समीक्षा
प्रार्थना
के बाहर एवं अन्य कहानियां
(वाणी
प्रकाशन)
---कलावंती
यह नैतिकताओं का संक्रांतिकाल है । गीताश्री की कहानी की
नायिकाएँ इस बात को बखूबी सिद्ध करती हैं। वे तेज
हैं, समझदार हैं ,पढ़ी लिखी हैं
और बेहद संवेदनशील भी हैं। उनकी बोल्डनेस में भी एक मासूमियत है। वे बस
उतनी ही शातिर हैं, जितने
में अपनी मासूमियत की रक्षा कर सकें। वे बोल्ड हैं पर क्रूर नहीं हैं। सबसे
बड़ी बात कि वे अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार
हैं और बहुत साफ ढंग से सोचती हैं। गीताश्री ने अपनी भूमिका में ही
लिखा है –"जो
रचेगा, वही बचेगा। एक और जहां है उसी जहां की तलाश में
मेरी आग चटक रही है। देर हो चुकी है ।जहां ढेर सारे मठ-
महंत पहले से पालथी मारे बैठे हैं। वहाँ मैं
अब बहुत देर से प्रवेश कर रही हूँ। इस रचनातमक
यात्रा में क्या कभी देर हो सकती है।जब उठ चलो तब ही यात्रा शुरू हो गई ।"
वे लिखती
हैं "मूल्यों के बीच पिसती हुई स्त्रियाँ खुद कहानी बनती जा रही हैं।मुक्ति
के लिए छटपटाती हुई स्त्रियॉं का विलाप शायद मुझे
ज्यादा साफ सुनाई देता है। वर्जनाओं के
प्रति उनके नफरत का अहसास मुझे ज्यादा
होता है।" गीताश्री ने स्त्री विमर्श के नाम पर सिर्फ स्त्रियॉं के
गुण गायें हैं ऐसा नहीं हैं। उनकी कहानियों में कमजोर और मजबूत दोनों ही तरह के
पुरुष और स्त्री पात्र मिलते हैं जो आपकी चेतना पर बहुत सारे सवाल छोड़
जाते हैं।
"प्रार्थना के
बाहर" संग्रह की पहली कहानी है। "बुरी
लड़की को सब मिल गया , अच्छी
ऐसे ही रह गई।" रचना
को लगा जिंदगी उसके हाथ से फिसल गई है। यह अकेले रचना की छटपटाहट नहीं है ।बहुत सी
रचनाएँ हैं पूरे हिंदुस्तान में। पर सोचिए संपन्नता के
कितने भी ऊंचे पायदान पर पहुंचा आदमी देर सबेर खुद से मुखातिब होता ही
है। बहुत आज़ाद समझे जाने वाले देशों में भी
औरतें सुरक्षित नहीं और औरतें सुरक्षित नहीं
तो आपके बच्चे भी सुरक्षित नहीं। क्या पुरुषों के बराबर बैठकर शराब पी
लेने की आज़ादी ही स्त्री की वास्तविक आज़ादी है। गर्भपात अब वैधानिक है तो क्या मूँगफली
खाने सा सुलभ हो। जीवन रचने की जो दुर्लभता स्त्री को मिली है वह पुरुष के
पास कहाँ । इसलिए स्त्री के लिए शरीर मात्र आनंद की वस्तु हो भी नहीं सकती। प्रकृति ने माँ को बच्चे
का सर्वाधिकार दिया है। बहुत झमेलों में उलझी जिंदगी
में भी रचना ने चिड़िया सा मन बचाए रखा , क्या
यह उसकी उपलब्धि नहीं ? किसी
समारोह में पुरस्कार देते प्रार्थना ने क्या उस अजनमें बच्चे को नहीं याद किया
होगा । किसी प्रकार का कोई अपराधबोध नहीं होना क्या रचना की उपलब्धि नहीं? आप
जिन संस्कारों को छोडते हैं उसके बाद आप कितनी ग्लानि महसूस करते हैं या गौरान्वित
होते हैं यह आप पर है।
एक अन्य कहानी
है – गोरिल्ला प्यार । अर्पिता, विशवास
करती है और विशवास चाहती है । पर इंद्रजीत पुरुष है। उसे कमाने वाली , आत्मनिर्भर
और बौद्धिक लड़की से प्रेम करने का शौक तो है पर बाहर जाती स्त्री के पल पल कि खबर
भी उसे चाहिए। इधर अर्पिता बेहद स्वाभिमानी स्वावलंबी लड़की है। "अनुभूति को
