एकाकीपन के कुछ साल

Posted By Geetashree On 8:36 PM 9 comments

--करीब चार करोड़ अकेली महिलाएं
--आपबीती बताने दिल्ली पहुंची
--कुरीतियां थोपे जाने का विरोध
--घरेलू हिंसा का चिठ्ठा खोलेंगी

अब अकेली रहने वाली महिलाओं ने अपनी चुप्पी तोड़ने का फैसला किया है और एक मंच पर आ पहुंची हैं, जहां से उठाएंगी अपनी आवाज, जो शायद बहरे कानों को भी भेद सके। एकल महिला काना कोई घर होता है ना कोई रिश्तेदार।जिस घड़ी वह अकेले चलने का फैसला करती है उसे सचुमुच अकेले छोड़ दिया जाता है। इस फैसले के साथ कोई नहीं होता...आप जानते हैं ये कौन हैं एकल जीवन जीने वाली महिलाएं। इनमें शौकिया कम...मजबूरीवश एकल जिंदगी जीने वाली महिलाएं ज्यादा हैं। सबके अपने अपने सामाजिक कारण हैं। कोई विधवा होकर घरवालों द्वारा संपत्ति से बेदखल कर दी गई है, किसी के बच्चे छोड़ गए हैं, किसी का पति त्याग कर चुका है, किसी की शादी नहीं हुई या नहीं की, किसी को डायन या मनहूस बताकर समूचे समाज से काट दिया गया है... , इसी तरह की एकल महिलाएं अपनी चुप्पी तोड़ेंगी। विदेशी मूल की सामाजिक कार्यकर्त्ता डा. गिन्नी श्रीवास्तव और नारी शक्ति संस्थान की अगुआई में राष्ट्रीय मंच बना कर 14 राज्यों से करीब डेढ सौ महिला संगठनों की प्रतिनिधि अपना मांग-पत्र केंद्र को देंगी।

इन महिलाओं से मिले तो पता चलता है कि समाज-प्रशासन उन्हें सामान्य नागरिक तक मानने को तैयार नहीं ना ही उस नाम पर मिलने वाली सुविधाओं का हकदार उन्हें मानते हैं। इनके पास कोई परिवार नहीं, इसलिए अलग से कोई राशन कार्ड नहीं। ये चाहती है कि एकल महिला को भी अलग पारिवारिक इकाई माना जाए तथा उसका राशन कार्ड बनाया जाए। सभी एकल महिलाओं उनके बच्चों को निशुल्क स्वास्थ्यसेवा उपलब्ध कराई जाए, उन्हें पैतृक व ससुराल की भूमि एवं संपत्ति में बराबर का अधिकार मिले। बजट में इनके लिए अलग से प्रावधान हो र 2011 का जनगणना रिपोर्ट में एकल महिलाओं की विभिन्न श्रेणियों--विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्ता, अविवाहित आदि को अलग वर्ग के रुप में दरशाया जाए।

अभी तक एसी महिलाए हाशिए पर रहती आई हैं..जाहिर उनका दर्द बहुत बड़ा है। यह सच किसी से छुपा नहीं है कि एक अकेली महिला को समाज किस नजरिए से देखता है। वैसे भी औरत ने चौखट से कदम बाहर निकाला नहीं कि सबसे पहला हमला उसके चरित्र पर किया जाता है। एसे में कोई स्त्री अकेली रहने का फैसला करे या विवशतावश अकेली रह जाए तो सोचिए...किन किन खिताबो से उसे नवाजा जाता है। उसकी पीठ पर संदेह की चिप्पी किसी इश्तेहार की तरह टांक दी जाती है...

यह सम्मेलन कई कोणों से बेहद महत्वपूर्ण है...हम एक आधुनिक-समकालीन समाज में सांस ले रहे हैं..वक्त आ गया है कि एकल महिलाओं के बारे में समाज अपना दृष्टिकोण और रवैया बदले, उन्हें हाशिए से उठा कर मुख्यधारा से जोड़े।

दो दिन तक चलने वाले इस सम्मेलन पर होगी हमारी नजर..और हम रोज इसकी खबर आप तक पहुंचाएंगे...आज से शुरु हो रहा है..चुप्पी का विस्फोट...

वेदांता की मौत की चिमनी

Posted By Geetashree On 3:31 AM 3 comments
छत्तीसगढ़ के बालको में घरों को रौशन करने के लिए बनाई जा रही विशाल चिमनी ने ही सैकड़ों घरों को हमेशा-हमेशा के लिए अंधेरे में डूबा दिया है. इस घटना को दस दिन हो गये हैं लेकिन अब तक 41 मज़दूरों की हत्या की जिम्मेवारी तक तय नहीं हुई है. हालत ये है कि वेदांता की इस चिमनी में कितने मज़दूर काम कर रहे थे, इसका आंकड़ा भी छत्तीसगढ़ सरकार के पास नहीं है.
बालको नगर से आलोक प्रकाश पुतुल की रिपोर्ट
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नैतिक विश्वास की तलाश में स्त्री-भाषा, खुले हैं सभी दरवाजे

