तंबाकू मुक्त पहला देश भूटान

Posted By Geetashree On 11:53 PM 9 comments
गीताश्री

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक बैठक में 172 देशो के प्रतिनिधि तंबाकू उत्पादो की बिक्री और इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए सहमत होगए हैं।
इससे जहां तंबाकू के खिलाफ अभियान चलाने वाली एजेंसियों को काफीराहत मिली है, वहींभारत में केंद्र सरकार के इस मसले पर ढीले ढाले रवैयेपर खासी नाराजगी भी है। ऐसे में यह खबर सूकूनदायक है कि भारत का पड़ोसी देश, दुनिया का पहला तंबाकूमुक्त राष्ट्र बन गया है।
अपने बगलगीर से मिले तंबाकू के धुंए से परेशान, सब्जी बाजारों, पार्कोंऔर स्टेशनों में तंबाकू-गुच्छे के पाउचों के सताए आप अगर वाकई किसी ऐसीजगह की तलाश में हैं जहां स्वच्छ हवा फेफड़ों तक पहुंचे, तो हिमालय कीगोद में बैठा ‘भूटान’ आपकी राह देख रहा है। दरअसल, यह देश अपनेमूल्यों के अनुरूप नीतियां बनाने का रिकॉर्ड बनाता जा रहा है। स्वच्छ पर्यावरण और नागरिक स्वास्थ्य के साथ ‘सकल राष्ट्रीय खुशी’ के प्रतिअपनी प्रतिबद्धता जताते हुए भूटान ने तंबाकू नियंत्रण कानून 2010 इसीवर्ष जून में ही पारित कर दिया। तारीफ इस कानून की तो होनी ही चाहिए पर उससे कहीं अधिक भूटान शासन के उस जज्बे की भी दाद दी जानी चाहिए जिसने एकबार तंबाकू निषेध की दिशा में असफल होने के बाद दोबारा प्रयास करने की ठानी।
सर्वेक्षण बताते हैं कि 1960-70 में करीब 50 प्रतिशत भूटानी शहरीजनता तंबाकू उत्पादों का सेवन करती थी। फिर बौद्ध धर्म के साथ जोडक़र एक उग्र आंदोलन तंबाकू सेवन के खिलाफ चलाया गया जिससे तंबाकू सेवन करनेवालों की संख्या में कुछ कमी देखी गई। फिर यकायक दिसंबर 2004 में दुनिया का ध्यान भूटान की ओर तब गया जब यहां के कानून ने तंबाकू उत्पादन के सेवन और बिक्री पर पूरी तरह रोक का कानून बना दिया और भूटान, तंबाकू पर पूर्णप्रतिबंध लगाने वाला पहला राष्ट्र घोषित हुआ। थिंपू में सिगरेट के पैकेट सावर्जनिक तौर पर जलाकर धूम्रपान का विरोध दर्ज किया गया। इन सबके बीच सरकार ने पाया कि अचानक बाजार में सिगरेट का दाम चौगुना हो गया और कालाबाजारी बढ़ती गई। परेशान होकर भूटान सरकार ने उस निषेध को वापिस लेलिया ताकि पूर्ण तैयारी के साथ एक बार फिर तंबाकू मुक्त भूटान की दिशामें नए प्रयास किए जा सकें। करीब ढाई साल की जमीनी चर्चाओं, सर्वेक्षणों और तीन बार भूटानी संसद में बहस के उपरांत जून 2010 में तंबाकू नियंत्रण कानून भूटानी संसद में बहुमतसे पारित हुआ। इस कानून की विशेषता इसका सीधा और स्पष्ट दृष्टिकोण है,साथ ही जिस तरह से इसमें सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों कीजिम्मेदारियां बताते वक्त स्पष्टता बरती गई है वो किसी भी कानून के सफल क्रियान्वयन के लिए बेहद आवश्यक है।
‘तंबाकू नियंत्रण कानून 2010’ भूटान के इस नए कानून के तहत, सभीव्यवसायिक केंद्रों, मनोरंजन केंद्रों, संस्थानों, कार्यालयों,मोनेस्टरीज, म्यूजियम, जोंग, स्कूल और कॉलेज, सार्वजनिक स्थानों,पारंपरिक उत्सवों, सब्जी बाजार, गाडिय़ों, टैक्सी स्टैंड पर धूम्रपान या उत्पादों के सेवन को जुर्म करार दिया गया है। इतना ही नहीं, इनजगहों पर देखरेख करने वाले अफसरों पर उन स्थानों को तंबाकू उत्पादों सेमुक्त रखने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।पर्यटकों और धूम्रपान के आदि लोगों को ध्यान में रखते हुए इस कानून नेसार्वजनिक व्यवसायिक क्षेत्रों के मालिकों को उनके लिए एक धूम्रपान विशेष स्थल का इंतजाम करने के निर्देश भी दिए है ताकि आम जनता को उस धुंए से बचाया जा सके। यह कानून तंबाकू सेवन करने वालों से कहीं ज्यादा तंबाकू मुहैया कराने वालों पर सख्त नजर आता है। हालांकि इसके तहत धूम्रपान केआदी व्यक्ति को सभी प्रकार के कर चुकाने के बाद अपने निजी इस्तेमाल के लिए तंबाकू आयात की स्वतंत्रता प्रदान की गई है पर साथ ही वित्त मंत्रालय को भी अयाजित तंबाकू की मात्रा पर नजर रखने को कहा गया है। भूटान का यह नया कानून तंबाकू की खेती और बिक्री को तस्करी के बराबर का जुर्म मानताहै और दोनों ही जुर्मो की वही सजा नीयत की गई है जैसी सजा तस्करी के लिएहै। भूटान के इस कानून में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि तंबाकू उत्पादनसे जुड़ी कोई भी कंपनी अपने लोगो के साथ न तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षविज्ञापन कर सकती है और न ही किसी आयोजन का प्रायोजक बन सकती है।तंबाकू मुक्त जीवन शैली के प्रचार की जिम्मेदारी जहां शिक्षा मंत्रालय को सौंपी गई है, वहीं तंबाकू से स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों के प्रतिजागरुकता फैलाने की जिम्मेदारी स्वास्थ्य मंत्रालय को दी गई है। इन सबसेअलग पुलिस के साथ-साथ गृह मंत्रालय को कानून के सफल कार्यान्वयन कीजिम्मेदारी सौंपते हुए विभिन्न नियमों, सर्वेक्षणों, कार्यक्रमों औरअभियानों के लिए तंबाकू नियंत्रण बोर्ड स्थापना भी कर दी गई है।
भूटान में हालांकि अब तक इस कानून को लेकर कुछ संशय जाहिर किए जा रहे हैंऔर इसमें बरती गई सख्ती पर सवालों के बादल भी आते दिखाई पड़ते हैं, पर यह बात काबिले गौर है कि एकाएक आपको किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र पर स्मोकिंग करता हुआ नजर नहीं आएगा।भूटान में जगह-जगह पर स्पष्ट अक्षरों में तंबाकू सेवन के विरूद्घ संदेश दिखाई दे जाएंगी। सरकार का नजरिया बिलकुल स्पष्ट है कि मुक्त स्वास्थ्यसेवाओं को वो तंबाकू का सेवन करने वाले पर बल भी प्रयोग करने से बच रहीहै बल्कि वो चाहती है कि लोग स्वयं तंबाकू से किनारा करें, फिर कारण चाहे स्वास्थ्य की चिंता हो या फिर तंबाकू का सुलभ न होना हो। वैसे भी यहांअन्य देशो की तरह कोई मॉनिटरिंग एजेंसी नहीं है। इसीलिए चालान भी नहीं कटता।
थिंफू के एक कैफे की दीवार पर लगा पोस्टर बेहद दिलचस्प और मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने वाला है। पोस्टर में दो लडक़े सिगरेट पी रहे हैं।
दो लड़कियां अलग खड़ी हैं।
लडक़े उनसे पूछते हैं, हे लड़कियों, क्या तुम हमारे साथ कॉफी पीना पसंद करोगी?
लड़कियां-सॉरी, हम उन लडक़ो को पसंद नहीं करते जो सिगरेट पीते हैं।

