

नीत्शे के बहाने मनुष्य की प्रवृत्तियों को याद करते हुए...क्योंकि हम लोग भी हमेशा अपनी तारीफ सुनना चाहते है... शायद ईश्वर होना चाहते हैं. नभाटा पढते हुए नीत्शे का पुराना राग फिर नजरो के सामने से गुजरा...और कई चेहरे झिलमिलाए। हम जिस व्यवस्था में जी रहे हैं...वहां तारीफ की बहुत कद्र है। ये एक कला है जो आपको आना चाहिए। चाहे और कुछ आए या ना आए..। इसके दम पर दुनिया का कुछ हिस्सा तो आप जीत ही सकते हैं...कमसेकम किसी का दिल तो अवश्य। तारीफ एक किस्म की बीमारी भी है और इलाज भी। किसी का इगो सहलाता है तो कहीं शक्ति पैदा करता है..कई खूबियो और दुर्गुणों से भरी है ये तारीफ...जिन्हे ये कला नहीं आती...वे बेहद पिछड़े हैं..जिन्हें महारत हासिल है वे चमत्कार कर रहे हैं....खैर..मैं फिलहाल अपनी तारीफ सुनने के मूड में हूं..सो नीत्शे के विचार को यहां रख रही हूं...
नीत्शे (1844-1900) जर्मन विचारक और दार्शनिक थे, जिन्हें अपने क्रांतिकारी और लीक से बिल्कुल ही अलग विचारों के लिए जाना जाता है। नीत्शे के जिस कथन से सबसे ज्यादा खलबली मचाई, वह था : ईश्वर मर चुका है।
नीत्शे के कई विचारों पर खासा विवाद भी रहा है। नीत्शे 24 साल की उम्र में ही दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बन गए थे। कुछ दिनों बाद वह बीमार रहने लगे और एक लंबा अर्सा बीमारी के इलाज में जगह-जगह घूमते हुए गुजरा। इसी दौरान उनके क्रांतिकारी विचार सामने आए। नीत्शे के विचार, आस्था क्या है, सत्य को न जानने की इच्छा। ईश्वर एक विचार है, जो हर सीधी-सादी चीज को जटिल चीज में तब्दील कर देता है।
मैं ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता। वह हर वक्त अपनी तारीफ सुनना चाहता है। यही चाहता है कि दुनिया के लोग कहें कि हे ईश्वर, तू कितना महान है। क्या इंसान ईश्वर की सबसे बड़ी गलतियों में से एक है? या फिर ईश्वर ही इंसान की सबसे बड़ी गलती है? डर नैतिकता की मां है। इंसान नैतिक रहता है क्योंकि वह डरता है। सारी समझदारी, सत्य के सभी सबूत अपनी खुद की सोचने-परखने की क्षमता से हासिल होते है। किसी एक अतिवादी स्थिति की परिणित किसी बीच के रास्ते में नहीं, बल्कि दूसरे अतिवादी तरीके में होती है।
ओह, ये औरतें! ये ऊंचे इंसान को और भी ऊंचा बना देती हैं और नीचे को ओर भी नीचे गिरा देती हैं। दुनिया के सारे महान विचार टहलने के दौरान लोगों के दिमाग में आए हैं। हमें हर उस दिन को गंवाया हुआ मानना चाहिए, जिस दिन हम एक बार खुशी से नहीं थिरके या किसी दूसरे के चेहरे पर मुस्कान नहीं फैलाई। शैतान से लड़ते वक्त सबसे ज्यादा सावधानी इस बात की बरती जानी चाहिए कि कहीं हम खुद ही तो शैतान नहीं बनते जा रहें है।
आधुनिकता को तेजी के साथ आगोश में लेते दिल्ली से सटे गुडग़ांव शहर में 32 साल के युवा ईशान अवस्थी का मानना है, 'पश्चिमी लिबास और मूल्यों वाली महिलाओं की ओर मैं ज्यादा तेजी के साथ आकर्षित होता हूं, बजाय परंपरागत भारतीय महिला के। वहीं पटना के पुनाईचक में रहने वाले और पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर रवि प्रकाश संबंधों को लेकर लिबास और फितरत में पाश्चात्य महिला के पक्षधर हैं पर मूल्यों के प्रति उनकी आस्था परंपरागत भारतीयता में ही है। हालांकि गुडग़ांव के 22 और पटना के 20 फीसदी युवा पुरुष ईशान की सोच के साथ खड़े है लेकिन आज भी पटना के 11, गुडग़ांव के 16 और लखनऊ के 10 फीसदी युवा परंपरागत मूल्यों की स्वामिनी और साड़ी पहने या सलवार-कमीज के साथ दुपट्टा डाले महिला से किसी भी हद तक दोस्ती करने को उत्सुक हैं। एक बात साफ है, बदलाव हर कहीं दस्तक दे रहा है। कहीं हौले से तो कहीं तेजी के साथ।