदेंगे। महंगी होने के कारण ज्यादा लोग विंडो शॉपिंग करके चले जाते हैं। हम किसी पर दवाब नहीं बनाते। यहां टैक्स बहुत देना पड़ता है इसलिए चीजें महंगी हो जाती है। भारतीय लोगो के लिए हम चीजें सस्ती कर देते हैं, अगर वे लोग मोलभाव करें तो। यहां बता दें कि भूटानी मुद्रा नोंगत्रुम और भारतीय रुपया एक समान है और आप वहां भारतीय रुपयो से खरीदारी कर सकते हैं। प्रतिमा पर्यटको के कम आमद से थोड़ा हताश दिखी मगर अपनी सरकार की नीतियों का सर्मथन भी किया। उसे एहसास है कि उसका देश सुंदर है, टूरिस्ट यहां आना चाहते हैं मगर सरकार उन्हें परमिट या वीजा नहीं देती। विदेशियो का आगमन यहां नियंत्रित है। ये भूटान के भले के लिए है। प्रतिमा के साथ खड़ी डोलमा कहती है, हमें टूरिस्ट की क्वांटीटी नहीं, क्वालिटी चाहिए। संकेत हमें साफ समझ में आ रहा था। सरकार की नीतियां जनता के दिमाग में बैठ गई है। कारोबार से ज्यादा संस्कृति बचाने की चिंता है। मुझे वहां के प्रधानमंत्री का एक स्लोगन याद आया-हाई क्वालिटी, हाई कॉस्ट। बाजार में एक बंगाल की गाड़ी दिखी। उसका ड्राइवर उपेन दत्ता बेहद मुखर है। अक्सर थिंफू आता जाता रहता है। बातचीत के क्रम में वह टिप्पणी करता है--भारतीय को भी ये लोग 6 या सात दिन से ज्यादा का परमिट नहीं देते। खासकर मजदूर या किसान जैसे दिखने वाले भारतीय पर्यटक से बहुत डरते हैं। उन्हें लगता है कि ये लोग यहां आकर बस जाएंगे, काम करने लगेंगे जिससे संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। भूटान की खुशकिस्मती है कि वह कभी किसी देश का उपनिवेश नहीं बना। इसीलिए बाहरी प्रभाव से बचा रहा। बना होता तो आज कहानी दूसरी होती। भूटान 1974 में आम पर्यटको के लिए खुला है।
पर्यटको के प्रति रवैयाभूटान के व्यस्त बाजार में आप घूमे तो एक सामान्य नजारा दिखेगा। कहीं स्टार प्लस के सीरियल आ रहे हैं तो कहीं सोनी टीवी के सीरियल तो कहीं सिनेमा चैनल पर फिल्में चल रही हैं। दूकानो पर ज्यादातर लड़कियां बैठी होती हैं। उनमें सामान बेचने की वो आतुरता नहीं जो चीनी बाजार में दिखाई देती है। वे आपको बुलाती भी नहीं हैं। हैंडीक्राफ्टस के दूकानो की भरमार है। बेहद महंगे सामान कि खरीदने से पहले कुछ देर सोचना पड़े। ऐसे ही एक दूकान पर बैठी प्रतिमा से बातचीत होती है. उससे पूछती हूं कि चीजें यहां इतनी महंगी क्यों हैं, तुम लोग बेचने के प्रति इतने उदासीन क्यो हो? प्रतिमा की मां बंगाली है पिता भूटानी। इसीलिए वह हिंदी, बांगला और भूटानी भाषा जोंगखा अच्छे से बोल लेती है। वह बताती है, हमें पता है जिन्हें खरीदना है, वे खरीदेंगे। महंगी होने के कारण ज्यादा लोग विंडो शॉपिंग करके चले जाते हैं। हम किसी पर दवाब नहीं बनाते। यहां टैक्स बहुत देना पड़ता है इसलिए चीजें महंगी हो जाती है। भारतीय लोगो के लिए हम चीजें सस्ती कर देते हैं, अगर वे लोग मोलभाव करें तो। यहां बता दें