अपने आसन से वंचित देवता की चीखें

Posted By Geetashree On 2:04 AM 14 comments

सभी दोस्तो के नाम....ये किसी एक को संबोधित नहीं है। ना ही मेरा व्यक्तिगत प्रलाप है। मेरे लेखों का मेरी निजी जिंदगी की झुंझलाहट से क्या लेना देना..मेरे बारे में बताने के लिए ब्लाग में दिया गया परिचय और मेरा पेशा ही काफी है। मैं जागरुक पत्रकार हूं, आजाद ख्याल स्त्री हूं..सजग हूं..नागरिक हूं..अपने आसपास हो रही घटनाओ पर पैनी निगाह रखती हूं...। मेरी राय कोई अंतिम सच नहीं,,असहमति जताई जा सकती है, मगर दायरे में रह कर। मुनवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ चुकी हैं। आधुनिक समाज का उनसे कोई लेना देना नहीं...मगर अभी भी जहां ये लागू है मैं उस पर चोट करती हूं तो कुछ लोगो की चीख निकल जाती हैं। क्यों, ये मनुबाबा जानें, जिन्हे लोग भगवान मानने का भ्रम पाले बैठे हैं।

जिसे लोग मनु भगवान कहते हैं और जिनकी मनु-स्मृति से कुछ उदाहरण उठाए गए हैं स्त्रियों का मुंह बंद कराने के लिए..मैं उसी में से कुछ नायाब मोती चुन चुन कर आज पेश करने जा रही हूं..उम्मीद है मनु बाबा के अनुयायी इससे इनकार नहीं करेंगे। आखिर मनु भगवान लिखित दस्तावेज जो सौंप गए है..तो सुनिए...
मनु ने स्त्रियों के संबंध में जो व्यवस्था दी है उसे आगे चलकर याज्ञवल्क्य, अत्रि, वशिष्ठ, विष्णु, कण्व, गौतम, प्रजापति, बोधायन, गोभिल, नारद, प्रचेता, जाबालि, शौनक, उपमन्यु, दक्ष, कश्यप, शांदिल्य, कात्यायन, पराशर आदि आदि सभी स्मृतिकारों ने समर्थन किया है। मनु के अनुसार स्त्रियों के कोई भी संस्कार वेदमंत्र द्वारा नहीं होते , क्योंकि इन्हें श्रुति-स्मृति का अधिकार नहीं है। ये निरेंद्रियां(ज्ञानेंद्रिय विहीन यानी अज्ञान), अमंत्रा,(पाप दूर करने वाले जप-मंत्रों से रहित) हैं। इनकी स्थिति ही अनृत अर्थात मिथ्या है। मलतब ये कि स्त्री की अपनी स्वतंत्र सत्ता या स्वतंत्र स्थिति है ही नहीं। (शलोक न.24)
अगला देखें...स्त्रियों के लिए पृथक कोई यज्ञ नहीं है न व्रत है, न उपवास। केवल पति की सेवा से ही उसे स्वर्ग मिलता है। जप, तपस्या, तीर्थ,-यात्रा, संन्यास-ग्रहण, मंत्र-साधन और देवताओं की आराधना इन छह कर्मो को करने से स्त्री और शूद्र पतित हो जाते हैं।
जिस स्त्री की तीर्थ में स्नान करने की इच्छा हो उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिए। (25-26-27)
मनु के अनुसार स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं। उसे कौमार्यावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के और वृदावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए।(28)
मनु के अनुसार स्त्री का पति दुशील,कामी, तथा सभी गुणों से रहित हो तो भी एक साध्वी स्त्री को उसकी सदा देवता के समान सेवा व पूजा करनी चाहिए। (5/154)
लेकिन एसी स्त्रियों के लिए मनु का सुझाव है---अपराध करने पर स्त्री को रस्सी या बांस के खप्पचे से पीटना चाहिए। (35)
पति के मर जाने पर स्त्री यदि चाहे तो केवल पुष्पो, फलो एवं मूलो को ही खाकर अपने शरीर को गला दे। किंतु उसे किसी अन्य व्यक्ति का नाम भी नहीं लेना चाहिए। मृत्युपर्यन्त उसे संयम रखना चाहिए, व्रत रखने चाहिए, सतीत्व की रक्षा करनी चाहिए और पतिव्रता के सदाचरण एवं गुणों की प्राप्ति की आकांक्षा करनी चाहिए। (5/157-160)

देखिए...मनु-समृति भरा पड़ा है..स्त्रीविरोधी श्लोको से...कितना उदाहरण दूं। मैं यहां मनु-समृति का पुनर्लेखन या पुर्नपाठ नहीं करना चाहती। जिसे पढ कर उबकाई आए, खून खौले और जिसकी प्रतियां जला देने का मन करें उसके बारे में लंबी चर्चा कैसे करुं। मुझे मजबूरन इतना अंश यहां डालना पड़ा क्योंकि प्रतिक्रिया में कई अनुकूल श्लोको का उदाहरण दिया गया है। मैं तो गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं चाहती थी। ना ही इतिहास के बोझ से दबी हुई स्त्री की हिमायती हूं। हमने सारे बोझ उतार फेंके हैं। मैंने अपने पोस्ट में जरा सी ज्रिक भर किया था कि लोग बाग तिलमिला उठे। मैंने छुआ भर...याद दिलाने के लिए। मनु-स्मृति स्त्री और दलितों के एसे कमजोर नस को छूता है कि चर्चा भर से आग भभक उठती है। आप जिसे भगवान कहते हैं, हम उसे घोर-स्त्री विरोधी मानते हैं, दलित विरोधी भी। यहां हमारी लड़ाई एकसी हो जाती है। हमारी नजर में ये कथित हिंदुवादियों का वो भगवान है जो अपने आसन से चूक गया। अब उसके लिखे की कौन परवाह करे। मनु-व्यवस्था को ठेंगा दिखाती हुई स्त्रियां हजम नहीं हो रही हैं इन्हे। क्या करें..।

अब बात कर लें उन श्लोको की जिनके सहारे हिंदू समाज अपनी पीठ थपथपाता है। जिनका हवाला प्रवीण जी ने दिया है और बाकी पुरुष साथियों का वाहवाही लूटी है। ताली बजाने से पहले बेहतर होता कि अपने भगवान की कृति पढ लेते। जिस पर हिंदू समाज ताली बजाता है उसकासच क्या है जानना चाहेंगे। बताती हूं...किसी पुरुष लेखक के लेखन के हवाले से..। डां अमरनाथ स्त्रीवादी लेखक है..उनका शोध ग्रंथ है--नारी का मुक्ति-संर्घष। उसमें वे मनु बाबा के सबसे ताली बजाऊ और चर्चित श्लोक, जिसमें मनु ने लिखा है, जहां नारियो की पूजा होती है वहां देवता निवास....। इसकी कलई खोलते हुए अमरनाथ लिखते हैं...यह एकमात्र श्लोक है जिसे मनु ने ना जाने किस मनस्थिति में लिखा था और जिसके बल पर धर्मभीरु हिंदूसमाज अपने अतीत पर गर्व करता है। इसकी पृष्ठभूमि पर विचार करना जरुरी है। मनु ने (9/5-9, 9/10-12) स्त्री रक्षा की कई बार चर्चा की है और कहा है कि स्त्री को वश में रखना शक्ति से संभव नहीं है, उसे बंदी बना कर वश में रखना कठिन है, इसलिए पत्नी को निम्नलिखित कार्यो में संलग्न कर देना चाहिए, यथा-आय-व्यय का ब्यौरा रखे, कुर्सी-मेज(उपस्कर) को ठीक करना, घर को सुंदर और पवित्र रखना, भोजन बनाना आदि। उसे(पत्नी) को सदैव पतिव्रत धर्म के विषय में ही बताना चाहिए। इन उपक्रमों से स्त्री का ध्यान इन घरेलु कार्यों में लगा रहेगा और बाहरी दुनिया से वह कटी रहेगी। रस्सी या बांस के खपच्ची से मारना वश में करने का अंतिम उपाय है। अमरनाथ लिखते है----मनु का एकमात्र लक्ष्य स्त्री को पूरी तरह अंकुश में रखना है। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद, हर तरीके के इस्तेमाल का वे सुझाव देते हैं। परंतु प्रेम से, फुसलाकर और सम्मान देकर स्त्री को वश में रखा जा सके तो सर्वोतम है।
क्या हम अपनी दुधारु गाय को प्यार से नहीं सहलाते, क्या आज का मध्यवर्गी.समाज अपने कुत्ते को प्यार से स्नान नहीं कराता, खाना नहीं देता...गोद में नहीं उठाता, घुड़सवार अपने घोड़े पर, किसान अपने बैल पर, धोबी अपने गधे पर चाबुक जरुर चलाता है पर उसकी पीठ भी सहलाता है। जरुरत पड़ने पर उसे प्यार भी देता है। मनु द्वारा स्त्री को दिया गया सम्मान ठीक इसी तरह किसान द्वारा अपनी दूधारु गाय को दिए जानेवाले सम्मान की समान है।
उम्मीद है बहुत हद तक मुन की चाल समझ में आई होगी। कार्ल मार्क्स ने शायद इसीलिए धर्म को अफीम कहा है। हमारे धर्माचार्यों ने स्त्रियों के मामले में हमारे समाज को धर्म का एसा नशा खिलाया कि उसका नशा आज तक नहीं उतरा है।