मंत्रसिक्त हवाओं में नई राहो की तलाश

Posted By Geetashree On 2:49 AM 4 comments

गीताश्री
तो सुख-दुख, आकांक्षा
और हार,उदासी और उत्साह,
वर्तमान भविष्य के अनुभव को धीमा कर देना
और हर दो तस्वीरों के बीच
नई राहें और नए शार्टकट ढूंढना,मेरे जीवन में सिगरेटों का यही मुख्य उद्देश्य था,
जब ये संभावनाएं नहीं रहती,
आदमी खुद को नंगा जैसा महसूस करने लगता है,
कमजोर और असहाय।
- ओरहान पामुक (तुर्की के नोबेल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार)
सिगरेट छोडऩे के बाद पामुक का अनुभव ये था।
लेकिन सिक्किम बिना धुआं उड़ाए, बिना तंबाकू चबाए अपने भविष्य की नई राहें चुनने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। वह खुद को पहले से ज्यादा मजबूत और शक्तिशाली पाने लगा है। उसका उद्देश्य अब धुंआरहित उपादानों से जुड़ गया है। पर्यटकों के लिए स्वर्ग सरीखे सिक्किम की फिजां में बौद्ध तांत्रिको की रहस्यमता आपको आसानी से गिरफ्त में ले लेती है। जैसे जैसे गंगटोक के करीब जाते हैं, आकर्षक लामाओं की कतारें उतनी लंबी दिखती हैं। बौद्ध भिक्षुणियों का मौन कितनी आसक्ति पैदा करता है, देखें तो जानें। एक पल के लिए मुस्कान चमकती और बुझती है।
अमोल पालेकर ने शायद इसी से मंत्रासिक्त होकर फीचर फिल्म बनाई थी-वंस अगेन। बौद्ध भिक्षुणी और सामान्य पुरुष का प्रेम और इनके बीच काव्यात्मक उपस्थिति के साथ पसरा सिक्किम का अनछुआ सौंदर्य। बागडोगरा से गंगटोक तक की यात्रा में ड्राइवर भुवन थापा अपने धुंआरहित राज्य को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिखा। स्वभाव से बातूनी लेकिन निगाहें बेहद पैनी। इकत्तीस मई 2010 को जब से उसका राज्य धुएं के जाल से मुक्त घोषित हुआ, उसने सबसे पहले अपनी गाड़ी में नो स्मोकिंग के स्टिकर चिपकाए। उसके बाद उसे आदत सी हो गई है राज्य में आने वाले हरेक यात्री को विस्तार से जानकारी देने की।
भुवन बताता है, ‘नए माहौल में पर्यटक और जनता तो धीरे-धीरे तालमेल बिठा रहे हैं लेकिन जो प्रतिबंध लगाता है, वही सबसे ज्यादा तोड़ता है।’भुवन का इशारा सिक्किम पुलिस की तरफ था।भुवन के पास अपार जानकारी है कि प्रतिबंध के बाद कौन और कहां चोरी छिपे तंबाकू बेचता है। मगर वह जगह बताने से साफ मना करता है।
बागडोगरा से सिक्किम तक की सडक़ बारिश में बेहद खराब हो जाती है। ये अक्टूबर महीने के शुरूआती दिन थे। पहाड़ी झरनों और अभिमंत्रित हवाओं के बावजूद टूटी-फूटी सडक़ों पर सफर बहुत लंबा और ऊबाऊ हो जाता है।
भुवन मूड भांपते हुए कहता है, ‘शुक्र है, आप चार पांच दिन पहले आ गए। जल्दी लौट जाइए, नहीं तो लौट भी नहीं पाएंगे। गोरखालैंड आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई है। लोग सडक़ों पर उतर आएंगे। सडक़े जाम हो जाएंगी। जैसे ही पहाड़ों से बारिश उतरती है, सैलानियों के आने का मौसम शुरू होता है, यहां आंदोलन तेज हो जाता है। वे लोगों का ध्यान खींचना चाहते हैं।’
रास्ते में भुवन सडक़ के किनारे बने ढाबों, रेस्टोरेंट की तरफ इशारा करता है। जगह जगह नो स्मोकिंग, से नो टू टोबैको... जैसे नारों वाले पोस्टर, बैनर लगे हैं। भुवन हरेक यात्री को यह जानकारी देना अपना परम कर्तव्य समझता है। सिक्किम का मुख्य बाजार। जगह-जगह शराब की दुकानें। विक्रेता ज्यादातर बिहारी हैं। हर दुकान के बाहर नो स्मोकिंग जोन का बोर्ड लगा है। एक विक्रेता हैं, छपरा निवासी रामजी साहू। वह बताते हैं, ‘यहां लोग खूब सिगरेट पीते हैं। गुटका भी खाते हैं। बिक्री भी खूब होती है। जितना चाहिए मिल जाएगा। लेकिन उत्पाद दिखाई नहीं देने चाहिए। खासकर बच्चों की नजर न पड़े, इसका ध्यान रखना पड़ता है।’
सिक्किम यूं ही नहीं हुआ ‘तंबाकू रहित’ राज्य।
दो साल की लंबी कहानी है। दो साल तक जन जागरण अभियान चलाया गया। सरकारी मशीनरी के साथ मिलकर राज्य में वोलंन्टरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने जीतोड़ मेहनत की, तब जाकर इस काम को अंजाम दिया जा सका। वीएचएआई से जुड़ी हारका मोती सुब्बा बताती हैं कि उनके संगठन को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा।सिक्किम सरकार के नियोजन, निगरानी एवं मूल्यांकन विभाग के उपनिदेशक सी. खेवा बताते हैं, ‘यह विजन हमारे मुख्यमंत्री का था। उन्होंने सोचा, चाहा और सपना साकार हो गया।’ इसके पीछे एक स्वस्थ राज्य ‘हेल्दी सिक्किम’ बनाने का उद्देश्य था। बताते है कि राज्य के ‘स्वास्थ्य विभाग’ ने राज्य सरकार को एक रिपोर्ट दी जिसमें सर्वाधिक मौत का कारण तंबाकू को बताया गया था। राज्य में होने वाली कुल मौतों में पचहत्तर प्रतिशत मौतें इसके इस्तेमाल से होती थीं। इस सर्वे ने सरकार को चौकन्ना कर दिया। खेवा बताते हैं, ‘गुटखा सिक्किम में सात साल पहले ही प्रतिबंधित हो गया था। उसकी बिक्री पर भी रोक लग गई थी। अब सरकार सिगरेट की खुली बिक्री पर प्रतिबंध के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है।’वह यह भी बताते हैं, ‘बाकी जगह लोग सार्वजनिक जगहों पर मॉनिटर नहीं कर रहे। हमारे यहां होता है। यहां कोई खुले में सिगरेट पीए तो कोई भी नागरिक आपको टोक देगा कि यहां पीना मना है।’ डॉ. पूर्णोमन प्रधान (अतिरिक्त निदेशक, स्वास्थ्य सेवाएं एवं तंबाकू नियंत्रण का राज्य केंद्र) के पास जब्त की गई सिगरेटों के पैकेट्स हैं जिन्हें वे एक-एक कर हमें दिखाते हैं। किसी पर भी सचित्र चेतावनी नहीं छपी हुई है।
ब्रांड के नाम हैं, खुकरी, सहारा, शिखर, ब्लू रिवर, रॉयल आदि-आदि। प्रधान बताते हैं, ‘वर्ष 2008 से पहले सिक्किम का बाजार इसी तरह के सिगरेटों से भरा पड़ा था। यहां ज्यादातर नेपाल की सिगरेट बिकती हैं जिन पर कोई सचित्र चेतावनी नहीं छपी होती है। जब से प्रतिबंध लगा है, 15 प्रतिशत खपत कम हुई है। हमें राजस्व की हानि से ज्यादा लोगों के स्वास्थ्य की चिंता है। गैरकानूनी तरीके से नेपाल से आने वाली इन सिगरेटों पर रोक लगाने पर हमारा ज्यादा जोर है।’प्रधान तंबाकू अधिनियिम का हवाला देते हुए कहते है, ‘कोटपा’ में स्पष्ट लिखा है कि बिना सचित्र चेतावनी के कोई तंबाकू उत्पाद नहीं बेच सकते। हमने इसी नियम को आधार बनाया और इसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। पहले जागरूकता अभियान चलाया, फिर कानूनी डंडा। अब समाज की पूर्ण सहभागिता है इसमें।’
बताते हैं, तंबाकू लॉबी ने यहां भी अपना जोर लगाया होगा। लेकिन उसे भनक नहीं लगने दी गई।
राज्य को पूर्णत: धुंआरहित घोषित करने से पहले इसका ज्यादा प्रचार नहीं किया गया। प्रधान कहते हैं, ‘हमने धीरे-धीरे जमीनी स्तर पर काम किया। मीडिया को भी ज्यादा कुछ नहीं बताया। काम होने से पहले उसका ढोल नहीं पिटा।’
वोलन्टरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ सिक्किम के कार्यकारी निदेशक वी.वी. राय इस सफलता से बेहद उत्साहित हैं। उन्हें लक्ष्य मिल गया है। वह बताते हैं कि जो पहले तंबाकू का धंधा करते थे, वह किसी और धंधे में लग गए हैं। सिगरेट पीने वालों पर उनकी बेहद तल्ख टिप्पणी है, ‘मेरी नजरों में सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीने वाले आतंकवादी हैं जो धुंए से दूसरों को मार रहे हैं और खुद भी मर रहे हैं।’वी.वी. राय के टेबल पर आवेदन पत्रों का ढेर लगा है। वह ‘पत्र अभियान’ चला रहे हैं। राज्य भर से पत्र इकठ्टा कर रहे हैं जिसमें केंद्र सरकार से तंबाकू उत्पादों पर सचित्र चेतावनी में देर न करने की अपील की गई है। यह अभियान देशव्यापी चलाया जा रहा है ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। तंबाकू लॉबी के दबाव में आकर एक बार सरकार ने घोषणा के बाद अपने कदम पीछे खींच लिए थे।
गंगटोक से पहले रंगपो एक बड़ा कस्बा है।
वहां बिहारी जागरण मंच बेहद सक्रिय है। न सिर्फ अपने राज्य की संस्कृति बचाए रखने के लिए बल्कि तंबाकू उन्मूलन के लिए भी। रंगपो के व्यापारी स्वामीनाथ प्रसाद का इस अभियान ने हृदय परिवर्तन ही कर दिया है। उन्होंने तंबाकू आपूर्ति का धंधा बदल कर राशन का काम शुरू कर दिया है। एक और व्यापारी रतन कुमार हैं। वह बाकायदा अभियान से जुड़ गए हैं। वह लोगों को जागरूक कर रहे हैं। वह बताते हैं, ‘लोग कहते हैं कि हाईवे पर कानून लागू नहीं होता। हमने मैदान संभाला और हाईवे को दुरुस्त कर लिया।’ मंच के एक सदस्य अजित कुमार इस बात से चिंतित हैं कि रंगपो से पं. बंगाल की सीमा मिलती है। एक पुल पार करते ही नेपाल के सिगरेट खुलेआम बिक रहे हैं। लोग वहीं से भर-भर कर ले आते हैं। बंगाल की वजह से हम चुनौतियां झेल रहे हैं।
पश्चिम बंगाल सरकार सुन रही है ना..।