दरअसल ईशान और रवि युवाओं के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जो बदलते परिवेश में कहीं खुद को साथ पाता है और कहीं बदलाव से असंपृक्त रहकर परंपरा के साथ खड़ा दिखता हैं।
आउटलुक और मार्केटिंग एंड डेवलपमेंट रिसर्च एसोसिएट्स (एमडीआरए) ने इस बार राष्ट्रव्यापी यौन सर्वेक्षण में भारत के उन दस शहरों को लक्ष्य बनाया जिनका शुमार महानगरों में नहीं होता। बावजूद वहां बदलाव की बयार साफ नजर आ रही है। इन शहरों में कहीं वर्जनाओं के हक में और परंपराओं के साथ तो कहीं बदलती जिंदगी के नए मायने हासिल करने की खातिर पुरुषों के विरोध का स्वर सुनाई दे रहा है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से गुजरते समाज में यौन संबंधों को लेकर कहीं जुंबिश है तो कहीं हड़कंप। कहीं स्वागत का भाव है तो कहीं दुहाई की पुकार। एक बात तो साफ है कि बदलाव हो रहा है। यह वे युवा हैं जो यौन संबंधों की बंद किताब पर अब सार्वजनिक बहस को तैयार हैं। आपसी बातचीत में विपरीत सेक्स को प्रभावित करने के तरीकों पर विचार करते हैं। गुडग़ांव के 28 फीसदी युवाओं का मानना है कि महिलाएं एक सुगठित देह वाले पुरुष पर फिदा हो जाती है। जबकि लखनऊ 24 फीसदी युवाओं की दलील है कि आधुनिक पोशाक कहीं ज्यादा अहमियत रखते हैं। सर्वे से साफ हुआ कि खुद को व्यक्त करने में साफगोई पिछले एक-दो दशकों के मुकाबले अब कहीं तेज ध्वनित हो रही है। लखनऊ के 27 फीसदी और पटना के 13 फीसदी युवा ऐसे मिले जो अब तक के जीवन में यौन संतुष्टि के लिए तीन से पांच बार तक वेश्याओं से यौन संपर्क साध चुके थे। पटना के 31 फीसदी, लखनऊ के 18 फीसदी, चंडीगढ़ के 22 फीसदी और गुडग़ांव के 23 फीसदी पुरुषों का मानना है कि यौन संतुष्टि के लिए ओरल-सेक्स बेहद जरूरी है। जबकि इन सभी शहरों में गैरजरूरी मानने वाले पुरुषों की संख्या 15 से 21 फीसदी के दरम्यान मिली। परिवर्तन की इस गति में सही मन:स्थिति की दुरुस्त तस्वीर हासिल करने के लिए आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण के तहत 24 से 34 साल के पुरुषों से महिलाओं के प्रति, खासतौर पर महिलाओं के साथ यौन संबंधों की बाबत, ढेरों सवाल पूछे गए। ऐसे में एक सवाल मौजूं है कि आखिर इस यौन सर्वेक्षण का मकसद क्या है। जवाब है, इस आयु वर्ग की यौन संबंधी बदलती सोच करवट लेते भारत के लिए खास मायने रखती है। जाहिर है, यही तबका आने वाले भारत की संतति और गढ़ते समाज के सामाजिक मूल्यों को नए सिरे से परिभाषित करने जा रहा है। खास बात तो यह है कि इस सर्वेक्षण में उन युवाओं की बदलती मानसिकता को समझने की कोशिश की गई है जो समाज की चकाचौंध के हिस्से नहीं हैं। जो मेहनती सफेदपोश हैं और जिनकी तस्वीरें सड़कों के किनारे खड़े दानवाकार होर्डिंग्स में नहीं झलकती। जो गलियों में चाय की दुकान चलाते हैं, ट्यूशन पढ़ा कर परिवार चलाते हैं। यूं कहें कि रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी-छोटी