Posted By Geetashree On 5:54 AM 1 comments

23 सितंबर से 29 सितंबर के बीच आयोजित सेमिनार--हिंदी की आधुनिकता:पुर्नविचार पर विमर्श के लिए देशभर से अनेको विद्वान शिमला में जुटे हुए हैं।
मशहूर ब्लागर, मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार भी शिमला की गुलाबी ठंड में डटे हुए हैं और लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं।
सेमिनार के दूसरे दिन की उनकी यह रिपोर्ट स्त्री-विमर्श के कुछ नए पहलुओं को बड़ी ढिठाई के साथ छू रही है। पूर्वाग्रहो से मुक्त होकर आनंद उठाइए और विचार करिए...आनामिका और सविता सिंह के वक्तव्यों के बहाने एक चोट और सही....गीताश्री


मशहूर कवयित्री औऱ लेखिका अनामिका का ये कथन कि इंटरनेट ने स्त्रियों के बीच के संदर्भकीलित चुप्पियां दूर करने का काम किया है। स्त्री-भाषा जो कि अपने मूल रुप में ही संवादधर्मी भाषा है,जो बोलती-बतियाती हुई विकसित हुई है,एक-दूसरे के घर आती-जाती हुई,बहनापे के तौर पर विकसित हुई है,इंटरनेट पर स्त्रियों द्वारा लेखन,स्त्री सवालों पर की जा रही रचनाएं उसकी इस भाषा-संभावना को और विस्तार देती है,स्त्री-मुक्ति और संवादधर्मिता के स्पेस के विस्तार में इंटरनेट की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करती है। हिन्दी के हिटलर,भाषिक बमबारियाःस्त्री का भाषा-घर विषय पर अपना पर्चा पढ़ते हुए अनामिका ने स्त्री-भाषा को पुरुषों की वर्चस्वकारी भाषा से अलगाने के क्रम में चोखेरबाली जैसे ब्लॉग, फेसबुक, एफ.एम.रेडियो ममा म्याउं 104.8 और इमेल को साहित्य के पार नयी भाषिक कनातों के तन जाने के रुप में विश्लेषित किया। अनामिका का मानना है कि किसी भी मनोवैज्ञानिक युद्ध में भाषा हथियार का काम करती है। जिसको भी हाशिये पर धकेल दिया जाता है,पता नहीं किस क्षतिपूर्ति सिद्धांत के तहत उसकी भाषा ओजपूर्ण हो जाती है,जिसका मुकाबला शास्त्रीय भाषा नहीं कर सकती। स्त्री-भाषा अपना विकास इसी रुप में कर पाती है। लेकिन स्त्री-भाषा, पुरुषों की भाषा की तरह हिंसक भाषा बनने के बजाय प्रतिपक्ष के बीच नैतिक विश्वास की तलाश करती है। इसलिए वो हमेशा झकझोरने वाली भाषा के तौर पर काम करती है,हमले करने और धराशायी करने के रुप में नहीं। हिन्दी में स्त्री-भाषा के इस रुप की तलाश के क्रम में अनामिका उन चार संदर्भों को रेखांकित करती है जहां से कि लेखन के स्तर पर स्त्री-भाषा के रुप विकसित होते हैं-1.विद्याविनोदी परीक्षा की शुरुआत।यहां से चिठ्ठी-पतरी के लिखने के क्रम में स्त्रियों की भाषा बनती-बदलती है। 2.महादेवी वर्मा के चांद का संपादकीय 3.बिहार में जेपी आंदोलन के दौरान जेएनयू,डीयू,पटना यूनिवर्सिटी जैसे अभ्यारण्यों में स्त्रियों के आने के बाद भाषा का एक नया रुप दिखायी देता है। इसी समय यहां पढ़नेवाली लड़कियां मजाक में ही सही,पुरुषों के प्रेम-पत्र पर अश्लील शब्दों पर गोले लगाती हैं और नॉट क्वालिफॉयड का लेबल लगाती है। दरअसल एक तरह से वो पुरुष-भाषा के औचित्य-अनौचित्य पर सवालिया निशान पैदा करने का काम शुरु कर देती है। इस तरह के शिक्षण संस्थानों और उसके आस-पास के लॉज और हॉस्टलों में रहकर एक स्त्री जो भाषा पाती है,प्रयोग करती है और उसका विस्तार करती है उसकी अभिव्यक्ति हमें पचपन खंभें लाल दीवारें और मित्रो मरजानी जैसी हिन्दी रचनाओं की याद दिलाते हैं। अनामिका का मानना है कि इन सबके वाबजूद यहां तक आते-आते स्त्री भाषायी स्तर पर अकेली पड़ जाती है इसलिए स्त्री-भाषा के चौथे संदर्भ या पड़ाव के तौर पर इंटरनेट और ब्लॉग पर बननेवाली स्त्री-भाषा का जिक्र करती है। अनामिका पूरे पर्चे में गांव से लेकर हॉस्टल/लॉज के दबड़ेनुमा कमरे में बनने और बरती जानेवाली उस भाषा को प्रमुखता से पकड़ती हैं जो कि संवादधर्मिता की प्रवृत्ति को मजबूत करते हैं। इसलिए शब्दों,शैलियों और कहने के अंदाज के स्तर पर एक-दूसरे से अलग होने के वाबजूद वो एक-दूसरे के विकासक्रम का ही हिस्सा मानती है। इसी क्रम में भूमंडलीकरण के बाद के बलात् विस्थापन में फुटपाथओं पर चूल्हा-चौका जोड़नेवाली मजदूरनी आपस में जिस भाषा में बतियाती है या बच्चों को,जिस खिचड़ी भाषा में नयी उठान की लोककथाएं सुनाती है या लोकगीत,उसकी भी छव बिल्कुल निराली है।