विनीत का पत्र प्रवीण के नाम

Posted By Geetashree On 10:16 PM 3 comments

प्रवीण जी,
स्त्री-मुक्ति को लेकर गीताश्री जो भी कह रही हैं,उसे आप उनकी व्यक्तिगत झुंझलाहट और विचार समझ रहे हैं,ये अकेला वाक्य आपके बौद्धिक दायरे को साबित करने के लिए काफी है। गीताश्री क्या देश और दुनिया की कोई भी स्त्री,स्त्री-मुक्ति के स्वर को मजबूत करनेवाला कोई भी पुरुष वही सोचगा,कहेगा जो कि गीताश्री कह रही हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि स्त्रियों को लेकर होनेवाली बहसों को आप बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे हैं। दूसरा कि मनु(आपके हिसाब से भगवान मनु)के श्लोकों का जो हवाला दे रहे हैं,क्या एक स्त्री की दशा को देखने-समझने विश्लेषित करने औऱ उससे बेहतर होने की सारी विचारणा मनुस्मृति से ही ली जाएगी। क्या इसके आगे मुक्ति की कोई भी खिड़की नहीं खुलती? आप इस मसले पर थोड़ी कोशिश तो कीजिए,आपको अंदाजा लग जाएगा कि मनुस्मृति का क्या स्वर है,वो स्त्रियों को शामिल करते हुए भी किस तरह का समाज चाहते हैं?यत्र नारी पूज्यन्ते का हवाला दिया,व्यक्तिगत स्तर पर मुझे इस बात का रत्तीभर भी भरोसा नहीं है,इसके कई कारण हैं,इसके विस्तार में न भी जाउं तो सिर्फ दो बातें कहना चाहूंगा। एक तो ये हम स्त्री को देवी के रुप में देखने औऱ साबित करने में इतने उतावले नजर क्यों आते हैं? पुरुष इच्छा पर स्त्री को देवी या तो फिर दासी ये दो किस्म का ही दर्जा क्यों देते हैं? आप एक स्त्री पर घर के बरामदे में हुक्म जमाते हैं,रसोई में उसके हाथ जलने की परवाह किए 365 दिन करारी रोटी की डिमांड करते हैं,दिनभर की थकी-हारी होने पर भी रात गहराते ही उसके शरीर से अपने भीतर की कामेच्छा को शांत करते हैं। जब आप एक स्त्री के साथ ये सब कुछ करते हैं तो क्या आप उस स्त्री को देवी के तौर पर मानकर ऐसा कर रहे होते हैं? क्या आपका धार्मिक कठमुल्लापन इस बात की इजाजत देता है कि आप स्त्री को देवी मानते हुए उसके साथ संभोग करें। अच्छा,आप किसी दासी के साथ शारीरिक संबंध बनाने,चकरी की तरह अपने आगे-पीछे घुमाने में यकीन रखते हैं। मुझे नहीं लगता कि इन दोनों स्थितियों में ऐसा करना चाहेंगे। मेरा कहना सिर्फ इतना भर है कि जब आफ अपने जीवन में देवी और दासी से हटकर,हांड-मांस की स्त्री के साथ संभोग करने से लेकर संवेदना,भावुकता,सामाजिक लोकाचार औऱ भी दुनियाभर की चीजों के स्तर पर जुड़ते हैं तो उस स्त्री को लेकर बात करने का स्पेस आफ क्यों खत्म करना चाहते हैं। नागरिक समाज में एक स्त्री नागरिक की हैसियत से जीती है औऱ उसको अधिकार है कि वो अपने उपर होनेवाले अत्याचारों,शोषण,भेदभाव और उत्पीड़न से जुड़ी बातों को हमारे सामने रखे। यहां ये साफ कर दूं कि हर स्त्री के साथ पुरुषों द्वारा शोषण और भेदभाव का स्तर वही नहीं होता जिसे आप अपका महान ग्रंथ या तो समझ नहीं पाता या फिर जो अखबारी बयान के अन्तर्गत नहीं आता। इसमें कई बारीकियां हैं,कई महीन विभाजन है।आप हमें मनु की इकॉनमी समझा रहे हैं। मन की तो बात छोड़ दीजिए और पुरुषों के कमाए धन को स्त्री की झोली में लाकर डाल देने की बात भी मत कीजिए। आप हमें सिर्फ इतना भर बता दीजिए कि इतना सबकुछ होने के वाबजूद भी क्या स्त्री अपनी इच्छा से,अपनी सुविधा और जरुरत के हिसाब से अपनी ही हड्डी बजाकर कमाए गए पैसों को खर्च करने के लिए आजाद है। सच्चाई तो यही है कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों द्वारा अर्जित पैसों से स्त्री को साज-सिंगार की थोड़ी-बहुत छूट भले ही दे दे,गृहस्थी चलाने की छूट भले ही दे दे(ये दोनों बातें अंततः उसके हित में ही जाते हैं) लेकिन इसके बीच से अपनी दशा सुधारने का किसी भी रुप में समर्थन नहीं करता। शायद आपको इस बात का अंदाजा नहीं कि जब अपने यहां स्त्री-मुक्ति का एक सिरा आर्थिक निर्भरता के तौर पर खोजा जाने लगा तो कुछ मामलों पर तो ये फार्मूला फिट हो गया लेकिन बहुत जल्दी औऱ ज्यादातर मामलों में स्त्रियों पर दोहरी जिम्मेदारी,लांछन और अर्जित धन पर उसके बेदखल होते रहने के मामले बने। कभी आप इसकी वजहों पर गौर करेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि आप ही की तरह के लोग स्त्री-मुक्ति के सवाल को देवी जैसी भावुकतावादी अवधारणा की ओर धकेलने के हिमायती रहे हैं और व्यवहार के स्तर पर दासी से भी बदतर व्यवहार करने के अभ्यस्त रहे हैं।कहना सिर्फ इतना है कि एक स्त्री को चाहे देवी के आसन पर बिठाया जाए,चाहे जलती हुयी सिगरेट उसके शरीर में घुसेड दिए जाएं,इसमें बहुत अंतर नहीं है,दोनों ही स्त्री को कमजोर करने की साजिश और हरकतें हैं इसलिए आप जैसे लोगों से इतनी भर अपील है कि स्त्री-मुक्ति औऱ बेहतरगी के लिए आरती उतारने के बजाए मानव अधिकारों औऱ संभव हो संविधान के पन्ने पलटने शुरु कर दें क्योंकि बिना इसके भय के आप सोशल इंजीनियरिंग के तहत,बहस और विमर्शों के हवाले से स्त्री-मुक्ति की बात समझने से रहें। उसके बाद आप गीताश्री से बहस करें तब आपकी बातों को मानने,न मानने की गुंजाइश पैदा होगी।
विनीत कुमार

प्रवीण शुक्ल जी की प्रतिक्रिया

Posted By Geetashree On 2:13 AM 9 comments

मेरे ताजा पोस्ट नख दंत विहीन नायिका का स्वागत... को लेकर प्रवीण जी की प्रतिक्रिया यहाँ पोस्ट कर रही हूं..। मैं इसका जवाब देना चाहती हूं। जिस मनुस्मृति का हवाला इन्होंने दिया है, उसी के चुनिंदा श्लोक यहां सामने रख कर कुछ सवाल उठाना चाहती हूं..मेरे पोस्ट पर हमेशा मिली जुली प्रतिक्रियाएं आती रही हैं, जिनका मैं दिल से स्वागत, सम्मान करती हूं, कई बार जरुरी लगा कि उनका उत्तर दिया जाना चाहिए। किसी कारणवश ठिठक जाना पड़ा..प्रवीण जी के विरोध के खुले दिल से स्वागत करते हुए जवाब हाजिर करुंगी इस पोस्ट के बाद.. गीताश्री

