बैठा रहा चांद
Posted By Geetashree On 1:23 AM 6 commentsमेरे शहर में मेरा बचपन
Posted By Geetashree On 4:31 AM 4 commentsमेरे शहर में मेरा बचपन
कृष्ण बिहारी
कानपुर, यह नाम यह संज्ञा मेरे लिए दूसरे नामों की तरह यह केवल एक नाम नहीं है और न दुनिया या हिन्दुस्तान के अन्य शहरों की तरह यह कोई शहर भर है. कानपुर वह शहर है जो मेरी सांसों में वैसे ही बसा है जैसे किसी आशिक के दिल में उसकी महबूबा. इसे ऐसे भी कह सकता हूं कि मेरे महबूब शहर का नाम कानपुर है. मैं इसका आशिक और इसकी महबूबा दोनों ही हूं. स्मृतियों में मिठास और दंश का विचित्र सा सम्मिश्रण होता है. यह शहर मुझे धक्के मार मारकर बाहर भगाता रहा है और मैं हूं कि हर बार लौट लौटकर इसके पास आता रहा हूं या शायद यह कि शहर मुझे बार बार अपने आगोश में बुलाता रहा है.
मगर अफसोस, रात दिन जागने वाले मेरे जिन्दा शहर को नेताओं और प्रशासन ने इस तरह मार डाला कि न अब यह जीने में है और न मरने में. जब मुम्बई को लोग आज की तरह जानते भी नहीं थे तब मेरा शहर हिन्दुस्तान का मेनचेस्टर कहलाता था. लोगों को रोजी रोटी देने वाला शहर परिवारों को जिलाने वाला मेरा शहर किसी कोरामिन की उम्मीद में सांस रोक रोककर जी रहा है. कि शायद कोई मसीहा उतर आए. कोई अवतार जन्म ले और इस शहर की किस्मत को भाग्योदय का नजारा देखने को मिले. उद्योग धंधे नेतागिरी लील गई और प्रशासन उन सुविधाओं को हजम कर गया जो आम लागों के लिए थीं. निर्भीक पत्रकार और देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी का यह शहर थानेदारों को सलाम करके खबर जुटाने वाले पत्रकारों और लुच्चई की राजनीति करने वाले गुण्डों का शहर होता गया. खैर जो है वह भी मेरा ही अपना है. बात को अगर एक सिरा दे दूं तो शायद बात बने.
होश संभालने की वह कोई ऐसी उमर भी नहीं थी जब तीन साल की अवस्था में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के गांव कुण्डाभरथ से इस शहर के सबसे साफ सुथरे इलाके अर्मापुर इस्टेट में मुझे बाबूजी ले आए. उस उमर में क्या पता चलता कि वहां कौन लोग रहते हैं और मैं कानपुर के किस विशिष्ट क्षेत्र में रहने लगा हूं. यह तो बहुत बाद में पता चला कि इस बस्ती में सरकार के सुरक्षा विभाग से जुड़े वे कर्मचारी और अफसर रहते है, जो आयुध निर्माणी और लघु अस्त्र निर्माणी कारखानों में काम करते हैं.
आर्म्स बनाने वाली फैक्ट्री के निवासियों की इस बस्ती का नाम भी आर्म्स से अर्मापुर पंडा. कर्मचारियों को पद के हिसाब से क्वार्टर मिले थे. बाबूजी न तो लेबर थे और न अधिकारी. स्टाफ में सबसे निचला दर्जा. काउण्टर का पद. इस हिसाब से उन्हें जो क्वार्टर मिला वह लेबर को ही मिलता था. आर टाइप 45. इस क्वार्टर में एक कमरा एक बरामदा और एक आंगन होता था. बरामदे में ही खाना बनाने के लिए रसोईघर की व्यवस्था करनी होती थी. नहाने और बाथरूम जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी.
एक लाइन में बारह क्वार्टर आगे और बारह उसके पीछे थे. दो लाइनों के दोनों सिरों पर सरकारी नल थे जिनसे पानी भरकर लोग अपने क्वार्टरों में रखते थे. क्वार्टर में आंगन के आगे मुख्य दरवाजा होता था, जिसके आगे बाहर की दुनिया थी. यूं तो इससे निचले दर्जों के भी क्वार्टर थे जिन्हें एस टाइप कहा जाता था.
एस टाइप में केवल एक कमरा और बहुत छोटा सा बराम्दा होता था. आर और एस टाइप के क्वार्टरों की कुल संख्या लगभग ढाई हजार थी. आज तक कहा जाता है कि अंगरेजों ने ये क्वार्टर अस्तबल के रूप में बनाए और इनमें घोड़े रहा करते थे.
आजादी के बाद इन क्वार्टरों को श्रमिकों को अलॉट किया गया और तब इनमें हिन्दुस्तानी गोरे साहबों के घोड़ेनुमा नौकर रहने लगे. इन क्वार्टरों के अलावा जो दूसरे टाइप के थे वे भी कई श्रेणियों के थे और पद के अनुकूल अलॉट किए गए थे. इस तरह कुल मिलाकर चार हजार से अधिक क्वार्टर थे जिनमें रहने वालों की संख्या लगभग पचीस हजार रही होगी. लेकिन इस स्थिति को क्या कहूं कि जहां श्रमिक अंग्रजों के बनवाए अस्तबलों में रहते थे वहीं उनके बंगलों में हिन्दुस्तानी गोरे अधिकारी रहने लगे. एक एक बंगला कई कई एकड़ में है.
खैर वक्त को क्राइटेरिया मानूं तो उस बस्ती में अमन चैन था. वातावरण गुलजार रहता था. अद्भुत् भाईचारा था. आज वही बस्ती भुतहे डेरे जैसी हो गई है. शायद मैं इसे आगे लिखूं. फिलहाल अभी तो यह कि जिस क्वार्टर में बाबूजी मुझे लाए थे उसके बाहर की दुनिया वह मेरे होने को बताने वाली मुझे बनाने वाली एक अलग किस्म की दुनिया थी.
आज बावन साल बाद जब मैं अपनी स्मृति से |
लेकिन इससे पहले कि मैं निर्मल की चाय की दूकान पर जाऊं दो काम रूटीन बन चुके थे, एक तो सुबह बिस्तर से उठते ही सुलेमान के घर जाना और उनकी अम्मी के सामने आंख मलते हुए बैठना. अम्मी चाय के साथ एक रोटी देतीं. उसे खाने के बाद घर आना.
दातून या मंजन करना भी जरूरी है यह बात उन दिनों कोई मायने नहीं रखती थी. सुलेमान का छोटा भाई उस्मान मेरी ही अवस्था का था लेकिन उससे कभी मेरी दोस्ती रही हो ऐसा याद नहीं पड़ता. आज बावन साल बाद जब मैं अपनी स्मृति से गुजर रहा हूं तो यह सोचने के लिए ठहर सा गया हूं कि क्या नियति ने ही यह तय कर रखा था कि अपनी उमर का बहुत सा हिस्सा मैं इस्लामिक मुल्क में गुजारूंगा.
जब पन्द्रह- बीस साल का ही था तो मुझे गांव घर के लोग तुर्क कहने लगे थे. तुर्क माने उनकी दृष्टि में मुसलमान. आज यह भी सोचता हूं कि कट्टर ब्राह्मण परिवार का सबसे बड़ा लड़का मैं बचपन से ही इतना विद्रोही क्यों था. खैर, सुलेमान के अब्बा और अम्मी मुझे बहुत प्यार करते थे. मुझे भी मेरी अम्मां और बाबूजी ने सुलेमान के घर जाने से कभी मना नहीं किया.
दूसरा काम. बाबूजी को गाय पालने का शौक था.
अम्मां क्वार्टर से बाहर नहीं निकलती थीं. गांव का परदा शहर में भी लागू था. दूसरी बात कि अपनापे और भाईचारे के उस माहौल में किसी खतरे या दुर्घटना की आशंका किसी को भी नहीं थी. आज क्या तीन साल के बच्चे को कोई इस तरह निर्द्वन्द्व घर से बाहर छोड़ सकता है.
शाम को साढे पांच बजे बाबूजी आते और गाय को वापस खूंटे पर लाते. सानी पानी करते. उसे दूहते और फिर कच्चे गर्म दूध का एक गिलास भरकर मुझे पिलाने के लिए निर्मल की दूकान के पास खड़े होते.
वहीं उस समय एक गुब्बारे वाला आ जाता था. उसके पास गैस वाले गुब्बारे होते थे. एक पैसे का एक गुब्बारा. एक पैसे का सिक्का छोटा भी होता था और बड़ा भी. जो बड़ा होता था उसमें छेद होता था. उसे छेदहा पैसा कहते थे. ये दोनों सिक्के तांबे के होते थे. मैं एक घूंट दूध पीता और एक गुब्बारा उड़ाता. कभी गिलास दस पैसे में खाली होता तो कभी बीस पैसे में. निर्मल की दूकान का हिसाब होता और शाम ढलने को हो जाती.
ऐसा करीब चार साल तक चला. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा उसी क्वार्टर में शुरू हुई. दामोदर त्रिपाठी मेरे पहले शिक्षक थे. घर आकर पढाते थे. हिंदी और अंकगणित. अंग्र्रेजी मुझे बाबूजी ने पढाई. बाबूजी गांव के पहले व्यक्ति थे जिसने हाई स्कूल यू. पी. बोर्ड से अंग्रेजी विषय लेकर पास किया था. उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी जो उन्होंने स्वाध्याय से अर्जित की थी. बाबूजी ने मुझे चार पांच साल ही पढाया होगा क्योंकि उमर के बहुत कच्चे मुकाम पर ही मैं उनका घोर विरोधी हो गया और ऐसी स्थिति हो गई कि हम एक दूसरे को सहने लगे. लेकिन यह उनकी पढाई हुई अंग्रेजी ही है जिसके बल पर मैं कहीं भी किसी भी जगह आत्मविश्वास के साथ खड़ा हो सकता हूं.
अपनी प्रारंभिक शिक्षा के उस दौर की एक घटना बताना चाहूंगा. दामोदर त्रिपाठी मुझे पढाने आते थे. आए. बैठे. पढाना शुरू किया.
