प्रतिभा कटियार
मैं ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता. वह हर वक्त अपनी तारीफ सुनना चाहता है. ईश्वर यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वर, तू कितना महान है. - नीत्शे
नीत्शे ने यह किन संदर्भों में कहा होगा नहीं पता लेकिन मुझे यह कथन स्त्री विमर्श के संदर्भ में एकदम मुफीद लगता है. एक किस्सा याद आ रहा है. कुछ सालों पहले एक मनोवैज्ञानिक डॉक्टर के पास बैठी थी. तभी एक महिला काउंसलिंग के लिए आई. यूं कोई भी डॉक्टर किसी के सामने काउंसलिंग नहीं करता लेकिन चूंकि वो महिला मेरी जानने वाली थी और उसे कोई ऐतराज नहीं था इसलिए बात सामने शुरू हुई. बात बेहद सामान्य सी थी. हां, उन सामान्य बातों से उपजे अवसाद बड़े गहरे थे, जिनका संतुलन उस महिला से साधे नहीं सध रहा था. डॉक्टर ने बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में जो बात कही वो बड़े काम की थी.
बात सिर्फ इतनी सी थी कि पहले हम औरतें एक साधारण पुरुष को पूज-पूज कर ईश्वर बना देती हैं. व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना, लंबी उमर की कामना, सीता, सावित्री बनने की इच्छा वगैरह. बच्चा होश बाद में संभालता है उसे यह अहसास पहले होने लगता है कि वो लड़की से सुपीरियर है.धीरे-धीरे जब वो अपने भीतर देवत्व महसूस करने लगता है तब हम उसे खुद को खुदा मानने के आरोप में जकड़ देते हैं. वो कहते हैं न कि सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा.
नीत्शे का कथन और डॉक्टर का कथन आसपास ही तो हैं. हम अपने डर के चलते ईश्वर को गढ़ते हैं. स्त्रियों ने भी अपने तमाम तरह के डरों के चलते देवता गढ़े हैं. देवता पिता, देवता भाई, देवता पति...वगैरह. अठारह बरस की लड़की चार बरस के लड़के की उंगली थामके घर से बाहर निकलने पर सुरक्षित महसूस करती है. यह असुरक्षा कई कारणों से है. ये डर आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक हर तरह के हैं. जितनी डरी हुई स्त्री होगी उसके आसपास के देवताओं के आसन उतने ही मजबूत होंगे. देवताओं का आसन मजबूत रहे इसलिए उनकी आंखों का उठना ही अपराध सा माना गया है. उनका सीना तानकर चलना बेशर्मी कहलाई. बात करना, जवाब देना बुरी बात. देवताओं के आसन सुरक्षित रहें इसलिए परंपराओं, मर्यादाओं, नैतिकताओं, संस्कारों की मजबूत बाड़ लगा दी गई.
ध्यान रहे ये बाड़ सिर्फ स्त्रियों के लिए थी. स्त्रियों को यह समझाया गया कि यही उनके जीवन का सबसे बड़ा और सुंदर सच है. करवाचौथ की थालियां सजायें स्त्रियां बेहद मगन होकर गाने लगीं मेरा पति मेरा देवता है...बताओ भला एक देवता और एक इंसान की जोड़ी क्या नॉर्मल है. स्त्री या पुरुष में से जब एक देवता हो जायेगा तो रिश्तों का, समाज का हश्र वही तो होगा जो हो रहा है. संतुलन गड़बड़ायेगा. रिश्ते इकतरफा हो जायेंगे. रिश्तों की कमान उसके पास होगी जो देवत्व ग्रहण करेगा यानी पुरुष. जो स्त्रियां अपने बाड़े नहीं पार करतीं, उन्हें उनके देवता खाना, कपड़ा देकर तारते रहते हैं. लेकिन जहां स्त्रियों ने बाड़े के बाहर झांकने की कोशिश की, जहां उन्होंने यह सोचा कि यह पुरुष है तो हमारी ही तरह फिर यह देवता क्यों है, साथी क्यों नहीं? वहीं देवताओं के आसन डोलने शुरू हुए. जैसे ही स्त्रियों ने अपना जीवन अपने हाथों में लेना शुरू किया, आर्थिक, सामाजिक स्थितियों को मजबूत बनाना शुरू किया उनके मन के भय कम होने लगे. और जैसे ही भय कम हुए वैसे ही देवताओं को खतरा शुरू हो गया. आज स्त्रियों का डर कम हो रहा है. उन्हें यह अहसास हो रहा है कि सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत जिंदगी के लिए उन्हें इतना डरने की $जरूरत नहीं है. उनमें और पुरुषों की क्षमताओं में बहुत अंतर भी नहीं है. तो क्यों देवता बनाना किसी को. अब पति परमेश्वर की नहीं, पति मित्र की तलाश शुरू हुई.
लेकिन ये इतना आसान कहां है...देवत्व के जो बीज इतने गहरे गड़े हैं वो इतनी आसानी से कैसे अपना असर दिखाना बंद कर देंगे. हमारे डर अगर पूरे खत्म हो गये तो क्या होगा देवताओं का...यही सोचकर चारों तरफ खलबली है.