गीता जी, विरोध दर्ज करा रहा हूँ । मै आपकी हर पोस्ट पढता हूँ और नयी पोस्ट का इन्तजार रहता है ,,विचार नहीं मिलते और आपकी बातों से सहमत नहीं होता सो तिप्पणी नहीं करता। विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है , पर विचार वैचारिकता की श्रेणी में ही हो तो ज्यादा ही अच्छे लगते है , परन्तु जब किसी के किसी निजी विचार से किसी की व्यक्तिगत ,संस्कृति ,सभ्यता या परम्पराओं का अपमान हो , तो वे निजी विचार भारी विवाद का कारण बनते है। आप के इस लेख से मै आहत हुआ । स्त्री पुरुष समंधो के बारे में जो आप लिखती है मुझे नहीं पता उसका उद्देश्य क्या है (प्रसिद्धि या फिर कोई पूर्वाग्रह या झुंझलाहट ) परन्तु मैं उसे आप की निजी अभिव्यक्ति मानता हूँ। आज जो आप ने भगवान् मनु को लेकर लिखा है ( मुझे नहीं पता की आप ने मनु-स्मृति पढ़ी है या नहीं ) उसमे मै अपना विरोध दर्ज कराते हुए मनु-स्मृति के दो चार श्लोको का अर्थ यहां पर रखूंगा।

स्त्रियों के बारे में भगवान् मनु क्या सोच रखते थे यह एक श्लोक से ही सिद्ध हो जाता है--यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र देवताः। यत्रेतः तू न पूज्यन्ते सर्वा त्रता पद क्रिया (मनु स्मरति अध्याय २ श्लोक ५६ ) अर्थात : जहा नारियों का सम्मान होता है वहा देवता (दिव्य गुण ) निवास करते है, और जहां इनका सम्मान नहीं होता है , वहां उनकी सब क्रियायें निष्फल होती है। समाज में स्त्रियों की दशा बहुत उच्च थीं, उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। आर्थिक मामलो की सलाहकार और समाज-व्यवस्था को निर्धारित करने में भी स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्हें भाग्योदया कहा जाता था,,प्रजनार्थ महाभागः पूजार्हा ग्रहदिप्तया। स्त्रियः श्रियस्च गेहेषु न विशेषो स अस्ति कश्चन (मनु स्मरति अध्याय १ श्लोक २६अर्थात :संतान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्य उदय करने वाली आदर सम्मान के योग्य है स्त्रिया , शोभा लक्ष्मी और स्त्री में कोई अंतर नहीं ये घर की प्रत्यक्ष शोभा है।

ये है हमारी संस्कृति। आज कल जो कथित प्रगतिवादी स्त्रियां और कुछ पुरुष भी भारतीय समाज को पुरुष पोषक समाज और धर्म को पुरुष पोषक धर्म बताते है, कहते है पुत्र और पुत्री में समानता नहीं है और इस अव्यवस्था के लिए भगवान् मनु को दोषी ठहराते है वहीं भगवान् मनु मनु-स्मृति में कहते है ...
पुत्रेण दुहिता समाः अर्थात : पुत्री पुत्र के समान ही होती है। इतना ही नहीं भगवान् मनु तो पिता की संपत्ति में पुत्रियों के समान अधिकार की भी बात करते है। वो कहते है...अविशेषेण पुत्राणाम दायो भवति धर्मतः। मिथुनानां विसर्गादौ मनु स्वयम्भुवो Sब्रवीत (मनु-स्मृति, अध्याय ३ श्लोक १४ ) ।

नख दंत विहीन नायिका का स्वागत है....

Posted By Geetashree On 8:37 PM 9 comments

शक्ति की पूजा-आराधना का वक्त आ गया है। साल में दस दिन बड़े बड़े मठाधीशों के सिर झुकते हैं..शक्ति के आगे। या देवि सर्वभूतेषु....नमस्तस्ये..नमो नम...। देवी के सारे रुप याद आ जाते हैं। दस दिन बाद की आराधना के बाद देवी को पानी में बहाकर साल भर के लिए मुक्ति पा लेने का चलन है यहां। फिर कौन देवी...कौन देवी रुपा.
ये खामोश देवी तभी तक पूजनीय हैं, जब तक वे खामोश हैं...जैसे ही वे साकार रुप लेंगी, उनका ये रुप हजम नही होगा..कमसेकम अपनी पूजापाठ तो वे भूल जाएं।
आपने कभी गौर किया है कि शक्ति की उत्पति शक्तिशाली पुरुष देवों के सौजन्य से हुई है। इसमें किसी स्त्री देवी का तेज शामिल नहीं है। शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से मस्तक के केश, विष्णु तेज से भुजाएं, चंद्रमा के तेज से स्तन, इंद्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी(यहां अपवाद है) के तेज से नितंब, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पैरों की उंगलियां, प्रजापति के तेज से सारे दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौंहें, वायु के तेज से कान तथा अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न भिन्न् अंग बनें....।
कहने को इनमें तीन स्त्रीरुप हैं..अगर उनके पर्यायवाची शब्द इस्तेमाल करें तो वे पुरुषवाची हो जाएंगे। इसलिए ये भी देवों के खाते में...। ये पुरुषों द्वारा गढी हुई स्त्री का रुप है, जिसे पूजते हैं, जिससे अपनी रक्षा करवाते हैं, और काम निकलते ही इस शक्ति को विदा कर देते हैं। इन दिनों सारा माहौल इसी शक्ति की भक्ति के रंग में रंगा है...जब तक मू्र्ति है, खामोश है, समाज के फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करती तब तक पूजनीया है। बोलती हुई, प्रतिवाद करती हुई, जूझती, लड़ती-भिड़ती मूर्तियां कहां भाएंगी।
हमारी जीवित देवियों के साथ क्या हो रहा है। जब तक वे चुप हैं, भली हैं, सल्लज है, देवीरुपा है, अनुकरणीय हैं, सिर उठाते ही कुलटा हैं, पतिता हैं, ढीठ हैं, व्याभिचारिणी हैं, जिनका त्याग कर देना चाहिए। मनुस्मृति उठा कर देख लें, इस बात की पुष्टि हो जाएगी।
किसी लड़की की झुकी हुई आंखें...कितनी भली लगती हैं आदमजात को, क्या बताए कशीदे पढे जाते हैं। शरमो हया का ठेका लड़कियों के जिम्मे...।
शर्म में डूब डूब जाने वाली लड़कियां सबको भली क्यों लगती है। शांत लड़कियां क्यों सुविधाजनक लगती है। चंचल लड़कियां क्यों भयभीत करती हैं। गाय सरीखी चुप्पा औरतों पर क्यों प्रेम क्यों उमड़ता है। क्योंकि उसे खूंटे की आदत हो जाती है, खिलाफ नहीं बोलती, जिससे वह बांध दी जाती है। जिनमें खूंटा-व्यवस्था को ललकारने की हिम्मत होती है वे भली नहीं रह जाती। प्रेमचंद अपनी कहानी नैराश्यलीला की शैलकुमारी से कहलवाते हैं..तो मुझे कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊं...।
आगे चलकर से.रा.यात्री की कहानी छिपी ईंट का दर्द की नायिका घुटने टेकने लगती है--हम औरतों का क्या है। क्या हम और क्या हमारी कला। हमलोग तो नींव की ईंट हैं, जिनके जमीन में छिपे रहने पर ही कुशल है। अगर इन्हें भी बाहर झांकने की स्पर्धा हो जाए तो सारी इमारत भरभरा कर भहरा कर गिर पड़े।...हमारा जमींदोज रहना ही बेहतर है .....।
लेकिन कब तक। कभी तो बोल फूटेंगे। बोलने के खतरे उठाने ही होंगे। बोल के लब आजाद हैं तेरे...। कभी तो पूजा और देवी के भ्रम से बाहर आना पड़ेगा। अपनी आजादी के लिए शक्ति बटोरना-जुटाना जरुरी है।
ताकतवर स्त्री पुरुषों को बहुत डराती है।
जिस तरह इजाडोरा डंकन के जीवन के दो लक्ष्य रहे है, प्रेम और कला। यहां एक और लक्ष्य जो़ड़ना चाहूंगी...वो है इन्हें पाने की आजादी। यहां आजादी के बड़े व्यापक अर्थ हैं। पश्चिम में आजादी है इसलिए तीसरा लक्ष्य भारतीय संदर्भ में जोड़ा गया है। एक स्त्री को इतनी आजादी होनी चाहिए कि वह अपने प्रेम और अपने करियर को पाने की आजादी भोग सके। यह आजादी बिना शक्तिवान हुए नहीं पाई जा सकती। उधार की दी हुई शक्ति से कब तक काम चलेगा। शक्ति देंगें, अपने हिसाब से, इस्तेमाल करेंगे अपने लिए..आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब झर गईं आपकी चाहतें। ज्यादा चूं-चपड़ की तो दुर्गा की तरह विदाई संभव है। सो वक्त है अपनी शक्ति से उठ खड़ा होने का। पीछलग्गू बनने के दिन गए..अपनी आंखें..अपनी सोच..अपना मन..अपनी बाजूएं...जिनमें दुनिया को बदल देने का माद्दा भरा हुआ है।
इस बहस का खात्मा कुछ यूं हो सकता हैं।
सार्त्र से इंटरव्यू करते हुए एलिस कहती है कि स्त्री-पुरुष के शक्ति के समीकरण बहुत जटिल और सूक्ष्म होते हैं, और मर्दो की मौजूदगी में औरत बहुत आसानी से उनसे मुक्त नहीं हो सकती। जबाव में सार्त्र इसे स्वीकारते हुए कहते हैं, मैं इन चीजों की भर्त्सना और निंदा करने के अलावा और कर भी क्या सकता हूं।