देसी लड़कियां चाहिए

Posted By Geetashree On 2:59 AM 4 comments

हिंदी सिनेमा के नायक और दर्शकों को नहीं भातीं लडक़ों जैसी लड़कियां

गीताश्री
इंटरनेट की दुनिया में सवालो की एक वेबसाइट है। उसमें अजीबो गरीब सवाल पूछे जाते हैं और जवाब उतने ही दिलचस्प। कई बार सोचने पर मजबूर कर दे। एक सवाल है, कौन सी हिंदी फिल्म भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है?
कई जवाब हैं। कई लोगो ने मदर इंडिया, सुजाता, बंदिनी की नायिका को भारतीय स्त्री की सच्ची छवि से जोड़ कर देखा। ऐसा मानने वालो में महिलाएं ज्यादा थीं। समीर नामक युवक का जवाब था, राजश्री बैनर की फिल्म विवाह, जो भारतीय नारी की सच्ची छवि पेश करती है। विवाह जिन्होंने देखी है वे समझ सकते हैं कि उसकी नायिका अमृता राव ने कैसा किरदार निभाया है। सीधी सादी, लंबे बालों वाली शर्मीली, खांटी घरेलू भारतीय लडक़ी जो अपनी जिंदगी का फैसला तक खुद नहीं ले सकती। समाज हो या जीवन, दोनो ही जगह ऐसी छवि वाली लड़कियों के प्रति खासा मोह दिखाई देता है। समीर की सोच समाज के उस पारंपरिक सोच का प्रतिधिनित्व करती है जिसमें लडक़े टाइप लडक़ी के लिए कोई जगह नहीं होती। हिंदी सिनेमा में शुरुआती दौर से लेकर हालिया रिलीज फिल्म एक्शन तक यह रवैया दिखाई देगा।
हाल ही में आई फिल्म एक्शन रीप्ले में अपनी टॉम ब्वॉय जैसी मां (ऐश्वर्या राय बच्चन) और दब्बू पिता (अक्षय कुमार) की लव-स्टोरी का भविष्य बदलने के लिए इनका बेटा (आदित्य) टाइम मशीन की मदद से 35 साल पीछे जाकर अपनी मां के ‘स्त्री रुप’ को जगाने और अपने पिता को ‘असली मर्द’ बनने में मदद करता है। यही सच है। नायक को अगर हमारे दर्शक मर्द, बने हुए देखना चाहते हैं तो नायिका को स्त्री। उन्हें नायिका के चेहरे में टॉम ब्वॉय की नहीं बल्कि देसी गर्ल की तलाश रहती है। सिनेमा के रवैये के अनुसार तो पुरुष लहरो पर उठती हुई देवी वीनस ( कुछ कुछ होता है की रानी मुखर्जी) को देखना चाहता है, फुटबॉल पर किक मारती हुई (केकेएचएच की काजोल) लडक़ा टाइप लडक़ी को नहीं। 1998 में आई करण जौहर की पहली फिल्म कुछ कुछ होता है की लडक़ों की तरह रहने वाली नायिका (काजोल) जब अपने सब से अच्छे दोस्त (शाहरुख खान) को किसी और लडक़ी की ओर झुकते हुए देखती है तो लड़कियों की तरह सज-संवर कर नायक के सामने आती है। नायक उसका मजाक उड़ाते हुए कहता है कि वह तो लडक़ी ही नहीं है। अभिनेत्री और निर्देशक पूजा भट्ट इस मुद्दे पर बेहद तल्ख हैं। वह दो टूक कहती है, यह मर्दो की इंडस्ट्री है। वे ही फैसला करते हैं कि नायिका कैसी होगी। मैं स्त्री को एक आब्जेक्ट के रुप में पेश करने के सख्त खिलाफ हूं।
दरअसल हमारी फिल्मों के नायक हमेशा से ही ऐसी नायिकाओं की ओर आकर्षित होते आए हैं जिनमें ‘लडक़पन’ नहीं बल्कि ‘लड़कीपन’ हो। असल में नायिका को स्त्री की रुढ़ छवि में देखने की यह चाहत पुरुष दर्शकों की उस ख्वाहिश से भी जुड़ी हुई है जिसमें दर्शक किसी स्त्री को पुरुष की तरह से बर्ताव करते हुए नहीं देखना चाहते। यहां सीमोन की एक पंक्ति सटीक बैठती है-पुरुष स्त्री की देह रुप को पसंद करता है, वह उसमें फलों और फूलों का सौंदर्य देखना चाहता है.. ।
यहां यह गौरतलब है कि आजादी से पहले अपने सिनेमा में नाडिया नाम की नायिका को पुरुषों की तरह से देखना हमारे दर्शकों को भाता था। उनके स्टंट दृश्यों के चलते उन्हें ‘हंटरवाली’ तक कहा जाता था। लेकिन आजादी के बाद पर्दे की नायिका को स्त्री की रुढि छवि में ही देखना ज्यादा पसंद किया गया। यहां तक कि अभिनेत्री बिंदु हंटरवाली 77 नाम की एक फिल्म की तो उस फिल्म को दर्शक मिलने मुश्किल हो गए।जिन फिल्मों में नायिका लडक़ों की तरह की पोशाकों, उनकी तरह की हरकतों या उन जैसे मैनरिज्म में नजर आईं उन में नायक को वह तभी भाईं जब उन्होंने अपने इस ‘टॉम ब्वॉय’ वाले रूप को त्याग कर औरत बनना स्वीकार किया। पुरानी चर्चित फिल्म जिद्दी की जुबिली गर्ल यानी टॉम ब्वाय आशा पारेख याद हैं ना। जब तक वह लडक़ों की तरह दिखीं, नायक उनसे दूर रहा, छेड़छाड़ करता रहा, नोकझोंक होती रही, और जैसे ही साड़ी में लिपटी कि नायक का दिल जीत लिया। टॉम ब्वाय टाइप लड़कियों की छवि मौज मस्ती करने वाली लडक़ी के रुप में होती है। जैसे हालिया रिलीज फिल्म गोलमाल 3 में करीना कपूर को देखिए।
मजेदार कोटेशन वाली टी-शर्ट पहने, फेसबुक नामक अपने कुत्ते के पीछे भागने और चंद दोस्तों के साथ धींगामुश्ती करने के अलावा उन्हें काम ही क्या था। प्रेम की स्वीकारोक्ति तक का तो वक्त निर्देशक ने नहीं दिया और नायको के बूढे मां बाप की प्रेम कहानी में ही पूरी फिल्म निपटा दी।
राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर की एक नायिका (पद्मिनी) भी लडक़ों की तरह रहती है। नायक को तबतक उसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती। एक दिन नायक उसे नहाते हुए देख लेता है और प्यार करने लगता है। सायरा बानो तो कई फि ल्मों में इस तरह के किरदारों में आईं। आखिरी दोस्त और नहले पे दहला जैसी उनकी फिल्मों में उनके रूप ऐसे ही थे।हेमा मालिनी ने सीता और गीता, दो ठग, राजा जानी में ऐसे रूप धरे। शिकार में आशा पारिख ऐसे रूप में थीं। रेखा ने एक बेचारा और जीनत अमान ने चोरी मेरा काम में। कैद में लीना चंद्रावरकर ने विनोद खन्ना को लुभाया। दिल्ली का ठग में नूतन का किरदार भी कुछ-कुछ ऐसा ही था।पिछले कुछ बरसों में देखें तो 2000 में आई जोश में नायिका ऐश्वर्या राय अपने मवाली भाई शाहरुख खान की तरह बिंदास रहती है लेकिन नायक चंद्रचूड़ सिंह की मोहब्बत उसे यह रूप त्याग कर वापस ‘लडक़ी’ बनने के लिए प्रेरित करती है। 2001 में आई कभी खुशी कभी गम में करीना कपूर नायक हृतिक रोशन को लुभाने के लिए अपनी टॉम ब्वॉय लुक को तो छोड़ती ही है, उसके लिए बिना सगाई-शादी किए करवा चौथ का व्रत भी रखती है। 2003 में आई इश्क-विश्क में नायक शाहिद कपूर ‘बहनजी’ टाइप की अमृता राव को छोड़ बोल्ड और बिंदास शहनाज ट्रेजरीवाला की ओर भागता है लेकिन बाद में उसे वही स्त्री रूप वाली नायिका ही भाती है। 2004 में आई मैं हूं ना में एकदम टॉम ब्वॉय लुक वाली नायिका अमृता राव को शाहरुख खान, सुष्मिता सेन की मदद से ‘लडक़ीनुमा’ बनाते हैं ताकि जाएद खान उसे देखे और बस देखता ही रह जाए। 2009 में आई आशुतोष गोवारीकर की व्हाट इज योर राशि की बारह नायिकाओं में से जो टॉम ब्वॉय इमेज वाली नायिका होती है बाद में वही अपना रूप बदल कर नायक की पसंद बनती है। अगर नायिका अपनी मर्जी से ना बने तो लाडला फिल्म के नायक अनिल कपूर की तरह पूरी जान लगा देता है और किसी तरह नायिका (श्रीदेवी) को औरत होने का अहसास करा कर ही दम लेता है।
सिनेमा की चाल कभी भी स्त्रीमार्गी नहीं रही, अलबत्ता प्रेममार्गी जरुर रही, जिसकी वजह से स्त्री काम्या की तरह बरती गई। सजना है मुझे सजना के लिए..जैसी छवि नायिकाओं की बना दी गई। युवा फिल्म निर्देशक प्रवेश भारद्वाज इस बारे में खिन्नता प्रकट करते हुए कहते हैं कि अधिकतर फिल्मों में नायिकाएं होती ही इसलिए थी कि नायक उससे रोमांस कर सके। हीरोइन का काम हीरो को रिझाना था, जिसने उसे कभी पारंपरिक छवि से मुक्त नहीं होने दिया।