मैंने कहा 'आप आंखें बन्द कीजिए' उन्होंने आंखें बन्द कीं. मैं घर में गया. वापस आया. उनकी आंखें तब तक बन्द थीं. जब उन्होंने चीखते हुए आंखें खोलीं तब तक मैं अपना काम कर चुका था.
मैंने उनकी नाक पर चाकू फेर दिया था. वह हड़ाबड़ा हुए खून पोंछ रहे थे और मैं हकबकाया हुआ इस अप्रत्याशित स्थिति से उत्पन्न परिस्थिति के आसन्न संकट को सोचते हुए थरथरा रहा था. हुआ यह था कि बीती रात को बाबूजी मुझे रामलीला दिखाने ले गये थे और मैंने सुर्पणखा अंग भंग देखा था. मैं लक्ष्मण क्यों बना, याद नहीं. आज मैं स्वयं अध्यापक हूं और अपने बचपन की इस गतिविधि पर लज्जित हूं मगर ऐसा दूसरी बार भी हुआ और इससे भी ज्यादा दुखद ढंग से. कभी आगे या अगले भाग में इस घटना के बारे में लिखूंगा और तब तक शहर को कुछ और सांद्रता के साथ जियूंगा.
साढ़े सात की आख़िरी बसः हेमंत शर्मा की कहानी
Posted By Geetashree On 8:36 AM 3 commentsअपने नुक्कड़ पर एक और दोस्त पत्रकार हेमंत शर्मा की पहली कहानी लेकर मैं हाजिर हूं. हेमंत चाहते थे मैं अपनी राय इस कहानी के बारे में दूं. मैंने पढा और लगा कि अकेले पढना और भय और अवसाद से भर जाना ठीक नहीं. ज्यादा से ज्यादा दोस्त पढ़ें. हेमंत का संकोच दूर कर दिया और कहानी मेरे कब्जे में.
हो सकता है प्रचलित अर्थों और मुहावरों में यह कहानी, कहानी की कसौटी पर खरी ना उतरे. शिल्प की दृष्टि से कोई कमी रह गई हो. कथा के कई तत्व नदारद हों, लेकिन इतना जरुर कहूंगी कि एक पत्रकार किस्सागो चाहे जैसा हो, कहन में कमजोर नहीं होते. कहानीकार को अंधेरे कमरों की रहस्यमयता को नैरेट करना आता है. कहानी को ज्यों का त्यों आपके सामने धर दिया गया है.
पढिए और बताइए...कि क्या कहानी अपने अंधेरे से बाहर निकल रही है....गीताश्री
साढ़े सात की आख़िरी बस
हेमंत शर्मा
इस कहानी की मुख्य पात्र असल में माँ हैं. पिता की जो छवि होश संभालने के बाद मेरे जेहन में बनी थी दरअसल उसे 'लार्जर देन लाइफ' माँ ने ही बनाया था. शायद यही कारण था कि पिता के आसपास मुझे हमेशा एक औरा नज़र आता. इस औरे की रोशनी खासकर ठंड और बरसात के दिनों में मुझे और माँ को डर और बुरे ख्यालों से बचाए रखती.
पिता इंजीनिअर थे और पता नहीं क्यों, उनका तबादला हमेशा छोटे-छोटे गाँवों में होता रहता. यहाँ पक्की सड़क नहीं बनी होती थी और यह जिम्मेदारी पिता पूरी करते थे. गाँव में बसें आती थी लेकिन सिर्फ़ सुबह और शाम को. अगर पिता शहर गए होते तो मैं और माँ शाम होते ही घड़ी पर टकटकी लगाये रहते. माँ के इसी इंतज़ार ने मुझे बहुत ही कम उम्र में घड़ी देखना सीखा दिया था.
शाम साढ़े सात बजे शहर से आखिरी बस आती और हम दोनों मान कर चलते कि पिता इस बस से जरूर आ गए होंगे. घर आते हुए वे अपने दोस्तों से मिलते और सिगरेट के कश लगाकर तुंरत ही घर आ जाते. बस के गाँव पहुँचने, और पिता के घर पहुँचने के बीच, लगभग बीस मिनट लगते थे. माँ पाँच मिनट और इंतज़ार करतीं, फिर मुझे यह पता लगाने भेजती कि बस समय से आई है या नहीं? बस शायद ही कभी देर से आती थी और इस बात का पता माँ को भी था. पिता भी बस की तरह कभी देर से नहीं आते थे और यह बात भी पता होने के बावजूद माँ मुझे बस की ख़बर लेने भेजती और मैं डर जाता.
मुझे गाँव की कच्ची सड़क का अँधेरा या उस पर हर समय काटने को तैयार बैठे रहने वाले कुत्ते नहीं डराते थे बल्कि माँ का वह डर डराता था कि- पिता नहीं आए तो? वैसे कभी-कभार ही ऐसा होता कि बस आती और पिता नहीं आते.
जिस सड़क से पिता घर आते वह गाँव के बीच से होकर आती थी और मेरे लिए खेल के मैदान की तरह थी, जिसके हर गड्ढे को मैं जानता था. सड़क पर पड़े गिट्टी-पत्थर भी मुझे जान-पहचान के लगते. कई बार मैं आँखें बंद कर कुछ कदम चलता और और फिर ख़ुद को ही यह बताकर चमत्कृत हो जाता कि कीचड़ के बीच से भी मैं पैर गंदे किए बिना निकल सकता हूँ. रास्ते के सारे कुत्ते मुझे अपने लगते और हमेशा उनसे आँखें मिलते हुए मुझे लगता कि वे भी मुझे जानते हैं. कई बार मैं रात को भी इस रास्ते से निकलता और पिता के पास जाता. तब पिता बाज़ार में कहीं होते थे और मेरी पेंसिल जवाब दे जाती थी तो मैं पेंसिल लेने बाज़ार दौड़ जाता. मैं बिना डरे रास्ते पिता के पास पहुंचता और पेंसिल खरीद कर उनके साथ घर लौटता.
कई बार जब पिता देर से आते तो माँ का डर धीरे-धीरे उनके शरीर से निकल कर मुझ तक पहुँचने लगता. फिर मेरे शरीर से फ़ैल कर पूरे घर में पसर जाता. कई बार माँ घर की देहरी पर नमक रखकर इस डर को रोकने की कोशिश करती. माँ को लगता था कि इसमें घर के पीछे वाले हिस्से में बने उन दोनों अंधेरे कमरों का हाथ है जहाँ जाने की मुझे मनाही थी. माँ कहती थी कि वहां कुछ है. घर के सामने रहने वाली अनीसा चाची हमारे घर के बारे में माँ को कई बातें बताती थीं. माँ को लगता था कि अनीसा चाची इन मनहूस कमरों का इलाज़ कर सकती हैं जो ऐसे हालात पैदा करते थे कि पिता की आखिरी बस छुट जाए. माँ को मैंने कई बार यह कहते भी सुना था कि किसी 'रतलाम वाले चाचा' से उन्होंने ऐसा तावीज़ बनवाया है जो पिता के दाहिने हाथ पर बंधने के बाद इन कमरों की मनहूसियत ख़त्म कर देगा और फिर यहाँ का बल्ब बार-बार फ्यूज़ नहीं होगा. मैं भी इन कमरों में जा सकूँगा और पिता की आखिरी बस कभी नहीं छूटेगी.
लेकिन वह ताबीज़ अभी आया नहीं था इसलिए पिछ्वाड़े के अंधेरे कमरे इस कोशिश में थे कि पिता की आखिरी बस छुट जाए. माँ को गुस्सा भी आ रहा था कि पिछले हफ्ते यदि उनकी तबियत ख़राब नहीं होती तो हम तीनों रतलाम जाकर उन चाचा से ताबीज़ ले आते और आखिरी बस के छूटने का झंझट ही ख़त्म हो जाता. लेकिन रतलाम नहीं जा पाने के लिए भी वे इन कमरों को ही जिम्मेदार मानती थीं. माँ ने एक रात पहले ही नीली बास्केट में ज़रूरी सामान भी रख लिया था और मुझसे वादा किया था कि वे मुझे चोकलेट का बड़ा पैकेट और आवाज़ करने वाली कार दिलवायेंगी. लेकिन सुबह-सुबह माँ को इतना तेज़ बुखार हो गया कि वे बिस्तर से ही नहीं उठ पा रही थीं. बुखार तो अगले ही दिन उतर भी गया लेकिन इससे माँ का ये विश्वास और भी पक्का हो गया कि कोई है जो उन्हें उस ताबीज़ को लाने से रोक रहा है. मुझे लग रहा था कि पीछे वाले कमरों को मेरी कार और चोकलेट वाली बात का भी पता चल गया था.
माँ का बुखार उतरते ही पिता को अगले दिन फिर शहर जाना पड़ा. उस दिन जब अनीसा चाची ने लाल मिर्च से माँ की नज़र उतारी और मिर्च को आग पर जलाया तो मुझे ज़रा भी खांसी नहीं आई. अनीसा चाची की आँखें तब काफी बड़ी-बड़ी हो गई थीं. माँ ने भी तय कर लिया था कि इस रविवार चाहे जो हो जाए, वे रतलाम जाकर ताबीज़ लेकर आएँगी. बाद में अनीसा चाची ने मुझे और माँ को काला धागा बांधा. अंधेरे कमरों के खिलाफ माँ की लड़ाई में वे हमेशा माँ के साथ खड़ी दिखाई देती थीं. माँ कहती थीं कि उनके चार साल के बेटे की मौत के पीछे भी इन्हीं कमरों का हाथ था क्योंकि इन कमरों को बच्चों की हँसी पसंद नहीं थी. हमारे आने के पहले तक यह घर खाली पड़ा था और मकान मालिक ने पिता से काफी खुशामद की थी कि वे यह घर किराये पर ले लें. मकान मालिक शराबी था और उसकी माली हालत ऐसी नहीं थी कि वह घर की पुताई भी करवा पाता.
गुरुवार को अनीसा चाची और माँ फिर से अंधेरे कमरों के खिलाफ़ इतनी धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे कि मुझे काफी कोशिशों के बावजूद कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था. मैं जब पास गया तो दोनों चुप हो गए. बस मैं इतना सुन पाया कि माँ इस रविवार किसी भी हालत में रतलाम जाने जाने वाली हैं और अनीसा चाची अपने घर बैठकर उन अंधेरे कमरों को रोकेंगी जो चाहते थे कि कि माँ रतलाम नहीं जा पाए.
