चित्रलेखा, पाप और प्रेम

Posted By Geetashree On 12:14 AM 9 comments
राजकिशोर जी ने चित्रलेखा(उपन्यास-भगवती चरण वर्मा) पर लंबा लेख लिखा और मुझे पढने को भेजा। वे मेरी इस पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया चाहते थे। लेख बहुत लंबा था.. लगभग 6 हजार शब्दों का। ब्लाग के लिहाज से ज्यादा बड़ा। नहीं तो मैं पहले ही इसे पोस्ट कर चुकी होती। हाल ही में हंस के अगले अंक में समूचा लेख छपने की घोषणा देखी। मैंने इसके कुछ अंश छांट कर अपनी पसंद के निकाल लिए हैं आप भी पढें...आनंद आएगा। चित्रलेखा मेरे जीवन की उन किताबों में शामिल हैं, जिन्होंने मुझे बिगाड़ा और हमेशा हमेशा के लिए पाप-पुण्य को लेकर जो मन में कुंठाएं थीं..वो गांठे खोल कर मुझे अपनी ही कैद से मुक्त कर दिया। मैं राजकिशोर जी से कई प्रसंगो में असहमति रखती हूं...मगर यह लेख चित्रलेखा को नए सिरे से समझने में मदद तो करता ही है...आगे आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है...गीताश्री



राजकिशोर

भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘चित्रलेखा’ कई दृष्टियों से एक मोहक उपन्यास है। इसकी शुरुआत इस प्रश्न से होती है कि पाप क्या है और उत्तर यह निकलता है कि हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है। जाहिर है, सवाल जितना ठोस है, उत्तर उतना ही भुरभुरा -- और भ्रामक भी। अगर हम हमेशा वही करते हैं, जो हमें करना पड़ता है, तो पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक आदि के आग्रह समाज से, और व्यक्ति के मन से भी, कभी के खत्म हो चुके होते। लेकिन ये प्रश्न हर पीढ़ी के सामने नए सिरे से उपस्थित हो जाते हैं और क्या करणीय है तथा क्या करणीय नहीं है, इस पर बहस बनी रहती है। फिर भी यह उपन्यास पाठकों में लगातार लोकप्रिय रहा है, तो इसका अकेला कारण यह नहीं हो सकता कि कथा और भाषा-शैली की दृष्टि से यह बहुत सरल है और कुछ कम पढ़ा-लिखा आदमी भी इसका स्वाद ले सकता है। ‘चित्रलेखा’ की सफलता का रहस्य मुझे यह लगता है कि इस उपन्यास में प्रेम तथा स्त्री-पुरुष संबंध के बारे में कुछ बुनियादी सत्यों को उजागर करने में लेखक को जबरदस्त सफलता मिली है। आलोचकों के लिए ‘चित्रलेखा’ विशेष काम की नहीं है, क्योंकि वे जो मानते हैं या मनवाना चाहते हैं, उसके लिए समर्थन सामग्री इस उपन्यास में नहीं है। इसकी भाषा भी कुछ पुराने ढंग की है। मुझे लगता है कि अगर भाषा और विचार के पूर्वाग्रहों को दरकिनार रख कर देखना संभव हो, तो यह उपन्यास कुछ ऐसे सत्यों को प्रकाश में लाने में सक्षम है जिनकी चर्चा आज और अधिक प्रासंगिक है।

पाप से प्रारंभ
‘और पाप?’ -- इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर पाने के लिए आचार्य रत्नांबर अपने शिष्य श्वेतांक को सामंत बीजगुप्त के पास भेजते हैं, तो यह समझ में आता है। गुरुवर बीजगुप्त का परिचय भोगी के रूप में देते हैं, ‘उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में भोग-विलास नाचा करते हैं; रत्नजटित मदिरा के पात्रों में ही उसके जीवन का सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। उसमें सौंदर्य है, और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास। ...’ जहां वासना है, भोग है, विलास है, मदिरा है, वहां पाप का निवास असंभावित नहीं। ‘चित्रलेखा’ के पात्र जिस युग के हैं, उस युग में ऐश्वर्य को निन्दा की निगाह से नहीं देखा जाता था। पर सौंदर्य की उपासना और मदिरा के उपभोग में सुख की खोज की बहुत प्रशंसा भी नहीं की जाती होगी। इसलिए पाप की खोज के लिए बीजगुप्त का विलासी जीवन सहज ही एक उपयुक्त क्षेत्र था।

