बोल..कि बोलना है जरुरी

Posted By Geetashree On 3:49 AM 9 comments

फांसीघर में चीख

गीताश्री

स्त्रियों के खिलाफ हो रहे पारिवारिक आतंकवाद पर आधारित फिल्म ‘बोल’ (निर्देशक-शोएब मंसूर) देखते हुए भारतीय महिला प्रेस कोर्प, दिल्ली की सभी सदस्यों की आवाजें एक अंधेरी और गहरी चुप्पी में बदल गई थी। मूक, स्तब्ध और अवाक। तीन घंटे लंबी फिल्म आपको वांछित मनोरंजन नहीं, किसी यातना शिविर से गुजरने जैसा अहसास दे रही थी। शायद कलेजा मसोस कर देखने वाली यातना का लाइव टेलीकास्ट। फिल्म प्रभाग के उस हॉल में जहां रिलीज होने वाली फिल्मों के सर्टिफिकेट की किस्मत तय होती है, उस हॉल में बैठे-बैठे जैसे धडक़नों का संगीत फांसीघर के उस चीख में शामिल हो गया था, जब नायिका चीखती है, ‘खिला नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो? मारना जुर्म है तो पैदा करना जुर्म क्यों नहीं है?’ यह सवाल फांसीघर से उठता है और विकासशील देशो के कैनवस पर पसर जाता है। सवाल दर सवाल उठाती यह फिल्म कातिल और गुनाहगार होने में फर्क का खुलासा करती है। अपने पिता का कत्ल करने वाली नायिका फांसीघर में अपनी कहानी टीवी पर लाइव बताती है, यही उसकी आखिरी ख्वाहिश है। वह पूरे मुल्क को आधी रात के अंधेरे में बताती हैं कि वह कातिल जरुर है, गुनाहगार नहीं। वह अपनी फांसी चढते चढते मुल्क के सामने कई सवाल छोड़ जाती है और साथ ही आजाद कर जाती है परदानशीं औरतो को, उनके बुरके नोच कर मानो कट्टपंथियों के चेहरे पर फेंक जाती है जिन्होंने औरतो को अपनी संपत्ति समझ कर ढंक दिया था। नायिका उस मानसिकता की भी मुखालफत करती है जो एक स्त्री को बच्चा पैदा करने की मशीन में तब्दील कर देती है। वह परदानशीं औरतो की चुप्पी को पररिवर्तनकामी चीख में बदल देती है।
वह यातना शिविर में सिर्फ सुंदर सुंदर सपने देखने वाली (यातना शिविर में सपने ज्यादा सुंदर आते हैं) औरतो को अंखुआने का मौका समाज से छीन लेने की हिमायत करती है। यह फिल्म औरतो की उस चुप्पी के खिलाफ है जिसके कारण वे अपने घरो की कैदी बना दी जाती हैं। फिल्म ठोकर मारती है उस व्यवस्था को जिसमें एक पुरुष को नैतिक पाखंड करने की इजाजत हैं लेकिन एक औरत को खुली हवा में सांस लेने की इजाजत नहीं। इस्लामिक समाज में औरतो की बगावत की बुनियाद डालती है। स्त्रीमुुक्ति का रास्ता आखिर पुरुष सत्ता की समाप्ति से होकर ही जाता है। संस्कृति और सभ्यताएं किस कदर औरतो को आतांकित करती और उन पर कहर ढाती है, उसका एक उदाहरण यहां देखिए।
शोएब मंसूर पाकिस्तान के सबसे साहसी फिल्मकार हैं, जो एक परिवार, समाज और देश की समस्या को उठाकर दुनिया के सीने में दर्द की तरह भर देते हैं।
‘बोल’ के जरिए उन्होंने समाज में व्याप्त दोहरे मापदंड की पोल खोली है। पाकिस्तान में कुछ सप्ताह पहले ‘बोल’ रिलीज हुई होगी तब निश्चित तौर पर गरमागरम बहसें शुरु हुर्ह होगी। शोएब की पहली फिल्म ‘खुदा के लिए’ की तरह ‘बोल’ भी पाकिस्तान की सामाजिक पृष्ठïभूमि पर आधारित है।
फिल्म में एक बेटी अपने कट्टïर रूढि़वादी पिता के खिलाफ आवाज बुलंद करती हैं। महिलाओं को पुरुषों के सामने तुच्छ समझने की सदियों पुरानी परंपरा का मुकाबला करने का साहस करती हैं। हकीम साहब की दिल दहलाने वाली कहानी है। वह चाहते हैं कि उनकी पत्नी एक बेटे को जन्म दे जिससे भविष्य में उनका खानदान चलता रहे और उनका नाम रोशन रहे। इस चक्कर में उनकी पत्नी 14 बेटियों को जन्म देती हैं, जिनमें सात ही जिंदा रहती हैं। उनकी आठवीं औलाद ‘किन्नर’ है। फिल्म में हकीम साहब के परिवार की दुश्वारियों और उनके प्रति हर सदस्य की प्रतिक्रिया दिखाई गई है। फिल्म में भावनाओं का उफान गजब का है। बड़ी बेटी ( हुमैमा मलिक) और पिता (मंजर सेहबाई) की सोच हर मुद्दे पर अलग-अलग है। जब भी पिता और बेटी एक साथ परदे पर आते हैं, दोनों के बीच का तनाव दर्शकों के मन पर भी दिखने लगता है। स्त्री-पुरुष के बीच गैरबराबरी और पुरुष सत्ता के खिलाफ आक्रोश फिल्म के केंद्र में है।
चूंकि पाकिस्तान के किसी एक फिल्मकार ने इस कथानक पर फिल्म बनाने का साहस किया, इसलिए शोएब की सराहना दुनिया भर में की जा रही है।
फिल्म के कथानक से जुड़े उपकथानक और कहानी में आए उतार-चढ़ाव भी हैरान करने वाले हैं। इस तरह के जटिल विषय पर बड़े पर्दे के लिए फिल्म विरले ही बनती है। फिल्म के माध्यम से सीमा के दोनों तरफ कट्टïरपंथ को लेकर चेतावनी भी दी गई है कि इसमें दोनों देशों को नुकसान ही होगा, फायदा नहीं।
ऐसा नहीं कि फिल्म में कुछ कमियां नहीं हैं। कहानी कहीं कहीं बिखरी नजर आती है। एक गाना जबरदस्ती ठूंसा हुआ लगता है। डार्क पक्ष कुछ ज्यादा गहरा है। यह आपको उदास कर सकता है बोर नहीं। नसीरुद्दीन शाह को इस फिल्म का हिस्सा ना बन पाने का अफसोस लाजिमी है। बकौल नसीर-यह फिल्म ऐसी होती जिस पर वह गर्व कर सकते थे। फिलहाल शोएब की ईमानदारी फिल्मकारो के लिए गर्व करने लायक है।