भूटान नरेश जिग्मे खेसर नामग्याल से बातचीत

Posted By Geetashree On 11:27 PM 11 comments
गीताश्री
वे कुंवारेपन में भूटान के राहुल गांधी हैं। वैसे वे कई मामले में राहुल से मिलते जुलते हैं। चाहे वह सूदूर गांवो में सामान्य लोगो के घरो में रहने खाने का मामला हो या जनता से सीधा संवाद बनाने का। वे अपने देश की युवा पीढी और बुजुर्ग पीढी के बीच सेतु हैं। तीस वर्षीय भूटान नरेश जिग्मे खेसर नामग्याल ऊपर से बेहद सजीले और शांत दिखाई देते हैं। भीतर से उतने ही रोमांटिक और भावुक हैं। पूरा देश अपनी होने वाली रानी के लिए टकटकी लगाए हुए है और राजा ने जल्दी इंतजार खत्म होने का एलान कर दिया है।
पिछले दिनों राजा भारत के दौरे पर थे। मगर यह मुलाकात थिंपू के उनके राजमहल में हुई। वह भारत से गए महिला पत्रकारो के नौ सदस्यीय दल से फुरसत से मिले और तमाम सवालो के जवाब दिए। चाहे वह सवाल व्यक्तिगत हों या विकास की राह पर चलने की भूटान की अगल नीति ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस (जीएनएच) से संबंधित।

