मागलिक रंगदारीप्रथा की वापसी

Posted By Geetashree On 2:08 AM 5 comments

सुना है फिर किसी लड़के का अपहरण कर उसका पकड़ुआ विवाह करा दिया गया है। सीधी-सादी, भोली भाली ग्रामीण लड़कियों के दुर्भाग्य के दिन फिर लौट रहे हैं। जिन्न फिर कई सालों बाद बोतल से बाहर आ गया है। पकड़ुआ विवाह का जिन्न कुछ ही साल पहले बोतल में बंद हुआ था। ये अचानक कैसे प्रगट हुआ, वो भी इस दौर में जब पकड़ुआ विवाह की जगह किसी और प्रथा हनीमून किडनैपिंग ने जन्म ले लिया और अपनी पुख्ता जगह बना ली है। सिनेमाई असर वाला यह नया चलन है। प्रेमी जोड़ा जब शादी को लेकर चौतरफा विरोध झेलने लगता है तो दोनों आपसी रजामंदी से एक नया दांव खेलते हैं। लड़की अपनी मर्जी से लड़के द्वारा अपहरण करवा लेती है और दोनों शादी कर लेते हैं। लड़की वाले लड़के के परिवार पर केस कर देते हैं। प्रभावशाली परिवार के दवाब में कई बार शादी टूट जाती है और लड़की गुस्से में आकर अपने मायके जाने से इनकार कर देती है। उसके बाद शुरु होता है उसकी यातना का लंबा सिलसिला...उसे रिमांडहोम या सुधारगृह भेज दिया जाता है। आप सोच सकते हैं कि वहां तन्हाई के कितने साल...बिता रही होंगी वे। वहां बिताए जाने वाले एक एक पल को जोड़ ले तो हम स्पेनिस उपन्यासकार मार्खेज की तरह कह सकते हैं...तन्हाई के सौ साल।

पकड़ुआ विवाह और उसका खौफ लोगों के जेहन से गायब होने लगा था। वह चलन और स्मृतियों से भी बाहर होने लगा था...अचानक टीवी चैनलों पर सामाजिक विषयों पर आधारित सीरियलो की आंधी आई तो गड़े मुर्दे फिर से उखड़ने लगे। एक नए चैनल पर एक धारावाहिक भाग्य विधाता दिखने लगा और पकड़ुआ विवाह से अब तक अनजान पीढी को भी पता चल गया। जो लोग इस सीरियल को देख रहे होंगे, हो सकता है उन्हें यह कोरी काल्पनिक कहानी पर आधारित लगता हो, मगर हाल ही में हुई एक घटनाने सच का सामना करा दिया। अब ये कहना मुश्किल है कि जिन्न को बाहर लाने में सीरियल का हाथ है या कोई और वजह इसके पीछे काम कर रही है। आपकी धुंधली स्मृतियों को ताजा करते हुए बता दूं कि अस्सी के दशक में बिहार के बेगुसराय जिले में पकड़ुआ विवाह के खूब मामले सामने आए। शहर के कई संपन्न परिवारों और खास जाति के कम उम्र लड़के पकड़ पकड़ कर या कहे अपहरण करके जबरन ब्याह दिए गए। उस दौरान देशभर में खूब शोर शराबा हुआ..मीडिया में खबरे छाई रहीं..पकड़ुआ विवाह फलता फूलता रहा। पुलिस कानून सब बेकार...लड़कियां गूंगी गुड़ियाओं की तरह एक अनजाने लड़के से ब्याह दी जाती रहीं और समाज तमाशबीन बना रहा। वैसे बिहार के कस्बे और ग्रामीण इलाको में लड़कियां शादी ब्याह के मामले में गूंगी ही होती हैं। ना कोई उमंग है ना कोई तरंग है...जैसी भावना के साथ वे मां बाप द्वारा तय की गई शादी स्वीकार कर धन्य हो जाती हैं। बिहार का मीडिया पकड़ुआ विवाह को मांगलिक रंगदारी प्रथा कहता है। अगरआपने भाग्यविधाता सीरियल देखा होगा तो उस पर यकीन मानिए। बड़े ही शोध के बाद वह सच्चाई कहानी बनकर आपके लिए मनोरंजन परोस रही है। सीरियल की नायिका का दुख देखिए..हमने अपनी आंखों से अपने परिवारों में घटित होतेदेखा है। गुनाह करे कोई, भरे कोई। लड़की पैदा करने की ताकत रखने वाले परिवारों में ल़ड़की की शादी करने का दम नहीं तो मांगलिक गुनाह का आसान रास्ता चुन लिया। लड़के उठा लाओ और जबरन शादी करा दो। लड़का बंदूक के साएमें शादी करने के बाद दुल्हन घर ले आता है और बदले की भावना से भर कर उस मासूम लड़की का जीवन ससुराल रुपी यातना शिविर के हवाले कर देता है। आखिर ये रास्ता लड़की के घरवाले क्यों अपनाते है..इसकी बहुत पड़ताल होचुकी है। सबसे बड़ा लड़की को बोझ मानना और उसे किसी तरह ब्याह देने की मानसिकता इसके पीछे काम करती है। आर्थिक मामला को भयानक है। बेगूसराय, मूंगेर, खगड़िया जैसे इलाको में दहेज की मांग भयानक थी। लड़की वाले उतनादेने में समर्थ नहीं होते। अमीर लोग गरीब परिवार से दहेज के कारण रिश्ता जोड़ते नहीं थे। नतीजतन उस जमाने में गरीब परिवारो ने विद्रोह कर दिया। बाकायदा एक एसे गैंग का उदभव हुआ जो लडके अपहरण करके शादी करवाने का ठेका लेने लगा। ज्यादातर तब पढाई करनेवाले लड़के शिकार बनते थे। संपन्न परिवारों के लड़के होते थे इसलिए बहुत बवाल मचा लेकिन इधर अबोध लड़की के साथ क्या हुआ इसकी खबर नही सुनी गई। शोर मचाने वालो को इनके घरों और जीवन में जरुर झांकना चाहिए था कि इन लड़कियों के साथ आखिर समाज-परिवार क्या व्यवहार करता है। मैं उसी समाज से आती हूं, इसलिए देखा है अपनी आंखों से कि कैसे मां बाप कुछ दिन बाद उस लड़की को कहीं खपा देते, घर से भगा देते हैं, जीवन भर दासी बना कर रख लेते हैं या किसी अंधेरी कोठरी में कैद कर
देते हैं या वापस मायके भेज देते हैं। उस जमाने में एसी लड़कियों के भाई-बाप का लड़को और परिवारों पर घोर आतंक था...लोगो ने अपने जवान होते बेटो को दूर दराज के शहरो में पढने के बहाने भेजना शुरु कर दिया था। जो पहले से बाहर पढ रहे थे उनका गांव आना बंद करा दिया गया था कि ना जाने कब कोई दबंग भाई उठा ले जाए और ढेर सारे दहेज लाने वाला उनका बेटा सस्ते में निपट जाए और एक अनचाही बहू साथ लेकर घर लौटे। उस वक्त बहुत कम परिवारवालो ने एसी बहू को स्वीकार किया। दस मामले में एक परिवार ने बहू को स्वीकारा और नौ परिवारों ने यातना देने के नृसंश तरीके अपनाए। जहां ससुराल उसके लिए यातना शिविर से कम नहीं था। कई एसी लड़कियां रहीं जिन्होंने यातना शिविर में ही जीवन गुजार दिए येसोच कर कि कभी तो नाजियो का दिल पसीजेगा और उसके भी दिन बहुरेंगे। इस भरोसे उन्होंने पति की दूसरी शादी तक झेली और वहां से हिली नहीं। मायके जाकर भी उन्हें क्या मिलता...लांछन, प्रताड़ना..भाई-भाभियों के उलाहने।

