सास बहू से परेशान है, बहू सास से..ये कोई नई बात तो है नहीं। ये सिलसिला प्रेम की तरह ही आदिकालीन है। रिश्ते के साथ साथ ही उसकी जटिलताएं भी पैदा होती हैं। आप लोकगीतो को सुने, लोककथाएं सुने..हरेक जगह आपको सास-बहू रिश्तों की जटिलता का महागान सुनाई देगा। पिछले कई दिनों से एक खबर को मैं सिर्फ इसलिए नजरअंदाज कर रही थी कि उस पर लिखना अपने ही विरुध्द होना है। लेकिन जब बार बार कोई चीज एक ही रुप धर कर सामने आ जाए तो क्या करें। रहा नहीं गया। बहुत सोचा..किसी विचारक, किसी समाजशास्त्री की तरह...शायद उनकी तरह विचार ना कर पाऊं..मगर अपनी तरह, जरुर सोच सकती हूं।
पुरुषों की तरफ से उछाला गया एक बहुत पुराना जुमला है...औरत ही औरत की दुश्मन होती है। एसा कहकर हमेशा वे अपनी भूमिका से औरतों का ध्यान बंटाते रहे हैं।बल्कि घरेलु मामलों में तो बाकायदा औरत के खिलाफ औरत को इस्तेमाल करने का खेल खेलते रहे हैं हमेशा से। एक औरत को दूसरी से भिड़ाने की कला में माहिर पुरुषों को आनंद आ रहा होगा कि घर का झगड़ा लेकर उनकी औरतें सड़क पर घर की दूसरी औरत के खिलाफ खड़ी हो गई है। उनके चेहरे सास जैसे हैं और हाथों में नारों से पुती तख्तियां। वे अपनी बहुओं के खिलाफ खड़ी है।
सासो ने अब अपना यूनियन बना लिया है। देशभर की लगभग 700 परेशान सासो ने मिलकर आल इंडिया मदर्स-इन ला प्रोटेक्शन फोरम( एआईएमपीएफ) बना लिया है और अब बहू से उसी मंच से मोर्चा लेने को तैयार हैं। लगता है ये हारी हुई औरतो का फोरम है जो जंग जीतने के दावपेंच सीखने के लिए तैयार किया गया है। फोरम कार्डिनेटर नीना धूलिया ने कई अखबारों में बयान दिया है कि कई प्रताड़ित सांसे लंबे समयसे एक दूसरे के संपर्क में थीं। अब उन्हें हमने एक मंच दे दिया है। सास की इमेज इस कदर खराब कर दी गई है कि बहुओं की शिकायत पर पुलिस और समाज सास को ही दोषी मानता है।
टीवी में भी इन्हें वीलेन दिखाया जा रहा है, जबकि जीवन में सासें ज्यादा प्रताड़ित हो रही हैं। धूलिया को महिला आयोग से भी शिकायत है...कहती हैं, वह बहुओं का आयोग बन कर रह गया है। हम चाहते हैं कि आयोग सास की भी शिकायत सुनें, जिस तरह से बहुओं की सुनता है। इस फोरम ने हाल ही में हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का हवाला देता है जिसमें कहा गया है कि लड़कियां ससुराल से ज्यादा मायके में हिंसा का शिकार होती हैं। 15-49 साल की महिलाओं के बीच हुए सर्वे के मुताबिक 13.7 प्रतिशत महिलाएं अपनी मां से और 1-7 प्रतिशत अपनी सास के जरिए हिंसा का शिकार बनती हैं।
फोरम का तर्क है कि वैज्ञानिक रुप से तय हो चुका है, आंकड़े साबित कर रहे हैं कि सासो को बेवजह बदनाम किया जा रहा है। असल जिंदगी में तो सासें ही पीड़ित हैं...जो सबकुछ चुपचाप सहन कर ले रही हैं।
एकबारगी में आपको ये लग सकता है कि ये मामला सीधे सीधे सासो की छवि बदलने की मंशा से जुड़ा है। नहीं...मामला इतना सीधा नहीं है। इसकी तह में जाएं..फोरम का उद्देश्य भांपिए। इनका अगला कदम दहेज कानून और घरेलु हिंसा कानून में बदलाव के लिए होगा। ये है असली मकसद। बहुओं को सताने, जलाने, घर से निकालने में सबसे आगे आगे रहने वाली सासों को भी पकड़े जाने पर जेल-यात्रा करनी पड़ती है, पुरुष के साथ साथ। जब पुरुष बहू को दबोचता है तब उसके उपर मिट्टी तेल कौन डालता है, कौन है जिसकी उंगलियों से आग की चिंगारी निकलती है..जिसमें एक जिंदा मासूम लड़की जल कर भस्म हो जाती है।
