ब्लात्कार के आरोप में न्यायिक हिरासत झेल रहे अभिनेता शाइनी आहूजा की पत्नी बनी हुई हैं। वह लगातार अपने पति के पीछे खड़ी हैं, सारा सच जानते हुए भी..सारे सबूत शाइनी के खिलाफ जा रहे हैं...फिर भी वे तनी हुई हैं। ये अनुपमा अकेली नहीं हैं अपने समाज में..एसी कई अनुपमाएं हैं..खासकर एक सफल पति के पीछे...। अब अनुपमा एक प्रतीक बन चुकी हैं...एक एसी स्त्री जो अपने सफल पति के हर गुनाह को जायज बना देती हैं। उसे कुछ दिखाई नहीं देता...ना डीएनए टेस्ट की रिर्पोट ना पति गुनाह कबूलना...ना वे तमाम साक्ष्य जो चीख चीख कर उसके गुनाह का प्रमाण दे रहे हैं। एसी पत्नी की कामना कोई भी पुरुष कर सकता है..। पति पर चाहे जितने आरोप लगे..चाहे कितना गुनाह करें....ये छायाएं कभी साथ नहीं छोड़तीं। एसी स्त्रियों की आदर्श हि्लेरी क्लिंटन हैं...भारत में अनुपमा हो जाएंगी। ये तो किस्से सेलिब्रिटी लोगो के हैं। अपेक्षाकृत कम मशहूर किंतु सफल पतियों की पत्नियां भी इनसे कम नहीं हैं। अपने आसपास नजर दौड़ाइए...याद करिए...ढेरो उदाहरण मिल जाएंगे। पति पर बलात्कार के आरोप लग रहे हैं...जांच हो रही है...आरोप सच सिध्द हो रहे हैं...पति सजा पा रहे हैं..कुछ केस लड़ रहे हैं..कुछ हार रहे हैं..कुछ जीत रहे हैं..इन सबके बीच कहीं कुछ है जो दरक रहा है..टूट रहा है..
पति पर आरोप लगा नहीं कि वकील से पहले पत्नी मैदान में तैनात कर दी जाती है, कुछ अपनी मर्जी से तो कुछ अपनी मजबूरी में...ज्यादा मामले मजबूरी के। वो मजबूरी कई किस्म की हो सकती है। आखिर क्या वजह है कि पत्नी उनका साथ देती है। कौन सी मजबूरी...ये कैसी औरतें हैं जो खुद को मार रही हैं। दूसरी औरत के खिलाफ खड़ी होकर झूठ का साथ दे रही हैं। क्या इसमें उनका लाभ है।
कोई तो बात है...कि ये आधुनिकाएं बलात्कार जैसे जघन्य पाप करने वाले मर्द के पीछे खड़ी है..इतनी नासमझ भी नहीं वे..उन्हें पता है कि सच किस खिड़की से झांक रहा है..झूठ किस दरवाजे पर खड़ा दहाड़ रहा है। दोनों दिख रहा है...मगर ने कहां देख रही हैं...उन्हें दिख रहा है अपना भविष्य...अपनी छवि..एक भली स्त्री की छवि...जिससे गुनाहगार पति जीवन भर नहीं उबर पाएगा...और समाज, परिवार देवी बनाकर पूजेगा। इतनी प्रशंसा... कि वे जीवन भर इस नशे से ऊबर नहीं पाएंगी। ये पेज 3 की स्त्रियां हैं..जिनकी महफिल में रेप-वेप कोई बड़ी बात नहीं। कौन कहता है कि भली स्त्रियां इतिहास नहीं रचती..इन्हें देखिए..रच रही हैं ना। पुरुष जब इतिहास लिखेंगे तब स्त्रियां दर्ज होंगी, सम्मान के साथ...। वे नकार दी जाएंगी जिन्होंने गुनाहगार का साथ नहीं दिया और उन्हें सजा दिलाई। सुना है कभी उनका नाम...नहीं ना। अनुपमा के समर्थन में कई पेज3 महिलाएं बयान दे रही हैं...रीतू बेरी हों या अदिति गोवित्रीकर या अर्चना पूरन सिंह या सुचित्रा कृष्णमूर्ति...सबकी एक ही बानी...पता नहीं शाइनी गुनाहगार है या नहीं..मगर अनुपमा जो कर रही है उसकी सराहना करनी चाहिए। वह अपने पति के साथ पूरी ताकत के साथ खड़ी है..उसे संकट की इस घड़ी में खड़ा भी होना चाहिए...वह जानती है कि उसका पति दोषी नहीं है..एक पत्नी को अपने पति के पीछे खड़ा होना भी चाहिए..सार्वजनिक जगहो पर पत्नी को रिएक्ट भी नहीं करना चाहिए..बंद दरवाजे के पीछे चाहे पति को लताड़ लगाए...