एसी शादी में लड़की कहीं की नहीं रहती। दबंग भाई उसके सपने का सौदा करकेनिकल लेता है और संताप झेलती हुई लड़कियां जिंदगी की मार से असमय बुढाजाती हैं।

प्रार्थना के बाहर

Posted By Geetashree On 2:04 AM 5 comments
कहानी
प्रार्थना के बाहर
गीताश्री

सुबह का अखबार देखकर रचना के मन में एक अजीब-सी कड़वाहट घुल गई थी....दफ्तर पहुंची तो रही-सही कसर बॉस ने पूरी कर दी... शाम को हताश-निराश दफ्तर से बाहर निकलकर बस में बैठते हुए रचना ने मन-ही-मन बॉस को एक गंदी गाली दी... मगर फिर भी दिलोदिमाग में उठ रहा गुबार मुड़कर देखती है तो सबकुछ धुंधला-धुंधला-सा नजर आता है...कठिन संघर्ष का माद्दा, उर्जा और ढेर सारे सपने लेकर अपने छोटे-से कस्बे से वह दिल्ली आई थी... 10 साल गुजर गए... तमाम पापड़ बेलने के बावजूद उसे क्या मिला? 15 हजार रूपल्ली की अखबार की यह नौकरी, जो पता नहीं कब चली जाए... और इसी नौकरी के लिए बॉस जब तक ताने मारता रहता है... साल्ला हरामी!

इसी दफ्तर के अलावा रचना का एक घर भी है, एक पति है बिस्तर से लेकर रसोई तक जिसकी सारी जरूरतें करीने से पूरी न हों तो वह हिंसक हो जाता है... ताने मारता है। दोस्तों की पत्नियों की तारीफ में कसीदे पढ़ता है... कि फलां की पत्नी तुम्हारे जैसी नहीं है...

रचना को लगा, जिंदगी उसके हाथ से फिसल गई है।

आखिर गलती कहां हुई? दिल्ली आकर भी उसने अकेले रहने की आजादी का बेजा लाभ नहीं उठाया... कभी कोई मनमानी नहीं की। शराब-सिगरेट से दूर रही। पुरुषों के साथ अपनी दोस्ती को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया।

दोस्त, परिचित उसे भली लड़की मानते रहे। वह खुद भी तो यही चाहती थी। वरना क्यों भली लड़की की इस इमेज से फेवीकोल के जोड़ की तरह चिपकी रहती?

अचानक रचना के भीतर एक जानलेवा कचोट-सी उभरी- भली लड़की बनकर कॅरिअर से लेकर परिवार तक जिंदगी के हर मोर्चे पर वह मात खाती रही... और जो बुरी लड़की थी उसने दुनिया जीत ली!

सुबह अखबर में एक कॉलम की खबर से साथ छपी तस्वीर का अक्स रचना की आंखों के आगे उभर आया। चेहरा थोड़ा भरा-भरा-सा, मगर आंखों में वही चमक और आत्मविश्वास जो नौ साल पहले थी।

प्रार्थना दिल्ली आ रही है... उत्तर प्रदेश कॉडर की आईएएस प्रार्थना पांडे को पदोन्नति देकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय में संयुक्त सचिव बनाया गया है...
रचना के जेहन में अचानक नौ साल पहले की वह शाम कौंध गई!