ख्वाहिशों को हासिल करने के लिए जी भर मशक्कत करते हैं। थक कर सो जाते हैं। इसके बावजूद सपने देखते हैं, दबाते-सकुचाते समाज की बाबत बेहतरीन समझ रखते हैं। सर्वेक्षण में शामिल युवा यह भी बताते हैं कि परंपरागत समाज के मूल्यों की चहारदीवारी में कहां और किस हद तक दरकन पैदा हो चुकी है। मूल्यों में इन परिवर्तनों की स्वीकृति के मानक क्या हैं? कोई विवाद नहीं कि सर्वेक्षण में शामिल आयु वर्ग के युवा पुरुष बदलते भारत में शहरीकरण के विस्फोट के बीच परिपक्व हुए हैं। उन्होंने परंपरागत सामाजिक मूल्यों को ढहते और रिश्तों की परिभाषा को नया अर्थ पाते हुए देखा और महसूस किया है। इनके पास निजस्वता है। जानकारी के लिए, सर्वेक्षण देश के दस शहरों में हुआ पर हम आंकड़े और नतीजे उन चार मुख्य शहरों के दे रहे हैं जो हिंदी मानस के राज्यों में स्थित हैं। इनमें परिवर्तन और जकडऩ की कसक कहीं ज्यादा तीखी है। कहावत है कि सिर्फ शहर ही नहीं बदलते, इंसान भी बदलते हैं। यह बात झलकती है इंसानी रिश्तों में। सर्वेक्षण नतीजे बताते हैं कि बदलाव की यह बयार अब सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं रही, जमीनी स्तर पर भी रिश्तों के प्रति सोच में परिवर्तन साफ नजर आ रहा है। खासतौर पर पुरुष और स्त्री के रिश्तों में, यौन संबंधों में। एक परंपरावादी समाज में बदलाव की इस बयार का रुख साफ होने जा रहा है आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण में।
यौन सर्वेक्षण कैसे, कहां और किनके बीच
आउटलुक पत्रिका ने प्रमुख शोध संगठन एमडीआरए के साथ मिलकर गुडग़ांव, चंडीगढ़, लखनऊ, अहमदाबाद, पटना, नागपुर, गुवाहाटी, हैदराबाद, बेंगलुरू और कोच्चि शहर के 24 से 34 साल की उम्र वाले आधुनिक और शिक्षित शहरी पुरुषों के बीच यौन सर्वेक्षण किया। मुकम्मल नतीजे पाने के लिए एस-3 नियम का कड़ाई से पालन किया। एस-3 यानि नमूने का आकार , फैलाव और चयन । नतीजों में आग्रह न दिखे, इसके लिए लक्षित वर्ग के बीच से औचक तौर पर नमूने उठाए गए। लक्षित वर्ग के पुरुषों से सवाल पूछने के लिए टीम के सदस्यों को खासतौर पर प्रशिक्षित किया गया और सवालों के जवाब आमने-सामने की बातचीत से जुटाए गए। सर्वे अभियान 14 से 23 नवंबर 2009 के बीच इन शहरों में चला। नतीजतन हमें गैरमहानगरीय शहरों के पुरुषों की सोच की व्यापक तस्वीर हासिल हो सकी। सर्वे में 24 से 27 वर्ष के शामिल शहरी पुरुषों का प्रतिशत 31.2, 28 से 30 उम्र के 30.6 और 31 से 34 आयु वर्ग के 38.2 है। इनमें संयुक्त परिवार के 65.5 और एकल परिवार के 34.5 फीसदी पुरुष थे। सर्वे की व्यापकता को विस्तृत करने के लिए इन पुरुषों में से 64.2 फीसदी शहरी युवा ऐसे थे जिनकी कोई संतान नहीं थी वहीं 33 फीसदी पुरुष एक से दो बच्चों के पिता थे। जबकि दो संतानों से अधिक वाले पुरुषों का प्रतिनिधित्व 2.8 फीसदी रहा। वहीं, पत्नी के साथ रह रहे शादीशुदा पुरुषों का प्रतिनिधित्व इस सर्वे में 48.9, शादीशुदा पर एकाकी रह रहे शहरी पुरुष 3.8 फीसदी अविवाहित पर एक महिला दोस्त के प्रति समर्पित 17.7 फीसदी शहरी पुरुष और अविवाहित एवं बिना महिला दोस्त के पुरुषों का प्रतिनिधित्व 29.6 है। बावजूद सभी सावधानियों के सर्वे के नतीजों में +2.97 फीसदी की त्रुटि संभव है।
(साभार)
Delhi |