लेकिन रविवार अभी तीन दिन दूर था और पिता को शहर जाना पड़ा. मैं जब स्कूल से घर लौटा तो बारह बजे थे. माँ और अनीसा चाची खिड़की के पास बैठे थे फिर भी उनका चेहरा मुझे साफ़ नज़र नहीं आ रहा था. माँ के चेहरे पर एक अज़ीब सा दर्द था जो अक्सर मुझे तब दिखाई देता था जब उनकी तबियत ठीक नहीं होती थी. तब मुझे अपने हाथ से खाना लेना पड़ता था. माँ बिस्तर पर लेटी होतीं और मुझे अपनी अधखुली आंखों से इशारा कर देतीं कि मैं अपना खाना ख़ुद ले लूँ. आम तौर पर तब मुझे रात की ठंडी रोटियां दूध के साथ खानी पड़ती थीं. खाना लेने के लिए मुझे रसोईघर में जाना होता जो सीढ़ियों के दूसरी ओर था. रसोईघर इतना बड़ा था कि मुझे कई बार डर लगता कि यदि भागना पड़ा तो मैं वहां से बाहर ही नहीं निकल पाऊंगा.
उस दिन भी मैंने ख़ुद जाकर खाना लिया और वहीँ बैठकर खाने लगा. जब माँ के पास लौटा तो अनीसा चाची जा चुकी थीं पर माँ के चेहरे की सूज़न साफ़ दिखाई दे रही थी. मुझे पता था अब माँ सो जाएँगी और मुझे अकेले ही शाम तक रहना होगा. लेकिन उस दिन मेरे डर की उम्र थोड़ी कम थी और माँ चार बजे ही उठ गईं. उन्होंने हम दोनों के लिए चाय बनाई और शाम के खाने की तैयारी करने लगीं. मैं उस सड़क पर निकल आया जहाँ मुझे डर नहीं लगता था और मेरे सारे दोस्त जहाँ मेरा इंतज़ार करते थे. शाम के साढ़े छः बज चुके थे. गिल्ली-डंडे की न जाने पारियां हो चुकी थी. फुटबॉल भी खेला जा चुका था और क्रिकेट भी. हालाँकि जबसे मेरा बल्ला टूटा था क्रिकेट में कोई मज़ा नहीं बचा था लेकिन कपड़े धोने की मोगरी ने हमारे बल्ले की कमी पूरी कर दी थी. मगर आज़ तो माँ की मोगरी का हत्था भी टूट गया था और मैं चुपचाप जाकर उसे पिछवाड़े की उसी खुली जगह में रख आया था जो उन अंधेरे कमरों के पास थी, जो चाहते थे कि पिता की आख़िरी बस छूट जाए.
माँ ने मुझे खाने के लिए बुलाया लेकिन मैंने साफ़ इनकार कर दिया था. मैं पिता के ही साथ खाना चाहता था क्योंकि तब माँ गर्म-गर्म रोटियां उतारतीं और उन्हें थोड़ा ज्यादा सेंक कर उस पर इस तरह घी लगाती कि मैं दो के बजाय पाँच-छः रोटियां खा जाता. पिता मुस्कुराते और माँ मुझे देखकर पिता की तरफ़ देखतीं और फिर वे भी मुस्कुरा देतीं. मुझे इस तरह पिता के साथ बैठना बहुत अच्छा लगता था क्योंकि तब सामने चूल्हा जल रहा होता था और उसकी लाल लौ में पिता का चेहरा ज्यादा सुर्ख हो जाता. चूल्हे की लौ और पिता का औरा पूरे रसोईघर को रोशन कर देते थे और मुझे यकीन था कि अंधेरे कमरे इस रोशनी से बेहद डरते थे. लेकिन पिता के आने में अभी भी एक-डेढ़ घंटा बाकी था इसलिए अंधेरे कमरे अब तक डरे नहीं थे.
सात बजते-बजते माँ ने मुझे अपने पास बुला लिया. आकाशवाणी इंदौर पर शायद खेती-गृहस्थी कार्यक्रम चल रहा था और नंदाजी किसान भाइयों को बता रहे थे कि चने की फसल को इल्लियों से बचाने के लिए क्या करना चाहिए? माँ और मैं यह कार्यक्रम रोज सुनते और मैं सोचता- क्या अंधेरे कमरों से हमें बचाने का कोई उपाय नंदाजी कभी बताएँगे? मुझे इस कार्यक्रम की धुन बहुत अच्छी लगती थी क्योंकि उसमें गले में घंटी बंधे गाय-बैलों के भागने की वैसी ही आवाज़ होती थी जो शाम को सामने वाली कच्ची सड़क पर सुनाई देती थी.
पिता के आने का समय हो रहा था, और जैसा कि उस आख़िरी बस के बूढे ड्राईवर के बारे में सब लोग बताते थे, उसकी बस को कभी किसी ने देर से आते नहीं देखा था. माँ ने एक बार फिर घड़ी पर नज़र डाली, और कहा- बस आ गई होगी ना? पता नहीं, उनका भरोसा पिता के आने को लेकर अधिक था या उस बूढे ड्राईवर पर, जो कभी बस को देर से नहीं लाता था. अब तक धीरे-धीरे हाथ चला रही माँ के हाथों में अचानक फुर्ती आ गई थी. अंधेरे कमरे हारने वाले थे और अनीसा चाची की मदद से माँ जीतने वाली थीं. मैं कल्पना कर रहा था अब पिता बस-स्टाप से निकले होंगे...अब वे चौराहे पर करोड़ी की होटल पर खड़े होंगे...हमेशा की तरह करोड़ी ने उनके लिए चाय तैयार रखी होगी और बिना मांगे उन्हें दी होगी...अब उनके हाथ में सिगरेट होगी जिसे देखते ही पाठक सर उनके पास आए होंगे ताकि उसी सिगरेट में से वे भी एक-दो कश लगा सकें...और अब पिता किसी भी समय दरवाजे पर दस्तक दे सकते हैं....लेकिन घड़ी की लगातार टिक-टिक के बावजूद दरवाजे पर कोई दस्तक नहीं हुई. घड़ी की सुई अब आठ बजा रही थी. तो क्या अंधेरे कमरे पिता को आखिरी बस से आने से रोकने में सफल हो गए?
माँ के चेहरे पर अब मैं परेशानी को साफ़ पढ़ सकता था. माँ ने कहा- बस तो आ गई होगी अब तक? माँ चाहती थीं कि मैं उनकी बात की पुष्टि करूँ. लेकिन वे यह भी चाहती थीं कि काश मैं इस भरोसे को ही झुठला दूँ कि बस आ गई होगी. माँ ने देहरी पर नमक रखा और बुदबुदा कर किसी से पिता के जल्द से जल्द घर पहुँचने कि मन्नत कर डाली. माँ का डर एक बार फिर उनके शरीर से होते हुए मुझमें प्रवेश कर रहा था और अब धीरे-धीरे मेरे शरीर से होते हुए पूरे घर में फैलता जा रहा था सिवाय पिछवाड़े के उन दो अंधेरे कमरों के.
माँ ने मुझे बस-स्टॉप जाकर आखिरी बस के बारे में पता लगाने को कहा. उन्हें उम्मीद थी कि शायद बस आई ही नहीं होगी. मैं भी ख़ुद को यही दिलासा दे रहा था कि काश बस न आई हो. आठ बजकर दस मिनट पर जब मैं चप्पल पहनकर घर से बाहर निकला तो दरवाज़ा बंद करते हुए मुझे दरवाजे की ओर देखना पड़ा जहाँ से पिछवाड़े के अंधेरे कमरे साफ़ दिखाई देते थे. मैंने दरवाज़ा बंद किया और जल्दी-जल्दी उसी सड़क पर चलने लगा जो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी. बाहर निकलते ही मेरा पैर एक पत्थर पर पड़ गया जिसके कारण मैं लगभग गिरते-गिरते बचा. इतना बड़ा पत्थर सड़क पर कहाँ से आया इस बारे में मैं सोचना नहीं चाहता था. तभी दो कुत्ते धीरे-धीरे मेरे पास आए और अचानक भौंकने लगे. ये वही कुत्ते थे जिनसे दोस्ती का दम मैंने कहानी की शुरुआत में भरा था. डर के मारे मैं दौड़कर सड़क पार करने लगा और मेरा पैर उस गड्ढे में जा गिरा जो हमेशा कीचड़ से भरा रहता था और जिसे मैं आँखें बंद कर भी हमेशा पार कर लिया करता था. अब मेरे दोनों पैर कीचड़ में सने हुए थे. चप्पल भी पूरी तरह कीचड़ से लथ-पथ थी. मैंने चप्पल और पैरों से कीचड़ हटाया और आगे बढ़ गया. कुत्ते अब भी मेरा पीछा कर रहे थे और मुझे यकीन होने लगा था कि ये सब अंधेरे कमरों की ही चाल है.
जिस समय मैं बस-स्टॉप पर पहुँचा, समय लगभग सवा आठ से ऊपर हो रहा था. वहां रौनक बरक़रार थी और चाय की दुकान पर अब भी चाय बन रही थी. मुझे यकीन हो गया कि आख़िरी बस अभी नहीं आई है. लेकिन आज यहाँ सब कुछ बदला हुआ सा था. वहां मौजूद सारे लोग जोर-जोर से बातें कर रहे थे और उनके चेहरों पर हड़बड़ी साफ़ दिखाई दे रही थी. पता चला कि बस रतलाम से निकली तो समय पर थी लेकिन शहर के बाहर निकलते ही पहाडी की ढलान पर पहली बार बूढा ड्राईवर बस से अपना नियंत्रण खो चुका था और बस खाई में जा गिरी थी. बस-स्टॉप पर मौजूद लोग अब मोटर साइकिलें लेकर वहां जाने की तैयारी कर रहे थे. मुझे पहचाना सब ने लेकिन कोई मेरी और देख नहीं रहा था. मैं इतना बड़ा भी नहीं था कि उन लोगों के साथ पहाडी की ढलान पर जा पाता और इतना छोटा भी नहीं था कि चुपचाप घर जाकर माँ को इस बात की जानकारी देता और पिता के आने का इंतज़ार करता.
