सुहाग चिन्हों के प्रति आग्रह

Posted By Geetashree On 2:40 AM 12 comments
जनसत्ता में छपा एक लेख पिछले कई दिनों से जेहन में गहरे धंस गया है। अभी तक बैग में उसकी कतरन लेकर चल रही हूं. उसमें जो छपा है वो विचलित कर देने वाला है। मैं नहीं जानती लेखिका को। दुनिया मेरे आगे स्तंभ में कोई स्मिता सिन्हा हैं, उनका फर्स्ट परसन में बेहद मार्मिक लेख छपा है, मीरा की मां। उसमें अपने वैधव्य के बाद मायके में जीने और माता पिता के व्यवहार के बारे में लिखा है। हम किसी कवि की तरह इसे विधवा विलाप नहीं कह सकते। यह लेख लोक और लोकाचार के साथ साथ पुरुष मानसिकता पर आहिस्ते से चोट कर देता है। लेख की नायिका विधवा हो चुकी है और अपने पिता द्वारा तय किए जीवन को अपना कर आजीवन वैधव्य ओढने को तैयार हो जाती है। मात्र 21 साल की उम्र में वह विधवा होती है, पिता को उस पर रहम नहीं आता, उसे दूसरी शादी की इजाजत नहीं देते। लेकिन एक औरत..जो उसकी मां है, वो अपनी बेटी के वैधव्य को देख कर उदासी की चादर ओढ लेती है। यह उदासी ना सिर्फ बातचीत बल्कि रहन सहन में भी दिखाई देती है। जब से बेटी की मांग उजड़ी, खाली हुई तो मां सिंदूर लगाना भूलने लगी...आगे नायिका की जुबानी सुनाती हूं--एक बार बाबूजी दो साड़ियां लाएं। मां के लिए छींटदार मेरे लिए हल्की आसमानी काले बार्डर वाली साड़ी। मां ने कहा कुछ नहीं। लेकिन उस साड़ी को कभी नहीं पहना। मां मुझसे अठारह साल ही बड़ी थीं। एक एक करके उसके सारे ऋंगार छूटते चले गए। सिंदूर भी बालों की अस्त-व्यस्तता में छिप जाता। इससे नाराज होकर बाबूजी चिल्लाएं थे...जिंदा हैं अभी हम...
तो सिंदूर की क्या दरकार है...।
चुप्पा मां के जवाब और झनाक से आंगन में थाली पटकाने से मैं हतप्रभ थी। ......बाबूजी औंधे मुंह लेटे पूरे दिन उपवास में रहे।

लेख बड़ा है...नायिका की मनस्थिति का ब्योरा दिया गया है। एक मां के जवाब में बहुत दमदार तर्क छिपा है। अगर रिश्ते मजबूत हैं, फिर आप सुहाग चिन्हों के प्रति इतने आग्रही क्यों है। क्या आपको जिंदा होने के लिए सिंदूर की दरकार है जो चीख चीख कर आपके जिंदा होने का सूबूत देता रहे। एक पति का अस्तित्व चुटकी भर सिंदूर का मोहताज है। हैरानी होती है...आज के समय में भी कोई पुरुष एक स्त्री के जीवन में अपना अस्तित्व सिंदूर में तलाशता हो। वैसे जिन प्रदेशों में सिंदूर का प्रचलन हैं वहां सिंदूर को लेकर ढेर सारे वहम हैं..जैसे मेंहदी को लेकर, मिथ है। मेंहदी गहरी चढी तो पति या प्रेमी ज्यादा मानता हैं कम चढी तो प्यार कम करता है। ये सब बेबकूफाना मिथ खूब प्रचलित है और इसका मजा स्त्री विरोधी नहीं है।

भारतीय समाज में ये सिंदूर बहुत शुभ-अशुभ से जुड़ा है। खास खास अवसरों पर, पूजापाठ के दौरान, शादी की विधियों के दौरान इनका बड़ा महत्व होता है। बिहार, यूपी में नाक से लेकर मांग तक एक लंबी लाइन खींच दी जाती है। वहां तो यह भी मान्यता है कि नहाने के बाद बिना मांग भरे खाना नहीं खाया जा सकता, अपशकुन होता है। सिंदूर लगाने के लिए खास दिशा तय होती है, आदि आदि...ढेर सारी मान्यताएं..किन किन का जिक्र करें। यहां तो मसला ही दूसरा है।

