महिला दिवस पर विशेष....कुछ कविताएं, कुछ टुकड़ें..
गीताश्री
तुम इलाहाबाद के पथ पर
पत्थर तोड़नेवाली बाला नहीं
जिसे निराला ने देखा था
तुम शरत के उपन्यासों की नायिका नहीं,
लारेंस,काफ्का, मंटो और राजकमल की लेखनी ने तुम्हें नहीं रचा,
भीष्म साहनी की बासंती
या आलोकधन्वा की भागी हुई लड़कियों में भी
तुम्हारी गिनती नहीं हो सकती
तुम्हें मैं नारी मुक्ति आंदोलन की नायिकाओं की श्रेणी में भी नहीं पाता
तुम्हें पेट भरने के लिए फलवाले किसी पेड़ की तलाश भी नहीं
लेकिन उड़ने की कद्र की है तुमने
श्रम मूल्य है तुम्हारा पसीना
पसन्द है तुम्हे
यही मुझे अच्छा लगता है सोनचिरैया,यही।
(वेद प्रकाश वाजपेयी की कविता "सोनचिरैया" का अंश)
....बोए जाते हैं बेटे
उग आती है बेटियां
एवरेस्ट की चोटी तक ठेले जाते हैं बेटे
चढ जाती है बेटियां....(कवि का नाम पता नहीं)
महिला सशक्तिकरण के 100 साल पूरे हो गए। 1910 में महिला दिवस की घोषणा के बाद सबसे पहले 19 मार्च 1911 को आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी, स्वीटजरलैंड में यह पर्व मनाया गया।
1975 में अंतराष्ट्रीय महिला वर्ष के दौरान यूएन ने 8 मार्च को महिला दिवस के रुप में मनाना शुरु किया।
इतना लंबा सफर तय करने के बाद भी हमारा लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है..मुक्ति स्वप्न नहीं है..यहां लोहिया का एक कथन सटीक बैठता है..वह कहते हैंकि पुरुष स्त्री को प्रतिभासंपन्न और बुद्दिमति भी बनाना चाहता है और उसे अपने कब्जे में भी रखना चाहता है, जो किसी कीमत पर नहीं हो सकता...जब तक यह गैरबराबरी खत्म नहीं होती....स्वप्न अधूरा, क्रांति अधूरी....
बोल बोल कि लब आजाद हैं तेरे....