पिता उसके बाद कभी नहीं आए. उस दुर्घटना में बीस लोगों की मौत हो गई थी और कई लाशें ऐसी थीं जिन्हें पहचाना नहीं जा सका था. पिता के बारे में कोई पक्की ख़बर कभी नहीं मिल पाई. कोई कहता था कि जिन लाशों को पहचाना नहीं जा सका, उनमें से ही एक पिता की थी. लेकिन पाठक सर, जो ख़ुद उस बस में सवार थे और इस दुर्घटना के बाद अपनी याददाश्त खो बैठे थे, को किसी ने यह कहते हुए सुना था कि पिता बस के टूटे कांच से बाहर निकल गए थे. पिता से दुश्मनी रखने वाला मंगल ठेकेदार बाद में लोगों को यह कहते देखा गया कि उसने पिता को एक सुंदर डॉक्टरनी के साथ जयपुर में देखा था. उसने दबी जुबां यह भी कहा था कि माँ को डॉक्टरनी वाली बात पहले से पता थी.
गाँव
छोड़ने के बाद किसी ने हमें बताया था कि अंधेरे कमरों की कहानियों को लेकर जायसवाल मकान मालिक का अनीसा चाची और उनके पति से जमकर झगड़ा हुआ था. मकान मालिक कहता था कि उनका मकान हड़पने के लिए वे दोनों अंधेरे कमरों के किस्से उड़ाते थे. वह यह भी कहता था कि अनीसा चाची के बेटे की मौत के लिए कमरे नहीं, बल्कि चाची ख़ुद जिम्मेदार थी. चाची कई बार अपने रोते बच्चे को अफीम का पानी पिलाकर सुला चुकी थी. यह अफीम उन्हें मकान मालिक से ही मिली थी. एक दिन ज्यादा अफीम देने के कारण उनके बेटे की मौत हो गई थी और पति से यह छुपाने के लिए उन्होंने अंधेरे कमरों की कहानी गढ़ ली थी. बताते हैं कि वह घर अब एक खंडहर में तब्दील हो चुका है. अनीसा चाची पूरे समय बीमार रहती हैं. और माँ अब भी आखिरी बस का इंतज़ार करती है…मनीषा तनेजा की कविताएं
Posted By Geetashree On 12:26 AM 19 commentsअब पेश है मनीषा की कविताएं. मनीषा की इन कविताओं से गुजरते हुए आप पाएंगे कि इन कविताओं में काल का पृष्ठ तनाव गुजरे हुए से लेकर भविष्य तक विस्तारित होता है; हर उस अच्छी कविता की तरह, जिसके आकाश में प्रेम किसी संतूर-सा बजता रहता है. -गीताश्री
मनीषा तनेजा की चार कविताएं
एक
घास पर दो परछाइयां
लंबी होती, बढ़ती हुई साथ-साथ चलती हुई
हरे घास के मैदान से होकर.
तुम्हारे बेहद चौड़े कांधे मेरी दुबली-पतली उंगलियां
दो परछाइयां साथ-साथ
और बीच में सूरज की किरणें
क्षितिज से कितनी दूर
परछाइयों के साथ बैंगनी रंग
जैसे हमारे पीछे डूबता है सूरज
कांधे पर तुम्हारी बाहें मुझे खींच रही है तुम्हारे करीब
जब ढलती है शाम
दोनों परछाइयां मिलकर एक हो जाती हैं.
दो
समय की रफ्तार के साथ साल दर साल गुजरते जाते हैं,
वो रुकते हैं तुम पर मुस्कुराने के लिए
तुम्हें तुम्हारी सुहानी यादों के साथ बांधने के लिए
जिंदगी ने तुम्हें जो खुशियां दी हैं
और तुम जिन्हें खुलकर
अपने हर मिलने वालों के साथ बांटते हो
यही चीज तुम्हारी जिंदगी को मुकम्मल बनाती है
ऐसा करके तुम हमेशा जवान बने रहते हो
क्योंकि तुम्हारे पास देने के लिए काफी कुछ है,
तुम सदा युवा ही रहोगे
क्योंकि तुमने देना सीख लिया है.
तीन
मेरी ख्वाहिश है
इंद्रधनुष को कैद करके
एक बड़े बक्से में डाल दूं
ताकि तुम जब चाहो उसके पास जाकर
एक चमकीला टुकड़ा खींचकर ले लो.
मैं तुम्हारे लिए एक पहाड़ बनाना चाहती हूं
जिसे तुम अपना कह सको,
एक ऐसी जगह
जहां तुम खुद से करीब होने की जरूरत के वक्त जा सको
जब तुम तकलीफ में होगे
या बहुत प्यारे लग रहे होगे
या जब किसी का साथ यूं ही चाहोगे,
चाहती हूं ऐसे पलों में
तुम्हारे साथ रहूं
मैं तुम्हारे लिए वो सब कुछ करना चाहती हूं या
इससे कहीं ज्यादा भी
जो तुम्हारी जिंदगी को खुशियों से भर दे.
पर कभी-कभी ऐसा करना आसान नहीं होता
तब मैं तुम्हारे लिए वो करना चाहूंगी या
तुम्हें वो दूंगी जो मेरी चाहत है
इसीलिए जब तक मैं इंद्रधनुष को कैद करना या
कोई पर्वत बनाना नहीं सीख लेती तब तक
तुम्हारे लिए मुझे वो करने दो जिसे करना
मैं बखूबी जानती हूं-
मुझे बस अपना दोस्त बनने दो.
चार
एक बेजान गुलाबी याद ने मेरे दिल को छुआ
गुलाबी रंग चटक लाल रंग में ढल गया
फिर उसका रंग गहरा बैंगनी हो गया
खिलखिलाती हंसी से आंसू तक के वो दिन
मस्ती और निराशा से भरे
हम इन सबसे गुजर चुके हैं, क्या ऐसा नहीं है?
हल्के रंगों से गहरे चमकीले रंगों की ओर
हर बार मैं तुम्हारे बारे में सोचती हूं
मेरी मुस्कान सारी भावनाओं को व्यक्त कर देती है.
अपने आंगन का आतंक
Posted By Geetashree On 2:18 PM 22 commentsमनीषा मेरी बेहद करीबी दोस्त हैं. इनके स्वभाव के बारे में जानती थी. इनकी रुचियों, खूबियों का भी मुझे पता था, लेकिन और भी कुछ एसा था जो मुझसे या कहें जमाने से छुपा था (छुपाती रही हैं.). ये छुपा ही रहता. अगर मैंने कुछ लिखने को नहीं कहा होता. उदारमना मनीषा अपनी रचनाएं देने में इतनी कंजूस निकलेंगी ये भी अब पता चला. मनीषा अब भी नहीं चाहती थीं कि दुनिया को पता चले कि वे कविता या कहानी लिखती हैं. मेरे जिद करने पर उन्होने रचनाएं दे तो दीं मगर इस शर्त्त पर कि मैं इसे बिना नाम के लगा दूं. मै समझ सकती हूं उनका संकोच...लेकिन मैं नहीं मानी. कहानी भले कहानी की कसौटी पर खड़ी ना उतरे, कोई परवाह नहीं (हालांकि ये कौन तय करेगा). इस कहानी के सामाजिक सरोकार ने मुझे बेचैन किया. अपने आंगन के आतंक से लड़की की मुक्ति कहां संभव है.
आज जहां एक कविता या एक कहानी लेकर लोग साहित्यिक मंडली का हिस्सा बन जा रहे हैं वहीं मनीषा के भीतर यानी मन और डायरी दोनो के पन्ने कहानी और कविताओं से भरे हैं और मुझे पता नहीं चला. वह दिल्ली विश्वविधालय में स्पेनिश भाषा पढाती हैं और अब तक कई क्लासिक उपन्यासों और महान लेखकों की जीवनी का अनुवाद कर चुकी हैं. इनका हिंदी में हाथ तंग नहीं है फिर भी हिंदी में लिखने मे संकोच है. अंग्रेजी में लिखती हैं और स्पेनिश में बोलती हैं (क्लास में).
कई रचनाओं का हिंदी में अनुवाद करने वाली की रचनाओं का मैं अनुवाद करुं, मुझे अटपटा लग रहा था. मगर वे माने तब ना. मुझ पर हमेशा की तरह विश्वास रखते हुए ये काम मेरे माथे मढ दिया. सबसे पहले पेश है उनकी कहानी का अनुवाद. इसमें मेरा कुछ भी नहीं है. कहानी ज्यों की त्यों आपके सामने रख रही हूं इस उम्मीद के साथ कि कहानी जहां, जिन सवालों के साथ खत्म होती है वहां से कई और बड़े सवाल खड़े हो जाते हैं. कहानी पढेंगे तो आप अपने भीतर खुद इन सवालो का जवाब तलाशेंगे कि क्या मरने वाले के सारे गुनाह माफ कर दिए जाने चाहिए. पढें और बहस में शामिल हों....
-गीताश्री
कहानी
कोई बात नहीं पापा
मनीषा तनेजा
मेरे पास उस घृणित व्यक्ति को माफ करने, नजरअंदाज करने या उसे इंकार करने के लिए तकरीबन 20 मिनट थे. वह मेरा बाप था.
हम अस्पताल के एक कमरे में बैठे, जहां एंटीसेपिटक्स की गंध थी और वहां बुझे चेहरों वाली नर्सों की आवाजाही लगी हुई थी, जिनके लिए जिंदगी और मौत में कोई फर्क नहीं था....
आज वह इंसान मर रहा था लेकिन मेरी दादी मां नहीं होतीं तो आज मैं यहां इसके पास नहीं आती. इस जगह, जहां जिंदगी के ऊपर मौत का साया मंडरा रहा था, उस बेजान होते इंसान ने अपनी आंखें खोली और कहा, 'मेरा ये अंदाजा है कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है.'
वह मुझसे यह जानना चाह रहा था कि क्या उसके ऐसे आचरण को माफ भी किया जा सकता है? क्या मैं उसे माफ कर पाऊंगी? उसे उम्मीद थी कि मैं कहूंगी, 'पापा, आप तो बुरे थे, फिर भी मैं आपको माफ करती हूं.' लेकिन...