परंतु योगी कुमारगिरि? क्या उसके जीवन में भी या उनके आसपास पाप को समझने की गुंजाइश थी? कुमारगिरि के बारे में बताते हुए महाप्रभु रत्नांबर जिन विशेषणों का उपयोग करते हैं, उन सभी में कुछ पेच है : ‘कुमारगिरि योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है; ...जैसा कि लोगों का कहना है, उसने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। कुमारगिरि युवा है; पर यौवन और विराग ने मिल कर उसमें एक अलौकिक शक्ति उत्पन्न कर दी है। ...’ यानी कुमारगिरि की जो छवि या आत्मछवि है, उसकी हकीकत में आचार्य को पर्याप्त शक है।

बीजगुप्त और कुमारगिरि में साम्य यह है कि दोनों युवा हैं और दोनों के पास शक्ति है – एक के पास वैभव की शक्ति है, तो दूसरे के पास विराग की। जहां शक्तिहीनता है, निर्बलता है, वहां पाप क्या होगा, बशर्ते निर्बल होने या निर्बलता को स्वीकार कर लिए जाने को ही पाप न मान लिया जाए? इस दूसरे तर्क को आज हम समझ सकते हैं, बल्कि समझते भी हैं। इसीलिए शक्तिशाली को घृणा की निगाह से देखने का नया रिवाज अनुचित नहीं है। पर बीजगुप्त और कुमारगिरि के जमाने में भी शक्ति-संग्रह में पाप की संभावना देखी गई, यह एक आधुनिक विचार है। नि:संदेह भगवतीचरण वर्मा एक तरह से नियतिवादी (‘सबहिं नचावत राम गोसाइ’ वर्मा जी का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है) दिखाई देते हुए भी अपने अनेक विचारों और स्थापनाओं में आधुनिक हैं।

प्रेम का परिपाक
अब यह आपत्ति सर्वमान्य हो चुकी है कि पाप को स्त्री-पुरुष संबंधों या उनकी यौन क्रियाओं के दायरे तक सीमित रखना अपने आपमें ही पापपूर्ण है। पाप-पुण्य या नैतिकता-अनैतिकता पर विचार करने का दायरा बड़ा होना चाहिए। लेकिन यह धारणा अभी भी बौध्दिक समाज तक सीमित है। साधारण आदमी की नजर में पाप का सबसे नजदीकी रिश्तेदार सेक्स ही है – या, कहिए अवैध सेक्स। यह मान्यता भी आधारहीन नहीं कि जहां भी स्त्री-पुरुष संबंध होगा, वहां सेक्स का होना अनिवार्य है। इसलिए पाप की ओर इशारा करनेवाली सुई इस संबंध की ओर अपने आप मुड़ जाती है। दिलचस्प है कि ‘चित्रलेखा’ में दोनों का ही संतोषजनक विवेचन मिलता है।