रचना मंडी हाउस जाने की तैयारी कर ही रही थी कि कमरे में धड़धड़ाती हुई प्रार्थना घुसी।

चल बाजार चलते हैं, छाछ पीने का बहुत मन हो रहा है। लेकर आते हैं।

पूर्वी दिल्ली का लक्ष्मीनगर बाजार बहुत व्यस्त और बड़ा है। गली से बाहर निकलते ही बाजार की चहल पहल शुरु हो जाती है। गली के नुक्कड़ पर ही दूकान थी। दोनों अप्रैल की हल्की गरमी झेलती हुई जरनल स्टोर पर पहुंची।
भईया...दो मस्ती देना।

अधेड़ उम्र, गंभीर सा दिखनेवाला दूकानदार, ऐसे अलसाया सा बैठा था काउंटर पर जैसे सामान बेचते बेचते उकता चुका हो। लड़कियों को काउंटर पर देख कर थोड़ा सचेत हुआ। लेकिन उकताए लहजे में बोला, 'मस्ती नहीं है। कुछ और ले लो। ''

प्रार्थना इठलाई, 'नहीं मुझे तो मस्ती ही चाहिए।'' दूकानदार ने प्रार्थना को अजीब सी नजरों से घूरा... 'आपको मस्ती ही क्यों चाहिए, कुछ और क्यों नहीं ट्राई करते?''

'नहीं भईया, मजा नहीं आता। मस्ती वाली बात कहां?'' प्रार्थना ने मुंह बिचकाया। दूकानदार काउंटर से उठा, रैक के पास गया। रचना प्रार्थना को कहीं और चलने का इशारा करने लगी। दोनों वहां से खिसकते इससे पहले ही दूकानदार ने उन्हें रोक लिया...सामने एक पैकेट धर दिया। 'ये लो, शर्तिया मजा आएगा....। ट्राई तो करो।''

दोनों की नजर पैकेट पर गई, वो किसी कंडोम का पैकेट था। ओ माईगॉड...रचना के मुंह से निकला और दोनों गली में सरपट भाग निकली..दूकानदार हैरानी से उन्हें इस तरह भागते हुए देखता रहा...दोनों का एक हाथ अपने मुंह पर, दूसरा अपने पेट पर...शरमाई हुई हंसी रुक ही नहीं रही थी। मकान के अंदर घुसते ही दोनों ने पागलों की तरह ठहाके लगाए...नहीं..अब मस्ती कभी नहीं..। रचना ने माथा पीट लिया..ओ गॉड, वो दूकानदार क्या सोच रहा होगा. हम उससे कुछ नहीं खरींदेंगे...उफ्फ...।

वह शाम उनकी कंडोम पर चर्चा करते बीती। रात को बत्ती बुझाई तो देखा प्रार्थना टेबल लैंप जलाकर पढ़ रही है। वह पीठ घुमाकर सोने की कोशिश करने लगी। हंसी रुके तब नींद आए न। आंखें बंद करे तो दूकानदार की गंभीर छवि घूम जाए...सोने की कोशिश में ही उसने वर्षा वशिष्ठ (मुझे चांद चाहिए की नायिका) की तरह सोचा, दिव्या (प्रार्थना) अगर तुम मुझे न मिलती तो मेरा क्या होता?

रचना आदतन प्रार्थना से कुछ पूछती नहीं थी। वैसे भी पैसे की हिस्सेदारी अभी शुरू हुई नहीं थी। रचना संकोची थी। रोजमर्रा का सामान खुद खरीद लाती। एकाध बार प्रार्थना ने कुछ खाने का सामान खरीदा। प्रार्थना अपने साथ सामान कम लाई थी। एक छोटा सा बैग और कुछ किताबें। मोटी-मोटी प्रतियोगिता की किताबें। देखने से लगता था, वह सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही है। रचना ने उसकी किताबों और नोटबुक को कभी उलट-पुलट कर नहीं देखा। यह रचना का लोकतांत्रिक व्यवहार था। वह इसलिए लोगों की व्यक्तिगत आजादी और मित्रता में भरोसा रखती थी। रचना को अपने सिरहाने कुछ पसंदीदा किताबें रखने का शौक था। जब तब नींद न आती तो वह उसे पलट कर देखती। सिरहाने में रखी किताबों में 'मुझे चांद चाहिए' (सुरेन्द्र वर्मा) और 'बंद गली का आखिरी मकान' (धर्मवीर भारती) भी थे। कमरे का एक कोना रचना ने दूसरा कोना प्रार्थना ने कब्जा कर लिया था। बीच में दरवाजा खुलता था। रचना को इतना सुकून था मकान मालकिन कभी कमरे में धमकती नहीं थी। इसलिए दोनों बेखौफ रह रही थीं। कभी कभार आते-जाते सीढ़ियों पर मकान मालकिन का भाई जरुर टकरा जाता। उसकी आंखें हमेशा लाल रहती थीं। मोटा, मुस्टंडा सा, उजड़ा चमन लगता था। रचना उसको देखे बिना ही सरपट सीढ़ियां चढ़ जाती। कई बार रचना ने महसूस करती थी कि वह जरूर देर तक घूरता होगा। रचना स्वभावत: निर्भय थी और लापरवाह किस्म की। सब कुछ देखकर भी अनदेखा करने की आदत। इसी कारण वह नहीं देख समझ पाई कि इन दिनों प्रार्थना उससे कैसे कैसे सवाल पूछ रही है। एक दिन किचन में काम करते हुए प्रार्थना ने पूछा, 'यार, एक बात बता, शादी से पहले सेक्स करना चाहिए या नहीं।'