तब मेरा सवाल था कि जो भाषा मैं और वह बोला करते थे, क्या उसे मैंने उसके शब्दकोश से सीखा था? मैं बुरी थी. तुम बुरे थे.
जिस पल उसने अपनी बातें खत्म की थी, उस समय से मेरी समझदारी का मीटर तेजी से चलना शुरू हो गया. मेरी चुप्पी उसे कहने का मौका दे रही थी और वह कह रहा था कि मैं ऐसा कुछ चाहता नहीं था जो मैंने किया. उसकी यही बात अपने आप में एक जवाब थी. अगर मेरा जवाब उससे अलग होता तो उसे वहीं दिया जाना था. यही वह घृणित व्यक्ति था, एक बिल्कुल बददिमाग या शायद बेचैन.
अब वह व्यक्ति मुझसे सवाल पूछने के बाद काफी दीन-हीन सा लग रहा था. वह चाह रहा था कि बिना किसी लाग-लपेट के, बिना कोई दया दिखाए मैं उसकी आलोचना करूं. और फिर मैं उसकी पीड़ा को महसूस करके उसे संतुष्ट होने का मौका दूं.
मेरी मां आज से 20 साल पहले दुनिया छोड़ गई थीं. तब मेरी उम्र केवल सात साल की थी. अपने ही पिता द्वारा उन दिनों सताया जाना मेरे लिए आज भी एक डरावने सपने की तरह है. कई रातों तक वह अपनी आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार करता रहा जो इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती थी कि उसके साथ क्या हो रहा है. किसी तरह मैं यह समझ पाई कि यह गलत है. बहुत गलत. उसके गंभीर परिणामों के बारे में जान कर इस पूरे मामले को समझना मेरे लिए और भी मुश्किल हो जाता.
हर दूसरे दिन दारू पीकर मारपीट से होने वाली दुश्वारियों को कम करने के लिए परिवार और पड़ोसियों ने कोई कदम नहीं उठाया. मेरी छह साल की छोटी बहन को इन प्रताड़नाओं से बचाने के लिए उस आदमी की बूढ़ी मां यानी मेरी दादी को बहुत अपमान और जिल्लत का सामना करना पड़ा. इन बातों को सोचकर मेरा खून खौल उठता है और अंदर से आवाज आती है, 'हां पापा, सच में तुम एकदम से हरामी थे.'
लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं कहा. मैंने फैसला किया कि मैं उसे अपनी माफी से महरूम नहीं करूंगी. फिर भी मैंने वह कहा, जिसे मेरे दिमाग ने, मेरी भावनाओं ने और यहां तक कि मेरे शरीर ने (जो अपनी तरह से सब कुछ जानता था) और मैंने एक झूठ माना. फिर भी मैंने कहा, 'नहीं पापा! कोई बात नहीं. हम पुरानी बातों को भूलें. यह तो बहुत पहले हुआ था.'
वह मुझे टकटकी लगाकर देखता रहा और धीरे से कहा, 'शुक्रिया'.
कुछ ही घंटों के बाद वह मर गया. मुझे विश्वास है कि वह शांति से मरा. मुझे लगता है कि वह समझ रहा था कि उसे माफी मिल चुकी है. चूंकि मैंने उसे बहुत आसानी से माफ कर दिया था इसलिए उसने असीम शांति का अनुभव किया और उसे लगा कि वह इसका हकदार था.
तो क्या मुझे शांति की समझ नहीं? क्या हमें यह नहीं सिखाया गया कि उदारता दिखाकर और दूसरों को माफ करके हम सुकून पाते हैं? और करूणा और पवित्रता क्या इसी का पुरस्कार नहीं हैं? और ऐसा क्यों किया मैंने? क्या इसलिए कि मैं किसी सतह पर उससे प्यार करती थी और किसी दूसरे तरीके से मेरे लिए उसके प्यार को भी महसूस करती थी? या यह कुछ ऐसा ही था जो प्राय: एक बाप और बेटी के बीच होता है. यहां तक कि मौत के साये में भी वह मुझसे खुली माफी की उम्मीद कर रहा था. मैंने उसे माफ कर दिया. ऐसा मैंने खुलकर किया. या... क्या मैंने ऐसा ही किया? इन सबके बावजूद क्या खून पानी से ज्यादा गाढ़ा है?
सवाल नहीं रुकते लेकिन इनका जवाब मेरी पहुंच के बाहर है. कई रातों तक मैं बिस्तर पर जागती आंखों से अपने अतीत में उन तर्कों को ढूंढती, जो मुझे मिल नहीं पाते....
एक फसाना ऐसा भी
Posted By Geetashree On 12:01 PM 13 commentsये है अपनी इरा दीदी. पत्रकारिता के शुरुआती दौर में मुझ जैसी कई नई लड़कियो की प्रेरणा. हमने जब सोचा कि इस पेशे में जाएंगे तब तलाश शुरु हुई अपने आदर्श की. महिलाओं में चंद नाम ही थे सामने. उनमें एक इरा जी का भी था जो बाद में मेरी इरा दीदी बनी. अपने पेशे में उनकी संघर्ष गाथा का लोहा सभी मानते है. जुझारुपन उनके स्वभाव का हिस्सा है. इरा बहुत बेबाक हैं, मस्त हैं, बेहद खुली हुई, लेकिन अगर उन्हें गुस्सा आ जाए तो फिर आपकी खैर नहीं. प्यार और नफरत, दोनों हाथ से उड़ेलती हैं. इन दिनों एक किताब तैयार करते हुए मैंने उनसे एक लेख का अनुरोध किया और वे मान गईं. मेरे लिए ठीक-ठीक कह पाना तो मुश्किल है कि ऐसा क्यों हुआ, लेकिन लेख को पढ़ते हुए मुझे लगा कि किताब जब आए तब आए (किताब जल्दी ही आ रही है) उससे पहले इस लेख को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. सो नुक्कड़ पर इरा झा का यह आलेख.
यह आलेख यूं तो एकवचन में है, लेकिन है बहुवचन के हिस्से का सच. मीडिया में एक अकेली स्त्री के संघर्ष और उसके जय-पराजय की यह कहानी केवल इरा झा के हिस्से की कहानी नहीं है, यह उन हज़ारों स्त्रियों की कहानी है जो देवघर से दिल्ली तक पुरुषों के वर्चस्व वाली इस दुनिया में अपनी सकारात्मक और सार्थक उपस्थिति दर्ज करा रही हैं.
-गीताश्री
इरा झा
युवा माता-पिता की जिस जवां गोद में मैंने आंखें खोलीं वहां लड़की होने का कोई खास मतलब नहीं था. मेरे भी पैदा होने पर वैसे ही बंदूक चली थी जैसी मेरे इकलौते भाई की पैदाइश पर. संगी-साथी से लेकर सहपाठी तक छोकरे ही थे. इसलिए खेल-कूद और धमाचौकड़ी का अंदाज उन जैसा ही था. लड़कों को कूटा भी और कुटी भी पर लड़कपन को भरपूर जिया. उस पर रही-सही कसर घर पर बुजुर्गों की कमी ने पूरी कर दी. टोका-टाकी करने को घर पर न दादी, न नानी. उलटे परी-सी खूबसूरत मेरी चंचल मां और युवा पिता. जिन्हें बिनाका गीत माला सुनने की धुन चढ़ती तो नया रेडियो खरीद लाते. जमकर फिल्में देखते और देर रात तक बैठक करते. बेटियों की हर फरमाइश मुंह से निकलते ही पूरी होती. पूरे व्यक्तित्व में स्त्रियोचित गुणों की खासी किल्लत थी. ऊपर से नसीहत यह कि भला किस मामले में कमजोर हो.
पिता बस्तर जिले में बड़े वकील थे और उनकी कमाई उड़ाने को मेरी मां काफी थी. पिताजी को पाक कला में पारंगत अपनी पत्नी का किचन में घुसना गंवारा नहीं था. वजह यह नहीं कि रांधने में कहीं कमी थी. उन्हें किसी भी महिला का पकाने-खिलाने जैसे कामों में लगना वक्त की बर्बादी लगता रहा. मेरी मां अब से 40 बरस पहले भी बस्तर जिले की नामी सोशल वर्कर थी और इसी नाते बाल न्यायालय की ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी. जब भी मीटिंग के सिलसिले में वह तब के बस्तर से कई-कई ट्रेन बदलकर मुंबई-दिल्ली, भोपाल-जबलपुर अकेली घूमतीं पर न उन्हें कभी आवाजाही के लिए अपने पति की जरूरत महसूस हुई, न मेरे पिता कभी उन्हें लेकर असुरक्षित लगे. उन्हें बाहर जाने के लिए अपने पति से इजाजत की दरकार कभी नहीं रही, उनको सूचित कर देना ही काफी था. वह बस्तर के सुदूर गांवों में आदिवासी महिलाओं और बच्चों को हाईजीन का पाठ पढ़ातीं. उनके देहांत के बाद मुझे यह भी पता लगा कि आदिवासी महिलाओं के आपराधिक ट्रेंड पर उन्होंने बढ़िया अध्ययन किया था.
अब लगता है कि आदिवासी मसलों पर लेखन का यह रुझान शायद उन्हीं की देन है. यह माहौल ही था जिसकी बदौलत युवा होने पर भी हम चारों बहनों को कभी पाक कला में हाथ आजमाने या कढ़ाई, बुनाई-सीखने की नसीहत नहीं मिली. डटकर फैशन, खूब घूमना, पूरी दुनिया घूमे विद्वान पिता से अंतर्राष्ट्रीय कानून, एटॉमिक मसलों से लेकर गांधी फिल्म, पेटेंट उरुग्वे राडुंड तक की तमाम तकनीकी और प्रशासनिक पेचीदगियों पर दुनिया जहान की बातें, यही थी हमारी दिनचर्या. अब परिवार चलाते हुए कभी-कभार यह परवरिश खटकती जरूर है पर उस घर का माहौल ही कुछ ऐसा था, जूते पहनने से लेकर चोटी गुंथवाने या बाल काढ़ने तक के लिए लोग थे. वक्त ने हमें बदल दिया पर मेरे पिता को आज भी अपनी बहू का उन्हें दूध गरम करके देना सख्त नागवार गुजरता है.