भी क्या कभी गिना जाता है ।क्या अश्रु और स्वेद की गणना मुमकिन है।" अर्पिता
का कहना है कि "जिंदगी हमें एक ही बार मिलती है। हम उसे दूसरों के हिसाब से
जीने में खर्च कर देते हैं।... मेरे इस जीने के तरीके में स्पसटता रहेगी।
" परंतु सहेली कि बात ही सच निकली "सोच लेना अर्पिता ... हर रिश्ता कुछ
वक़्त के बाद एकनिषठता कि मांग करने लगता
है।" अर्पिता का दिल यहाँ टूटा कि "नेह में पगी
हुई देह वार दी ।वह बता नहीं पायी इंद्र को, कि
कैसे उसने बॉस के प्रेम प्रस्ताव को खारिज करके
हमेशा के लिए दफ्तर में अपने लिए एक शक्तिशाली दुश्मन पैदा कर लिया।" उसके बाद
ऐसा सलूक। अर्पिता इंद्रजीत से आहत अपमानित होकर फेस्बूक पर
मित्र तलाशती है। उसे लोगों का व्यवहार देखकर निराशा होती है
।"मछ्ली कि तरह फंसनेवाली औरत चाहिए …. शेरदिल
औरत नहीं....."। इसी इमोशनल ट्रोमा में
उस रात वह आकाश से गोरिल्ला प्यार कर बैठती है। सुबह जब
इंद्रजीत का फोन आता है तब वह कहती है-" इट इज टू लेट इन्द्र।" अर्पिता
क्या सिर्फ देह की प्यास में आकाश तक पहुँच गई या अपने को पूरी
तरह टूटने से बचाने के लिए। पुरुष समाज को यह सोचना होगा।
"दो पन्ने वाली
औरत" कैरिएर बनाने की होड में लगी औरतों की आपसी प्रतिस्पर्धा की कहानी
है। आसावरी और रंजना दोनों अपने अपने तरीकों से संपादक को प्रभावित करने की चेष्टा
में है। जब योग्यता देह है तो हर
लड़की थोड़े दिन बाद अयोग्य हो जाएगी। सत्ता जिसके पास होगी ऐसी लड़कियां भी उसके पास होंगी
।क्या थोड़ी बड़ी गाड़ी, ज्यादा बड़ा मकान यही उपलब्धि है जीवन की । अपनी नज़रों में न
गिरनेवाला कोई काम न करना क्या कोई उपलब्धि नहीं? आसावरी
अपनी बौद्धिकता को, ज्ञान को मांजेगी। ऊपर उठेगी, यह
आत्मविसवास उसमें क्यों नहीं दिखता ? बल्कि कभी रंजनाओं की
कहानी भी लेखिका को लिखनी चाहिए कि वे
बहुत सारे सम्बन्धों और समझौतों से गुजरने के बाद मिली उपलब्धियों के साथ अपने
जीवन में कितनी मजबूत और संतुष्ट हैं? "मेरी
प्रतिभा को रोज रोज परीक्षाओं से गुजरना होगा?" हर उस
लड़की का द्वंद है जो खुद को बचाए भी रखना चाहती है। मूल्यों का महत्व है उसके लिए।
अपने परिवार से मिले
संस्कारों से मिले को ना छोड़ पाने वाली लड़कियों की यह सोच बहुत स्वभाविक है।पर
उन्हें यह भी समझना होगा की आखिर कितने समझौते करेंगें आप । सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं
होता। यदि इतने ओछे समझौते कर ही धन कमाना है तो फिर इतनी पढ़ाई
लिखाई क्यों? शुरू में
समझौते कर आगे बढ़नेवाली लड़कियां थोड़े दिन बाद बाज़ार
से बाहर हो जाती हैं। ज्ञान और मस्तिस्क को लगातार अपडेट करती स्त्रियाँ ही इस
गलाकट प्रतियोगिता में स्वयं को टिकाये रख सकेंगी।
"दो लफ्जों कि एक
कहानी" एक बेहद सुंदर प्रेम कहानी है। पूरी कहानी
एक सुंदर सी लयबद्ध कविता है। डेविड
का स्वयं का चरित्र एक मजबूत पुरुष चरित्र है। वान्या और पैरीन दोनों ही
उसे बहुत प्यार करती हैं। प्रेम क्या
सिर्फ सुख भरे पलों को जीने का नाम है ? या उसकी अपनी कोई प्रतिबद्धता भी है। दुख भरे
पलों को साथ जीना भी तो प्रेम है। जो आपसे प्रेम करेगा वह आपको किसी तकलीफ में कैसे