औरत के विऱुद्ध औरत

Posted By Geetashree On 5:18 AM 9 comments

सास बहू से परेशान है, बहू सास से..ये कोई नई बात तो है नहीं। ये सिलसिला प्रेम की तरह ही आदिकालीन है। रिश्ते के साथ साथ ही उसकी जटिलताएं भी पैदा होती हैं। आप लोकगीतो को सुने, लोककथाएं सुने..हरेक जगह आपको सास-बहू रिश्तों की जटिलता का महागान सुनाई देगा। पिछले कई दिनों से एक खबर को मैं सिर्फ इसलिए नजरअंदाज कर रही थी कि उस पर लिखना अपने ही विरुध्द होना है। लेकिन जब बार बार कोई चीज एक ही रुप धर कर सामने आ जाए तो क्या करें। रहा नहीं गया। बहुत सोचा..किसी विचारक, किसी समाजशास्त्री की तरह...शायद उनकी तरह विचार ना कर पाऊं..मगर अपनी तरह, जरुर सोच सकती हूं।

पुरुषों की तरफ से उछाला गया एक बहुत पुराना जुमला है...औरत ही औरत की दुश्मन होती है। एसा कहकर हमेशा वे अपनी भूमिका से औरतों का ध्यान बंटाते रहे हैं।बल्कि घरेलु मामलों में तो बाकायदा औरत के खिलाफ औरत को इस्तेमाल करने का खेल खेलते रहे हैं हमेशा से। एक औरत को दूसरी से भिड़ाने की कला में माहिर पुरुषों को आनंद आ रहा होगा कि घर का झगड़ा लेकर उनकी औरतें सड़क पर घर की दूसरी औरत के खिलाफ खड़ी हो गई है। उनके चेहरे सास जैसे हैं और हाथों में नारों से पुती तख्तियां। वे अपनी बहुओं के खिलाफ खड़ी है।

सासो ने अब अपना यूनियन बना लिया है। देशभर की लगभग 700 परेशान सासो ने मिलकर आल इंडिया मदर्स-इन ला प्रोटेक्शन फोरम( एआईएमपीएफ) बना लिया है और अब बहू से उसी मंच से मोर्चा लेने को तैयार हैं। लगता है ये हारी हुई औरतो का फोरम है जो जंग जीतने के दावपेंच सीखने के लिए तैयार किया गया है। फोरम कार्डिनेटर नीना धूलिया ने कई अखबारों में बयान दिया है कि कई प्रताड़ित सांसे लंबे समयसे एक दूसरे के संपर्क में थीं। अब उन्हें हमने एक मंच दे दिया है। सास की इमेज इस कदर खराब कर दी गई है कि बहुओं की शिकायत पर पुलिस और समाज सास को ही दोषी मानता है।
टीवी में भी इन्हें वीलेन दिखाया जा रहा है, जबकि जीवन में सासें ज्यादा प्रताड़ित हो रही हैं। धूलिया को महिला आयोग से भी शिकायत है...कहती हैं, वह बहुओं का आयोग बन कर रह गया है। हम चाहते हैं कि आयोग सास की भी शिकायत सुनें, जिस तरह से बहुओं की सुनता है। इस फोरम ने हाल ही में हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का हवाला देता है जिसमें कहा गया है कि लड़कियां ससुराल से ज्यादा मायके में हिंसा का शिकार होती हैं। 15-49 साल की महिलाओं के बीच हुए सर्वे के मुताबिक 13.7 प्रतिशत महिलाएं अपनी मां से और 1-7 प्रतिशत अपनी सास के जरिए हिंसा का शिकार बनती हैं।

फोरम का तर्क है कि वैज्ञानिक रुप से तय हो चुका है, आंकड़े साबित कर रहे हैं कि सासो को बेवजह बदनाम किया जा रहा है। असल जिंदगी में तो सासें ही पीड़ित हैं...जो सबकुछ चुपचाप सहन कर ले रही हैं।
एकबारगी में आपको ये लग सकता है कि ये मामला सीधे सीधे सासो की छवि बदलने की मंशा से जुड़ा है। नहीं...मामला इतना सीधा नहीं है। इसकी तह में जाएं..फोरम का उद्देश्य भांपिए। इनका अगला कदम दहेज कानून और घरेलु हिंसा कानून में बदलाव के लिए होगा। ये है असली मकसद। बहुओं को सताने, जलाने, घर से निकालने में सबसे आगे आगे रहने वाली सासों को भी पकड़े जाने पर जेल-यात्रा करनी पड़ती है, पुरुष के साथ साथ। जब पुरुष बहू को दबोचता है तब उसके उपर मिट्टी तेल कौन डालता है, कौन है जिसकी उंगलियों से आग की चिंगारी निकलती है..जिसमें एक जिंदा मासूम लड़की जल कर भस्म हो जाती है।

कौन है जो बहू के घर आने पर दहेज का सामान गिनती है और कम पाने पर सात पुश्तों को कोसती है। कौन है जो बेटे की पसंद की औरत को जीवन भर मन से स्वीकार नहीं पाती और उस औरत के रुप में अपनी हार मानती रहती है।

कौन है वो, जो बहू पर सबसे पहले ड्रेसकोड लादती है। बेटी बहू के लिए घर में दो नियम लागू करती है।

कौन है वो जिसके आते ही बहू को अपना रुटीन और रवैया दोनों बदलना पड़ता है।

कौन है वो..बहू के घर में आते ही जिसकी तबियत कुछ ज्यादा ही खराब रहने लगती है और रोज रातको पैर दबवाए बिना नींद नहीं आती।
कौन है वो जिसे बहू आने के बाद अपनी सत्ता हिलती हुई दिखाई देती है। कौन से वे हाथ जो सबसे पहले लडकी के दुल्हन बनते ही उसके चेहरे पर घूंघट खींच देते हैं।

और कितनी ही बातें हैं...कहने सुनने वाली...कुछ याद है कुछ नहीं।

जिस सर्वे का सहारा लेकर फोरम की जमीन तैयार हुई है, उसमें मायके के उपर उंगली उठाने का मौका मिल गया है। मायके में लड़की को शादी से पहले का ज्यादा वक्त बीताने का मौका मिलता है। जाहिर हरेक तरह के अनुभव होंगे। मां कभी अपने बच्चों के प्रति हिंसा से नहीं भरी होती। उसके पीछे लड़की को सुघड़ बहू बनाने की मंशा होती होगी..अपना समाज लड़कियों को बोझ समझने वाला समाज है..लड़कियां तो दोनों जगह मारी जा रही हैं। अगर .ये सिलसिला लंबा है...तो क्या सासें कभी बेटी या बहू नहीं रही होंगी। खुद को उनकी जगह रख कर देखें। कैसे भूल जाती है अपने दिन..उनके साथ भी तो सा ही हुआ होगा। फिर वे इस व्यवस्था के खिलाफ क्यों नहीं उठ खड़ी होतीं।