-आज दुनिया के सारे देश जीडीपी को विकास का पैमाना मानते हैं ऐसे में आपकी जीएनएच की अवधारणा कितनी कारगर साबित होगी और क्या युवा पीढ़ी इसे स्वीकार करेगी?
--अंधाधुध विकास अपने साथ बहुत सी मियां लेकर भी आता है। आर्थिक विकास से देश में पर कैपीटा इनकम बढ़ती है। बड़े बड़े उद्योग लगते हैं। भौतिक सुख सुविधाएं बढ़ जाती हैं। लेकिन सामाजिक ताना बाना, मानवीय रिश्ते , नैतिक मूल्य भी प्रभावित होते हैं। अति विकसित देशों में समाज भौतिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न ज़रूर है लेकिन रिश्तों की गर्माहट , सच्ची खुशी के लिए लोग तरस रहे हैं। हमने विकास का ऐसा मॉडल तैयार किया है जो हमारी , संस्कृति , पर्यावरण , प्राकृतिक संसाधनों, इतिहास और बहुमूल्य धरोहर को भी अक्षुण बनाए रखेगा। देश खुशहाल हो, लोग खुशहाल हो हम ये चाहते हैं लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ करके, पर्यावरण को प्रदूषित करके लोगों के दिल की सच्ची खुशी और चैन की कीमत पर नहीं। मुझे पूरा विश्वास है कि जीएनएच पूरी तरह सफल होगा और भूटान दुनिया के बाकी देशों के लिए विकास का आदर्श मॉडल बनेगा ।
लेकिन भूटान दुनिया के बाकी देशों के साथ कदम मिला कर कैसे चलेगा। आप की अर्थव्यवस्था किस पर निर्भर करेगी ?
--भूटान में अनेक नदियां है। भारत के साथ मिल कर बहुत सी जलविधुत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। 2020 तक भूटान भारत को बिजली देना शुरू कर देगा। भूटान शिक्षा, स्वास्थ्य औऱ आर्गेनिक खेती को विकसित करने की योजना है। विश्वस्तर के स्कूल और यूनिवर्सिटिज खोलेंगे और हाई क्वालिटी हेल्थ सेवाएं देगा।
भारत-भूटान रिश्तो पर आपकी क्या राय है।
--हम सचमुच बेहद खुशनसीब है कि भारत हमेशा से हमारा पड़ोसी,पार्टनर और दोस्त रहा है। हमारा सदियो का साथ है। चाहे लोकतंत्र का मामला हो या आध्यात्म या फिर सभ्यता संस्कृति का।
..भूटान बहुत सुंदर देश है। यहां पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। आप अपने देश के द्वार दुनियाभर के सैलानियों के लिए क्यों नहीं खोल देते । --भूटान आने वाले हर टूरिस्ट से हमारा अनुरोध है कि वो हमारे समाज , संस्कृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहे। हमारी सरकार का संकल्प है कि भूमंडलीकरण और आधुनिकता के दौर में प्रत्येक भूटानी नागरिक अपने आत्म सम्मान और विरासत की रक्षा कर सके। हम दुनिया को अपनी प्राचीन समृद्ध संस्कृति से परिचित कराना चाहते हैं। लेकिन हमारा जोर हाई वैल्यु , लो वोल्युम टूरिज्म पर ही रहेगा ।
भूटान में लोकतंत्र अभी कम सालो का है। मार्च 2008 में ही राजशाही से लोकतांत्रिक प्रणाली में परिवर्तन हुआ। क्या नेपाल की राजशाही के हश्र को देखते हुए तो ऐसा नहीं किया गया।
--नहीं भूटान ने सदियों से पूरे एशिया महाद्वीप में अपनी अलग पहचान रखी है। मेरे पिता और भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिग्मे बांगचुक एक निहायत दूरदर्शी व्यक्ति हैं । उन्होने जनता को सत्ता सौंपने का फैसला कर लिया था। लेकिन हमने लोकतंत्र का अपना मॉडल विकसित किया। हमारे यहां सरकार को पूरे अधिकार हैं। मीडिया पूरी तरह से स्वतंत्र है। राजशाही से लोकशाही में बहुत शांतिपूर्ण तरीके से परिवर्तन हुआ। मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले कुछ बर्षों में लोकतंत्र की जड़े पूरी तरह मज़बूत हो जाएंगी, लोग इसका महत्व समझने लगेंगे और बीस साल के बाद मैं रिटायरमेंट ले लूंगा। क्यो एक जगह घेर कर रहूं।
....आप राजा ना होते तो क्या होते।
--मैं शिक्षक होता। मुझे एकेडेमिक में दिलचस्पी है और उसके प्रति मन में बहुत सम्मान है। युवाओं के साथ रहना अच्छा लगता है। वे भोलेपन के साथ बहुत मुश्किल सवाल पूछते हैं। युवा हिचकते नहीं। अधेड़ लोग जहां हिचकिचाते हैं कि पता नहीं लोग क्या सोचेंगें, वहीं युवा आपसे कोई भी सवाल पूछ सकते हैं। एकेदेमिक में हर साल नया बैच आता है, आप भी उनके साथ समझदार होते चले जाते हैं।
....आपके लिए मुश्किल वक्त कौन सा होता है।
--कोई निर्णय लेने से पहले बहुत मुश्किल मनस्थिति से गुजरता हूं।
...आप देश के सबसे चहेते कुंवारे हैं। आप शादी कब करेंगें?
--मैं ज्यादा दिन तक चहेता कुंवारा नहीं रहूंगा। जल्दी ही शादी करुंगा।
...क्या आप शाही खानदान में ही शादी करेंगें ?
--भूटान में शाही परिवार में ही विवाह करने की बाध्यता नहीं है। हम जिससे प्रेम करते हैं उसीसे विवाह कर सकते हैं। मेरी तीनों बहनों ने प्रेम विवाह किया है और तीनों के पति राजसी परिवार से नहीं हैं ।
आप के शौंक क्या हैं। अपने खाली समय में आप क्या करते हैं ?
--मैं बेहद भावुक और रोमांटिक हूं। ये बात मुझे एकाग्रचित् और जमीन से जोड़े रखने में मदद करती है। एक छोटा सा पत्थर भी मुझे रोमांचित कर देता है। मैं प्रकृति से प्रेम करता हूं। खूब पढता हूं। खूब घूमता हूं, मीलोमील साईकलिंग करता हूं। फुटबाल, बास्केटबाल खेलता हूं। ट्रेकिंग करता हूं। फोटोग्राफी का शौकीन हूं। कला में हाथ आजमाता रहता हूं। अपने बारे में लिखता रहता हूं। मैं चीजो को याद करना पसंद करता हूं।
आप भारत में रहे हैं। आपको भारतीय खाने में क्या पसंद है ।
--दिल्ली में बिताए गए वे दिन बेहतरीन थे। मुझे दक्षिण भारतीय व्यंजन बहुत पसंद आते हैं। खासकर कोकोनट में पकाए हुए। कबाब, गोलगप्पे और मिठाई में गुलाब जामुन पसंद है। बंगाली फूड में हिल्सा मछली अच्छी लगती है। मैं खुद बहुत अच्छा खाना पकाता हूं। जब मैं किसी सूदूर गांव में दौरे पर जाता हूं तो कभी कभी वहां लोगो के घरो में उनके लिए खाना पकाता हूं। उनके घरों में सो भी जाता हूं।
तब तो आप बॉलीवुड फिल्में ज़रूर देखते होंगें। हाल में कौन सी फिल्म देखी ?
--थ्री इडियटस देखी। आपके पसंदीदा हीरो, हीरोईन कौन हैं और क्यो है। कोई पसंदीदा गाना। --अमिताभ बच्चन और नई पीढी में आमिर खान और शाहरूख खान। हीरोईन में काजोल। आमिर बहुत प्रतिभाशाली एक्टर हैं। शाहरुख खान बेहतरीन इंटरटेनर हैं। मेरा प्रिय गाना है...कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है....।
आमतौर पर युवा इतने शांत ,ठहरे हुए और परिपक्व सोच के नहीं होते, आप कैसे।
--नेचर एंड नरचर । मैं आज जो भी हूं, अपने माता पिता के कारण हूं। मैं उनके पदचिन्हो पर चल रहा हूं। मेरे माता पिता ने मुझे बहुत अच्छे संस्कार दिए, मूल्यो की सीख दी कि बहुत धनवान बनने से ज्यादा महत्वपूर्ण है एक अच्छा इंसान बनना। लोगों के दुख सुख बांटना उन्होने ही सिखाया। मैं चाहता हूं कि मेरे पिता आज भी मुझे सलाह दें लेकिन वे संकोच करते हैं। वह कहते हैं कि तुम अपने इतिहास और अपनी गल्तियो से सीखो, जैसे मैंने सीखा। तुम तुम हो, मैं नहीं।