पर यह परवरिश पिता की हैसियत के कारण नहीं थी. पूरे छत्तीसगढ़ में लड़कियों की परवरिश का कुछ ऐसा ही आलम है. पढ़ने की मनचाही आजादी, घरेलू कामकाज का दबाव नहीं पुरुषों से मेलजोल को लेकर कोई पूर्वग्रह नहीं, न ही शादी का दबाव. सबसे अहम है लड़की की पढ़ाई और स्वावलंबन. उसके कॅरियर के लिए पूरा परिवार कंप्रोमाइज करने को तैयार. स्त्री सुबोधिनी जैसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं. छत्तीसगढ़ की आबो-हवा शायद 50 बरस पहले भी ऐसी थी और आज तो लड़कियों के हक में फिजा और खुशगवार है. उन्हें सेकेंड सेक्स का अहसास दिलाने वाले परिवार तब भी विरले थे और तब भी ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. दिल्ली से बैठकर छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके की लड़कियों का अगड़ापन और आत्मविश्वास नहीं समझा जा सकता. एक बार वहां पहुंचकर कोई हकीकत से रूबरू हो तो कोई बात है.
उस पर मुझे तो बस्तर के उन अबूझे माड़िया-मुरियाओं का निपट आदिवासी परिवेश मिला जो रहन-सहन और संस्कारों के मामले में यूरोपीय समुदाय के देशों के बाशिंदों से भी ज्यादा एडवांस हैं; रहन-सहन के नाम पर मिनी स्कर्ट की तरह लपेटी गई साड़ी खुले स्तन (ये मातृत्व का प्रतीक हैं, सेक्स का नहीं) और लंगोटी लगाए पुरुष. घरेलू अर्थव्यवस्था की धुरी है वहां औरत. वह खेत में हल चलाती है. फसल बोती है, मछली पकड़ती है और इसे बेचने के लिए बाजार भी वही जाती है. पति की भूमिका है कमाऊ पत्नी के पीछे बच्चों की परवरिश. बल्कि एक तरह से बच्चों की पैदाइश में मदद की प्राकृतिक जरूरत पूरी करना. सारे कामों से निपटकर इन निपट देहाती औरतों का थकान मिटाने का अंदाज भी कुछ यूरोपीयन-सा है. महुए की शराब के नशे में धुत्ता होकर मर्दों के साथ राने जवां-राने जवां या रे रेला रेला रे बाबा की धुन पर सुबह होने तक थिरकना. पति की छाया बनकर घूमने का बंधन नहीं.
युवाओं के लिए तो पहले बाकायदे नाइट क्लब की तर्ज पर घोटुल हुआ करते थे. अविवाहित जोड़ों के लिए समझ लीजिए खास तरह के ट्रेनिंग सेंटर. यहां घर बनाने से लेकर दांपत्य जीवन के लिए जरूरी सभी तरह की शिक्षा. गोबर से आंगन लीपने से लेकर खाना रांधना और यौन शिक्षा तक. घोटुल के अंदर कोई यौन वर्जना नहीं होती थी और सचमुच प्रेमजाल में पड़कर किसी जोड़े के विवाह की नौबत आ जाए तो समझिए पूरी इज्जत के साथ हमेशा के लिए उनकी विदाई. विवाह हुआ नहीं कि जोड़ा घोटुल के लिए पराया हो गया. ऐसी भी मिसालें हैं जिसमें कई संतानों की मौजूदगी में जोड़े दांपत्य सूत्र में बंधे.
इन आदिवासियों के बीच जिंदगी का बड़ा हिस्सा गुजर गया. बैलाडीला की फूलमती और हिड़मे, कुटरू के जोगे, मादी, चंपी बिज्जे, कोंटा का बारे, किलेपाल का डोरा-डौका और मोलसनार का भूगोड़ी मांझी. इनके चेहरे और आवाज आज भी यादों में ऐसे बसे हैं जैसे आज की ही बात हो. न जाने कितने परिचित थे जिनके बीच स्कूली छुट्टियां, उन्हें एयरगन से चमगादड़, पंडूकी या हरियल मारकर भेंट करके कांटी. बस्तर के जंगलों में तब शिकार की तलाश में 12 बोर की बंदूक लिये घूमना भी बचपन का खास शगल था. कुटरू और मोलसनार के जंगलों में घूमकर बिताए दिन भला कैसे भुलाए जा सकते हैं. अपने आफत के परकाले मामाओं के साथ बस्तर और वैसे ही आदिवासी जिले मंडला में न जाने कितनी बार शेर से लेकर चीतल तक के शिकार में गई, याद नहीं. एक बात और बता दूं, इस शिकार प्रकरण को सलमान खान से न जोड़ें क्योंकि तब शिकार पर सरकारी रोक नहीं थी.
उस पर रही-सही कसर बस्तर के राजपरिवार में आवाजाही ने पूरी कर दी. राजा प्रवीरचंद भंजदेव, छोटे कुंवर, बड़े कुंवर, राजगुरु परिवार में तब जो देखा उसे बखानने बैठूं तो भरोसेमंद नहीं लगेगा. मुझे अच्छी तरह याद है बस्तर गोलीकांड में शहीद होने के बाद दुनिया भर में जाने जाने वाले महाराजा प्रवीरचंद के रहन-सहन का विलायती अंदाज, उनकी टूटी-फूटी हिंदी और अंग्रेजीदां महिला मित्र. कुंवर गणेश सिंह की पत्नी जिन्हें हम नानी कहते थे, की फिल्मी सितारे की-सी छवि. संगमरमर के टेबल पर अपनी लंबी उंगलियों में थमी सिगरेट के कश लगाते हुए पत्ते खेलना. उन्हीं के घर की शशि की मां (नाम याद नहीं) और ठुन्नू बाबा (शायद पद्मा नाम था उनका) महारानी हितेंद्र कुमारी के हाल्टरनुमा ब्लाउज. कुटरू जमींदारिन नानी की हाथी मार बंदूक. उनके वह शाहखर्च बेटे छत्रापाल शाह उर्फ बाबा जिन्होंने देश में सबसे कम उम्र में मंत्री बनने के साथ-साथ घर की पूरी प्रॉपर्टी अपने चेलों पर लुटाकर यह मिथक तोड़ा कि नेतागिरी कमाई का जरिया है. परलकोट जमींदारिन का पान की जुगाली करना.
समानता की मिसाल देखिए, बस्तर में लड़कियों को तब बाबा कहा जाता था. लड़की होने का अहसास तब भी नहीं जागा. पिता के तबादले के साथ शहर और कॉलेज बदले. यह जागरूकता तो इस दिल्ली ने दिलाई जिसे लोग महानगर कहते हैं. इसी महानगर में आकर जाना कि लड़कियों को दिन ढलने से पहले घर लौट आना चाहिए. लड़कियां बतातीं, मां ने फलां जगह जाने को मना किया है. शाम का शो नहीं देखना या मेरे भाई का जन्मदिन है, धूमधाम से मनेगा तो ताज्जुब होता. ये छोटी सोच का कैसा महानगर है.
अपने सेकेंड सेक्स होने का अहसास तब और गहराया जब पत्रकारिता में कुछ कर गुजरने का जज्बा मुझे पटना ले गया. 1984 की बात है. एक मुख्यमंत्री की मिल्कियत वाले अखबार में जब काम करने पहुंची तो पता लगा कि लड़की हूं लिहाजा रिपोर्टिंग कैसे कर सकती हूं. खासी हुज्जत के बाद रिपोर्टिंग मिली तो हजारों नसीहतें फलां से बात मत करना, फलां के साथ क्या कर रही थीं, मानों बात न हुई कोई स्कैंड्ल हो गया. उस पर आशियाने की तलाश में मेरी जाति से लेकर मेरा प्रोफेशन और उससे भी बढ़कर लड़की होना कैसे बाधक बना, अब सोचती हूं तो लोगों की बुध्दि पर तरस आता है.
दिल्ली में बैठे मेरे माता-पिता को यह तनिक भी अंदाज न होगा कि पटना जाकर मुझे क्या-क्या झेलना पड़ेगा. पर पटना का हर राह चलता इंसान जैसे मेरा जबरिया हमदर्द था. उन्हें यह बात हजम नहीं होती थी कि सिर्फ कॅरिअर और जज्बे की खातिर कोई मां-बाप अपनी युवा बेटी को एक अनजान शहर में जाने की छूट दे सकते हैं. लिहाजा वे अटकलें लगाते, बेचारी बहुत गरीब होगी. कहीं घर से भागी तो नहीं है. आम राय यही बनती है कि किसी आर्थिक तौर पर बेहद तंग परिवार की होने के कारण मुझे इतनी दूर नौकरी करनी पड़ रही है. लोग खोद-खोद कर मेरे परिवार का ब्यौरा मुझसे लेते और जब मैं बताती कि मेरे पिता भारत सरकार में बड़े ओहदे पर हैं तो वे ऐसे अविश्वास से देखते जैसे किसी पहले दर्जे की झूठी से पाला पड़ा है. मेरी जिंदगी के सफर का ये एक ऐसा पड़ाव था जिसने मुझे औरत होने की जमीनी हकीकत से रूबरू कराया. पटना पहुंच कर लगा जैसे लड़की होकर मैंने कोई पाप किया हो. इस नाते मेरी महत्वाकांक्षा का रास्ता शादी के गलियारे में भटक जाता है. आसपास की आंखों में मैं यह सवाल कि क्या मैं इलिजिबल हूं, साफ पढ़ लेती थी.