यह भगवतीचरण वर्मा की चतुराई, या भीरुता, है कि प्रेम प्रसंगों से भरे हुए इस रसीले उपन्यास में सिर्फ एक स्थान पर यौन गतिविधि दिखाई देती है - वहां, जहां यह सर्वथा वर्जित था। पाटलिपुत्र की असाधारण सुंदरी और पेशे से नर्तकी चित्रलेखा योगी कुमारगिरि की अलौकिक शक्तियों और विरक्त यौवन से आकर्षित हो कर उससे दीक्षा लेने उसके आश्रम पहुंच जाती है और कुमारगिरि की वासना जाग उठती है। हालांकि योगी बार-बार दुहराता है कि उसे चित्रलेखा से प्रेम है, पर चित्रलेखा को उसके इस दावे में कोई सार नजर नहीं आता। नि:संदेह वह एक समर्पित नायिका की तरह ही कुमारगिरि के पास गई थी - बीजगुप्त के प्रति अपने प्रेम को थपकी दे-दे कर सुलाते हुए। योग की सच्ची साधना करते हुए कुमारगुप्त ने उसका लौकिक स्तर पर प्रत्युत्तर दिया होता, तो दोनों के बीच एक लंबा चलनेवाला प्रेम संबंध विकसित हो सकता था। शायद यौन स्तर पर भी यह चित्रलेखा के लिए यह ज्यादा आनंदमय होता, क्योंकि निरंतर भोग-विलास और अनवरत मदिरा पान से सामंत बीजगुप्त शारीरिक स्तर पर जरूर खोखला हो गया होगा।

पर कुमारगिरि को स्त्री का साथ नहीं, स्त्री का सुख चाहिए था। वह चित्रलेखा के ‘यौवन के अथाह सागर’ में डूबने में सफल हो जाता है और चित्रलेखा भी मन से उसका साथ देती है। पर चित्रलेखा के इस हृदय परिवर्तन की जड़ में एक भयानक झूठ था : कुमारगिरि ने उसे यह गलत सूचना दी थी कि बीजगुप्त ने सामंत मृत्युंजय की पुत्री यशोधरा से विवाह कर लिया है। चित्रलेखा अगर सचमुच किसी से प्यार करती थी तो वह बीजगुप्त ही था। पर योगी कुमारगिरि के प्रति उसका आकर्षण भी कम गंभीर नहीं था। हो सकता है, यह आकर्षण जीवन के एक नए स्वाद के प्रति रहा हो, जिसके केंद्र में भोग नहीं, त्याग और नियंत्रण था। पर इसका माध्यम तो कुमारगिरि ही था। योगी कुमारगिरि के यौवन और सुंदरता ने भी चित्रलेखा को आकर्षित किया था - वह अगर अधेड़ या कुरूप होता, तो चित्रलेखा उसकी ओर शायद नहीं खिंचती। फिर भी चित्रलेखा ने योगी कुमारगिरि को लौकिक प्रेमी के रूप में नहीं देखा था। वह तो योग और साधना की सीढ़ियां चढ़ने के लिए उसके पास गई थी।

लेकिन प्रेम आखिर प्रेम ही होता है और पूर्णता में ही उसे शांति मिलती है। इसीलिए जब योगी से उसे यह खबर मिली कि बीजगुप्त अब विवाहित जीवन बिता रहा है, तो उसने अपने आपको बीजगुप्त के प्रति किसी भी नैतिक बंधन से मुक्त मान लिया। उसके बाद कुमारगिरि से उसका पूर्ण मिलन असंभव क्यों रह जाता? जो कुमारगिरि प्रणयी के रूप में चित्रलेखा को किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं था, उसके अधर चित्रलेखा के अधरों को खींचने लगे और आलिंगन पाश में दोनों ओर से दृढ़ता आ गई। कुमारगिरि के आमंत्रण को मुंदी आंखों से टिक करते हुए चित्रलेखा कह उठी- “तो फिर ऐसा ही हो।” यह प्रेम का परिपाक है। ‘पीली छतरीवाली लड़की’ में जिस तरह के मनोविज्ञान का सहारा लिया गया है, उसके आधार पर यह कहने का लालच हो सकता है कि ऐसा करके चित्रलेखा दरअसल बीजगुप्त से प्रतिशोध ले रही थी। लेकिन मैं चित्रलेखा जैसी परिपक्व और बुध्दिमती स्त्री को इतना नीचे गिरते हुए नहीं देखना चाहता। ज्यादा संभावना इस बात की है कि उसने अपने आपको परिस्थिति के हवाले कर दिया हो। कुछ लोगों ने प्रेम के आनंद की उपमा निर्विकल्प समाधि से दी है। लौकिक सत्य यह है कि कई बार जीवन में निर्विकल्प हो जाने के बाद भी प्रेम बाढ़ के पानी की तरह उमड़ पड़ता है।