भूटान-यात्रा की दूसरी कड़ी

Posted By Geetashree On 5:38 AM 4 comments

वे सचमुच खुश हैं, आजाद है और बिंदास है...
गीताश्री
हमारे लिए ये चौंका देने वाली खबर थी। भूटान के 30 वर्षीय वत्तर्मान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक कुंवारी मां के बेटे थे। उनके पिता ने बाद में उनकी मां से शादी की। वतर्मान राजा दूसरी रानी के बेटे है जो बड़ी रानी कीही छोटी बहन हैं। बाद में राजा ने दो और शादी की। ये चारो सगी बहने हैं और साथ रहती है। राजा को इन सबसे प्यार हो गया था, संबंध कायम हो गए थे, लिहाजा बड़ी रानी ने इनसे शादी की इजाजत दे दी। इस मुद्दे पर राजा को जनता ने सवालो से घेर लिया था। राजा कहीं पब्लिक मीटिंग को संबोधित कर रहे थे। एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ। उसने पूछा-आप राजा हैं, आपने तीन शादी क्यो की. राजा ने सीधा उतर नहीं दिया। कहां—आप निशचिंत रहिए, आपका अगला राजा एक ही शादी करेगा।
ये अवांतर प्रसंग हो सकता है लेकिन यहां इसका जिक्र करना इसलिए जरुरी है कि भूटानी समाज में कुंवारी मां का बेटा राजा बन जाता है और कोई हाय तौब्बा नहीं मचती। सालो बाद एक सवाल उठता है और राजा के आश्वासन पर खत्म हो जाता है। भारतीय समाज में आप स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते। यहां सब उल्टा होता। यहां तो औरत की मर्जी के बिना कई शादियां रचा डालते हैं लोग। बिना औरत की इजाजत के भूटानी पुरुष दूसरी शादी नहीं कर सकता। हिमालय की सुंदर वादियो में बसे इस थंडर ड्रैगन के देश में औरतो की आजादी के बारे में आप कल्पना भी नहीं कर सकते। भूटान की राजधानी थिंपू में घूमते हुए अचानक मंजरी पूछती है, .यार यहां एक भी जोड़ा नहीं दिखा जो सड़को पर चोंच लड़ा रहे हों। ये एक खुले समाज की देन है। बंद समाजो में पाबंदियो की खुलेआम कैसे धज्जियां उड़ाई जाती हैं इसका साक्ष्य प्रस्तुत करने की जरुरत नहीं है। यहां लड़कियो पर कोई पहरा ही नहीं है, रोक टोक नहीं है तो क्यो सड़को या पार्को में अपनी दमित इच्छाओं का प्रकटीकरण करें।
यहां के चहलपहल भरे बाजार के एक दूकान में खरीदारी करते हुए जो नजारा दिखा उसे हमने नोटिस किया। काउंटर पर बैठी सुंदर सी स्त्री अपने बच्चे को स्तनपान करा रही है। ग्राहक आ-जा रहे हैं, पैसे ले- दे रही है,बच्चा वैसे ही दूध पीए जारहा है। स्त्री को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कहां और किस हाल में बैठी है। किसी और समाज में यह दृश्य मनोरंजन या हास्य का सबब बन जाता। यहां ये आम है। वर्जनारहित समाजो में एसा खुलापन सहज स्वीकार्य है। अच्छा हुआ कि भूटान कभी किसी साम्राज्य का उपनिवेश नहीं रहा। नहीं तो गुलामी का पाठ जरुर पढा होता। इसीलिए वहां स्त्रियों को घरेलु दासता और पुरुष स्वामित्व को स्वीकारने के लिए उनके दिमाग की कंडीशनिंग नहीं हुई है।
भूटान की स्त्रियों की हर किस्म की आजादी कई स्त्री विरोधी अवधारणाओं की खिल्ली उड़ाती है। फ्रंसीसी दार्शनिक ओमस्तु कोंत का कथन है---स्त्री समुदाय की असमानता पर्ण सामाजिक स्थिति का मूल कारण नारी शरीर की प्राकृतिक दुर्बलता में निहित है। स्त्रियां स्वाभाविक एवं प्राकृतिक तौर पर पारिवारिक जिम्मेदारियों, प्रजनन, शिशुपालन आदि के लिए ही बनी होती हैं। और वे कभी भी सामाजिक तौर पर पुरुषो के समकक्ष नहीं हो सकती। भूटानी स्त्रियों की आजादी देखिए और इस कथन की सत्यता को परखिए, मजा आ जाएगा। उनकी जीवन शैली इसका घोर विरोध करती है।
भारतीय समाज को जानने वाला भूटान में हमारा गाइड फूंगशू बताता है, हमारी औरतें भावनात्मक और आर्थिक दोनो रुप से बेहद मजबूत हैं। उन्हें बराबरी के लिए लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती। वे जब चाहे पति बदल सकती हैं। चाहे जितनी शादी कर सकती हैं। कुंवारी मां बन सकती हैं, समाज का रवैया उदार रहता है। ताने उलाहने या खाप पंचायत जैसी कोई चीज नहीं होती हमारे यहां। हम महिलाओं को समानाधिकारों की कोई लड़ाई नहीं लडऩी। हमें इसकी दरकार नहीं। हमारे पास राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समानाधिकार पहले ही सुरक्षित हैं। 1981 में भूटान सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महिला संगठन के उदघाटन भाषण में कहे गए ये शब्द तीसरी दुनिया के देशों में रहने वाली
महिलाओं को आवाक कर देने वाले हैं। समान अधिकारों की ये गौरवशाली घोषणा
दरअसल इसलिए भी चौंका देने वाली है क्योंकि तकरीबन 6 लाख, 92 हजार की
आबादी वाले इस छोटे पर खूबसूरत देश की सीमाओं से लगे अपेक्षाकृत विशालकाय
देशों भारत, चीन, नेपाल और बांगलादेश में रहने वाली महिलाएं एक लंबे समय
से अपने-अपने समाजों में समानाधिकारों के लिए जंग छेड़े हुए हैं।
दरअसल, राजतंत्र व्यवस्था के बावजूद भूटान ने सन 1950 के आसपास अपने आपको
आधुनिक दुनिया के समक्ष धीरे-धीरे परतों में खोलना शुरु किया, आखिरकार
एक ऐसा देश दुनिया के सामने आया कि जिसके पास प्राकृतिक वरदान भी है।
महिलाओं की मुस्कान भी है, परपंराओं का गौरव भी है और आकांक्षाओं का आकाश
भी। विश्व को सकल राष्ट्रीय खुशी(ग्रास नेशनल हैप्पीनेस) का फॉर्मूला देने वाले इस देश में एशिया के
किसी भी अन्य देश की तुलना में महिलाओं के चेहरे खिलखिलाते और स्वाभिमान
से दमकते दिखाई देते हैं। यह एक विरोधाभास ही है कि दुनिया के लिए कोई 50
साल पहले ही आपने दरवाजे खोलने वाले इस देश की करीब एक तिहाई जनसंख्या
अभी भी गरीबी रेखा से नीचे है। मातृत्व मृत्युदर उच्च है, शहरों में घर
और बाहर के कामों की जिम्मेदारियां निभाने वाली 16-17 साल से ऊपर की उम्र
की लड़कियां ही हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, पारिवारिक स्थिरता कमतर
होती दिखाई देती है। पर यहां अगर आप महिलाओं से मिलें तो आपको शिकायतें
सुनने को नहीं मिलेंगी। इनके चेहरों पर खिली मुस्कान ही शायद ‘सकल
राष्ट्रीय खुशी’ है।
थिंपू के एक होटल में कार्यरत एमी की मानें तो ‘यहां महिलाओं को अपनी
जिंदगी खुद चुनने की आजादी है।’ अपने हर फैसले का एकाधिकार उनके पास है।
वो चाहें तो एक से अधिक पुरुषों से विवाह रचा सकती हैं या फिर, अपनी शादी
तोड़ सकती हैं। इतना ही नहीं, पुरुष भी अगर चाहे तो एक ही समय में एक से
अधिक बीवियां रख सकता है पर उसमें पहली बीवी की रजामंदी आवश्यक है।
थिंपू में ही पर्यटन उद्योग से जुड़ी मिंक बताती है कि पारंपरिक समाज
होने के कारण यहां महिलाओं को एड़ी तक के वस्त्र पहनना अनिवार्य है, पर
साथ ही इतना खुलापन भी है कि कोई भी महिला अपने बच्चे को सरेबाजार
स्तनपान करा सकती है। एक बात जो यहां देखने योग्य है वो है महिलाओं का
आत्मविश्वास और भूटानी समाज का महिलाओं के श्रम, अस्तित्व, फैसलों और
शरीरिक सामर्थ पर विश्वास। किसी भी अन्य एशियाई देशों से दीगर यहां पुरुष
और स्त्री दोनों ही समान श्रम करते दिखाई देते हैं। मतलब साफ है कि यहां
लड़कियों और महिलाओं पर नाजुक होने का ठप्पा नदारद है।
भारतीय राज्य मेघालय की ही तरह यहां मातृसत्तात्मक समाज है जहां संपत्ति पर वैसे तो पुरुषों और
महिला का समान अधिकार है पर जमीन पर महिला अधिपत्य अब भी कायम है।
दरअसल, भूटान ही समस्त दक्षिण एशिया का वो एक मात्र देश है जिसने राष्ट्र संघ की योजना और लिंग भेद समापन संबंधी अनुमोदित सुझावों का बिना किसी झिझक के कार्यान्वयन किया है। शायद यही कारण है कि यहां परिवारों में पुत्र रत्न को प्राप्त करने की जुनूनी चाह दिखाई नहीं
देती। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, लड़कियों को जलाया जाना, संगठित महिला देह बाजार जैसा कुछ भी आपकी आंखों या कानों से यहां नहीं गुजरेगा। लड़कियां अपनी मनमर्जी से अपनी पसंद से अपना हमराह चुनती हैं।
सिर्फ एक बात है जो भूटान भ्रमण के दौरान बार-बार अखरती है, वो है महिला
साक्षरता की कमी। थिंपू में ही शिक्षिका के तौर पर कार्यरत तोशी दोरजी की
मानें तो यहां लडक़ों को मोंटेसटी में शिक्षा दी जाती रही पर महिलाओं के
लिए शिक्षा के रास्ते सन 1950 के बाद खुले। अब भूटान में महिला साक्षरता
38 प्रतिशत के आसपास पहुंच चुकी है जबकि पुरुषों की साक्षरता दर इससे
लगभग दोगुनी है। इसका एक कारण यह भी है कि पुरातन पीढिय़ों ने अपनी
लड़कियों को विद्यालय भेजने की बजाए कृषि कार्य सिखवाना अधिक महत्वपूर्ण
समझा ताकि वो आर्थिक रूप से समर्थ बन पाएं। शायद यही कारण है कि यहां
पुरानी पीढ़ी की महिलाओं में डॉक्टर , इंजीनियर, शिक्षक, समाजशास्त्री
महिलाओं की संख्या न्यूनतम है।
युनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम रिपोर्ट की मानें तो सन 2006 में
नेशनल असेंबली में महिलाओं की सहभागिता तीन प्रतिशत थी, न्यायपालिका में
6 प्रतिशत और राजकीय सेवा में 28 प्रतिशत के आसपास है। 1960 में विश्व के
लिए अपने दरवाजे खोलने वाले इस देश में नि:संदेह महिलाओं में साक्षरता
बढऩे के साथ-साथ प्रशासनिक और राजनीतिक सहभागिता दिन पर दिन बढ़ रही है।