वो तो भला जानिए कि इन दिनों बहूएं पति के साथ रहती हैं, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, कामकाजी हैं तो दूसरे शहर में हैं...कम मिलना होता है...प्रेम बचा हुआ है। एकल परिवार पर दुख मनाने वालों...साथ रहकर देखो...घर में दो अलग अलग फोरम की सदस्याएं जब टकराएंगी तब अपनी शामें किसी क्लब में या किसी महिला मित्र के साथ बैठ कर गम गलत करने का रास्ता तलाशते नजर आओगे। एसा नहीं कि इन दिनों सास-बहूएं साथ नहीं रहतीं। कई परिवार अभी साथ हैं..उनमें आपसी सामंजस्य भी अच्छा है। आपसी समझदारी हो तो मामला संगीन नहीं हो पाता। इस परिवार की बहू ना तो आयोग जाती है ना सास को किसी फोरम पर दहाड़ने की जरुरत पड़ती है।
ये सिर्फ शिगूफे के लिए बनाया गया संगठन है तो कोई बात नहीं...अपनी बेटी की सास को भी सदस्य
बनाने को तैयार रहें...
इस तरह के संगठन पुरुषों को मनोरंजन देते हैं और औरतो की लड़ाई को कमजोर करते हैं।
एक किस्सा हूं...एक ससुर महोदय ने अलग अलग घरों में रहने वाली दो बहुओं से एक ही सवाल पूछा और अलग जवाब पाए। सवाल था..इस घर की मालकिन कौन है, तुम या सासु-मां
छोटी बहू का सीधा जवाब-मैं हूं। यहां मैं रहती हूं, सासुमां जहां रहती हैं वे वहां की मालकिन हैं, मैं यहां रहती हूं....
इस सवाल जवाब से अनभिज्ञ बड़ी बहू से यही सवाल पूछा--सास की मौजूदगी दोनों जगह थी।
बड़ी बहू का जवाब--सासूमां हैं...वे जब तक यहां रहेंगी वह ही मालकिन, उनके जाने के बाद मैं...। जबाव दोनों सही...सोचिए कि कहां क्या हुआ होगा।

नहीं चाहिए घूंघट की आड़

Posted By Geetashree On 9:19 PM 12 comments

ये कहानी ज्यादातर घरों की है। मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी..जो शहर तो आ जाता है लेकिन खुद को शहरी चलन के हिसाब से ढाल नहीं पाता। आधुनिकता और पंरपरा के बीच पीसते हुए इस वर्ग की हालत दयनीय हो उठती है तब जब कोई लड़की या बहू अपने परिवार द्वारा थोपे गए रिवाजो के खिलाफ थाने में जा पहुंचती है।

ताजा घटना बताती हूं...दिल्ली से सटे एक उपनगर नोएडा की रहने वाली एक पढी लिखी बहू ने अपने ससुराल वालों की मानसिकता के खिलाफ नारा बुंलद कर दिया है..बेटी के जींस और बहू को घूंघट..नहीं चलेगा नहीं चलेगा...

जब घर वालों ने फरियाद नहीं सुनी तो बहू अपनी शिकायत लेकर थाने जा पहुंची। बहू ने शिकायत दर्ज कराई कि ससुराल वाले उसके साथ दोहरा रवैया अपना रहे है। (वैसे ये कोई नहीं बात नहीं), मानसिक उत्पीड़न कर रहे हैं, उसे किचन में भी घूंघट में रहना पड़ता है। जबकि उस घर की बेटियां जींस भी पहनती हैं। बहू के घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं मिलती। बहू होने के कारण उस पर जानबूझ कर रुढिवादी तौर तरीके थोपे जा रहे हैं। सिर से पल्लू सरक जाए तो ससुराल वाले गुस्सा हो जाते हैं। एक बार घूंघट के लेकर ससुराल वालों से कहा सुनी हो गई, बहू ने ससुराल छोड़ दिया और मायके वालों को साथ लेकर थाने पहुंच गई। पुलिस अधिकारी भी इस अजीबोगरीब शिकायत को लेकर पसोपेश में आ गए..फिर ससुराल पक्ष को थाने में बुलाया गया, दोनों पक्षों में देर तक बहस चली..आखिर में बहू के बेटी की तरह रखने के लिए ससुराल वाले सहमत हुए। पुलिस अधिकारी ने उन्हें दकियानूसी रवैया छोड़ने और नई व्यवस्था को लागू करने के लिए 10 दिन की मोहलत दी है।


ये टकराव रुढिवादी मानसिकता और आधुनिक समाज के बीच है। लड़की ने एमबीए किया है, फ्रेंच भाषा में डिप्लोमाधारक है, पढी लिखी आजाद खयाल की एक लड़की पर घूंघट के लिए दवाब बनाना बेहद हास्यास्पद है। यहीं नहीं...सुसराल वाले उसे पायल समेत तमाम सुहाग चिह्न धारण करने के लिए कहते हैं। साड़ी में लिपटी लड़की उन्हें बहू के रुप में चाहिए। जिस परिवार में बेटियां आधुनिक पोशाक पहने वहां एक पढी लिखी बहू से साड़ी और घूंघट की उम्मीद कितनी अजीब लगती है। ये किस दुनिया, समझ और समय में जीने वाले लोग हैं।


.ये लड़की तो हिम्मतवाली निकली जो सबक सिखाने पर आंमादा हो गई है। ना जाने कितनी बहूएं आज भी वही पोशाक पहन रही हैं जो ससुराल वाले तय करते हैं। आप उनके घरों में जाएं तो बेटी बहू का फर्क साफ साफ नजर आएगा। कलह के डर से कई आधुनिक बहूएं वहीं कर रही हैं जो उन पर थोपा जा रहा है। मैं तो अपने आसपास देखती हूं...मैं भी खुद को इनमें शामिल करती हुए बताती हूं कि जैसे ही किसी के सास-ससूर गांव से दिल्ली आने वाले होते हैं वैसे ही आधुनिक बहूंओं की पोशाके बदल जाती है..खाली हाथों में कांच की चूड़ियां पड़ जाती हैं और मांग में लाल लाल सिंदूर चमकने लगता है। कुछ डर से करती है, कुछ इसे बड़ो का लिहाज बताती हैं तो कुछ का तर्क होता है--अरे कितने दिन रहना है उन्हें.. तक हैं उनके हिसाब से जी लो..जाने के बाद तो मर्जी अपनी। कौन सा वे देखने आ रहे हैं। एक बहू है उनके ससुराल वालों को बहू के जींस पहनने से इतनी नफरत है कि बहू बेचारी जींस पहन कर खींची गई तस्वीरें भी उन्हें नहीं दिखाती। एक और बहू है...जिसके ससुराल वालों के बहू का नाइटी पहनना पसंद नहीं। जिस दिन बहू घर में आई, सासु मां फरमान लेकर पहुंची...तुम चाहे घूंघट मत करो, नाइटी मत पहनना, तुम्हारे ससुर जी को पसंद नहीं, उन्होंने मुझे और अपनी बेटियो तक को नहीं पहनने दिया। कामकाजी बहू ने फरमान सुनते सिर पीट लिया। क्या करती...एक नाइटी के लिए परिवार की शांति भंग नहीं की जा सकती ना। सो..नाइटी को वैसे छुपा दिया जैसे कोई अपना खजाना छुपाता है।


पता नहीं कितनी बातें, कहानियां, कुछ सच हैं जिन्हें जानकर रुढिवादी मानसिकता पर कोफ्त होती है। एसे मामलों में पता नहीं ससुराल वाले कितना बदलते हैं, लड़कियां बदल जाती है। वे बदलने क लिए ही पैदा जो होती हैं...

दिल्ली के आसपास जितने भी गांव हैं, वहां बुरा हाल है। शादी हुई नहीं कि सिर पर पल्लू। आप दिल्ली यूपी के शापिंग माल में एसा नजारा देख सकते हैं। हरियाणा में तो पल्लू अनिवार्य है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी घूंघट प्रथा कम नहीं है। दिल्ली में रहने वाली बिहारी बहूंएं जब अपने गांव जाती हैं तो ससुराल की सीमा शुरु होते ही सिर पर पल्लू डाल लेती हैं। चाहे वे कितनी पढी लिखी हों। ज्यादा पढी लिखी बहू ने घूंघट किया तो घर घर में उसकी प्रशंसा होती है और वो सबके लिए उदाहरण बन जाती है। घूंघट नहीं किया तो लड़कियों की पढाई और उनकी आजादखयाली को जम कर कोसा जाता है।

राजनीति में आने वाली बहूओं ने और बेड़ा गर्क कर रखा है। वोट पाने के लिए विदेशों में पढी लिखी, पेजथ्री पार्टी की शान बढाने वाली बहूंएं अचानक घूंघट अवतार में नजर आने लगती हैं। राजनीति की पाठशाला में आने से पहले उनके सिर पर पल्लू पड़ जाता है। उम्मीद की जाती थी कि नई लड़कियां इस चलन को बदलेंगी मगर कुछ तो बदलने का नाम ही नहीं ले रही। नतीजा...समाज का रवैया आसानी से कभी बदला है जो बदलेगा।