इस प्रस्तुति के दौरान अनामिका की दो प्रमुख स्थापनाएं रहीं जिसे कि स्त्री-भाषा के दो प्रमुख अवदान के तौर पर विश्लेषित करती हैं- 1. जिस तरह अच्छी कविता इंद्रियों का पदानुक्रम नहीं मानती-दिल-दिमाग और देह को एक ही धरातल पर अवस्थित करती हुई तीनों को एक-दूसरे के घर आना-जाना कायम रखती है,स्त्री-भाषा पर्सनल-पॉलिटिकल,कॉस्मिक-कॉमनप्लेस,सेक्रेड-प्रोफेन,रैशनल-सुप्रारैशनल के बीच के पदानुक्रम तोड़ती हुई उद्देश्य स्थान-विधेय स्थान के बीच म्यूजिकल चेयर सा खेल आयोजित करती है जिससे कि बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै/अन्धरो को सबकुछ दरसाई का सही प्रजातांत्रिक महोत्सव घटित होता है।2. स्त्री-भाषा ने आधुनिकता का कठमुल्लापन झाड़कर उसके तीन प्रेमियों का दायरा बड़ा कर दिया है-शुष्क तार्किकता का स्थानापन्न वहां सरस परा-तार्किता है,परातार्किकता जो बुद्धि को भाव से समृद्ध करती है। प्रस्तरकीलित धर्मनिरपेक्षता का स्थानापन्न वहां है इगैलिटेरियन किस्म का अध्यात्म,अध्यात्म,अध्यात्म जो कि मानव-मूल्यों को स्पेक्ट्रम ही है-और क्या? आधुनिकता के तीसरे प्रमेय,सतर्क वैयक्तियन का स्थानापन्न स्त्री-भाषा में है। सर्वसमावेशी हंसमुख दोस्त-दृष्टि जो यह अच्छी तरह समझती है कि मनुष्य की बनावट ही ऐसी है कि वह लगातार न सर्वजनीनता को समर्पित रह सकता है,न निरभ्र एकांत को। उसे पढ़ने-लिखने,सोचने-सोने और प्यार करने का एकांत चाहिए तो चिंतन और प्रेम के सारे निष्कर्ष साझा करने का सार्वजनिक स्पेस भी? एक सांस भीतर गयी नहीं कि उल्टे पांव वापस लौट आती है। लेकिन बाहर भी उससे बहुत देर ठहरा नहीं जाता,सारे अनुभव,बिम्ब,अनुभूतियां और संवाद समेटकर फिर से चली जाती है भीतर-गुनने,समझने,मनन करने। स्त्री-भाषा ये समझती है- इसलिए उसके यहां कोई मनाही नहीं। सब तरह के उच्छल भावों की खातिर उसके दरवाजे खुले हुए हैं। वह किसी से कुछ भी बतिया सकती है-संवादधर्मी है स्त्री-भाषा। पुरुषों की मुच्छड़ भाषाधर्मिता उसमें नहीं के बराबर है।अनामिका के पर्चे के उपर कई तरह के सवाल उठाए गए। स्त्री-विमर्श से जुड़े संदर्भ को लेकर,पीछे लौटकर महादेवी वर्मा में इस विमर्श के संदर्भ खोजने को लेकर,जेपी आंदोलन और स्त्रियों के घर से बाहर आकर भाषा बरतने को लेकर लेकिन इन सबसे अलग जो सबसे अहम सवाल उठे वो ये कि क्या स्त्री-विमर्श की यही भाषा होगी जो अनामिका प्रयोग कर रही है? अभय कुमार दुबे स्त्री विमर्श की बिल्कुल नयी भाषा रचने के लिए अनामिका को बधाई देते हैं।स्त्री-भाषा और विमर्श को लेकर अनामिका ने जो स्थापनाएं दी सोशल फेमिनिस्ट और कवयित्री सविता सिंह उससे सहमत नहीं है। उन्हें स्त्री विमर्श के लिए बार-बार इतिहास औऱ परंपरा की ओर लौटना अनिवार्य नहीं लगता,वो इस नास्टॉल्जिक और रोमैंटिक हो जाने से ज्यादा कुछ नहीं मानती। घरेलू आधुनिकता का प्रश्न पर अपना पर्चा पढ़ते हुए सविता सिंह ने इसे पॉलिटिकल इकॉनमी के तहत विश्लेषित करने की घोषणा की और इसलिए पर्चे के शुरुआत में इसकी सैद्धांतिकी की विस्तार से चर्चा करते हुए घरेलू आधुनिकता के सवाल और अपने यहां इसके मौजूदा संदर्भों का विश्लेषण किया।सविता सिंह की मान्यता है कि ये सच है कि मार्क्स के यहां स्त्री के सवाल बहुत ही विकसित रुप में हैं लेकिन उनके यहां वर्ग इतना प्रमुख रहा है कि वो इसके विस्तार में नहीं जाते। सोशल फेमिनिस्ट की जिम्मेदारी यहीं पर आकर बढ़ती है। सविता सिंह इससे पहले भी दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में कात्यायनी की स्त्री-विमर्श की समझ पर असहमति जताते हुए घोषणा कर चुकी है कि स्त्री-विमर्श को समझने के लिए मार्क्सवाद के टूल्स पर्याप्त नहीं हैं। सविता सिंह बताती है कि मार्क्स के यहां घरेलू श्रम को बारीकी से समझने की कोशिश नहीं की गयी जबकि घरेलू श्रम,श्रम से बिल्कुल अलग चीज है। घरेलू श्रम को कभी भी प्रोडक्टिव लेवर के तौर पर विश्लेषित ही नहीं किया गया जबकि यह श्रम का वह स्वरुप है जो कि बाजार और फ्रैक्ट्री में उत्पादन करने के लिए मनुष्य को तैयार करती है। एक स्त्री दिनभर घर में काम करके,एक पुरुष को इस लायक बनाती है कि वो बाहर जाकर काम कर सके। लेकिन इस श्रम शक्ति का कोई मूल्य नहीं है, इसके साथ स्लेव लेबर का रवैया अपनाया जाता है। इस श्रम को बारीकी से समझने की जरुरत है. फ्रैक्टी जो कि लेबर पॉवर खरीदता है वो कैसे बनते हैं,इस पर विस्तार से चर्चा करनी जरुरी है।