कि भूटानी मुद्रा नोंगत्रुम और भारतीय रुपया एक समान है और आप वहां भारतीय रुपयो से खरीदारी कर सकते हैं। प्रतिमा पर्यटको के कम आमद से थोड़ा हताश दिखी मगर अपनी सरकार की नीतियों का सर्मथन भी किया। उसे एहसास है कि उसका देश सुंदर है, टूरिस्ट यहां आना चाहते हैं मगर सरकार उन्हें परमिट या वीजा नहीं देती। विदेशियो का आगमन यहां नियंत्रित है। ये भूटान के भले के लिए है। प्रतिमा के साथ खड़ी डोलमा कहती है, हमें टूरिस्ट की क्वांटीटी नहीं, क्वालिटी चाहिए। संकेत हमें साफ समझ में आ रहा था। सरकार की नीतियां जनता के दिमाग में बैठ गई है। कारोबार से ज्यादा संस्कृति बचाने की चिंता है। मुझे वहां के प्रधानमंत्री का एक स्लोगन याद आया-हाई क्वालिटी, हाई कॉस्ट। बाजार में एक बंगाल की गाड़ी दिखी। उसका ड्राइवर उपेन दत्ता बेहद मुखर है। अक्सर थिंफू आता जाता रहता है। बातचीत के क्रम में वह टिप्पणी करता है--भारतीय को भी ये लोग 6 या सात दिन से ज्यादा का परमिट नहीं देते। खासकर मजदूर या किसान जैसे दिखने वाले भारतीय पर्यटक से बहुत डरते हैं। उन्हें लगता है कि ये लोग यहां आकर बस जाएंगे, काम करने लगेंगे जिससे संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। भूटान की खुशकिस्मती है कि वह कभी किसी देश का उपनिवेश नहीं बना। इसीलिए बाहरी प्रभाव से बचा रहा। बना होता तो आज कहानी दूसरी होती। भूटान 1974 में आम पर्यटको के लिए खुला है।
लोकतंत्र के खतरे या अनजाना भय
भूटान के सामने नेपाल का ताजा उदाहरण है। राजशाही के अंत के बाद वह देश किस तरह बरबाद हो रहा है। भूटान का लोकतंत्र नया नया है। दाशो केनली दोरजी कहते हैं, लोकतंत्र कई देशो में आंतरिक-बाहरी समस्याओं से जूझ रहा है। हम अपनी तरह के अलग हैं, यूनिक हैं, हमारे लोकतंत्र का फारमेट अलग है। हम किसी और की तरह नहीं होना चाहते। राजशाही हमारे यहां जनता की ख्वाहिश है। ये लोकतंत्र हमारे राजा की ओर से प्रजा को उपहार में मिला है। किसी संघर्ष की देन नहीं है। भूटान के प्रधानमंत्री ल्योनचेन जिगमी वाई. थिनले भी एक विशेष मुलाकात में ऐसी ही बात करते हैं। वह कहते हैं, आसपास के देशो का हाल देखते हुए तो लगता है कि हमारे यहां भी डेमोक्रेसी उसी रास्ते पर न चलने लगे या लोग उसका दुरुपयोग ना करने लगे। वे अपने इस भय को हमारे सामने छिपाते नहीं, जाहिर करते हैं। भूटान शायद इसीलिए चीन से कोई ट्रेड का रिश्ता नहीं रखता। भारत या थाईलैंड दो मुख्य व्यापार के लिए मफीद हैं। यहां बाजार में चीनी समाना कम मिलते हैं जो मिलते भी हैं वे तस्करी होकर आते हैं। ये बात वहां के अधिकारी भी स्वीकारते हैं। प्रधानमंत्री चीन के साथ संबंधो के मामले में दो टूक कहते हैं, हम नहीं चाहते कि दो देशो के बीच कोई गलतफहमी हो। आपसी समझदारी से हम एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव रखते हैं और संप्रभुता को स्वीकार करते हैं।