गीताश्री
सायमा वैद अपने ताजा-ताजा दोस्त के साथ लंच करके लौटी तो बेहद प्रफुल्लित थी- आज मैंने अरविंद के साथ लंच किया। बहुत अच्छी कविताएं लिखता है। लंच करते हुए उसकी कविताएं सुनकर मजा आ गया। सायमा ने अपनी सहेली को गदगद कंठ से यह सब बताया। सहेली ने चुटकी लेते हुए सत्य का उदघाटन किया। तुम्हें पता है, अरविंद ‘दलित’ है। ‘क्या?’ नहीं... सायमा ने प्रतिवाद किया। हां, ‘वह दलितों में भी वो है जिसका पानी नहीं चलता।’सायमा धाराशायी। लंच और कविता का खुमार झट से उतर गया।
सायमा वैद अपने ताजा-ताजा दोस्त के साथ लंच करके लौटी तो बेहद प्रफुल्लित थी- आज मैंने अरविंद के साथ लंच किया। बहुत अच्छी कविताएं लिखता है। लंच करते हुए उसकी कविताएं सुनकर मजा आ गया। सायमा ने अपनी सहेली को गदगद कंठ से यह सब बताया। सहेली ने चुटकी लेते हुए सत्य का उदघाटन किया। तुम्हें पता है, अरविंद ‘दलित’ है। ‘क्या?’ नहीं... सायमा ने प्रतिवाद किया। हां, ‘वह दलितों में भी वो है जिसका पानी नहीं चलता।’सायमा धाराशायी। लंच और कविता का खुमार झट से उतर गया।
‘ओह...’ कोई बात नहीं। उसने थाली नहीं छुई। आमने सामने बैठे थे। बच गए। धर्म भ्रष्ट ना हुआ। उसने राहत की सांस ली। इस घटना के बाद से सायमा ने अपने कवि मित्र अरविंद से एक सम्मानजनक दूरी बना ली। पनपने से पहले एक अच्छी दोस्ती जाति व्यवस्था की भेंट चढ़ गई। सायमा प्रगतिशील होते हुए भी अपनी संकीर्ण मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाई है। उसने बचपन से अपने घर, समाज में जो देखा, जो उसे समझाया गया था, उसके दिमाग में वे छवियां और वे पूर्वा ग्रह बुरी तरह पैठ चुके हैं। सायमा जैसी हजारों लड़कियां मौजूदा दौर में प्रगतिशीलता और संकीर्ण मानसिकता के बीच जूझ रही हैं। ये उनके विचारों का संकट काल है।दिल्ली के जमुनापार इलाके में आरती ने नई सोसाइटी में घर खरीदा। वहां कामवाली की तलाश शुरू की। हर रोज कामवालियां आने लगीं। आरती पैसे के साथ साथ उसकी जाति जरूर पूछती थी। जिन जातियों का छुआ खाने में कोई हर्ज नहीं, इसका ज्ञान आरती को बचपन से है। कई दिन तक वह जाति के आधार पर कामवालियों को भगाती रही।
एक दिन कामवाली मिल ही गई। रीना नामक कामवाली ने अपनी कोई ठीक-ठाक जाति बताई और आरती के यहां सेट हो गई। आरती ने चैन की साथ ली।
एक दिन कामवाली मिल ही गई। रीना नामक कामवाली ने अपनी कोई ठीक-ठाक जाति बताई और आरती के यहां सेट हो गई। आरती ने चैन की साथ ली।
कुछ दिन बाद दिल्ली के अंग्रेजी अखबार में एक खबर छपी- ‘कभी सीमा कभी सलमा।’ इसमें उन कामवालियों की दास्तान लिखी थी जो मजबूरी में जाति बदल-बदल कर घरों में काम कर रही थीं। आरती के होश उड़ गए। रीना को टाइट किया तो रहस्य खुल गए। वो कभी रीना थी तो कहीं रेहाना।
जबकि वह ‘रेहाना’ थी।
सायमा, आरती.. जैसी और भी हैं समाज में। ये फैशनपरस्त महिलाओं की वो जमात है जो पबो, क्लबो में जाती तो हैं, विवाहेत्तर संबंध बनाती तो हैं, मगर जाति के सवाल पर इनके विचारो में कोई आधुनिकता नहीं है। ऐसी महिलाओं पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव दो टूक कहते हैं, अपने तो स्वीकृत कराने के लिए महिलाएं सबसे ज्यादा पुरुष मूल्यो को आत्मसात करती हैं। जबकि मूलत स्त्री की कोई जाति नहीं होती, पुरुष की होती है। जाति की रक्षा स्त्रियां कस्टोडियन बन कर कर रही हैं। इनके खून में इतनी ज्यादा है जाति व्यवस्था कि कभी बदल नहीं पाएंगी खुद को। बहुत हद तक राजेंद्र यादव की बात सही लगती है।
मनोविज्ञान में एक स्थिति मानी गई है कि लंबी कैद के बाद कैदी अपने को कैद रखने वाले के साथ सहानुभूति रखने लगता है। जरुरत पडऩे पर वह अपने कैदी साथी के बजाए खुद को यातना देने वाले का साथ देता है और उसकी नजर से दुनिया को देखने लगता है। स्त्रियो के मामले में यही मानसिकता काम करती है। जाति व्यवस्था का शिकार होते हुए भी वे इसके प्रति सदय हैं। उसे पूरी कट्टरता के साथ पाल पोस रही हैं। यातनादायक जाति व्यवस्था के प्रति उनका नजरिया उस कैदी सरीखी हो जाता है।