पिछले साल मैं महाराष्ट्र के दौरे पर गई थी। सूदूर, गांवों में, जहां महिलाओं ने सेल्फ हेल्प ग्रुप बना कर काम कर रही हैं। उनकी संस्था में इस समूह से मुलाकात हुई तो देखा सबने साड़ी पहन रखी है और सबके सिर पर पल्लू है। उनमें से कुछ मोपेड भी चलाती हैं। चलाते समय भी नके सिर पर पल्लू रहता है। मैंने पूछा तो पता चला कि ससुराल वाले कहते हैं कामकाज करना हो तो करो, चार पैसे आ जाए, किसे बुरा लगता है मगर परंपरा का पालन करते रहें। मैंने कंचन नामक युवा महिला को पल्लू के खिलाफ भड़काया, उसने कहा- क्या बताएं, हमें साड़ी पहन कर मोपेड चलाने में दिक्कत होती है, उस पर से ये पल्लू। हमारे गांव में परदा प्रथा इतनी है कि औरतों के लिए अलग से एसटीडी बूथ बने हुए हैं। एसे में हम पल्लू हटाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं।


औरतें आत्मनिर्भर होने के बावजूद मुक्त नहीं हैं अपने रिवाजो से, ढकोसले से..सामाजिक दबावो से...पोशाकों से..जिस जमाने में ये प्रथाएं औरतो पर थोपी गई होंगी तब समय कुछ और रहा होगा..दौर बदल गया है, दुनिया कहां से कहां चली गई...हम हैं कि उसी मानसिकता में जी रहे हैं। आज के समय में इस प्रथा को पोसने वालो से मेरा आग्रह है कि चाहरदीवारी की कैद में, खुद को पांच मीटर के कपड़े में लपेट कर चूल्हा फूंके, घूंघट की आड़ में रह कर...पता चल जाएगा कि एक लड़की कैसे झेलती है ये सब।

बंद समाज में बिना शादी सेक्स का नया चलन

Posted By Geetashree On 9:30 AM 6 comments


यकीन हो या ना हो, खबर सच है। क्योंकि खबर आई है उसी समाज के एक प्रतिनिधि के कलम से। किसी भी तरह के गैरशरीयत और गैरवाजिब यौन संबंधों पर बारीक और कड़ी नजर रखने वाले इसलामी देश सऊदी अरब में इन दिनों लीव-इन रिलेशनशीप का चलन जोर पकड़ रहा है। इसे तरजीह दे रहे हैं वहां के रुढिवादी लोग। ये वहां की नई पीढी का करिश्मा या उनकी प्रगतिशील सोच का अंजाम नहीं है ये। ये सीधे सीधे अर्थतंत्र से जुड़ा मामला है। ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले अखबार गार्डियन की एक रिपोर्ट ने शरिया और इसलामी कानून की रोशनी में महिला-पुरुष के रिश्तों को लेकर एक नए विवाद का सूत्रपात कर दिया है। इस अखबार से जुड़े पत्रकार सईद नियाज अहमद ने दावा किया है कि सऊदी अरब के रुढिवादी तबके में औरत और मर्द मिस्यार निकाह के जरिए यौन-पूर्ति को तरजीह दे रहे हैं। चूंकि इस विधि से निकाह करने में महिला के प्रति जिम्मेदारी नहीं रहती और शादी के बाद मिलने वाले शौहरी हुकूक(पति के अधिकारो से वंचित) से वह वंचित रहती है। इस रिश्ते के पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। और इसके फायदे गिनाए जा रहे है।


मसलन...इसमें दहेज, रिसेप्शन, वलीमा, घर की साज-सज्जा और बारात का खर्च..सबकी बचत कोई कम बड़ी बचत है क्या। बचत ही बचत...इसी बचत के लालच ने वहां लीवइन रिलेशनशीप को सामाजिक और धार्मिक स्वीकृति दिलवा दिया है।

इससे पैसो की घोर बचत होती है। वाह क्या दिमाग लगाया है। हमारे समाज में जब यह चलन आया तब भी और जब जोर पकड़ रहा था, तब भी ये सोच नहीं थी। यहां उद्देश्य बिल्कुल अलहदा थे और हैं भी। उस पर बहुत कुछ लिखा कहा जा चुका है। रिपोर्ट के अनुसार मिस्यार निकाह एक तरह का अनुबंध विवाह है जिसके तहत शादी के बंधन में बंधे बिना स्त्री-पुरुष जिस्मानी रिश्ते कायम कर सकते हैं। यह तरीका इस बात की भी छूट देता है कि जोड़े अलग रहकर यौन संबंध बना सकते हैं। मिसाल के तौर पर महिला अपने पिता के घर रह सकती है। जब चाहे पुरुष विशेष के पास जा सकती है। अगर किसी कारणवश जोड़े साथ नहीं रहते या किसी वजह से उनका रिश्ता टूट जाता है तो भी सेक्स के लिए वे चाहे तो मिल सकते हैं। मिस्यार शादी के रस्मों रिवाज से मुक्त होता है, साथ ही शादी के ताम-झाम से भी.रिपोर्ट के अनुसार सउदी अरब में यह चलन उन्हे ज्यादा रास आ रहा है जो कड़के हैं या जो महाकंजूस हैं। जेब खाली है मगर स्त्री अनिवार्य रुप से चाहिए। इस चलन से कुछ एय्याशों की बांछे खिल गई हैं। कुछ घटनाओं से उनकी मंशा साफ जाहिर हो रही है। एक शख्स अपनी पहली शादी टूट जाने से बड़ा परेशान था। उसे किसी ने सलाह दी कि वह मिस्यारी निकाह कर ले और मस्त रहे। अब तक वह व्यक्ति कई मिस्यारी विवाह कर चुका है। किसी रिश्ते में वह एक माह से ज्यादा देर तक नहीं रुका। रुकता भी क्यों..उसे धीरे धीरे इसमें मजा आने लगा होगा। हींग लगे ना फिटकरी...रंग चोखा आए...बिना दमड़ी खर्च किए, बिना किसी झंझट के उसे स्त्रियां मिलती रही वो एक के बाद एक...सफर करता रहा। ये सारे चलन पुरुष अपने हित को सोचकर ही बनाते हैं और उसे अपने स्वार्थ के लिए सामाजिक धार्मिक मान्यता दिलवा देते हैं। यह व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी को मिस्यारी प्रथा का प्रयोगशाला बना डाला, उसको औरतें जरुर नई नई मिलीं लेकिन वह किसी एक से भी कभी खुश नहीं रह सका। उसने उन औरतो पर ही आरोप जड़ दिया कि जितनी आईं वे सब पैसों, तोहफो की भूखी निकलीं। इल्जाम लगाते समय वह भूल गया कि वह खुद क्या कर रहा है। तब तो नई नई स्त्रियों का ख्वाब उसे उत्तेजना से भर देता होगा। लालची कह कर पीछा छुड़ाता रहा और आखिर आजिज आ गया। आदमी कई बार अपनी ही आकांक्षाओं का शिकार हो जाता है और अपनी ही आग उसे राख बना डालती है, जिस राख से कोई फीनिक्स पैदा नहीं होता। सऊदी की औरतो को भी आजादी का यह रास्ता बहुत रास आने लगा है। एसी खबरे आ रही है कि वे भी मिस्यारी अनुबंध को खुल कर अपना रही हैं। औरतो के नजरिए खबरे छप रही है कि मिस्यारी पत्नी एक से ज्यादा मिस्यारी पति से संपर्क बना रखा है। जानते हैं ये मिस्यारी पति कौन लोग हैं,,,,ये किसी औरत के पूर्णकालिक पति होते हैं जो अपाटर्मेंटस में फ्लैट लेकर मिस्यारी पत्नियां रखते हैं जिनके बारे में अपनी पूर्णकालिक पत्नी को भनक तक नहीं लगने देते। वहां स्त्रीवादी अब एसी ही पूर्णकालिक (पूर्णनिकाही) पत्नियों को उकसा रहे हैं कि वे क्यों किसी धोखे में रहें, क्यों ना वे भी एसे रिश्तों के बारे में सोचे। वे क्यों नहीं मिस्यारी पति तलाश लेतीं। मिस्यारी पति भी एक से ज्यादा मिस्यारी पत्नी रखने लगे है तो क्यों ना मिस्यारी पत्नियां अपने लिए एसी व्यवस्था कर लें। हिसाब बराबर....।