रचना सब्जी काट रही थी। हाथ रुक गए, 'क्यों, यह सवाल क्यों पूछ रही हो? मैंने तो नहीं किया और न मैं इस बारे में कोई अपनी राय दे सकती हूं।' प्रार्थना ने हार नहीं मानी, अगर मेरा ब्यायफ्रेंड सेक्स करना चाहे तो कर लूं? 'क्यों तुझे उससे बाद में शादी करनी है?' रचना ने सब्जी छौंकते हुए पूछा। ''नहीं, शादी नहीं करनी। शादी का क्या पता, कब हो, किससे हो? ब्यायफ्रेंड को कैसे टालूं यार? वह जिद कर रहा है।''

''तो कर ले।''

रचना सब्जी चला रही थी।

''कर लूं- पक्का? कुछ गड़बड़ हो गई तो? शादी के बाद पति को पता चल गया तो.... ''

रचना ने दोनों हाथ प्रार्थना के आगे जोड़े, 'तू कुछ बनने आई है न यहां, तो पढ़ाई में मन लगा, ब्वायफ्रेंड का चक्कर छोड़। अगर वो तेरा सच्चा दोस्त है तो तुझे सेक्स के लिए कभी जिद नहीं करेगा। जिद करता है तो कुछ गड़बड़ है। देख ले, तेरी जिंदगी है, तुझे कैसे जीना है? खुद ही तय कर, मुझे बीच में मत ला। ''

रचना हैरान थी। प्रार्थना की उम्र बमुश्किल 22 की है। अचानक पढ़ाई के बीच यह सेक्स का ख्याल... ब्वायफ्रेंड... करूं न करूं... पति को पता चल गया तो... उफ्फ। क्या है ये लड़की। शादी से पहले सेक्स... सोच कर ही रचना को झुरझुरी आ गई। लेकिन प्रार्थना कितनी सहज थी। शायद वह भीतर ही भीतर अपनी सोच को लेकर स्पष्ट भी। रचना को टटोलने के लिए उसने यूं ही पूछा होगा। छोटे से बिना खिड़की वाले अंधियारे किचन से बाहर आकर रचना कमरे की तरफ मुड़ी। प्रार्थना दरवाजे के बीच आ खड़ी हुई।

''रचना क्या मैं यहां अपने ब्वायफ्रेंड को ला सकती हूं?''

''ओह! रचना का माथा घूम गया.” तो ये बात है। पहले खुद आई, अब लड़के...।

“नहीं-'' रचना का चेहरा सख्त हो आया। रचना को दूसरी चाबी की याद आई जो इन दिनों प्रार्थना के पास है। उसका माथा ठनका। उसने प्रार्थना की आंखों में आंखें डालकर पूछा, सच बताना, कौन आया था मेरे पीछे? कब से चल रहा है... क्या तुम इसीलिए यहां... राजुल ने मुझे धोखा दिया...।''

ओह नो... रचना माथा पकड़कर जमीन पर बिछे अपने बिस्तर पर बैठ गई। प्रार्थना का चेहरा फक पड़ गया था। थोड़ी देर सन्नाटा कमरे में गूंजता रहा... उस रात दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई। सोने की कोशिश में रचना ने सिरहाने से किताब उठाई। बंद गली का आखिरी मकान का पन्ना खुला। हल्की रोशनी में उन पंक्तियों को बुदबुदाते हुए रचना ने पढ़ा, ''रह गई अंधेरी कोठरी, टिमटिमाती, ढिबरी, पैंताने सहमी और कुछ कुछ डरी हुई सी बिरजा, खिड़की के पार बैंगन के खेत पर छाया घुप्प अंधेरा... और एक अजीब सी आवाज- क्रीं-क्रीं-क्रीं... खट -खट.... रचना और प्रार्थना दोनों एक साथ चिहुंकी। कोई उनका दरवाजा जोर-जोर से पीट रहा था। दोनों की निगाहें एक साथ दीवार घड़ी की तरफ घूमी- रात के 12.30 बज रहे थे। इस वक्त कौन हो सकता है? प्रार्थना की सिट्टी-पिट्टी गुम और रचना ने हिम्मत करके पूछा, कौन है, इस वक्त।''

''खोल साली.... खोल... दरवाजा खोल... दिन भर अपने यार के साथ यहां पड़ी रहती है... रात में मेरे साथ आ... तेरी तो मां की... किसी मर्द की आवाज थी, शराब के नशे में डूबी, लड़खड़ाती।

खोल... मुझे भी दे... उसको देती है...किराया माफ करा दूंगा। दीदी से कहके... खो...। ओह। रचना के दिमाग में बिजली कौंध गई। मकान मालिक का मुस्टंडा भाई, स्साला।

दोनों चुप्प! कमरे की सारी लाइट बंद करके दोनों अपने कोने में सरक गईं। कमरे का अपना अपना कोना... जहां दो लड़कियां खुद को सबसे ज्यादा सुरक्षित मानती थीं। थोड़ी देर बाद बाहर की आवाज डूबने लगी थी।

आज की सुबह अलग-सी थी। रचना ने चाय बनाई, प्रार्थना को भी दिया। कप लिए लिए दोनों बॉलकोनी तक गई। बाहर गली में सन्नाटा था। रचना पलटीं- प्रार्थना, सच बताना राजुल...या कोई और..तुमने घर तक बुला लिया उन्हें..

प्रार्थना चुप रही। मगर चेहरे पर कोई खौफ का भाव या भेद खुलने के बाद का कोई अहसास नहीं।

''देख प्रार्थना, जो हुआ सो हुआ, मैं भी एक लड़की हूं। आई नो योर फीलिंग यार। मगर मकान मालकिन को पता चल गया तो वह मुझे निकाल देगी। बड़ी मुश्किल से यह कमरा मिला है। अकेली लड़कियों को कौन देता है मकान, वो भी लक्ष्मी नगर जैसे दकियानूसी मोहल्ले में। मेरा क्या होगा? मेरा कोई गॉड फादर भी नहीं। एकाध संगी साथी हैं, उसका ही सहारा है। अभी तो मैं संघर्ष कर रही हूं, क्या करूं?''