सविता सिंह जब घरेलू श्रम की बात करती है तो उसे बाजार में बेचे जानेवाले श्रम से बिल्कुल अलग करती है। ये सचमुच ही बहुत पेंचीदा मामला है कि घरेलू स्तर पर स्त्री जो श्रम करती है उसके मूल्य का निर्धारण किस तरह से हो? एक तरीका तो ये बनता है कि वो जितने घंटे काम करती है उसे मॉनिटरी वैल्यू में बदलकर देखा जाए। लेकिन क्या सिर्फ ऐसा किए जाने से काम बन जाएगा। इस तरह का मूल्य निर्धारण किसी भी रुप में न्यायसंगत नहीं है। सविता सिंह का मानना है कि उपरी तौर पर पूंजीवादी समाज में यह भले ही लगने लगे कि घरेलू श्रम का बाजार के स्तर पर निर्धारण शुरु हो गया है लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह पहले के मुकाबले औऱ अधिक नृशंस होता चला जा रहा है। मशीन आने पर भी घरेलू स्तर पर स्त्री-श्रम कम नहीं होता। बहुत ही मोटे उदाहरण के तौर पर हम देखें तो हमें चार दिन के बदले दो दिन में धुले बेडशीट चाहिए,पहले से कहीं ज्यादा साफ। पढ़ी-लिखी स्त्री इसलिए भर चाहिए कि वो बच्चों को पाल सके,सास की दवाईयों के अंग्रेजी में नाम पढ़ सके। इससे ज्यादा एक स्वतंत्र छवि बनने की गुंजाईश बहुत एधिक दिखायी नहीं देती।परिवार में इस घरेलू श्रम के उपर,प्यार,सौहार्द्र और लगाव जैसे शब्दों को डालकर उसके भीतर की विसंगतियों को लगातार ढंकने का काम किया गया। एक बेटी को प्रेम तब बिल्कुल भी नहीं मिलेगा जबकि वो घर का काम करने से इन्कार कर देती है। इसकी पूरी संभवना बनती है कि उसे प्रताड़ित किए जाएं। घरेलू हिंसा का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है। इस बात पर शीबा असलम फहमी ने अफगानिस्तान के उस उदाहरण को शामिल किया जहां अपने पति से साथ सेक्स नहीं करने पर स्त्री को रोटी नहीं दिए जाने की बात कही गयी।सविता सिंह के हिसाब से पूंजीवाद कभी भी इस हॉउसहोल्ड को खत्म नहीं करना चाहता। वो कभी नहीं चाहता कि इस घरेलूपन की संरचना टूटे। क्योंकि ऐसा होने से उसे भारी नुकसान होगा। फर्ज कीजिए कि विवाह संतान उत्पत्ति के बजाय प्लेजर,शेयरिंग और साइकोसैटिस्फैक्शन का मामला बनता है तो इससे पूंजीवादी समाज में उत्पादन औऱ उपभोग पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। इसलिए पूंजीवाद स्त्री श्रम और घरेलूपन को नए रुप में लगातार बदलने का काम करता है। वो स्त्रियों को घर पर ही काम मुहैया कराता है जिससे कि वो घरेलू जिम्मेवारियों को भी बेहतर ढंग से निभा सके। फैक्ट्री श्रम-शक्ति खरीदता है,पूंजीवाद श्रम-समय खरीदता है लेकिन अब एक तीसरा रुप उभरकर सामने आ रहा है जो कि अनुशासित तरीके से समय भी नहीं खरीदता है बल्कि सीधे-सीधे आउटपुट पर बात करता है जो कि उपरी तौर पर सुविधाजनक दिखाई देते हुए भी ज्यादा खतरनाक स्थिति पैदा करता है। इसलिए स्त्री-मुक्ति के सवाल में यह सबसे ज्यादा जरुरी है कि हाउसहोल्ड का डिस्ट्रक्शन हो,उसका छिन्न-भिन्न होना जरुरी है।सविता सिंह के इस पर्चे पर आदित्य निगम की टिप्पणी रही कि उन्हें लग रहा है कि वो आज से तीस साल पहले के सेमिनार में बैठे हों क्योंकि सविता सिंह की पूरी बातचीत उसी दौर के स्त्री-विमर्श की बहसों के इर्द-गिर्द जाकर घूमती है,उसके बाद क्या हुआ इसे विस्तार से नहीं बताया। अभय कुमार दुबे का मानना रहा कि आधुनिक परिवार कहे जानेवाले परिवार में किस तरह की समस्याएं हैं,इस पर बात करनी चाहिए। उन परिवारों की चर्चा की जानी चाहिए जहां का पुरुष घोषित तौर पर स्त्री को खुली छूट देता है लेकिन वहां भी पाबंदी की महीन रेखाएं दिख जाती है,वो रेखाएं कौन सी है,इस पर बात होनी चाहिए।इन सबों के सवाल में सविता सिंह बार-बार दोहराती है कि ग्लोबल कैपिटलिज्म में स्त्री के श्रम का प्रॉपर कॉमोडिफेकेशन नहीं हुआ है। मार्केट तो चाहता है कि सबकुछ का कॉमोडिफिकेशन हो,संबंधों का हो।इस कॉमोडिफिकेशन के बाद स्त्री-विमर्श के संदर्भ किस तरह से बनेंगे इसे भी बारीकी से समझने की जरुरत है।

