गीताश्री
विमर्शात्मक लेखन में देह बोलती है क्योंकि स्त्री संबंधी सारे अपराधो कीआधार भूमि उसका प्राइम साइट स्त्री देह ही है। स्त्री लेखन में देह टमकतीहै बस घाव की तरह।
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अनामिकाआज जो आत्मकथाएं लिखी जा रही हैं उसमें स्त्री के दैहिक रुप का जश्नमनाया जा रहा है। वहां विमर्श नहीं है।
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मृदुला गर्गसमाज में जब स्त्रीदेह और उसकी नैसर्गिक जरुरतो के साथ दोयम बरताव जारीहै। वहां अतृप्ति है, शोषण है, बलात्कार है, ब्लैकमेल है, तो क्यो ना लिखेंहिंदी की लेखिकाएं अपनी यौनिकता पर, यौन प्राथमिकताओ पर या फंतासियो पर।
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मनीषा कुलश्रेष्ठयौनिकता को खासतौर पर रखना लेखिकाओं का मकसद नहीं था। लिखते हुए पता भी नहीं चला होगा। ये स्वभाविक प्रक्रिया में लिखे गए आख्यान हैं। यौनिकताभरे दिमाग मर्दो के हैं। वे स्त्री की योग्यता नहीं देखते, देह को देखतेहैं।
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मैत्रेयी पुष्पा
मौजूदा दौर के स्त्री-विमर्श को ‘बेवफाई का विराट उत्सव’ बताने वाले मर्द मानसिकता के ऊपर इस वक्त पूरा स्त्री समुदाय बौखलाया हुआ है। इसके साथ ही साहित्य जगत में नई बहस छिड़ गई है। स्त्री लेखन में स्त्री देह की मौजूदगी को लेकर मर्द समाज चाहे जो सोचे लेकिन स्त्रियां उसे यौनिकता के प्रकटीकरण के रूप में देखती है।
हाल के दिनों में स्त्री विमर्श और लेखिकाओं की आत्मकथा को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। ज्यादातर पुरुष लेखकों का आरोप है कि हमारे यहां स्त्री विमर्श मुख्य रूप से शरीर केंद्रित है। वे मानते है कि आत्मकथाओं में सेक्स प्रसंग जबर्दस्ती ठूंसे और गढ़े गए हैं ताकि किताबों को चर्चा और पाठक दोनों मिल सके। यह लोग अपने तर्कों के समर्थन में जार्ज बर्नाड शॉ के एक प्रसिद्ध लेख का सहारा लेते है जिसमें उन्होंने आत्मकथाओं को झूठ का पुलिंदा बताया है।‘ऑटोबॉयोग्राफिज आर लाइज’ में उन्होंने कई तर्कों और प्रस्थापनाओं से ये साबित करने की कोशिश की है कि आत्मकथा झूठ से भरे होते हैं।यहां लड़ाई फिलहाल सच और झूठ की नहीं है।
लड़ाई स्त्री-विमर्श और आत्मकथाओं में यौनिकता के प्रकटीकरण का है। वरिष्ठï कवियत्री अनामिका इस मुद्दे पर लगभग ललकारती है, ‘कौन माई का लाल कहता है कि स्त्री आत्मकथाओं के यहां दैहिक दोहन का चित्रण पोर्नोग्राफिक है। घाव दिखाना क्या देह दिखाना है?’
जर्मनी की एक फिल्म है
पैशन ऑफ लाइफ। पूरी फिल्म एक औरत के आवेग की कहानी है जो अपनी सेक्सुआलिटी की खोज में लगी है, पूरे आवेग के साथ। वह प्रेम और सेक्स को अलग रखती है। नायिका को प्रेम की तलाश नहीं है, वह अपनी कामनाओं की खोज में है। इस खोज में वह यूरोटिक पार्लर में जाकर हर तरह के प्रयोग कर डालती है। अंतत: उसका मोहभंग होता है। लेकिन वह मोहभंग की प्रक्रिया तक अपने प्रयोग और खोज जारी रखती है और जिसका उसे कोई अफसोस नहीं होता। यह फिल्म अपने अनूठे आख्यान की वजह से पोर्नग्राफी होते-होते बची और एक महान फिल्म में बदल गई।फिल्म देखते हुए दर्शक सेक्सुआलिटी की खोज पर सवाल नहीं खड़ा करते बल्कि एक स्त्री की यौनिक आजादी के रूप में देखते हैं। निर्देशक ने दर्शकों से फिल्म शुरू होने से पहले कहा, ‘यह फिल्म थोड़ी जटिल है। समझने में थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। एक गांठ खुल गई तो आप समझ जाएंगे...।’
यह बात हिंदी समाज के मर्दवादियों को कब समझ में आएगी। या तो उनकी समझ में कोई समस्या है जो यौनिकता के चित्रण में ‘महापाप’ देख रहा है या एक स्त्री को यौनिकता की आजादी भोगते-लिखते बर्दाश्त नहीं कर सकता। यह डरे हुए पुरुषों की जमात है जिसे यह डर है कि यौनिकता के इस विस्फोट में कभी भी उनकी धज्जियां उड़ सकती हैं। इससे पहले कि घाव फूटे, उसे टमकते हुए में ही दबा दो। वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार
निर्मला भुराडिय़ा ऐसी मानसिकता को फटकारते हुए एक दिलचस्प किस्सा सुनाती है-निर्देशिका
अरुणा राजे से एक बार बात हो रही थी। यह तब की बात है जब उन्होंने फिल्म रिहाई बनाई थी।
अरुणा बोलीं, ‘लोग मेरी आलोचना कर रहे हैं, कहते हैं, क्या आप स्त्रियों के ‘सोने’ के अधिकार मांग रही है?मैंने उन्हें कहा, सोने के अधिकार भी मांग रही हैं तो भी स्त्रियों को हक है अपनी बात कहने का। स्त्री मात्र भोग्या नहीं है, उसकी भी अपनी दैहिक आकांक्षाएं हैं। सारी वर्जनाएं स्त्रियों के लिए ही क्यों? जो पुरुष लेखन के लिए सही है, वही स्त्री लेखन के लिए भी है। दोनों के लिए अलग नियम थोड़े ही होंगे!’