प्रार्थना सुनती रही... चाय खत्म होने तक। उसकी चुप्पी रचना को आशंकित कर गई। प्रार्थना ने चुपचाप अपना काम निपटाया और रचना को घर के उसी सन्नाटे में छोड़कर निकल गई।

ऐसे ही कुछ दिन और निकल गए। दोनों के बीच बातचीत कम होती। रचना का मन करता प्रार्थना को घर से चले जाने को कहें। पर उसकी हिम्मत न होती। प्रार्थना लड़ भी नहीं रही। इतना कुछ रचना ने सुना दिया फिर भी...। किस मिट्टी की बनी है ये। जब तक खबर पुष्ट न हो, रचना राजुल से कुछ पूछताछ कैसे करे?

''फिर इस लड़की का भी कुछ भरोसा नहीं। पागल है यह तो!'' रचना को कल रात की बात याद आई। इन दिनों दोनों के बीच न के बराबर बातचीत होने से प्रार्थना जब घर पर होती है तो किताबों में ही डूबी रहती है।

रविवार का दिन...रचना घर में सोते हुए पूरा दिन बिताना चाहती है। सुबह से अलसाई सी..दोपहर का खाना भी बनाने का मूड नहीं। प्रार्थना भी सुबह से पढाई में लगी हुई थी। रचना का मन हो रहा था, प्रार्थना से कुछ बातें करे। टोकना ठीक नहीं लग रहा था..पढाई करते वक्त..। वह भी जब नाटकों के संवाद रट्टा मारती है तो वह कभी डर्िस्टब नहीं करती, फिर मैं..तभी प्रार्थना पलटी, ''बहुत हो गई पढाई यार..अब नहीं पढूंगी, मुझे अक्ल का ताला खोलना है...'' उसकी आवाज में बेचैनी और चेहरे पर शरारत थी। रचना को बात करने का सिरा मिल गया। वह कुछ बोलने ही जा रही थी कि प्रार्थना फिर टपक पड़ी, ''चल एक बार तेरी अक्ल का ताला भी खुलवा दूं।''

''नहीं...तुम मुझे माफ कर दो..तुम्हारे ही अक्ल पर ताला जड़ा है, खुलवाती तो रहती है। रचना घबरा गई।

''चल ना..एक बार से क्या हो जाएगा? यू डोंट नो पावर ऑफ की....'' रचना का चेहरा लाल हो उठा।

प्रार्थना ने ठहाका लगाया, ''स्साली... तू रहेगी वही रतनपुर वाली। ''

''यार मजाक मत कर...हंसती ही रहेगी क्या? रचना का स्वर रुआंसा हो गया।

प्रार्थना ने अपनी बेतहाशा हंसी बीच में रोक ली, ''चल, तुझे कहीं घूमा लाऊं, थोड़ी देर के लिए, एक नई दुनिया की खोज करेगी तू, वहां समूह में चलता है सब काम, खूब मजा आएगा। ''

''व्हाट?? रचना हैरान रह गई तो ये लड़की कुछ भी नहीं छोड़ेगी। वो तो सोच कर सिहर रही है और ये मैडम जी बताती हुई कितनी प्रफुल्लित हैं..उफ्फ। रचना को अचानक लगा कई हाथ उसकी देह पर फिसल रहे हैं..कुछ टटोल रहे हैं..इधर उधर, ऊपर नीचे..ठंढी सी कोई ठोस वस्तु एक साथ...रचना चिल्लाई, ''स्टॉप, स्टॉप। नहीं सुनना तेरी बकवास। '' इस वक्त उसे प्रार्थना घोर पापी लग रही थी।

सुबह संजय गौर का फोन था, पीपी नंबर पर। फोन सुन कर रचना खिल उठी। संजय की आवाज भरोसे से भरी थी, जल्दी आओ, तुम्हें मैं रंगमंडल के निर्देशक विपुल शर्मा से मिलवाता हूं। वो जल्दी ही एक प्ले पर काम करने जा रहे हैं..उन्हें एक छोटे शहर की लड़की की तलाश है..रचना कई दिनों से उनसे मिलने को बेताब थी। आज मुंहमांगी मुराद मिल रही थी। फोन रखते हुए उसे संजय पर बेहद प्रेम उमड़ आया। झटपट तैयार होकर मंडी हाउस भागी।

रात को जब वह घर लौटी तो दंग रह गई। प्रार्थना इस कदर किताबों में डूबी थी कि उसे कुछ होश नहीं था। उसके बाल अजीब तरह से बिखरे हुए थे। दिनभर उसने कुछ नहीं खाया था। न वह नहाने के लिए उठी थी, न बाल बनाए थे। कमरे में पुरुष गंध छाई हुई थी। प्रार्थना ने किताबों से सिर उठा कर रचना को देखा...आंखों में तृप्ति की गहरी रंगत थी..जैसे कोई बड़ा संग्राम जीत लिया हो। आदिम उड़ान से लौटने के बाद की हल्की लाली फैली थी उन आंखों। उसके चेहरे पर आखेट से लौटे बनैले मादा की चमक थी।

ऐसी चमक पहले कहां देखी थी रचना ने? उसे याद आया, कई साल पहले अपने कस्बे की एक बदनाम औरत की आंखों में कभी कभार देखी थी। एक बार ठाकुर चाचा के घर से लौटते हुए रास्ते में टकराई थी, वह बदनाम औरत..याद आते ही रचना की देह में झुरझुरी दौड़ गई। उसे लगा प्रार्थना मुस्कुरा रही है।