मेरी भूटान-यात्रा

Posted By Geetashree On 2:32 AM 4 comments


गीताश्री
.तस्वीर से ज्यादा सुंदर


एक पुरानी भूटानी कहावत के अनुसार भूटान एक ऐसी पुण्यभूमि है जहां साम्राज्य का कोई भी ऐसा चप्पा नहीं है जिसे गुरु रिम्पोचे का आर्शीवाद प्राप्त ना हो। जैसे हिमालय की गोद में धरा हुआ, तांत्रिक रहस्यमयता से लिपटा एक सुंदर और शांत शहर। लोग इसलिए धीमे बोलते हैं मानो बुद्ध अभी किसी पहाड़ी पर ध्यानरत हैं। जोर से बोलेंगे तो खलल पड़ जाएगा। पड़ोसी देश के एक महान दार्शनिक कन्फ्यूसिएश ने कहा था कि आओ खामोश रहें ताकि देवताओं की कानाफूसी सुन सकें। भूटानी यानी स्थानीय भाषा में द्रूपका लोगो ने सुन लिया पड़ोस से आए इस दर्शन को। तब से लोग यहां चिल्लाते कम हैं। कहीं कोई पुकार तक नहीं सुनाई देती। हवा का शोर ना हो तो अपनी धडक़न भी सुन सकते हैं। ट्रेफिक लाइट के बिना ट्रेफिक चलती है। पुलिस कहीं दिखती नहीं। मैंने मुनीरा से पूछा। उसने मुस्कुरा कर कहा-पुलिस है, उसकी आंखें आपको देख रही है। गल्ती करेंगे तो सामने जाएगी। ना पुलिस की सीटियां ना व्यर्थ के हॉर्न बजते हैं। दिल्ली के कोलाहल से भाग कर वहां जाएंगे तो तेज और कानफोड़ू आवाज के लिए तरस जाएंगे। धुली धुली पहाडियां, कुंवारी और शादीशुदा नदियो का कल कल दूर से सुनाई देता है। यहां एक शादीशुदा नदी भी है। पुनाखा घाटी में अलग अलग रंगो की एक पुरुष नदी और एक स्त्री नदी आपस में मिलते हैं और एक होकर सफर करते हैं। गाइड फुंगशू मजाक करता है..देखा है कहीं मैरिड नदी.. रास्ते में झरने ही झरने। खेतो में धान ललहाते हुए। बादल जैसे ठिठके से घरो की छतो पर। हवा भी जैसे पत्तो पर ठहरी सी। बच्चो के चेहरे फूल से या फूल बच्चो से, आप र्फक ही नहीं कर पाएंगे, इतने गुलाबी और खिलखिलाते। ये सब कुछ किसी तस्वीर सा सुंदर है जो आपकी बेचैनी को आराम दे देता है।


.थोड़ा है थोड़े की जरुरत है


उनके लिए खुशहाली सर्वोपरि है, विकास का वही पैमाना भी। भूटान को अपनी सांस्कृतिक पहचान, ऐतिहासिक विरासत से बहुत लगाव है। आर्थिक प्रगति की दौड़ में इनसानी मूल्य, संस्कृति, अतीत की धरोहर नष्ट ना हो जाए, लोग अपनी जड़ो से ना कट जाएं, इसके प्रति बेहद सजग है। नेपाल के हश्र और चीन के व्यापार से डरे हुए इस देश ने विकास की राह पर चलने की अपनी अलग नीति बनाई गई है। उनकी नीति दुनिया की आंखें खोलने का माद्दा रखती है। सकल राष्ट्रीय खुशी (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) शब्द एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। भूटान के चौथे राजा जिगमे सिगवे वांगचुंग ने इस अवधारणा की नींव रखी। ये शब्द भी उन्हीं का अविष्कार है। इसमें आर्थिक निर्भरता, पर्यावरण, भूटानी संस्कृति और सभ्यता के संरक्षण जैसी चिंताएं शामिल थीं। इसके लिए एक आयोग का भी गठन किया गया है। इसीलिए आज भी वहां मकान के डिजाइन पारंपरिक रखे जाते हैं। सरकारी-प्राइवेट सभी ऑफिस में पारंंपरिक पोशाक (स्त्री-टेगो और कीरा, पुरुष-घो) पहन कर जाना अनिर्वाय है। सूचना और संचार मंत्रालय के सचिव दाशो किनले दोरजी एक विशेष मुलाकात में बताते हैं, इस बड़ी सी दुनिया में भूटान एक छोटा सा देश है। हमारे पास अर्थव्यवस्था की ताकत नहीं है। सांस्कृतिक पहचान ही हमारी असली ताकत है। सरकार की जिम्मेदारी है इसे संरक्षित करने की। भूटान के प्रधानमंत्री बताते हैं, हमारी कोशिश है कि हम भौतिक रुप से नहीं, दिल से खुश रहें। वित्तीय समस्या होने के बावजूद संतुलित रहें। जीवन में हमने क्या पाया, हमें कितनी संतुष्टि मिली, ज्यादा महत्वपूर्ण है। हम इच्छाएं ज्यादा नहीं रखतें। इसीलिए हमने भौतिक स्वरुप के बजाए संतुष्टि का मानक रखा है। दस साल बाद किसी भूटानी नागरिक को रोटी के लिए मशक्कत ना करनी पड़े, ये हमारा लक्ष्य है। भूटान सरकार यह भी दावा कर रही है कि उनका पैमान दुनियाभर में लोकप्रिय हो रहा है। उन्हें अंतराष्ट्रीय समुदाय में खूब वाहवाही मिल रही है।


.सच्चे किस्से


हिमालय पर्वत की सुंदर वादियों में बसे छोटे से देश के एक गांव में एक परिवार बरसों से सामाजिक बहिष्कार झेल रहा था। पूरे गांव तो क्या पूरे इलाके में कोई उनके घर का अन्न जल नहीं खाता था। इस परिवार पर जादू टोने करने का कलंक लगा था। पूरे इलाके में अपवाह थी कि इस परिवार के घर को अन्न जल जो भी ग्रहण करेगा, वो मर जाएगा। ये परिवार एक शापित जिंदगी जी रहा था कि एक दिन इस देश का राजा अचानक उनके द्वार पर पहुंचा। घर के मालिक को कहा कि अपनी पत्नी से मेरे लिए खाना बनवाओ, आज मैं तुम्हारे घर खाना खाऊंगा और यहीं रात बिताऊंगा। पूरे इलाके में राजा के आने की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई लोग इक्कठे हो गए और राजा को समझाया कि इस घर का पानी भी नहीं छूना चाहिए। राजा नहीं माने। राजा ने उस घर में खाना खाया और वहीं रात बितायी। वो राजा आज भी जिंदा हैं, भला चंगा है और अपने देश का युवा राजा है। शापित परिवार के माथे से जादू-टोने का कलंक धुल गया अब पूरा गांव उनके साथ अच्छे संबंध रखता है। ये किस्से कहानियों की बात नहीं ,ना ही नानी दादी की कहानियां हैं। ये सच्ची घटना है। ये वर्तमान राजा हैं, जो नहीं चाहते कि उनकी प्रजा अंधविश्वास और रुढियो में जकड़ी रहे।
एक घटना और..वहां राजा प्रजा के बीच संवादहीनता नहीं है, इसका एक उदाहरण है। चौथे राजा ने चार शादी की। चारो सगी बहने हैं। वर्तमान राजा दूसरी बहन के बेटे हैं। एक बार चौथे राजा किसी पब्लिक मीटिंग में भाषण देने के बाद लोगो के सवालो के जवाब दे रहे थे। एक व्यक्ति ने उठकर पूछा-आप राजा हैं, आपने चार शादियां क्यो की? राजा ने शांत उत्तर दिया--आप चिंता ना करें, आपका अगला राजा एक ही शादी करेगा।




कुछ कुछ होता है..