अपने आसन से वंचित देवता की चीखें

Posted By Geetashree On 2:04 AM 14 comments

सभी दोस्तो के नाम....ये किसी एक को संबोधित नहीं है। ना ही मेरा व्यक्तिगत प्रलाप है। मेरे लेखों का मेरी निजी जिंदगी की झुंझलाहट से क्या लेना देना..मेरे बारे में बताने के लिए ब्लाग में दिया गया परिचय और मेरा पेशा ही काफी है। मैं जागरुक पत्रकार हूं, आजाद ख्याल स्त्री हूं..सजग हूं..नागरिक हूं..अपने आसपास हो रही घटनाओ पर पैनी निगाह रखती हूं...। मेरी राय कोई अंतिम सच नहीं,,असहमति जताई जा सकती है, मगर दायरे में रह कर। मुनवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ चुकी हैं। आधुनिक समाज का उनसे कोई लेना देना नहीं...मगर अभी भी जहां ये लागू है मैं उस पर चोट करती हूं तो कुछ लोगो की चीख निकल जाती हैं। क्यों, ये मनुबाबा जानें, जिन्हे लोग भगवान मानने का भ्रम पाले बैठे हैं।

जिसे लोग मनु भगवान कहते हैं और जिनकी मनु-स्मृति से कुछ उदाहरण उठाए गए हैं स्त्रियों का मुंह बंद कराने के लिए..मैं उसी में से कुछ नायाब मोती चुन चुन कर आज पेश करने जा रही हूं..उम्मीद है मनु बाबा के अनुयायी इससे इनकार नहीं करेंगे। आखिर मनु भगवान लिखित दस्तावेज जो सौंप गए है..तो सुनिए...
मनु ने स्त्रियों के संबंध में जो व्यवस्था दी है उसे आगे चलकर याज्ञवल्क्य, अत्रि, वशिष्ठ, विष्णु, कण्व, गौतम, प्रजापति, बोधायन, गोभिल, नारद, प्रचेता, जाबालि, शौनक, उपमन्यु, दक्ष, कश्यप, शांदिल्य, कात्यायन, पराशर आदि आदि सभी स्मृतिकारों ने समर्थन किया है। मनु के अनुसार स्त्रियों के कोई भी संस्कार वेदमंत्र द्वारा नहीं होते , क्योंकि इन्हें श्रुति-स्मृति का अधिकार नहीं है। ये निरेंद्रियां(ज्ञानेंद्रिय विहीन यानी अज्ञान), अमंत्रा,(पाप दूर करने वाले जप-मंत्रों से रहित) हैं। इनकी स्थिति ही अनृत अर्थात मिथ्या है। मलतब ये कि स्त्री की अपनी स्वतंत्र सत्ता या स्वतंत्र स्थिति है ही नहीं। (शलोक न.24)
अगला देखें...स्त्रियों के लिए पृथक कोई यज्ञ नहीं है न व्रत है, न उपवास। केवल पति की सेवा से ही उसे स्वर्ग मिलता है। जप, तपस्या, तीर्थ,-यात्रा, संन्यास-ग्रहण, मंत्र-साधन और देवताओं की आराधना इन छह कर्मो को करने से स्त्री और शूद्र पतित हो जाते हैं।
जिस स्त्री की तीर्थ में स्नान करने की इच्छा हो उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिए। (25-26-27)
मनु के अनुसार स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं। उसे कौमार्यावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के और वृदावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए।(28)
मनु के अनुसार स्त्री का पति दुशील,कामी, तथा सभी गुणों से रहित हो तो भी एक साध्वी स्त्री को उसकी सदा देवता के समान सेवा व पूजा करनी चाहिए। (5/154)
लेकिन एसी स्त्रियों के लिए मनु का सुझाव है---अपराध करने पर स्त्री को रस्सी या बांस के खप्पचे से पीटना चाहिए। (35)
पति के मर जाने पर स्त्री यदि चाहे तो केवल पुष्पो, फलो एवं मूलो को ही खाकर अपने शरीर को गला दे। किंतु उसे किसी अन्य व्यक्ति का नाम भी नहीं लेना चाहिए। मृत्युपर्यन्त उसे संयम रखना चाहिए, व्रत रखने चाहिए, सतीत्व की रक्षा करनी चाहिए और पतिव्रता के सदाचरण एवं गुणों की प्राप्ति की आकांक्षा करनी चाहिए। (5/157-160)

देखिए...मनु-समृति भरा पड़ा है..स्त्रीविरोधी श्लोको से...कितना उदाहरण दूं। मैं यहां मनु-समृति का पुनर्लेखन या पुर्नपाठ नहीं करना चाहती। जिसे पढ कर उबकाई आए, खून खौले और जिसकी प्रतियां जला देने का मन करें उसके बारे में लंबी चर्चा कैसे करुं। मुझे मजबूरन इतना अंश यहां डालना पड़ा क्योंकि प्रतिक्रिया में कई अनुकूल श्लोको का उदाहरण दिया गया है। मैं तो गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं चाहती थी। ना ही इतिहास के बोझ से दबी हुई स्त्री की हिमायती हूं। हमने सारे बोझ उतार फेंके हैं। मैंने अपने पोस्ट में जरा सी ज्रिक भर किया था कि लोग बाग तिलमिला उठे। मैंने छुआ भर...याद दिलाने के लिए। मनु-स्मृति स्त्री और दलितों के एसे कमजोर नस को छूता है कि चर्चा भर से आग भभक उठती है। आप जिसे भगवान कहते हैं, हम उसे घोर-स्त्री विरोधी मानते हैं, दलित विरोधी भी। यहां हमारी लड़ाई एकसी हो जाती है। हमारी नजर में ये कथित हिंदुवादियों का वो भगवान है जो अपने आसन से चूक गया। अब उसके लिखे की कौन परवाह करे। मनु-व्यवस्था को ठेंगा दिखाती हुई स्त्रियां हजम नहीं हो रही हैं इन्हे। क्या करें..।