प्रार्थना वैसे हमेशा मस्ती में दिखाई देती है..केयरलेस..अपनी मर्जी से जीनेवाली..मूडी..जब मन आया मस्ती..नहीं तो घर में बंद होकर पढाई..मोटी मोटी किताबो के साथ सोने वाली यह लड़की अब उसे अजीब सी लगने लगी थी..क्या है ऐसा जो इसे सारी कुंठाओं, चिंताओं से दूर रखता है।

इसी उधेड़बुन में कई दिन निकल गए। रचना का मन हुआ उससे पूछे...क्यों करती है ऐसा, कहां जाकर रुकेगा ये सफर..इसे कोई भय या लोक लाज की परवाह नहीं..किस मिट्टी की बनी है ये लड़की? एक शाम रचना को मौका मिल ही गया। प्रार्थना शाम का खाना बनाने के मूड में थी। एक जांघ पर प्रतियोगिता दर्पण का नया अंक रख कर दनादन भिंडी काट रही थी। रचना ने यह दिलचस्प नजारा देखा वहीं पास में मोढा लेकर बैठ गई।

''प्रार्थना...मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूं '' - रचना का स्वर सपाट था।

''पूछो... ''

प्रार्थना भिंडी और पत्रिका के बीच सिर घुसाए ही रही।

''तुम क्यों करती हो ऐसा ? ''

''क्या? ''

''ये लड़केबाजी...घर बुलाना..उनके साथ हमबिस्तर होना...पता नहीं कैसे मैनेज करती है, पढाई और यारबाजी...'' रचना का स्वर थोड़ा तीखा हो गया था..

प्रार्थना के हाथ रुक गए। पत्रिका जांघो से हटाई और जिन आंखों से रचना को देखा वह दंग रह गई। फिर वहीं नशा...आखेट से लौटे बनैले पशु की तरह, ''देख रचना तू नहीं समझ पाएगी ये सब। मैं समझाना भी नहीं चाहती। बस इतना समझ लीजो कि मेरे लिए यह कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग है। ये मेरे तनाव और बोरियत को दूर करके मुझे एकाग्र बनाता है मेरे लक्ष्य के प्रति... ''

''लेकिन एक साथ इतने ब्वाय फ्रेंड... '' रचना ने बीच में ही बात काट दिया।

प्रार्थना की आंखों में नशा गायब हो गया, वहां चमचमाते चाकू सी चमक लहराई। उसने सब्जी काटने वाला चाकू नीचे रखा और अपने गीले हाथ रचना के हाथों पर रख दिया। ठंडी हथेलियों में भी इतना ताप होता है..पहली बार पता चला।

''देख...मेरे लिए कोई एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है मेरा रास्ता..मेरी पसंद..मेरा आनंद..और आनंद का कोई चेहरा नहीं होता..जो जितनी दूर साथ चले..चले..नहीं तो भाड़ में जाए। मैंने किसी से कमिटमेंट नहीं किया ना लिया। आई डू नौट इडल्ज इन मीडिल क्लास मेंटिलिटि...आई हैव वनली वन लाइफ एंड आई वांट एक्साइटमेंट विदाउट रीगरेट...दैटस इट। कुछ ऐसा कर गुजरना है जिससे लोग याद रखें..बस। ''

रचना सन्न थी। प्रार्थना रौ में थी...वो डॉन फिल्म का गाना सुना है ना...खइके पान बनारस वाला..खुल जाए बंद अक्ल का ताला...माहौल हल्का होने लगा था...रचना बुदबुदाई- ''सनक गई है ये तो!''

एक दिन तो गजब ही हो गया। दोपहर को रचना और प्रार्थना खाना बनाने का प्लान कर ही रहे थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा रचना ने ही खोला। सामने एक नौजवान, कंधे पर एक बैग, हल्की मूंछें, मुस्कुराता चेहरा, आंखों में आत्मीयता भरी.. ''हैलो..आई एम प्रशांत राज। प्रार्थना से मिल सकता हूं?''

रचना ने प्रार्थना की तरफ देखा, तब तक आहट सुन कर वह दरवाजे तक आ चुकी थी। ''ओह..राज..तू कैसा है?''
प्रार्थना चहक कर उससे लिपट गई। रचना तब तक संभल चुकी थी। प्रार्थना उसे कमरे में ले गई, रचना को राज के बारे में बताती हुई...रचना के मुंह से बोल तक ना फूंटे। अचानक असहज सी हो उठी। मन-ही-मन कुढती रही पर कहा कुछ नहीं किचन में आ गई। वहां जाकर वह बड़बड़ाना ही चाह रही थी कि पीछे से प्रार्थना ने कंधे पर हाथ रखा।

''क्या है ये सब..घर क्यों बुलाया...''

रचना ने तीखे स्वर में पूछा।

''कोई बात नहीं यार..थोड़ी देर में चला जाएगा। टेंशन मत ले। चल तीन ग्लास निकाल...''

''क्यों? ''

''निकाल ना..आज तुझे जन्नत की सैर कराएंगे...''

''क्या मतलब?''

''देख तेरे सामने दो रास्ते हैं माई स्वीटहार्ट..चल हमारे साथ वोदका के दो घूंट मार और मस्त हो जा या एक घंटे के लिए कहीं घूम आ...''

''शटअप ... '' रचना कमरे में झांकते हुए हल्के से चीखी।
प्रार्थना ने उसकी चीख अनसुनी कर दी। मजे से तीन ग्लास निकाले और कमरे में चली गई। रचना किचेन में खाना बनाने का उपक्रम करने लगी। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे, इस वक्त कोई तमाशा करना ठीक ना होगा, फिर कहां जाए..संजय को फोन करुं और मंडी हाउस चली जाऊं..