दरअसल सिंदूर या अन्य सुहाग चिन्हों के प्रति पुरुषो का आग्रही होना हास्यास्पद है। इससे उनकी मर्दवादी सोच साफ झलकती है। जहां औरतों को अपनी संपत्ति मानने का चलन है। शादी के दौरान सिंदूरदान पारंपरिक नहीं लोकाचार है। विवाह के लिए सप्तपदी यानी पांच तत्वों (क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा) की उपस्थिति में सात कदम चलना जरुरी होता है। सिंदूरदान तो बाद में आया होगा। जब पुरुषों को लगा होगा कि स्त्री हमारी मिल्कियत है और हमें इसे अपने लिए चिन्हित करना चाहिए। मर्द ने एक ठप्पा स्त्री के माथे पर लगा दिया और स्त्री इस तरह जागीर में बदलती चली गई। औरतों को भी भाने लगे..साजो-ऋंगार। इंद्रधनुष के सारे रंग भर दिए गए शादीशुदा स्त्री के जीवन में और इनसे परे कर दिया गया कुंवारियों और विधवाओं को। आप आधुनिक विचारधारा के पुरुषों से भी पूछे तो वे बता देंगे कि उनहें मांग भरी हुई औरतें, पत्नियां बहुत अच्छी लगती हैं। एसा नहीं होता तो राजनीति में आने वाली महिला नेताएं अपने चौड़े मांगों में सिदूर उड़ेल कर, माथे पर बड़ी बड़ी बिंदी लगा कर, जनता के बीच नहीं जाती...आखिर जनता में सती-सावित्री की अपनी छवि जो बनानी है। जनता का भावनात्मक दोहन जो करना है। कुछ औरतो को अपनी वफादारी का सबूत भी तो देना होता है। औरतो ने मर्दो को अपनी संपत्ति नहीं माना इसलिए कोई ठप्पा तलाश नहीं पाई। पश्चिम में जरुर मैरिज रिंग खोजा गया जिसे दोनों शादी के बाद पहनते हैं। रिश्ता टूटने पर वहां सबसे पहले रिंग ही उतार फेंकते हैं। जैसे हमारे यहां सिंदूर...।
दक्षिण भारत में मंगलसूत्र को यह दर्जा प्राप्त है। हालांकि पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प केस सामने आया। मद्रास उच्च न्यायालय की एक पीठ ने एक महिला के विवाह की मान्यता बरकरार रखते हुए यह दलील दी कि हिंदुओं के बीच शादी को साबित करने के लिए यह अनिवार्य नहीं कि दुल्हा अपनी दुल्हन के गले में मंगलसूत्र बांधे। इस फैसले के साथ अपनी शादी को साबित करने के लिए एक महिला 21 साल तक चली कानूनी जंग में जीत गई। कोर्ट ने हवाला दिया कि हिंदू विवाह कानून की धारा (सात) के मुताबिक किसी भी मान्यता प्राप्त विधि के तहत शादी को साबित करना पर्याप्त है। इस महिला के खिलाफ उसके पति ने यह दलील दी थी कि उसने महिला के गले में मंगलसूत्र नहीं बांधा था। फिर शादी कैसे मान्य हुई। कोर्ट ने रुख ने बहुत सी चीजें साफ कर दी हैं।

कौन समझाएं बाबूजी को कि आप जिंदा हैं तो इसे साबित करने के लिए सिंदूर की क्या दरकार है।

वैसे भी इन दिनों सिंदूर का चलन टीवी सीरियल में ज्यादा है। कामकाजी महिलाएं सिंदूर को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। खास अवसरो पर जरुर इसे रिवाज की तरह बरता जाता है। करवाचौथ, तीज जैसे पर्व में ऋंगार की तरह सजा लेती हैं। लेकिन रोजमर्रा के जीवन और मेकअप-दोनों से गायब है। आखिर कब तक संपत्ति करार देने वाले चिन्हों को वे ढोती रहेंगी।