अब बात कर लें उन श्लोको की जिनके सहारे हिंदू समाज अपनी पीठ थपथपाता है। जिनका हवाला प्रवीण जी ने दिया है और बाकी पुरुष साथियों का वाहवाही लूटी है। ताली बजाने से पहले बेहतर होता कि अपने भगवान की कृति पढ लेते। जिस पर हिंदू समाज ताली बजाता है उसकासच क्या है जानना चाहेंगे। बताती हूं...किसी पुरुष लेखक के लेखन के हवाले से..। डां अमरनाथ स्त्रीवादी लेखक है..उनका शोध ग्रंथ है--नारी का मुक्ति-संर्घष। उसमें वे मनु बाबा के सबसे ताली बजाऊ और चर्चित श्लोक, जिसमें मनु ने लिखा है, जहां नारियो की पूजा होती है वहां देवता निवास....। इसकी कलई खोलते हुए अमरनाथ लिखते हैं...यह एकमात्र श्लोक है जिसे मनु ने ना जाने किस मनस्थिति में लिखा था और जिसके बल पर धर्मभीरु हिंदूसमाज अपने अतीत पर गर्व करता है। इसकी पृष्ठभूमि पर विचार करना जरुरी है। मनु ने (9/5-9, 9/10-12) स्त्री रक्षा की कई बार चर्चा की है और कहा है कि स्त्री को वश में रखना शक्ति से संभव नहीं है, उसे बंदी बना कर वश में रखना कठिन है, इसलिए पत्नी को निम्नलिखित कार्यो में संलग्न कर देना चाहिए, यथा-आय-व्यय का ब्यौरा रखे, कुर्सी-मेज(उपस्कर) को ठीक करना, घर को सुंदर और पवित्र रखना, भोजन बनाना आदि। उसे(पत्नी) को सदैव पतिव्रत धर्म के विषय में ही बताना चाहिए। इन उपक्रमों से स्त्री का ध्यान इन घरेलु कार्यों में लगा रहेगा और बाहरी दुनिया से वह कटी रहेगी। रस्सी या बांस के खपच्ची से मारना वश में करने का अंतिम उपाय है। अमरनाथ लिखते है----मनु का एकमात्र लक्ष्य स्त्री को पूरी तरह अंकुश में रखना है। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद, हर तरीके के इस्तेमाल का वे सुझाव देते हैं। परंतु प्रेम से, फुसलाकर और सम्मान देकर स्त्री को वश में रखा जा सके तो सर्वोतम है।
क्या हम अपनी दुधारु गाय को प्यार से नहीं सहलाते, क्या आज का मध्यवर्गी.समाज अपने कुत्ते को प्यार से स्नान नहीं कराता, खाना नहीं देता...गोद में नहीं उठाता, घुड़सवार अपने घोड़े पर, किसान अपने बैल पर, धोबी अपने गधे पर चाबुक जरुर चलाता है पर उसकी पीठ भी सहलाता है। जरुरत पड़ने पर उसे प्यार भी देता है। मनु द्वारा स्त्री को दिया गया सम्मान ठीक इसी तरह किसान द्वारा अपनी दूधारु गाय को दिए जानेवाले सम्मान की समान है।
उम्मीद है बहुत हद तक मुन की चाल समझ में आई होगी। कार्ल मार्क्स ने शायद इसीलिए धर्म को अफीम कहा है। हमारे धर्माचार्यों ने स्त्रियों के मामले में हमारे समाज को धर्म का एसा नशा खिलाया कि उसका नशा आज तक नहीं उतरा है।