छोडकर जा सकता है। पैरीं का यह कहना कि उसे जिंदा रखना मेरी पहली
प्राथमिकता है। उसके चरित्र की उदादत्ता को दिखाता है।
"अंधेरे में
किसी दोस्त के साथ चलना, रोशनी में अकेले
चलने से कहीं बेहतर है।" वह इस यात्रा में वान्या का भी साथ चाहती है भले
ही वह साथ मानसिक साहचर्य या संबल कि तरह ही क्यों ना हो।
"रुकी हुई पृथ्वी"
एक साधन सम्पन्न रचनात्मक स्त्री के दिनचर्या से ऊब की कहानी
है।"कई बार लगता है कि कामनाएँ भी बेताल कि
तरह डाल पर लटक गई हैं।" उसके जीवन
में शांतनु हवा के एक ताज़े झोंके की तरह है। उसकी बात
सुनने और समझने वाला। घर में पति है पर उसे नेहा की बात सुनने का धीरज
नहीं। " वह क्यों नहीं सोचता कि उसे कोई
साथी चाहिए जो उससे खूब बातें करें ...प्रोत्साहित करे ... हौसला बँधाये ... उसकी
उपलब्धियों पर उसके इतना ही खुश हो ....।" वह अपनी
भावनाएं बताती है पर शांतनु डर गया ... एक प्रेम से भरी हुई स्त्री के आवेग
से ....।पर अंतत नेहा फैसला करती है कि वह जीवन
को बहुत कंप्लीकटेड नहीं बनाएगी...। यहाँ
शांतनु की भी तारीफ करनी होगी कि उसने आम पुरुषों कि तरह
उसकी ऊब को अपने पक्ष में भुनाने कि कोशिश नहीं की।
"सोनमछरी" की
नायिका रूमपा शंकर से बहुत प्यार करती है। पर परिस्थितिवश जब उसे अमित का सहारा
लेना पड़ता है तो वह शंकर के लौटने पर भी अमित
को छोड़ने को तैयार नहीं होती। गीताश्री की नायिकाएँ साहसी हैं और अपने किए का
समूचा दायित्व वे स्वयं लेने को तैयार दिखती हैं। चाहे वह मान
सम्मान हो या घोर लांछना। वे प्रेम भी अपनी शर्तों
पर करती हैं।
"चौपाल " के बीजू
साहब एक अलग ही किस्म के चरित्र हैं॰ शिवांगी
के खामोश प्रेमी। जिन्हें बस शिवांगी को देख लेना ही काफी है। उनके चले जाने के
बाद शिवांगी उन्हे खोजती फिरती है। धन्यवाद कहने का मौका भी ना मिल सका । पर ऐसे पात्र
क्या जीवन भर भुलाए जा सकते हैं?
"ताप" कहानी पाठकों
को थोड़े असमंजस में डालती हैं। ऐसा व्यावहारिक रूप से संभव है क्या?" बह गई बैगिन नदी " का असगर जब यह कहता है कि
"मैं ... सरजी , पहले
तो मैं पैसा ही लेता था लेकिन हमारी अम्मी हराम का पैसा घर लाने को मना करती
है।" तो लगता कि यह पृथ्वी अबतक नष्ट नहीं हुई, क्योकि आदमी
का जमीर कभी ना कभी जग जाता है।
इन कहानियों का एक
कमजोर पक्ष, दूसरे पक्ष यानि रंजना, इंद्रजीत की भावनाओं का
पूरी तरह नहीं खुल पाना है।
लेखिका से यह आशा की जा सकती
है कि कभी हम उनकी ऐसी कहानियाँ भी पढ़ पाएंगे जो इन
पात्रों के तरफ से लिखी गई होगी , उनकी मनोदशा को दर्शाती हुई। इसके
अलावा लबरी ,फ्री बर्ड , उर्फ देवीजी, एक
रात जिंदगी भी अच्छी कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ पितृसत्तातमक
समाज की जड़ों पर प्रहार करती हैं और पाठकों को मजबूर करती हैं कि वे भी स्त्रियॉं
को मनुष्य की तरह देखना सीखेँ। उनका धीरज अब जबाब देने को है।
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कलावंती, आवास स0 टी 32 बी , नॉर्थ
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