भूल जाओ पेट की भूख

Posted By Geetashree On 12:57 AM 7 comments

मेरे आग्रह पर वरिष्ठ पत्रकार, मशहूर ब्लागर, प्रतिभा कटियार जी ने अपनी प्रतिक्रिया आलेखनुमा भेजा है। अफगानिस्तान का नो सेक्स, नो फूड कानून ही एसा है जिससे कोई भी स्त्री बौखला जाएगी, चाहे वह किसी भी देश की हो। मैं यहां प्रतिभा की इसी सार्थक बौखलाहट को दुनिया के सामने रख रही हूं..
बजबजाती हुई हकीकत
सिमोन का यह मानना कि किसी भी रिश्ते के दमनकारी तत्वों के विनाश की कोशिश करनी चाहिए से मैं भी पूरी तरह सहमत हूं लेकिन अगर यह विनाशकारी तत्व शरीर ही हो तब? तब क्या किया जाना चाहिए? अफगानिस्तान में कानून बन रहा है कि पति की देह की भूख नहीं मिटाने पर अपनी पेट की भूख भी भूल जाओ...क्या सचमुच बहुत आश्चर्यचकित करता है? कम से कम मुझे तो नहीं करता. कानून की शक्ल में भले ही न हों लेकिन हमारे यहां भी हालात इससे कोई बहुत बेहतर नहीं हैं. बल्कि खाना-पीना बंद कर देना भर अगर सजा हो तो महिलाएं चैन की सांस ही लेंगी. हिंदुस्तानी औरतों को तो पेट की भूख से जूझने की वैसे भी खूब आदत है. कभी व्रत-उपवासों के बहाने तो कभी दूसरे कारणों से. (मेरी गुज़ारिश है पढऩे वालों से कि इसे नयी उभरती एलीट लाइफ के संदंर्भों में न देखा जाए.) किसी भी वजह से बीमारी के चलते, अनिच्छा के चलते, गर्भावस्था के दौरान या यूं ही अगर स्त्री अपनी देह का भोजन मुहैय्या कराने में आनाकानी करती है तो मिलने वाली सजाओं की क्रूरताएं नया इतिहास ही रचती नजर आती हैं. पति बिलबिलाते हैं कि उनकी पत्नी उन्हें प्यार नहीं करती. (प्यार भी हमारे यहां सेवा और सेक्स से जोड़कर ही देखा जाता है). मानो शादी के पेड़ पर प्रेम का फल लगना जरूरी हो. जब वह स्वत: नहीं मिलता तो समाज पति को हौसला देता है कि हासिल करो. नहीं कर पाने पर नामर्द होने की तोहमतें तक लग जाती हैं. बहुत सारे ढंके-छिपे आदर्श परिवारों की हकीकत बजबजाती हुई है. आंसुओं का सैलाब और कुंठाओं का ढेर है. आज के समय में तो यह हर घर का मसला बन चुका है. खासकर तब, जब महिलाओं ने अपनी इच्छाओं को टटोलना शुरू किया है. किसी सोफे या टीवी सेट की तरह अपनी देह को इस्तेमाल करने से मना करना शुरू किया है. पुरुषों का अहं चोटिल होने लगा है. अंदर तक तिलमिलाहट है. तथाकथित पढ़े-लिखों की मुश्किल यह है कि वे इन मुद्दों पर सीधे-सीधे रिएक्ट भी नहीं कर सकते. परिवार टूटने का, रिश्तों के विघटन का यह भी कारण है. इस मुद्दे की प्रासंगिकता हर घर, हर रिश्ते में है. हमारे यहां भले ही ऐसा कोई कानून नहीं है लेकिन हर पति यह बात अच्छे से जानता और मानता है कि पत्नी के शरीर पर उसका अधिकार है. उस अधिकार के आड़े आने वाली पत्नी पर पहली रात से ही चरित्रहीन होने का शक जाता है, जो वक्त के साथ गहराता जाता है. चरित्र यानी क्या? यह सवाल बड़े रूप में सामने खड़ा है. हर किसी के आत्ममंथन का समय है. गीता जी, उम्मीद है अफगानिस्तान के बहाने आपने जो चर्चा यहां शुरू की है वहीं से बदलाव के कुछ अंकुर फूटें. बात निकली है तो शायद कुछ दूर तलकजाए...और सूरत-ए-हाल कुछ बदले.


देह की भूख है बड़ी, वाह रे जमाना

Posted By Geetashree On 10:23 PM 22 comments

वो कहते हैं ना कि शादी लाइसेंस प्राप्त वेश्यावृति है। या यूं कहें कि शादी के बाद पुरुषों को एक स्त्री का जीवन भर रेप करने का लाइसेंस प्राप्त हो जाता है। यानी सामाजिक स्वीकृति की मुहर लग जाती है..स्त्री की इच्छा अनिच्छा बेमानी है। इस मान्यता के बावजूद सिमोन द बोउआर की तरह मैं भी यह मानती हूं कि स्त्री पुरुष के बीच यौन संबंध हमेशा दमनकारी नहीं होते। एसे दैहिक संबंधों को अस्वीकर करने के बजाए उस संबंध में मौजूद दमनकारी तत्वों के विनाश की कोशिश क्यों ना की जाए।
एक स्त्री अपने मनपसंद पुरुष के साहचर्य मे अपनी यौनिकता की खोज करती है। दुनिया के सबसे सुंदर रिश्ते में जब जबरदस्ती जैसे तत्व घुस आए तो क्या होगा।
हाल ही में एक खबर ने औरतों की दुनिया में फिर हलचल मचाई। अफगानिस्तान एक तरफ चुनाव झेल रहा है वही वहां औरतो को लेकर बन रहे नए नए कानून उसे डरा रहे है। वहां के नए कानून ने पुरुषों को यह हक दिया है कि अगर बीबी शौहर की यौन संबंधी मांग पूरी नहीं करती, इनकार करती है तो उसका खाना पीना बंद किया जा सकता है। यानी सेक्स नहीं तो खाना नहीं..उनकी भूख मिटाओ नहीं तो अपनी भूख से जाओ..।
क्या शानदार कानून है। कानून के नए मसौदे में पिता और दादा को ही बच्चों का अभिभावक माना गया है। अगर महिला को नौकरी ही करनी है तो उसे अपने शौहर से इजाजत लेनी होगी। कानून में बलात्कारी को मुकदमे से बचने का भी एक असरदार तरीका दिया गया है। बलात्कार के दौरान जख्मी हुई लड़की को खून का भुगतान कर बलात्कारी लड़की को खून का भुगतान कर आसानी से बच सकता है।
यह विधेयक वहां पहले भी पास हुआ था। इसके मूल स्वरुप का भारी विरोध हुआ था। तब वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करजई ने इसे वापस ले लिया था। मगर मौजूदा संशोधित विधेयक अब भी महिला विरोधी है। सीधे सीधे इसके पीछे वहां की चुनावी राजनीति काम कर रही थी। चुनाव में शिया समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए करजई ने यह बर्बर कानून पास किया था। क्योंकि यह सिर्फ शिया समुदाय पर ही लागू होती है। बर्बरता का आलम ये था कि पहले जो मूल विधेयक बनाया गया था उसके अनुसार शिया महिलाओं को अपने शौहर के साथ सप्ताह में कमसेकम चार बार सेक्स करना जरुरी था। मानों औरत ना हुई, सेक्स करने की मशीन हो गई। पति ना हुआ सेक्स को गिनने वाला गणितज्ञ हो गया। गिनना ही पड़ेगा, सरकार चाहती है। हैरानी होती है कि कोई एसा मुल्क भी हो सकता है जहां सरकारें चिंता करें कि शौहर की सेक्स लाइफ कैसे आबाद रहे।

लगता है अब पत्नी के नियंत्रित करने के लिए पतिनुमा जीव विस्तर पर विधेयक की कापी लेकर सोएगा। स्त्री को नियंत्रित करने के लिए मर्द कानून का सहारा लेने लगे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव सही ही तो लिखते है,---आदमी ने मान लिया है कि
औरत शरीर है, सेक्स है, वहीं से उसकी स्वतंत्रता की चेतना और स्वच्छंद
व्यवहार पैदा होते हैं, इसीलिए हर तरह से उसके सेक्स को नियंत्रित करना
चाहता है।
कवि पंत के अनुसार--योनि मात्र रह गई मानवी।

