तुझसे मुझे शिकायत नहीं,
मेरे वसंत के वर्ष,
जो बीत गए प्रेम के व्यर्थ सपनों में-
तुझसे मुझे नहीं है शिकायत,
मादक बांसुरी-से-संगीतमय
ओ रातों के रहस्य।
मुझे तुमसे नहीं है शिकायत
प्याले लिए पंखों का मुकुट पहने जंगल की
घुमावदार पगडंडियों पर मिलने वाले
ओ धोखेबाज साथियों,
युवा देशद्रोहियो-
नहीं है शिकायत मुझे तुमसे
और मैं इस खेल से, चिंता भरा।
किंतु कहां गए वे, भावुक पल,
जवान उम्मीदों और
हृदय की शांति के पल
कहां है प्रेरणा के आंसू
पहले की सी उष्मा कहां गई,
मेरे वसंत के वर्ष
फिर आना.....
रुसी के महान कवि अलेक्जेंडर पूश्किन की एक प्रेम कविता(अनु-कुमार कौस्तुभ)
जैसे पुश्किन की कविताओं में प्रेम और क्रांति दोनों साथ साथ, अगल बगल रहते है, उसी तरह हम अतीतजीवियो की चेतना में अतीत और वर्त्तमान दोनों साथ साथ चलते रहते हैं। हम वर्त्तमान में रहते हुए अपने अतीत की गीली जमीन नहीं छोड़ पा रहे हैं। बहुत आसान नहीं होता स्मृतियों को टटोलना, डूबना और बाहर आना. बहुत मुश्किल होता है बाहर आ पाना. ये आवाजाही होली जैसे मौको पर बेहद मारक होती है. ...हमें याद है, वसंत-होली के आने का पता छोटे शहरों और कस्बों में कैसे चलता था. वो पता स्मृतियों में दर्ज है...खुली-धुली--गंधाती हवा..किसी की देह से होकर गुजरती...रसिक प्रिया बजाता, फगुआ गाता कोई पीछे की गली से गुजर जाता तो कई जोड़ी घूंघटवाली आंखें खिड़कियों पर जम जाती. अब तो आप ऊंची उंची अट्टालिकाओं पर कबूतर से टंगे हैं, बालकोनी से दुनिया को निहारिए..शहर के कचरे से उठती गंधीली हवा को सूंघ सूंघ कर कोफ्त होइए. लाउडस्पीकर पर और हाइवे से गुजरती गाड़ियों से निकलती कानफोड़ू शोर से आजीज आकर टीवी चैनल आन कर लीजिए..कर भी क्या सकते हैं. जाने कहां गए वे दिन..बचपन की यादें करिश्मा हैं, आपको पुर्ननवा करती हैं. रंगों की पूरी बारात घुमड़ रही है.आज भी फगुआ अपने पारंपरिक रुप में मेरी स्मृतियों में जिंदा है....भर फागुन ससुर जी देवर लागे....। मैं चाह कर भी पुश्किन की तरह नहीं कह पा रही हूं...दूर भागो, ओ मेरी स्मृतियों...सो जाओ ओ मेरे अभागे प्रेम।
गीताश्री