इन औरतो से क्या पूछा नहीं जाना चाहिए...कि अगर कभी उनके साथ एसा होगा तो उनके पति क्या करेंगे. क्या इतनी ही उदारता बरतेंगे। शादी के बाद पत्नी का एक पुरुष मित्र तक तो बर्दाश्त नहीं होता...प्रेमी का पता चले तो या तो मार डालेंगे या मामला तलाक तक पक्का पहुंचेगा। पूरे समाज में घूम घूम कर गालियां बकेंगे सो अलग. वाइफ स्वैपिंग करने वालो को छोड़ दें,वहां तो सब काम आपसी सहमति के आधार पर चलता है। सामान्य किस्म के पति कभी प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी पत्नी की बेगुनाही का ढोल नहीं पीटेंगे। कभी नजर उठाकर समाज में चल नहीं पांएगे। इज्जत मिट्टी मे मिल जाएगी। औरतों की कोई इज्जत ही नहीं होती। इसका ठेका सिर्फ पुरुषो ने ले रखा है।
आज से लगभग 20 साल पहले महेश भट्ट की फिल्म अर्थ आई थी.. फिल्म प्रेमी जानते हैं कि विवाहेत्तर संबंधों पर यह फिल्म कैसे रिश्तों की परतें खोली थीं। फिल्म के अंत में...जब शादीशुदा नायक अपनी प्रेमिका से हताश होकर पत्नी के पास लौटता है, तब पत्नी एक सवाल पूछती है...अगर मैंने एसा किया होता और लौट कर आती तो क्या तुम मुझे स्वीकार लेते। जवाब के मामले में इमानदार पति थोड़ी देर सोचता है, फिर कहता है...नहीं। पत्नी को शायद इसी जवाब का इंतजार था...वह पुर्नमिलन की उम्मीद लगाए पति को थैंक्यू कह कर चली जाती है।
अपने किशोरावस्था में देखी गई इस फिल्म ने मेरे मन पर एसी छाप छोड़ी कि भली पत्नी बनने की जगह एक अच्छी नागरिक बनना ज्यादा जरुरी लगता है..ये अच्छी पत्नियों को कौन समझाए, जो सफल पति से मिले एशोआराम, नाम, प्रतिष्टा किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहती...वे इस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि मेरा पति कोठा जाए...आपको क्या...