विनीत का पत्र प्रवीण के नाम

Posted By Geetashree On 10:16 PM 3 comments

प्रवीण जी,
स्त्री-मुक्ति को लेकर गीताश्री जो भी कह रही हैं,उसे आप उनकी व्यक्तिगत झुंझलाहट और विचार समझ रहे हैं,ये अकेला वाक्य आपके बौद्धिक दायरे को साबित करने के लिए काफी है। गीताश्री क्या देश और दुनिया की कोई भी स्त्री,स्त्री-मुक्ति के स्वर को मजबूत करनेवाला कोई भी पुरुष वही सोचगा,कहेगा जो कि गीताश्री कह रही हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि स्त्रियों को लेकर होनेवाली बहसों को आप बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे हैं। दूसरा कि मनु(आपके हिसाब से भगवान मनु)के श्लोकों का जो हवाला दे रहे हैं,क्या एक स्त्री की दशा को देखने-समझने विश्लेषित करने औऱ उससे बेहतर होने की सारी विचारणा मनुस्मृति से ही ली जाएगी। क्या इसके आगे मुक्ति की कोई भी खिड़की नहीं खुलती? आप इस मसले पर थोड़ी कोशिश तो कीजिए,आपको अंदाजा लग जाएगा कि मनुस्मृति का क्या स्वर है,वो स्त्रियों को शामिल करते हुए भी किस तरह का समाज चाहते हैं?यत्र नारी पूज्यन्ते का हवाला दिया,व्यक्तिगत स्तर पर मुझे इस बात का रत्तीभर भी भरोसा नहीं है,इसके कई कारण हैं,इसके विस्तार में न भी जाउं तो सिर्फ दो बातें कहना चाहूंगा। एक तो ये हम स्त्री को देवी के रुप में देखने औऱ साबित करने में इतने उतावले नजर क्यों आते हैं? पुरुष इच्छा पर स्त्री को देवी या तो फिर दासी ये दो किस्म का ही दर्जा क्यों देते हैं? आप एक स्त्री पर घर के बरामदे में हुक्म जमाते हैं,रसोई में उसके हाथ जलने की परवाह किए 365 दिन करारी रोटी की डिमांड करते हैं,दिनभर की थकी-हारी होने पर भी रात गहराते ही उसके शरीर से अपने भीतर की कामेच्छा को शांत करते हैं। जब आप एक स्त्री के साथ ये सब कुछ करते हैं तो क्या आप उस स्त्री को देवी के तौर पर मानकर ऐसा कर रहे होते हैं? क्या आपका धार्मिक कठमुल्लापन इस बात की इजाजत देता है कि आप स्त्री को देवी मानते हुए उसके साथ संभोग करें। अच्छा,आप किसी दासी के साथ शारीरिक संबंध बनाने,चकरी की तरह अपने आगे-पीछे घुमाने में यकीन रखते हैं। मुझे नहीं लगता कि इन दोनों स्थितियों में ऐसा करना चाहेंगे। मेरा कहना सिर्फ इतना भर है कि जब आफ अपने जीवन में देवी और दासी से हटकर,हांड-मांस की स्त्री के साथ संभोग करने से लेकर संवेदना,भावुकता,सामाजिक लोकाचार औऱ भी दुनियाभर की चीजों के स्तर पर जुड़ते हैं तो उस स्त्री को लेकर बात करने का स्पेस आफ क्यों खत्म करना चाहते हैं। नागरिक समाज में एक स्त्री नागरिक की हैसियत से जीती है औऱ उसको अधिकार है कि वो अपने उपर होनेवाले अत्याचारों,शोषण,भेदभाव और उत्पीड़न से जुड़ी बातों को हमारे सामने रखे। यहां ये साफ कर दूं कि हर स्त्री के साथ पुरुषों द्वारा शोषण और भेदभाव का स्तर वही नहीं होता जिसे आप अपका महान ग्रंथ या तो समझ नहीं पाता या फिर जो अखबारी बयान के अन्तर्गत नहीं आता। इसमें कई बारीकियां हैं,कई महीन विभाजन है।