इस ऋंखला में कवि अनिल करमेले की कविता. 12 सितंबर के दैनिक भास्कर अखबार(फीचर पेज) में छपी थी. वहां से साभार ले रही हूं दोस्तो के लिए. वो भी एक कवि की कविता. यहां स्त्री होने की विडम्बना देखिए..कितनी करुणा और कितना क्षोभ। आनर किलिंग वाले समाज की मानसिकता पर चोट करती हुई ये कविता स्त्री के चोटीले मन को हौले से एक आश्वस्ति के साथ सहलाती है...गीताश्री
कहीं कोई आवाज नहीं है
जैसे मै शून्य में प्रवेश कर रहा हूं
जैसे एक नवजात शिशु के रुदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत आश्चर्य के साथ
थम गए हों
मेरी देह का संतुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश में अठखेलियां करती
चिड़ियों की तरह लग रही है
मैं चाहता हूं इस वक्त दुनिया के
सारे काम रोक दिए जाएं
यह धरती के आराम करने का समय है
न जाने कितने जन्मों की प्रतीक्षा के बाद
अनंत कालों को लांघता हुआ
मुझ तक आ पहुंचा है यह
मैं इसके शब्दों को
छू कर महसूस करना चाहता हूं...
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तीनो लोको में फैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान परेशान
दांतो में उंगली दबाए भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर..
कि जब संग संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरुष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड़कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टाहास
फैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे संभव हुआ एक स्त्री के लिए
इस पृथ्वी पर प्रेम...