कुछ ऐसी ही कहानी मृदुला गर्ग सुनाती हैं, ‘जब चितकोबरा में स्त्री पति से सहवास करते समय अनेक विषयों पर जैसे शरीर और मस्तिष्क के द्वैत पर सोच रही होती है, प्रेमी के बारे में नहीं। अगर उस वक्त प्रेमी के बारे सोचती तो लोगों को एतराज नहीं होता। वह मर्द मानसिकता के अनुरूप होता। हमारे बुद्धिजीवियों को एतराज इस बात पर था कि एक स्त्री-पुरुष पति को देह की तरह कैसे देख सकती है। अब तक वे स्त्रियों को देह की तरह देखने के आदि थे। एक स्त्री में इतनी हिम्मत कैसे हुई कि वो अपना मस्तिष्क और देह को पृथक रखे और पुरुष को देह की तरह देखे।’
मनीषा कुलश्रेष्ठ भी मृदुला गर्ग के
चितकोबरा को एक मिसाल मानती है। वह कहती हैं, सेक्सुआलिटी की ईमानदार अभिव्यक्ति की मिसाल है चितकोबरा। जिसके लिए उन्हें पुलिस द्वारा मानसिक प्रताडऩा भी झेलनी पड़ी। मनीषा मर्दवादी बौखलाहट पर हमला बोलते हुए सवाल दागती है, ‘जब पेट की भूख के प्रकटीकरण से कोई फर्क नहीं तो उसी प्रकृति प्रदत्त यौनिकता को ही क्यों हौआ बना देते हैं लोग?’
वे जवाब भी तलाश लाती हैं, ‘आज का हमारा जो त्रिशंकु किस्म का पुरुष समुदाय है जो न लोक से जुड़ा है और न ही उदार और उन्मुक्त विचारधारा से, जो न इधर का है न उधर का। बस वही उखड़ा हुआ है। ऐसे कुंठित लोगों का एक बड़ा समुदाय है जो शोर मचाता है।’
अनामिका भी कुछ इसी सुर में कहती हैं, नई स्त्री का प्यार पा सकने लायक शिष्ट-सभ्य-शालीन ‘नया’ पुरुष दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
‘नए पुरुष’ की गैरमौजूदगी के बावजूद हिंदी में ‘बोल्ड लेखन’ हो रहा है। इस पर भी विवाद और संदेह है। कुछ लोग यौनिकता पर और अधिक गंभीर लेखन की मांग करते है। कुछ लोग मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा को बचते बचाते लेखन का आरोप मढ़ा है। आलोचक मानते हैं कि इनकी आत्मकथा में खुलापन नहीं है, अपने आप से मुंह चुराने की कोशिश दिखाई पड़ती है।मैत्रेयी इनका जवाब देती है, ‘मैं मानती हूं कि मेरी दोनों आत्मकथा में ऐसा कुछ भी नहीं है लेकिन देखने वालों को इसमें भी यौनिकता दिखी।’
रमणिका गुप्ता की आत्मकथाओं के अंश जरूर बेहद विवादास्पद रहे जिनमें उन्होंने अपने जमाने के कई प्रसिद्ध हस्तियों के साथ अपने दैहिक संबंधों का खुलकर बखान किया है। इस बारे में रमणिका का तर्क है कि जब एक पुरुष कहता है कि उसने स्त्रियो को भोगने की सेंचुरी बनाई तो कुछ नही। स्त्री एक से भी जुड़े तो उसको कुलटा कहना शुरु। इसीलिए लेखन में यौनिकता दिखाना जरुरी है ताकि शोषण बंद हो जाए। कवियत्री किरण अग्रवाल भी इसी मानसिकता पर चोट करती हैं, जिस समाज में स्त्री को महज एक सेक्स आब्जेक्ट के रूप में देखा जाता तो उस समाज में किसी भी महिला लेखक की आत्मकथा उसकी यौनिकता की चर्चा के बिना कैसे लिखी जा सकती है। खुलकर लिखना चाहिए। इसका मकसद सनसनी फैलाना नहीं है बल्कि समाज के सामने उसका वो चेहरा दिखाना है जिससे जूझते हुए एक स्त्री आगे बढ़ती हैं।इन तमाम तर्को प्रतिवादो के मद्दे नजर जो बात सामने आती है वो है एक स्त्री की यौनिकता पर गंभीर विर्मश की आवश्यकता। रमणिका के अनुसार जिसे पुरुष समाज हल्की टिप्पणी करके हल्का बना रहा है।