पति पर आरोप लगा नहीं कि वकील से पहले पत्नी मैदान में तैनात कर दी जाती है, कुछ अपनी मर्जी से तो कुछ अपनी मजबूरी में...ज्यादा मामले मजबूरी के। वो मजबूरी कई किस्म की हो सकती है। आखिर क्या वजह है कि पत्नी उनका साथ देती है। कौन सी मजबूरी...ये कैसी औरतें हैं जो खुद को मार रही हैं। दूसरी औरत के खिलाफ खड़ी होकर झूठ का साथ दे रही हैं। क्या इसमें उनका लाभ है।
कोई तो बात है...कि ये आधुनिकाएं बलात्कार जैसे जघन्य पाप करने वाले मर्द के पीछे खड़ी है..इतनी नासमझ भी नहीं वे..उन्हें पता है कि सच किस खिड़की से झांक रहा है..झूठ किस दरवाजे पर खड़ा दहाड़ रहा है। दोनों दिख रहा है...मगर ने कहां देख रही हैं...उन्हें दिख रहा है अपना भविष्य...अपनी छवि..एक भली स्त्री की छवि...जिससे गुनाहगार पति जीवन भर नहीं उबर पाएगा...और समाज, परिवार देवी बनाकर पूजेगा। इतनी प्रशंसा... कि वे जीवन भर इस नशे से ऊबर नहीं पाएंगी। ये पेज 3 की स्त्रियां हैं..जिनकी महफिल में रेप-वेप कोई बड़ी बात नहीं। कौन कहता है कि भली स्त्रियां इतिहास नहीं रचती..इन्हें देखिए..रच रही हैं ना। पुरुष जब इतिहास लिखेंगे तब स्त्रियां दर्ज होंगी, सम्मान के साथ...। वे नकार दी जाएंगी जिन्होंने गुनाहगार का साथ नहीं दिया और उन्हें सजा दिलाई। सुना है कभी उनका नाम...नहीं ना। अनुपमा के समर्थन में कई पेज3 महिलाएं बयान दे रही हैं...रीतू बेरी हों या अदिति गोवित्रीकर या अर्चना पूरन सिंह या सुचित्रा कृष्णमूर्ति...सबकी एक ही बानी...पता नहीं शाइनी गुनाहगार है या नहीं..मगर अनुपमा जो कर रही है उसकी सराहना करनी चाहिए। वह अपने पति के साथ पूरी ताकत के साथ खड़ी है..उसे संकट की इस घड़ी में खड़ा भी होना चाहिए...वह जानती है कि उसका पति दोषी नहीं है..एक पत्नी को अपने पति के पीछे खड़ा होना भी चाहिए..सार्वजनिक जगहो पर पत्नी को रिएक्ट भी नहीं करना चाहिए..बंद दरवाजे के पीछे चाहे पति को लताड़ लगाए...
इन औरतो से क्या पूछा नहीं जाना चाहिए...कि अगर कभी उनके साथ एसा होगा तो उनके पति क्या करेंगे. क्या इतनी ही उदारता बरतेंगे। शादी के बाद पत्नी का एक पुरुष मित्र तक तो बर्दाश्त नहीं होता...प्रेमी का पता चले तो या तो मार डालेंगे या मामला तलाक तक पक्का पहुंचेगा। पूरे समाज में घूम घूम कर गालियां बकेंगे सो अलग. वाइफ स्वैपिंग करने वालो को छोड़ दें,वहां तो सब काम आपसी सहमति के आधार पर चलता है। सामान्य किस्म के पति कभी प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी पत्नी की बेगुनाही का ढोल नहीं पीटेंगे। कभी नजर उठाकर समाज में चल नहीं पांएगे। इज्जत मिट्टी मे मिल जाएगी। औरतों की कोई इज्जत ही नहीं होती। इसका ठेका सिर्फ पुरुषो ने ले रखा है।
आज से लगभग 20 साल पहले महेश भट्ट की फिल्म अर्थ आई थी.. फिल्म प्रेमी जानते हैं कि विवाहेत्तर संबंधों पर यह फिल्म कैसे रिश्तों की परतें खोली थीं। फिल्म के अंत में...जब शादीशुदा नायक अपनी प्रेमिका से हताश होकर पत्नी के पास लौटता है, तब पत्नी एक सवाल पूछती है...अगर मैंने एसा किया होता और लौट कर आती तो क्या तुम मुझे स्वीकार लेते। जवाब के मामले में इमानदार पति थोड़ी देर सोचता है, फिर कहता है...नहीं। पत्नी को शायद इसी जवाब का इंतजार था...वह पुर्नमिलन की उम्मीद लगाए पति को थैंक्यू कह कर चली जाती है।
अपने किशोरावस्था में देखी गई इस फिल्म ने मेरे मन पर एसी छाप छोड़ी कि भली पत्नी बनने की जगह एक अच्छी नागरिक बनना ज्यादा जरुरी लगता है..ये अच्छी पत्नियों को कौन समझाए, जो सफल पति से मिले एशोआराम, नाम, प्रतिष्टा किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहती...वे इस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि मेरा पति कोठा जाए...आपको क्या...