हिंदी सिनेमा के नाम पर भूटान में युवाओ को कुछ कुछ होता है.. . जिसे देखो, उसके ऊपर शाहरुख खान और काजोल का नशा छाया हुआ है और गाने के बोल फूटते हैं..क्या करुं हाय, कुछ कुछ होता है..।इस गिरफ्त में युवा राजा भी हैं। वैसे बॉलीवुड के और भी सितारे यहां पसंद किए जाते हैं, लेकिन काजोल के प्रति दीवानगी के क्या कहने। हिंदी सिनेमा और सास बहू वाले धारावाहिको ने यहां के नागरिको को हिंदी बोलना सीखा दिया है। दाशो किन्ले हंस कर कहते हैं, बॉलीवुड ने हमारे युवाओं को अपने प्रभाव में ले लिया है। उनकी तर्ज पर उनके हाव भाव, चाल ढाल बदल रहे हैं। नई फिल्मों के शौकीन लोग राजधानी थिंपु से तीन चार घंटे की यात्रा करके भारत-भूटान बार्डर पर स्थित शहर फुंसलिंग शहर जाकर फिल्म देख आते हैं। दबंग का नया नया नशा वहां की हवाओं में बदनाम हो रहा है।टीवी की तरह भूटानी फिल्मों का इतिहास भी महज एक दशक पुराना है। वहां हर साल 17-18 फिल्में बनती हैं। भूटानी फिल्मों की प्रेरणा बॉलीवुड है। इसके अनेको उदाहरण है। जैसे हिंदी फिल्म कहो ना प्यार है का भूटानी वर्जन बनता है सेरेगिल नाम से। मुन्नाभाई का भूटानी भूटानी वर्जन कुजू(भूटानी में अर्थ हैलो) नाम से रिलीज होता है। हिंदी फिल्मों की पाइरेटेड डीवीडी के लिए भूटान अच्छा बाजार है। वहां के युवा नई फिल्में जल्दी देखना चाहते हैं। उनतक पाइरेटेड डीवीडी आसानी से पहुंच जाती है।
पर्यटको के प्रति रवैयाभूटान के व्यस्त बाजार में आप घूमे तो एक सामान्य नजारा दिखेगा। कहीं स्टार प्लस के सीरियल रहे हैं तो कहीं सोनी टीवी के सीरियल तो कहीं सिनेमा चैनल पर फिल्में चल रही हैं। दूकानो पर ज्यादातर लड़कियां बैठी होती हैं। उनमें सामान बेचने की वो आतुरता नहीं जो चीनी बाजार में दिखाई देती है। वे आपको बुलाती भी नहीं हैं। हैंडीक्राफ्टस के दूकानो की भरमार है। बेहद महंगे सामान कि खरीदने से पहले कुछ देर सोचना पड़े। ऐसे ही एक दूकान पर बैठी प्रतिमा से बातचीत होती है. उससे पूछती हूं कि चीजें यहां इतनी महंगी क्यों हैं, तुम लोग बेचने के प्रति इतने उदासीन क्यो हो? प्रतिमा की मां बंगाली है पिता भूटानी। इसीलिए वह हिंदी, बांगला और भूटानी भाषा जोंगखा अच्छे से बोल लेती है। वह बताती है, हमें पता है जिन्हें खरीदना है, वे खरीदेंगे। महंगी होने के कारण ज्यादा लोग विंडो शॉपिंग करके चले जाते हैं। हम किसी पर दवाब नहीं बनाते। यहां टैक्स बहुत देना पड़ता है इसलिए चीजें महंगी हो जाती है। भारतीय लोगो के लिए हम चीजें सस्ती कर देते हैं, अगर वे लोग मोलभाव करें तो। यहां बता दें कि भूटानी मुद्रा नोंगत्रुम और भारतीय रुपया एक समान है और आप वहां भारतीय रुपयो से खरीदारी कर सकते हैं। प्रतिमा पर्यटको के कम आमद से थोड़ा हताश दिखी मगर अपनी सरकार की नीतियों का सर्मथन भी किया। उसे एहसास है कि उसका देश सुंदर है, टूरिस्ट यहां आना चाहते हैं मगर सरकार उन्हें परमिट या वीजा नहीं देती। विदेशियो का आगमन यहां नियंत्रित है। ये भूटान के भले के लिए है। प्रतिमा के साथ खड़ी डोलमा कहती है, हमें टूरिस्ट की क्वांटीटी नहीं, क्वालिटी चाहिए। संकेत हमें साफ समझ में रहा था। सरकार की नीतियां जनता के दिमाग में बैठ गई है। कारोबार से ज्यादा संस्कृति बचाने की चिंता है। मुझे वहां के प्रधानमंत्री का एक स्लोगन याद आया-हाई क्वालिटी, हाई कॉस्ट। बाजार में एक बंगाल की गाड़ी दिखी। उसका ड्राइवर उपेन दत्ता बेहद मुखर है। अक्सर थिंफू आता जाता रहता है। बातचीत के क्रम में वह टिप्पणी करता है--भारतीय को भी ये लोग 6 या सात दिन से ज्यादा का परमिट नहीं देते। खासकर मजदूर या किसान जैसे दिखने वाले भारतीय पर्यटक से बहुत डरते हैं। उन्हें लगता है कि ये लोग यहां आकर बस जाएंगे, काम करने लगेंगे जिससे संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। भूटान की खुशकिस्मती है कि वह कभी किसी देश का उपनिवेश नहीं बना। इसीलिए बाहरी प्रभाव से बचा रहा। बना होता तो आज कहानी दूसरी होती। भूटान 1974 में आम पर्यटको के लिए खुला है।


लोकतंत्र के खतरे या अनजाना भय


भूटान के सामने नेपाल का ताजा उदाहरण है। राजशाही के अंत के बाद वह देश किस तरह बरबाद हो रहा है। भूटान का लोकतंत्र नया नया है। दाशो केनली दोरजी कहते हैं, लोकतंत्र कई देशो में आंतरिक-बाहरी समस्याओं से जूझ रहा है। हम अपनी तरह के अलग हैं, यूनिक हैं, हमारे लोकतंत्र का फारमेट अलग है। हम किसी और की तरह नहीं होना चाहते। राजशाही हमारे यहां जनता की ख्वाहिश है। ये लोकतंत्र हमारे राजा की ओर से प्रजा को उपहार में मिला है। किसी संघर्ष की देन नहीं है। भूटान के प्रधानमंत्री ल्योनचेन जिगमी वाई. थिनले भी एक विशेष मुलाकात में ऐसी ही बात करते हैं। वह कहते हैं, आसपास के देशो का हाल देखते हुए तो लगता है कि हमारे यहां भी डेमोक्रेसी उसी रास्ते पर चलने लगे या लोग उसका दुरुपयोग ना करने लगे। वे अपने इस भय को हमारे सामने छिपाते नहीं, जाहिर करते हैं। भूटान शायद इसीलिए चीन से कोई ट्रेड का रिश्ता नहीं रखता। भारत या थाईलैंड दो मुख्य व्यापार के लिए मफीद हैं। यहां बाजार में चीनी समाना कम मिलते हैं जो मिलते भी हैं वे तस्करी होकर आते हैं। ये बात वहां के अधिकारी भी स्वीकारते हैं। प्रधानमंत्री चीन के साथ संबंधो के मामले में दो टूक कहते हैं, हम नहीं चाहते कि दो देशो के बीच कोई गलतफहमी हो। आपसी समझदारी से हम एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव रखते हैं और संप्रभुता को स्वीकार करते हैं।