पटना के इस दमघोटूं माहौल की काली रातें जल्द कट गईं. एक राष्ट्रीय अखबार में मेरी नियुक्ति हो गई. मुझे जयपुर भेजा गया. नया शहर, नए साथी, मनपसंद काम और पटना से हटकर खुला-खुला माहौल. मेरे लिए तो जैसे जन्नत. पर जन्नत की ये खुशगवारी ज्यादा दिन न रह पाई. शहर में घरों के दरवाजे लड़की किराएदारों के लिए खुले थे. इसके पीछे तर्क ये था कि लड़कियां दंदी-फंदी नहीं होतीं. शराबखोरी और मंडली बाजी का लफड़ा नहीं. ऐसी आम सोच थी पर दफ्तर का माहौल तब भी उतना उदार न था. 25 लोगों के बीच दो लड़कियां. उस पर हमारे सर्वेसर्वा का पक्षपातपूर्ण रवैया. मेरी चाल-ढाल से लेकर काम-काज तक पर टिप्पणी और वजह शायद यह कि कभी बिना जरूरत उनसे मुखातिब नहीं हुई. कभी खुद के लड़की होने की दलील देकर कभी कोई फेवर नहीं मांगा. उलटे तब इस्तीफा देने पर आमादा हो गई जब पता लगा कि मेरा लिंग और कम उम्र मेरे कर्तव्य के रास्ते में बाधक है.
इसके सिर्फ दो मतलब थे पहला मेरे आचरण पर आशंका या मेरे साथियों के चाल-चलन पर भरोसा न होना. मानों मैं इन विश्वामित्रों की कर्तव्यपरायणता में कहीं रोड़ा न बन जाऊं. वह मामला कैसे निपटा और मैं कैसे काम पर लौटी इसकी एक अलग कहानी है. बहरहाल, इसी दफ्तर ने मुझे बताया कि लड़के और लड़की के बीच सिर्फ प्रेम हो सकता है, दोस्ती की बात बकवास है. नतीजतन मेरी दोस्तियों पर टीका-टिप्पणी के दौर चल पड़े और अपने एक सहयोगी से मैं शादी कर बैठी. आज भी उस घड़ी को कोसती हूं जब मुझ जैसे बेबाक इंसान पर माहौल हावी हो गया. मेरी परवरिश, मेरे जीवन मूल्य कभी मुझे ऐसी दहलीज पर ला खड़े करेंगे यह कभी सोचा न था. हालात कुछ ऐसे बने कि मुझे अपने ही अखबार के दिल्ली दफ्तर आना पड़ा.
दिल्ली में दिलों के दायरे और सिमटे हुए थे. जितना बड़ा दफ्तर उतनी छोटी सोच. दिल्ली दफ्तर में काम करने का मेरा खुमार चंद महीनों में उतर गया. काम का जज्बा तो वैसा ही था, पर लोग वैसे नहीं थे, जैसे पत्रकारिता में होने चाहिए. ऐसे लोगों की बड़ी तादाद थी जो लड़कियों की एक नजर के कायल थे, उनकी उम्र भर की ख्वाहिश होती कि एकांत में चाय के कप पर चंद लम्हे मिल जाएं. मुझे चाय पीने पर कोई आपत्ति नहीं थी, गिला इस बात का था कि ये सभी चाहते कि उनके बाकी साथियों को इसकी कानोकान खबर न हो.
एक वरिष्ठ साथी ने जब मुझसे कहा कि तुम कैंटीन पहुंचो, मैं आता हूं तो उनका रवैया मुझे बड़ा रहस्यमय लगा. मैंने इस गोपनीयता पर सवाल उठाने शुरू किए तो लोगों को खटकने लगी. एक और सज्जन की अक्सर मेरे साथ नाइट डयूटी लगती (या शायद वे लगवाते). इस दौरान वे मेरे दिमाग से लेकर रूप, गुण की तारीफ करते थकते नहीं. फलां रंग आप पर फबता है. फलां ड्रेस सूट करती है. आप चुप क्यों हैं, बोलते हुए अच्छी लगती हैं और एक बार सार्वजनिक तौर पर जब उन्होंने मेरे बातूनीपन पर सवाल उठाया कि आप इतना बोलती क्यों हैं और मेरे पलटकर उन्हीं की बात कहने पर उनके चेहरे का उड़ा रंग देखने वाला था. बस तभी से मैंने उनसे बोलचाल बंद कर दी.
इसी संस्थान ने मुझे बताया कि औरत होने के नाते मैं पुरुष साथियों की बराबरी करूं बल्कि बढ़-चढ़कर काम करूं तो भी मेरी सीमाएं हैं, मेरी सामर्थ्य हमेशा उनसे कमतर है. और मर्द होने के नाते उन्हें मुझे मोनिका लेविंस्की के फोटो दिखाकर आपस में अश्लील फब्तियां कसकर सताने का हक है. एडीशन निकालने से लेकर मेरी चाल-ढाल, व्यवहार तक में मुझे मेरी दोयम दर्जे की हैसियत का अहसास कराया जाता. इन हालातों के बीच मेरी परवरिश ने मुझे हमेशा पूरी ताकत और विश्वास से जूझने का हौसला दिया. मैं माहौल से परेशान अपनी साथिनों की तरह संस्थान छोड़कर भागी नहीं (जब तक कि उन्होंने मुझे निकाल न दिया). शायद यही वजह थी कि मैं कामयाबी की ऊंचाइयों की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रही थी. उस संस्थान में सबसे कम समय में दो प्रमोशन पाने की हैरतअंगेज मिसाल कायम करने वाली अकेली कर्मचारी थी पर मेरी यही काबिलियत, मेरा जुझारूपन लोगों के आंख की किरकिरी बन गया. कल तक जो लोग कितनी प्यारी लड़की है, बड़ी मेहनती है, दौड़-दौड़कर काम करती है, कहते नहीं अघाते थे, दौड़ में मुझे अपने समानांतर पाते ही बहकने लगे. दरअसल, हमारी पारंपरिक परवरिश ने पुरुषों को लड़कियों को सिर्फ मातहत के तौर बर्दाश्त करना सिखाया है. बराबरी या वरिष्ठता की बातें उनके जीवन की सिर्फ मजबूरी है.
पत्रकारिता की दुनिया में लड़की होना ऐसा गुनाह है, जिसकी कोई सीधी सजा नहीं है, सिर्फ घुट-घुटकर बर्दाश्त करने की नियति, काम आप करें क्रेडिट आपका पुरुष साथी ले जाए. वह सारी कवायद कुछ ऐसे पेश करे जैसे कर्ता-धर्ता वही और आप हक्के-बक्के पर इस दुनिया की ये दरीदंगियां भी मुझे अपने लक्ष्य से डिगा नहीं पाईं. आदिवासी जिले बस्तर की एक मामूली स्कूल की इस लड़की को बहुत आगे जाना था, पर स्वाभिमान से लगन और मेहनत से. कहीं कोई शार्टकट नहीं. लिहाजा लड़कर हमेशा अपने हिस्से का हक पाया. हिंदी पत्रकारिता में न्यूज डेस्क पर शायद उस समय पहली महिला चीफ सब-एडीटर थी.
अपने काम और मातहतों से भाई-बंदी के स्वभाव ने मेरे इतने प्रशंसक तैयार कर दिए थे कि विरोधी फौज मेरी खबरें फेंके या फोटो गायब करें पर एडीशन बिरले ही लेट हुआ होगा. पूरा सपोर्ट सिस्टम था मेरे पीछे. अब उस टीम के सामने यही चारा था कि सीधे आबरू पर हमला बोल दिया जाए. मुझे मेरी योग्यता और लोकप्रियता की एवज में जिस तरह जलील होना पड़ा और छोटी-छोटी और बड़ी से बड़ी अदालतों तक लड़ाई लड़ी उसकी अलग कहानी है. ऐसी कहानी जिससे न्यायालयों और मानवाधिकार की पैरोकार कंपनियों की पोल खुल जाए. इस पूरी लड़ाई के नतीजे के तौर पर मुझे नौकरी से निकाल दिया गया.
फिलहाल, देश के बड़े हिंदी अखबार में ठीक-ठाक पद पर हूं पर अब भी यही लगता है कि औरत के लिए यहां भी गली तंग है. बस्तर की परवरिश की वजह से अब भी ठठाकर हंसती हूं, साथियों से ठिठोली करती हूं और जोर से नाराजगी दिखाती हूं. लेकिन इसमें बस्तर के दिनों की स्वच्छंदता नहीं है. मेरे पिता से विरासत में मिली आजादी नहीं है. काश कि मेरे पिता यह जान पाते की उनकी बेटी जिस दुनिया में गुजर कर रही है वहां औरतों की बेबाकी सिर्फ कंटेंट है.
यहां अरुंधति राय या किरण बेदी के सिर्फ इंटरव्यू छप सकते हैं वे खुद आ जाएं तो उनकी हालत पुलिस की नौकरी से कोई खास अलग न होगी. औरतों की बेबाकी यहां अब भी बड़बोलापन है.
यहां औरतों को फैशनपरस्ती पर लिखने की तो छूट है पर ठाठ-बाट से रहना ऐसी आभिजात्य की निशानी है जिससे ज्यादातर लोगों का बैर है. बस काम किए जाइए और लोगों को क्रेडिट लेने दीजिए. फल की चिंता से बेपरवाह आपने अपने हक का सवाल उठाया नहीं कि न जाने कितनी आवाजें किस्सागोइयों के साथ कितने कोनों से उभरेंगी और आपके बुलंद हौसलों को मटियामेट कर देंगी. हिंदी पत्रकारिता का यही उसूल है. औरत कराहे तो वाह-वाह और आवाज उठाए तो-? ऽऽ मैंने कहा न यहां की गलियां बड़ी तंग हैं पर पूरे माहौल में मैं अब भी और औरतों से अलहदा हूं. मेरी यह उन्मुक्तता किसे कैसी लगती यह साफ पढ़ लेती हूं. इस खुलेपन के साथ इन तंग गलियों में गुजर कैसे हो, पता नहीं, यह कब सीख पाऊंगी?