कमरे से दोनो की हंसी बाहर आ रही थी। रचना इसी ऊहापोह में थी कि प्रार्थना रसोई में आई और उसे वोदका का ग्लास पकड़ा दिया, लो पीओ। रचना छोटे से किचेन में भाग कर जाती कहां...प्रार्थना ने उसे पकड़ा और पैग उड़ेल दिया मुंह में। नींबू मिला..ठंडा ठंडा..स्वादिष्ट, कुछ कुछ शिकंजी जैसा..जैसे ही घूंट अंदर उतरी, हल्की सी कड़वी लगी..तब तक मामला अंदर जा चुका था। रचना ने ग्लास थाम लिया और प्रार्थना अपने दोस्त के साथ कमरे में गप्पे मारती रही..। रचना ने जल्दी जल्दी दो पैग मार लिए। नतीजा, दोस्त के जाने के बाद प्रार्थना मस्ती में लहराती रही और रचना उल्टियां करती रही।


कभी रचना को डर लगे, कभी तरह तरह की आशंका...। वह खूब लड़ना चाहती थी राजुल से। वह मिले तब न। मंडी हाउस की शामें राजुलविहीन थीं। वह गायब था और प्रार्थना भी। रचना को याद आईं बंद गली का आखिरी मकान की वे पंक्तियां, ''जब तक लड़ाई का उद्देश्य स्पष्ट हो, तब तक अपने ढंग से जीवट भी आदमी को बचाता है और डर भी। मगर जब लड़ाई का अर्थ ही मालूम न हो तो जीवट और डर दोनों एक सा बेकार सिर्फ एक खोखली थकान....।''

रचना को सोच सोच कर थकान होने लगीं थी। दो दिन से प्रार्थना गायब थी। डर क्यों न हो? किससे पूछे? साहित्य अकादमी और दीन दयाल उपाध्याय लाइब्रेरी तक से चक्कर लगा आई। प्रार्थना अधिकतर समय इन्हीं दोनों लाइब्रेरी में बिताती थी।

प्रार्थना ने उसके पी.पी. नंबर पर फोन भी नहीं किया था। रचना दो बार पड़ोस में भी पूछ आई थी। तीसरी बार पूछकर लौटी तो देखा कमरा आधा खुला है। लगता है प्रार्थना लौट आई है। आज मैं इसे भगा दूंगी, सामान समेत। भाड़ में जाए... दो दिन में मेरा खून सूखा दिया है। लापरवाही की हद होती है। बताना तो चाहिए था, क्या समझती हैं, अपने आपको? बड़बड़ाते हुए रचना ने धड़ाक से कमरे का दरवाजा खोला। प्रार्थना अपने कोने के बिस्तर पर चादर ओढ़े लेटी है। चेहरा स्याह है, होंठ सूखे और दो दिन में ही धंसी हुई आंखें। पायताने में उसके साथ मोढ़े पर एक मरियल, काला-सा लड़का बैठा था। साथ में एक काला बॉक्स पास में रखा।

रचना के होठ थरथराए...''क्या हुआ? क्या है ये सब...''
प्रार्थना ने रचना का हाथ दबाया... ''आई एम प्रीगनेंट...''
छोटा सा कमरा घूमने लगा...रचना के हाथ से प्रार्थना की हथेली छूट गई।

''मैं एबार्शन करवाने गई थी। लेकिन वहां बहुत सारी फार्मेल्टी होती है...आई कांट डू इट..दैटसवाई...''

प्रार्थना ने उस मरियल से लड़के की तरफ इशारा किया, ''ये किशोर है, कंपाउडर..दो तीन दिन यहां मेरे साथ रहेगा..जब तक मेरा एबार्शन नहीं हो जाता... ''

रचना तब तक संभल चुकी थी। मन ही मन कुछ तय करती सी...
''तुम्हें यहां से जाना होगा...मैं तुम्हें यहां नहीं रख सकती..मुझसे नहीं हो सकेगा ये सब..बहुत हो चुका...'' रचना उबल रही थी। प्रार्थना ने जैसे कुछ सुना नहीं..सिरहाने की तरफ हाथ बढाया, दस हजार रुपये के सौ सौ नोट की एक गड्डी रचना की तरफ बढाया, मुझे दो दिन यहां रहने दे...मैं इसके बाद कहीं भी चली जाऊंगी. इस हालत में मैं कहीं नहीं जा सकती..मैं जानती हूं, मैंने तुमसे ये बात छुपाई..

मैं कोई सफाई नहीं सुनना चाहती, रचना का स्वर तीखा हो आया था।

मैं कोई सफाई नहीं देना चाहती...मैं बस इतना चाहती हूं, तुम मुझे दो दिन और
बर्दाश्त कर लो..फिर हमेशा के लिए चली जाऊंगी। आई डोंट क्रिएट मोर हेडेक फॉर यू..बिलीव मी...प्रार्थना की आवाज में अब भी वही ठसक थी। न कोई पछतावा, ना कोई मलाल, चेहरे पर पीड़ा की रेखाएं थीं...जो शायद दवा इंजेक्शन लेने से हुई है। मरियल-सा कंपाऊ डर अब सलाइन की बोतल चढाने की तैयारी कर रहा था।

लेकिन यहां...इस कमरे में...हाऊ? रचना को सबकुछ बहुत भयावह लगा। कोई लड़की ऐसा कैसे कर सकती है? दिल्ली वह सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए आई थी, एक राउंड इम्तहान दे चुकी है, रिजल्ट आने तक दुबारा जुट गई है...जैसा राजुल ने बताया था। वह क्या कर बैठी? रचना के लिए यह सब कुछ बहुत डरा देने वाला था। वह इस हालत में उसे अपने घर रखने के लिए उसका मन नहीं मान रहा था। रुपये उसने उठा कर बिस्तर पर रख दिए, अपना बैग उठाया और मंडी हाउस रवाना हो गई।