यहां एक छोटी सी कहानी का उल्लेख करना जरुरी लग रहा है--एक बार जरथुस्त्र
एक बुढिया से पूछता है, बताओ, स्त्री के बारे में सच्चाई क्या है। वह
कहती है, बहुतसी सच्चाईयां एसी है जिनके बारे में चुप रहना ही बेहतर है।
हां, अगर तुम औरत के पास जा रहे हो तो अपना कोड़ा साथ ले जाना मत भूलना।
यह कोड़ा अब विधेयक के रुप में औरतों में खौफ भर रहा है। स्त्री पुरुष दोनों के लिए जो आनंद का पल है, वो खौफ में बदल रहा है।
बहरहाल, विधेयक के मूल स्वरुप का वहां इतना विरोध हुआ कि इसमें संशोधन करना पड़ा और चालाकी देखिए कि संशोधित विधेयक को चुपचाप पारित कर दिया गया। हैरानी होती है कि भारतीय समाज की खुली पाठशाला में जीवन का पाठ पढने वाले उदारवादी करजई महज चुनावी फायदे के लिए आधी दुनिया के मन और इच्छाओं से कैसे खेल सकते हैं। वैसे भी अरब देशों में पहले से ही औरतों के विऱुध ढेर सारे कानून और सामाजिक पाबंदियां हैं जहां उनका दम घुट रहा है। हिम्मत जुटा कर महिलाएं प्रदर्शन भी कर रही हैं। फिर भी उनकी आवाजें, उनके गुहार अनसुने हैं...वहां रोज महिलाओं के अधिकारो के हनन के नए नए कानून ढूंढे जाते हैं। सामंती उत्पीड़न से अभी तक उनकी मुक्ति नहीं हो पाई है। एसी यंत्रणादायक परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए वहां की औरत को सामूहिक ल़ड़ाई लड़नी पड़ेगी। अपने शरीर को लेकर आखिर कितनी यातना झेलेगी औरत।

कैसा समाज होगा वह जहां एक कानून औरतों को बीवी से वेश्या में बदल दे वो भी अपने घर में। वेश्याएं तो खुलेआम दैहिक श्रम से अपने लिए खाना पीना जुटाती हैं, घरों में बीबियां भी अपने पेट की भूख मिटाने के लिए शौहर के साथ दैहिक श्रम करेंगी। क्या फर्क है..सिर्फ मर्द ही तो बदल रहे हैं...चरित्र तो वही है...दमनकारी। इस संदर्भ में भारतीय समाज को याद किया जाना लाजिमी है।
शहर हो या गांव औरत हर जगह सेक्स एक उपादान है। ज्यादातर पतियों का मुंह इसलिए सूजा रहता है कि बीवी ने सेक्स करने से मना कर दिया। मियां का मूड बिगड़ गया। संबंधों में कुंठा और लड़ाई की पहली सीढी यही होती है जो बाद में घरेलू हिंसा में बदल जाती है। लोग लड़ाई की जड़ तक नहीं पहुंच पाते कई मामलो में। झु्ग्गियों में झांके, ज्यादातर औरतों की कुटाई इसीलिए होती है, क्योकि वे रोज रोज अपने शराबी पति की हवस मिटाने से मना कर देती हैं। मध्यवर्ग में सीधे सीधे वजह यह नहीं बनता मगर बड़ी वजह यही होती है। पुरुष कुंठित होने लगता है और औरतें घुटने लगती है..छोटी छोटी बात पर झगड़े हिंसक रुप ले लेते हैं..भीतर में सेक्स-कुंठा इस झगड़े को हवा देती रहती है।

देश स्वतंत्र, मगर नारी आज भी परतंत्र

Posted By Geetashree On 4:53 AM 6 comments
प्रसून जोशी

मेरे परिवार में एक लड़की की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ की जा रही थी, लेकिन उस लड़की में अपनी इच्छा अपने ही परिवार वालों को बता पाने का साहस नहीं था।

लोकलाज और संकीर्ण सामाजिक मान्यताओं की वजह से वह लड़की अपने ही पिता को यह नहीं कह पा रही थी कि उसे यह शादी नहीं करनी। देश की आजादी के 60 साल बाद भी स्त्री की ऐसी दशा अविश्वसनीय लगती है। मगर यह कड़वा सच है कि इतने सालों बाद भी भारत में महिला वहीं की वहीं है।

स्त्री को मां, देवी, त्याग की मूर्ति और न जाने कितने ही ऐसे दर्जा देकर जरूरत से ज्यादा उठा दिया गया है। दरअसल इन दर्जों के बोझ से स्त्री उठने की बजाय दब गई है। इन खोखले दर्जों के भार तले वह पिस रही है। अपनी आम इच्छाओं का गला दबाकर वह लगातार समाज द्वारा तय किए अपने तथाकथित कर्तव्यों को निभाए चली जा रही है। उसे ऐसी परिभाषाओं में जकड़ दिया गया है, जहां समाज की उस पर पूरी पकड़ हो। मगर वह बेचारी यह समझ ही नहीं पाती कि यह पुरुष प्रधान समाज का षड्यंत्र है।

शादी के बाद अपने पति को नाम से न बुलाना, घर के सदस्यों को खिलाए बगैर खाना न खाना और न जाने कितनी ही ऐसी मान्यताएं हैं, जिन्हें वह सदियों से जस-का-तस निभा रही है। संस्कार के नाम पर व्यक्तित्व को बांध देना कहां का न्याय है? बचपन से ही नारी को इन्हीं संस्कारों की घुटी पिलाई जाती है और वह भूल जाती है कि आखिर वह खुद क्या चाहती है। सदियों से यही होता आ रहा है। मैं इसे नारी की परतंत्रता समझता हूं, जिससे उसे मुक्ति मिलनी ही चाहिए। यह हालत तो हमारे तथाकथित शहरी और सभ्य समाज की है। हालांकि गांवों का तो मैं जिक्र ही नहीं कर रहा हूं। वहां तो स्थिति इससे भी बदतर है।

नौकरीपेशा महिलाओं का जिक्र करें तो नौकरी उनके लिए एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है। खाना बनाने से लेकर बच्चों के लालन-पालन, और बाकी घरेलू जिम्मेदारियां के बीच वह नौकरी भी करती है। साथ ही घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बैठाना भी उसके जिम्मे है। विडंबना तो यह है कि खुद औरत ने ही इसे अपनी नियति मान लिया है। उसे कभी नहीं पूछा जाता कि वह क्या चाहती है? वह स्वयं की अपेक्षाओं में ही पिसी जा रही है। अपने आप को खोजने की इस यात्रा में वह नितांत अकेली है। आज भी वह अपने मायने ढूंढ रही है। लोग शायद भ्रमित हैं कि जिस देश में एक महिला राष्ट्रपति हो, वहां यह कैसे हो सकता है। मगर मैं साफ कर दूं कि अपवाद के आधार पर समाज का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

दरअसल, सदियों से औरत के दिमाग की इस तरह कंडिशनिंग कर दी गई है कि अगर वह अपनी बंधी-बंधाई मर्यादाओं के खिलाफ आवाज उठाए तो खुद उसे अपराधबोध होने लगता है कि ऐसा करके मैं नारी कहलाने लायक नहीं रहूंगी। स्त्री की क्षमता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रकृति ने खुद नारी को सबसे बड़ी कृति की जिम्मेदारी सौंपी है। वह है, एक बच्चे को जन्म देने की जिम्मेदारी।

व्यक्ति अपनी मां के हाथ का स्वाद हमेशा याद करता है। यह एक परंपरा-सी है। मैं ऐसे समाज की कल्पना करता हूं, जहां व्यक्ति अपने पिता के हाथ के खाने को हमेशा याद रखे। यह सिर्फ एक उदाहरण है। मेरा सपना एक ऐसे समाज का है, जहां स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा हासिल हो। स्त्री को अपने हक के बारे में सोचने की और अपने फैसले लेने की स्वतंत्रता हो। हर एक संस्कृति तरल होती है., वह सतत प्रवाहित रहती है। उसमें लगातार बदलाव आता रहता है। कबीर की तरह चदरिया को ज्यों-की-त्यों धर देने की बजाय उसमें बदलाव लाना जरूरी है। नारी की परतंत्रता से जुड़ी है मेरी यह कविता...

बाबुल जिया मोरा घबराए, बिन बोले रहा न जाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे सुनार के घर मत दीजो।
मोहे जेवर कभी न भाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे व्यापारी के घर मत दीजो
मोहे धन दौलत न सुहाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे राजा के घर न दीजो।
मोहे राज करना न आए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे लौहार के घर दे दीजो
जो मेरी जंजीरें पिघलाए। बाबुल जिया मोरा घबराए।

शायद कभी हम भी ऐसे समाज का निर्माण कर सकें जब वे सब जंजीरें पिघल जाएं जिन्होंने स्त्री को बांध रखा है।

(यह आलेख 16 अगस्त 2009 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ है)