प्रेम होता भी है?
दार्शनिक-विचारक ज्यां पाल सार्त्र की मान्यता है कि “प्रेम एक असंभव चीज है। हम जिससे प्रेम करते हैं, उसे संपूर्णत: नहीं तो कुछ हद तक खा जाना चाहते हैं। हमारा प्रेमी भी हमें खा जाना चाहता है। जब तक दोनों अस्तित्व मिल कर एक -अखंड- नहीं हो जाते, तब तक चैन नहीं मिलता। लेकिन चूंकि दोनों में से कोई भी वस्तु नहीं है, दोनों जीते-जागते प्राणी हैं, इसलिए प्रेम में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की स्थिति मुलायम लफ्जों में कहा जाए तो कठिन है और साफ-साफ कहा जाए तो असंभव है। इसलिए कोई भी प्रेम संबंध अंतत: विफल हो जाने के लिए अभिशप्त है। यह पत्ता हवा में कांपते हुए ही पेड़ के गर्भ से बाहर आता है। ”

दर्शन के क्षेत्र में यह मान्यता सार्त्र के नाम के साथ जुड़ी हुई है, पर अगर यह सत्य है तो इसका अनुभव प्राय: सभी विचारकों ने किया है। कबीर की यह स्थापना मशहूर है कि प्रेम गली अति सांकरी, तामे दुइ न समाहिं। यहां जगह बहुत कम है। इसमें दो के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। एक का ही राज चलेगा। उसका, जो ज्यादा मजबूत और कम भावनामय होगा। और तीसरा? अधिकांश प्रेमियों का कहना है कि उसका तो सवाल ही नहीं उठता। प्रेमचंद के उपन्यास गोदान में मेहता भी दार्शनिक है। दार्शनिक क्या है, कॉलेज में दर्शन पढ़ाता है। उसकी शेखी देखने लायक है- “प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंख्वार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आंख भी नहीं पड़ने देता। ”

मेहता और मालती दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। एक नाजुक अवसर पर मेहता पूछता है,- “अच्छा, मान लो, मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफाई करता हूं तो तुम मुझे क्या सजा दोगी?” मालती जवाब देती है कि “मैं उसका कारण खोजूंगी और उसे दूर करूंगी। ” मेहता जानना चाहता है, “मान लो, मेरी आदत न छूटे?” मालती कहती है, “फिर मैं नहीं कह सकती क्या करूंगी। शायद विष खाकर सो रहूं।” यह एक तरह का प्रेम है। लेकिन प्रेम की एक दूसरी किस्म भी है : मेहता अपना पक्ष रखता है, “मैं पहले तुम्हारा प्राणांत कर दूंगा, फिर अपना। ”

दिलचस्प यह है कि प्रेम के बारे में मालती की राय भी इतनी ही इकतरफा है-लेकिन दूसरे कोण से। उसकी परिभाषा में आक्रामकता नहीं, समर्पण है – “मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूं। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। संदेह का वहां जरा भी स्थान नहीं और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है। वह संपूर्ण आत्म-समर्पण है। उसके मंदिर में तुम परीक्षक बन कर नहीं, उपासक बन कर ही वरदान पा सकते हो।”

आधुनिक दिमाग कहेगा, यह प्रेम नहीं, श्रध्दा है। जहां श्रध्दा या आदर न हो, वहां प्रेम का पनपना कठिन है। पर जहां सिर्फ श्रध्दा है, वहां प्रेम इकरंगा हो जाता है। प्रेम पूजा नहीं, अनुराग है।