एक लड़का प्रेमाकुल सा
Posted By Geetashree On 4:15 AM 11 commentsमें बड़ी हुई थी। उनमें एक दुबला-पतला, सहमा, सकुचाया, सिमटा सा एक लड़का भी मिला।
इन लड़कों के मन में मुझे लेकर खास आकर्षण था। ऐसा मुझे उनसे बातचीत करने के बाद अहसास हुआ और मेरी मित्र मंडली ने मुझे छेड़ते हुए इसकी पुष्टि की। मेले में सांस्कृतिक मेले के आयोजक , कवि संजय पंकज ने उस दुबले-पतले लड़के को मेरे सामने किया और कहा यह हैं पंकज प्रेमाकुल जी, कविताएं लिखते हैं और आपसे मिलना चाहते हैं। मैं नाम सुनकर हंस पड़ी और मैने छूटते ही कहा कविताऐं लिखते हो इसका क्या मतलब है कि नाम के साथ प्रेमाकुल जोड़ लोगे..तुम्हारा असली नाम क्या है..तो उसने झेपते हुए कहा कि पंकज नारायण। मैंने कहा इतना अच्छा तो नाम है यही क्यों नहीं रखते हो। लगभग एक साल बाद दिल्ली में एक फोन आया कि मैं पंकज नारायण बोल रहा हूं। अब तक मैं उसे भूल चुकी थी। उसने कहा कि वही पंकज प्रेमाकुल...मुझे याद आया तो मैंने जोर से ठहाका लगाया उधर से वह भी देर तक हंसता रहा। प्रेमाकुल आजकल दिल्ली में रहते है और साहित्य के साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता भी कर रहे हैं। उनका गंवईपन अभी गया नहीं है। वो अब भी अपनों के लिए वैसे ही चिंतित होते है। दिल्ली से मुजफ्फरपुर तक सभी की खबर रखते हैं।
छोटे शहर का अनगढ़ लड़का महानगर में जीने की कला सीख रहा है। उम्मीद है जल्दी ही चालाक हो जाएगा। फिलहाल इस भोले से लड़के ने मुझे अपनी दो कविताएं भिजवाईं हैं। मैं चाहती हूं कि आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।
रात नींद और सपने...
रात मुझे सोने नहीं देती,
दिन मुझे जगाकर रखता है,
कुछ लोग कहते हैं
मैं नींद में जागता हूं,
एक आदमी हूं।
बिना शर्त सपने देखता हूं,
हर शर्त पर उसे,
पूरा करना चाहता हूं,
कुछ लोग कहते हैं,
मैं नींद में भागता हुआ,
एक आदमी हूं।
मेरा नीद से पुराना रिश्ता है,
नींद कभी फैल जाती है,
मेरे आकार लेते सपनों पर,
सपने कभी लेट जाते हैं,
मेरी नींद में,
कुछ लोग कहते हैं,
मैं नींद में समाता हुआ,
एक सपना हूं।
पंकज नारायण
नर्मदा तट पर...
Posted By Geetashree On 4:25 AM 3 commentsस्त्री आकांक्षा का नया मानचित्र
Posted By Geetashree On 12:43 PM 4 commentsओम निश्चल
गीताश्री हिंदी पत्रकारिता में एक सुपरिचित नाम है। एक अरसे से पत्रकारिता से जुड़ कर उन्होंने परतंत्रता में जकड़ी स्त्री और मुक्ति के स्वप्न देखती स्त्रियों की मनोभूमि की बारीक पड़ताल की है। बिहार के एक कस्बे में पैदा गीताश्री ने बचपन से ही अपनी शख्सियत को समाज के चालू ढर्रे की स्त्रियों से अलग करने का निश्चय कर लिया था। बचपन में अकेली स्त्री के जीवनावलोकन और स्त्रियों पर पुरुष वर्चस्व के तमाम उदाहरणों से उनके भीतर की स्त्री का तेवर विद्रोही बनता गया। फलत: दिल्ली आकर और पत्रकारिता के पेशे से जुड़ कर वे स्त्री समस्याओं-वर्जनाओं को भूल नहीं गयीं बल्कि स्त्री-विमर्श की आबोहवा को अपने ढंग से परिचालित किया। मूलत: भीतरी संवेगों से कवयित्री गीताश्री की पकड़ समाज, राजनीति, साहित्य, कला, संस्कृति, सिनेमा सभी पर है किन्तु स्त्री जगत उनका प्रिय विषय है।
स्त्री आकांक्षा के मानचित्र समय-समय पर प्रकाशित उनके लेखों, अध्ययनों और फीचर का संचयन है जिसमें अपने अस्तित्व और सम्मान की रक्षा के लिए निरंतर संर्षरत स्त्री का नया चेहरा उजागर होता है। गीताश्री स्त्रियों को किसी दैन्य के प्रतीक के रूप में चित्रित न कर पुरुष वर्चस्व की जड़ीभूत मानसिकता पर प्रहार करती है। अपने समकालीनों के बीच उनकी पहचान इसलिए ज्यादा है कि वे अपने विश्लेषणों में क्लासिकी तेवर नहीं अपनातीं बल्कि आम फहम भाषा में सीधे मुद्दे पर बात करती हैं।
स्त्री-विमर्श के लटकों-झटकों में प्राय: आयातित विचारों का बोलबाला रहा है। जर्मन ग्रियर, वर्जीनिया वुल्फ, और सीमान द बोउआ जैसी स्त्रीवादी लेखिकाओं के विचारों की रोशनी में भारतीय स्त्रियों की नियति का भविष्यफल बांचा जा रहा है। गीताश्री खबरों की दुनिया की स्त्री हैं, इसलिए दुनिया भर के स्त्री आंदोलनों और स्त्रीवादी साहित्य से अपरिचित नहीं हैं लेकिन वे पत्रकारिता की सुलझी भाषा में स्त्री-विमर्श के मुद्दे उठाती रही हैं, जिससे आधी आबादी उन्हें पूरी तरह आत्मसात कर सके।
गीताश्री की इस पुस्तक में कुल 31 लेख हैं। मुक्ति की छटपटाहट, बौद्धिक स्त्री की बेकदरी, अहम फैसलों में स्त्री की भागीदारी, राजनैतिक वजूद, भ्रूण हत्या, तलाक, वेश्यावृत्ति, स्त्री देह के विपणन, घरेलू हिंसा, प्रौढ़ स्त्रियों की पीड़ा, पंचायतों में स्त्री, लेस्बियन संबंधों, देह और दिल के रिश्ते, औरत का घर, ईरान में स्त्री, टेलीफोन चैटिंग, स्त्री-स्वास्थ्य, पुरुष और स्त्री की चाहत तथा छोटे परदे पर स्त्री--इतने सारे विषयों पर सरल और छू लेने वाली भाषा में गीताश्री ने इन्हें स्त्री विषयक वृत्तांत में बदल दिया है। गीताश्री साहित्यिकों की आखेटक वृत्ति का भी जायजा समय-समय पर लेती रही हैं। उठो कवियों कि नई कवयित्री आई है ऐसा ही वृत्तांत है जिसमें आज के कुछ साहित्यकारों के तथाकथित चारित्रिक विचलन की झांकी मिलती है। साहित्य की दुनिया में जिस तरह स्त्रियों की प्रतिमा को खराद कर उन्हें कवयित्री और कथाकार बनाने के उद्यम में आज कुछ कवि-कथाकार-आलोचक लगे हुए हैं, गीताश्री ऐसे समस्त गोपनीय और अलक्षित अभियानों की खबर लेती हैं।
सच कहा जाए तो इन लेखों में स्त्री सुबोधिनी के मूल मंत्र छिपे हैं। गगन गिल ने अपने कविता संग्रह का नाम रखा था: यह आकांक्षा समय नहीं । अनामिका की पुस्तक का शीर्षक था: स्त्रीत्व का मानचित्र । किन्तु इससे दो कदम आगे बढ़ कर गीताश्री ने स्त्री आकांक्षा का एक नक्शा उकेरना चाहा है तथा कहना न होगा कि वे इसमें कामयाब रही हैं। हालाकि कुछ आलेखों पर फौरी पत्रकारिता की स्टोरी-शैली का खासा असर है। फिर भी व्यापक पाठक संसार तक पहुंच बनाने के लिए आज ऐसी ही स्टोरीज की आवश्यकता है जिसके लिए कोश की शरण में न जाना पड़े। एक बात जो थोड़ा अखरने वाली है वह यही कि वे स्त्रियों को जहां निहायत मासूम और गुड़िया समझती हैं, पुरुष की चरित्रपंजी पर सदैव संदेह की कुहनी टिकाए रखती हैं।
गीताश्री की भाषा में वाचिक असर है, कहीं-कहीं वे बिन्दास शैली में अपने आलेख की शुरुआत करती हैं किन्तु जब तथ्यात्मकता, विश्लेषण और जिरह की कसौटी पर अपने तर्क रखती हैं तो उनकी खिलंदड़ी छवि ओझल हो उठती है और वे एक धीर-गंभीर स्त्री चिंतक में बदल जाती हैं। गीताश्री की यह पुस्तक पढ़ते हुए अनायास हमारे जेहन में सुपरिचित कवि ऋतुराज की ये पंक्तियां कौंध उठती हैं--
मां ने कहा पानी में झांक कर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियां सेंकने के लिए है
जलने के लिए नहीं
वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री-जीवन के
मां ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी दिखाई मत देना
(लीला मुखारविंद/कन्यादान)
गीताश्री
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा
नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य : 200
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ई-मेल : omnishchal@gmail.com / omnishchal@yahoo.co.in
मो : 09955774115
साभार- http://shabdsrijan.blogspot.com/
यहां दरवाजे बंद हैं.
Posted By Geetashree On 6:44 AM 0 commentsवे अपने घरों को लौट तो आईं हैं मगर बाकी बची जिंदगी की मुश्किलों का अंदाजा नहीं लगा पा रही हैं. उनके घर लौटने के बाद बूढे पिता की आंखें थोड़ी और सिकुड़ गईं हैं और माथे पर चिंता की लकीरें थोड़ी और गहरी. मां की कमर बोझ ढोते ढोते थोड़ी और झुक गई है.
जब बेटी घर से भागी थी किसी एजेंट के साथ, किसी को बिना बताए तब मां बाप ने यह सोच कर तसल्ली कर ली थी कि बेटी कमाने गई है और एक दिन इतने सारे पैसे कमाकर भेजेगी कि उनकी सारी गरीबी दूर हो जाएगी.
ना शहर से पैसा आया ना बेटी की कोई खबर आई. किसी तरह पता करके शहर पहुंचे और बेटी को दलालों के चंगुल ले छुड़ा लाए खाली खाली हाथ. बेटी के लौट आने की खुशी अब धीरे धीरे मातम में बदल रही है. चांद-तारों जैसे सपने देखने वाली बेटी के सपने भी तार-तार हो गए.
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