मई की शामें थोड़ी कम गर्म होती हैं। फिर भी श्रीराम सेंटर कैंटीन की पथरीली कुर्सियां तप रही थीं। रचना उनसे ज्यादा तप रही थी। उसे बाहर के मौसम का कोई अहसास नहीं..संजय गौर आने वाला था। वह उसको सबकुछ बताने वाली थी। राजुल की खोज जरुरी है। एक बार उससे पूछूं तो सही कि उसने मकान खोजने में मदद के बदले इतना बड़ा धोखा क्यों दिया? बताया क्यों नहीं...बता देता तो शायद..नहीं तब भी नहीं। राजुल जानता था कि छोटे शहर की ये लड़की उतनी आधुनिक नहीं हुई है जितनी होनी चाहिए थी। वह कभी कभी संकेतों में उसे समझाने की कोशिश भी करता। रचना समझती थी, पर उस पर रिएक्ट नहीं करती थी। संजय के इंतजार में रचना बड़बड़ा रही थी.. मेरा इस्तेमाल किया गया...मेरा घर है..कोई हॉस्पीटल नहीं..अचानक वह कांप उठी।

मेरे कमरे में कोई बच्चा मारा जा रहा है...नहीं...ये पाप है..अनैतिक है, नहीं कहीं और जाए..मैं ये नहीं करने दूंगी..रचना झटके से उठी...बस पकड़ा और लक्ष्मीनगर।
थोड़ी देर तक प्रार्थना उसका समूचा गुस्सा, आक्रोश झेलती रही फिर अचानक तकिए का सहारा लेकर उठ बैठी।

दर्द से लरजती आवाज में उसने कहा- दो दिन तक मैं यही रहूंगी... तुम्हें जो करना है कर लो, मुझे फर्क नहीं पड़ता... समझी!''

रचना के होश उड़ गए!

ऐसी स्पष्ट और निर्णायक आवाज के सामने रचना जैसी भली लड़की का टिक पाना मुश्किल था।

वह बुदबुदाते, प्रार्थना को भला-बुरा कहते वहां से भाग खड़ी हुई। डरी, सहमी अपनी सहेली के घर पहुंची रचना दो दिन घर से बाहर नहीं निकली। यह बात उसे बार-बार चुभ रही थी कि उसे इस्तेमाल किया गया।... यह दो दिन रचना पर भारी पड़े। उसका गुस्सा अब चिंता और पछतावे में बदल रहा था। अपने रवैये पर उसे तीव्र ग्लनि हुई। रचना बुदबुदाई, ठीक नहीं किया मैंने। इस वक्त उसे मेरी जरुरत है, उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था, ये क्या किया मैंने..मुझे उसके पास जाना जाहिए...पछताती हुई रचना ने अपना माथा पकड़ लिया और सुबकने लगी। ओह..मैंने उस प्रार्थना को अकेला छोड़ दिया जिसके साथ मैंने सुखदुख बांटे, मस्ती के पल बिताए, वो पास रहती थी तो सारी कुंठाएं ठहाके में उड़ जाती थीं..क्या हुआ जो उसने ऐसा किया। उसका जीवन है, उसे पूरा हक है, जो करे, जैसे जीए..ये मैंने क्या किया...रचना उठी और लगभग दौड पड़ी। उसे दर्द से कराहती, छटपटाती प्रार्थना का चेहरा याद आ रहा था।

लक्ष्मी नगर के उसी बंद गली में दाखिल होने जा ही रही थी कि ...
किसी की आवाज ने उसे रोका...मैडम जी..आपने अखबार देखा...इधर आइए...

रचना ने देखा, मस्ती वाला दूकानदार हाथ में अखबार लहरा रहा है। उत्सुकता हुई, पता नहीं क्या है? देखते हैं..शायद प्ले के बारे में कुछ निकला हो, फोटो छपा हो..
दूकानदार ने बहुत स्नेहिल निगाहों से देखा और वह पन्ना पकड़ा दिया।

सिविल सर्विसेज में टॉप टेन में पांच लड़कियां...पांचों की तस्वीर छपी थी..तीसरी तस्वीर पर रचना की निगाहें ठिठक गईं। मैडम जी...वो आपकी सहेली नहीं दिख रही, कहां हैं..कहिए न मिठाई खिलाएं... मैडम जी...

''मैम उतरना नहीं!'' कंडक्टर की आवाज से रचना की तंद्रा भंग हुई।

रचना ने देखा, बस उसकी हाउसिंग सोसायटी के गेट पर खड़ी है।

बोझिल कदमों से वह बस से उतरी, मगर घर जाने की उसे रत्ती भर इच्छा नहीं हुई।

एक दफ्तर, एक घर। दोनों जगह उसका कोई वजूद नहीं। दोनों जगह मालिक कोई और है... और उसकी वकत गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं!

भली लड़की बनकर उसे गुलामी मिली और वह जो बुरी लड़की थी उसने अपने तरह की जिंदगी जीने की, अपना कॅरिअर चुनने की आजादी पाई... अपना वजूद बनाया।

पस्त-पराजित वह सोसायटी के पार्क में आकर बैठ गई। वह रोना चाहती थी, मगर उसकी आंखें पथरा गई थीं... वह एक किसी बेचैन प्रार्थना की पंक्तियां बुदबुदाना चाहती थी, मगर होंठ पत्थर हो गए थे!
(हंस, अगस्त 2009 अंक में प्रकाशित कहानी)