राजेंद्र यादव की मान्यता का समर्थन करता हुआ नारीवादी चिंतक दीप्ता भोग का बयान एक बेबसाइट पर उपलब्ध है--पितृसत्ता केवल वैचारिक व्यवस्था भर नहीं है, यह ठोस भौतिक रुप और आधार रखती हैं। यह स्त्रियों के सामने परिस्थितियां बनाती है कि अगर स्त्रियां अमुक कार्य व्यवहार और भूमिकाएं करेंगी तो वे अच्छी, चरित्रवान. योग्य और देवी सदृश्य होंगी। सायमा, आरती सरीखी महिलाएं इसी जाल में फंसी हुई हैं। जाने अनजाने जाति के नाम पर समाज के ठेकेदारो की साजिश को पालने पोसने का औजार भी बन गई हैं साथ ही जातियों के बीच विभाजन सीमाएं बनाए रखने के लिए में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही हैं।
आखिर क्या वजह है कि पुरुष सत्ता की मारी महिलाएं उनके जाल से बाहर नहीं आ पा रही हैं? इसके पीछे असली वजह क्या है? इसका जवाब देते हैं धर्मशास्त्र पढाने वाले दलित लेखक अजय नावरिया। उनके अुनसार स्त्रियों का समाजीकरण समाज के कायदे कानून के हिसाब से ही होता है। हम उनसे यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे समाज के नियमों से बाहर जाएंगी। भारतीय समाज, जाति आधारित समाज है और स्त्रियां भी वैसी ही जातिवादी हैं, जैसा कि पुरुष होते हैं। कुछ मामलों में स्त्रियां अधिक जातिवादी हैं क्योंकि वे पुरुषों की तुलना में अधिक धार्मिकवृति की होती है। स्त्रियां जातिवाद का धार्मिक रूप से भी पालन करती है। जब कोई प्रथा या रिवाज, धार्मिक और सामाजिक प्रथा के रूप में वैधता प्राप्त कर लेता है, तब वह लगभग अकाटय हो जाता है।
यहां एक तर्क दिया जा सकता है कि जब स्त्रियो की कोई जाति नहीं होती तो वे क्यो इसे पाल पोस रही हैं। कई बार यह मानना मुश्किल हो जाता है कि स्त्रियों की कोई जाति नहीं होती। भारत में स्त्री भी एक धन या संपत्ति समझी जाती है। स्त्री धन को छिपाए रखने अर्थात पर्दे में रहने के अक्सर निर्देश दिए जाते हैं। अगर स्त्री की जाति नहीं है तो आए दिन होने वाली ऑनर किलिंग्स क्यों हो रही है? खाप पंचायतें क्यों इतनी शक्तिशाली हो गई हैं। कहीं ना कहीं उन्हें स्त्रियों का समर्थन हासिल है। पुरुषों के इस खेल में वे भी शामिल कर ली गई हैं। कहीं अच्छा बनने के लिए खेल का हिस्सा हो गई हैं तो कहीं जबरन शामिल कर ली गई हैं।
जाहिर है, सोच में बदलाव की जरुरत है। मगर आएगी कैसे? प्रमुख चिंतक गोविंदाचार्य अपने लेख में लिखते हैं, भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए केवल लैंगिक असमानता को ध्यान में रखने से बात नहीं बनेगी। इसका जो सामाजिक आयाम है जिसे हम जाति कहते हैं, उसे भी समझना होगा। कई बार यह लिंग की तुलना में ज्यादा प्रभावकारी होती है।
दरअसल जाति व्यवस्था के सबसे नीचले पायदान पर स्त्रियां शूद्रो के साथ खड़ी हैं मगर वे इस सच को ना देख पा रही हैं ना समझ पा रही हैं। इन दोनो को काम पारंपरिक रुप से सेवा करना है। दोनों को समय समय पर अछूत बना दिया जाता है। क्योंकि मुंडन(कुछ प्रदेशों और जातियों में) और यज्ञोपवित जैसे संस्कारो से वंचित स्त्रियां द्वीज नहीं होतीं। जैसे दलितो के कान में वेद पढना वर्जित है वैसे ही स्त्रियो के कान में वेद नहीं पढते। ब्राहम्ण भोज के दौरान ब्राहम्ण स्त्रियां शामिल नहीं की जाती, वहां भी पुरुष ही जाते हैं। ये हालात अब भी नहीं बदले हैं, बस नई पीढी की लड़कियो की सोच में हल्का बदलाव दिखाई दे रहा है। मगर प्रतिशत कम है। जिन घरो में कामवालियां रखी जाती हैं, वहां घर के पुरुषो का दखल नहीं होता ना ही वे उनकी जाति के प्रति आग्रही होते हैं। जाति ही पूछो साधो की- की तर्ज पर यहां स्त्री ही स्त्री के विरुध्द तन कर खड़ी हो जाती है। उन्हें ये अहसास ही नहीं होता कि किस कदर पुरुषसत्ता ने उन्हें मानसिक विकलांगता की तरफ ढकेल दिया है। औरत होने के नाते एक तरफ पहाड़ जैसी मुश्किल लड़ाईयां हैं तो दूसरी तरफ मानसिक विकलांगता।
विचारक जॉन स्टुर्अट मिल ने कहा है, जब हम पृथ्वी की आधी आबादी के ऊपर अनचाही विकलांगता गढने के दोहरे दुष्प्रभावों को देखते हैं तो एक तरफ उनसे जीवन का सबसे सहज स्वभाविक और ऊंचे दर्जे का आनंद छिन जाता है और दूसरी तरफ उनके लिए उकताहट, निराशा और गहरी असंतुष्टि का पर्याय बन जाता है। .. ..पुरुषों के खोखले भय सिर्फ स्त्रियों को बंधनग्रस्त किए हुए है।