कौन है जो बहू के घर आने पर दहेज का सामान गिनती है और कम पाने पर सात पुश्तों को कोसती है। कौन है जो बेटे की पसंद की औरत को जीवन भर मन से स्वीकार नहीं पाती और उस औरत के रुप में अपनी हार मानती रहती है।
कौन है वो, जो बहू पर सबसे पहले ड्रेसकोड लादती है। बेटी बहू के लिए घर में दो नियम लागू करती है।
कौन है वो जिसके आते ही बहू को अपना रुटीन और रवैया दोनों बदलना पड़ता है।
कौन है वो..बहू के घर में आते ही जिसकी तबियत कुछ ज्यादा ही खराब रहने लगती है और रोज रातको पैर दबवाए बिना नींद नहीं आती।कौन है वो जिसे बहू आने के बाद अपनी सत्ता हिलती हुई दिखाई देती है। कौन से वे हाथ जो सबसे पहले लडकी के दुल्हन बनते ही उसके चेहरे पर घूंघट खींच देते हैं।
और कितनी ही बातें हैं...कहने सुनने वाली...कुछ याद है कुछ नहीं।
जिस सर्वे का सहारा लेकर फोरम की जमीन तैयार हुई है, उसमें मायके के उपर उंगली उठाने का मौका मिल गया है। मायके में लड़की को शादी से पहले का ज्यादा वक्त बीताने का मौका मिलता है। जाहिर हरेक तरह के अनुभव होंगे। मां कभी अपने बच्चों के प्रति हिंसा से नहीं भरी होती। उसके पीछे लड़की को सुघड़ बहू बनाने की मंशा होती होगी..अपना समाज लड़कियों को बोझ समझने वाला समाज है..लड़कियां तो दोनों जगह मारी जा रही हैं। अगर .ये सिलसिला लंबा है...तो क्या सासें कभी बेटी या बहू नहीं रही होंगी। खुद को उनकी जगह रख कर देखें। कैसे भूल जाती है अपने दिन..उनके साथ भी तो सा ही हुआ होगा। फिर वे इस व्यवस्था के खिलाफ क्यों नहीं उठ खड़ी होतीं।
वो तो भला जानिए कि इन दिनों बहूएं पति के साथ रहती हैं, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, कामकाजी हैं तो दूसरे शहर में हैं...कम मिलना होता है...प्रेम बचा हुआ है। एकल परिवार पर दुख मनाने वालों...साथ रहकर देखो...घर में दो अलग अलग फोरम की सदस्याएं जब टकराएंगी तब अपनी शामें किसी क्लब में या किसी महिला मित्र के साथ बैठ कर गम गलत करने का रास्ता तलाशते नजर आओगे। एसा नहीं कि इन दिनों सास-बहूएं साथ नहीं रहतीं। कई परिवार अभी साथ हैं..उनमें आपसी सामंजस्य भी अच्छा है। आपसी समझदारी हो तो मामला संगीन नहीं हो पाता। इस परिवार की बहू ना तो आयोग जाती है ना सास को किसी फोरम पर दहाड़ने की जरुरत पड़ती है।
ये सिर्फ शिगूफे के लिए बनाया गया संगठन है तो कोई बात नहीं...अपनी बेटी की सास को भी सदस्य
बनाने को तैयार रहें...
इस तरह के संगठन पुरुषों को मनोरंजन देते हैं और औरतो की लड़ाई को कमजोर करते हैं।
एक किस्सा हूं...एक ससुर महोदय ने अलग अलग घरों में रहने वाली दो बहुओं से एक ही सवाल पूछा और अलग जवाब पाए। सवाल था..इस घर की मालकिन कौन है, तुम या सासु-मां
छोटी बहू का सीधा जवाब-मैं हूं। यहां मैं रहती हूं, सासुमां जहां रहती हैं वे वहां की मालकिन हैं, मैं यहां रहती हूं....
इस सवाल जवाब से अनभिज्ञ बड़ी बहू से यही सवाल पूछा--सास की मौजूदगी दोनों जगह थी।
बड़ी बहू का जवाब--सासूमां हैं...वे जब तक यहां रहेंगी वह ही मालकिन, उनके जाने के बाद मैं...। जबाव दोनों सही...सोचिए कि कहां क्या हुआ होगा।