आप हमें मनु की इकॉनमी समझा रहे हैं। मन की तो बात छोड़ दीजिए और पुरुषों के कमाए धन को स्त्री की झोली में लाकर डाल देने की बात भी मत कीजिए। आप हमें सिर्फ इतना भर बता दीजिए कि इतना सबकुछ होने के वाबजूद भी क्या स्त्री अपनी इच्छा से,अपनी सुविधा और जरुरत के हिसाब से अपनी ही हड्डी बजाकर कमाए गए पैसों को खर्च करने के लिए आजाद है। सच्चाई तो यही है कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों द्वारा अर्जित पैसों से स्त्री को साज-सिंगार की थोड़ी-बहुत छूट भले ही दे दे,गृहस्थी चलाने की छूट भले ही दे दे(ये दोनों बातें अंततः उसके हित में ही जाते हैं) लेकिन इसके बीच से अपनी दशा सुधारने का किसी भी रुप में समर्थन नहीं करता। शायद आपको इस बात का अंदाजा नहीं कि जब अपने यहां स्त्री-मुक्ति का एक सिरा आर्थिक निर्भरता के तौर पर खोजा जाने लगा तो कुछ मामलों पर तो ये फार्मूला फिट हो गया लेकिन बहुत जल्दी औऱ ज्यादातर मामलों में स्त्रियों पर दोहरी जिम्मेदारी,लांछन और अर्जित धन पर उसके बेदखल होते रहने के मामले बने। कभी आप इसकी वजहों पर गौर करेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि आप ही की तरह के लोग स्त्री-मुक्ति के सवाल को देवी जैसी भावुकतावादी अवधारणा की ओर धकेलने के हिमायती रहे हैं और व्यवहार के स्तर पर दासी से भी बदतर व्यवहार करने के अभ्यस्त रहे हैं।कहना सिर्फ इतना है कि एक स्त्री को चाहे देवी के आसन पर बिठाया जाए,चाहे जलती हुयी सिगरेट उसके शरीर में घुसेड दिए जाएं,इसमें बहुत अंतर नहीं है,दोनों ही स्त्री को कमजोर करने की साजिश और हरकतें हैं इसलिए आप जैसे लोगों से इतनी भर अपील है कि स्त्री-मुक्ति औऱ बेहतरगी के लिए आरती उतारने के बजाए मानव अधिकारों औऱ संभव हो संविधान के पन्ने पलटने शुरु कर दें क्योंकि बिना इसके भय के आप सोशल इंजीनियरिंग के तहत,बहस और विमर्शों के हवाले से स्त्री-मुक्ति की बात समझने से रहें। उसके बाद आप गीताश्री से बहस करें तब आपकी बातों को मानने,न मानने की गुंजाइश पैदा होगी।
विनीत कुमार

प्रवीण शुक्ल जी की प्रतिक्रिया

Posted By Geetashree On 2:13 AM 9 comments

मेरे ताजा पोस्ट नख दंत विहीन नायिका का स्वागत... को लेकर प्रवीण जी की प्रतिक्रिया यहाँ पोस्ट कर रही हूं..। मैं इसका जवाब देना चाहती हूं। जिस मनुस्मृति का हवाला इन्होंने दिया है, उसी के चुनिंदा श्लोक यहां सामने रख कर कुछ सवाल उठाना चाहती हूं..मेरे पोस्ट पर हमेशा मिली जुली प्रतिक्रियाएं आती रही हैं, जिनका मैं दिल से स्वागत, सम्मान करती हूं, कई बार जरुरी लगा कि उनका उत्तर दिया जाना चाहिए। किसी कारणवश ठिठक जाना पड़ा..प्रवीण जी के विरोध के खुले दिल से स्वागत करते हुए जवाब हाजिर करुंगी इस पोस्ट के बाद.. गीताश्री

गीता जी, विरोध दर्ज करा रहा हूँ । मै आपकी हर पोस्ट पढता हूँ और नयी पोस्ट का इन्तजार रहता है ,,विचार नहीं मिलते और आपकी बातों से सहमत नहीं होता सो तिप्पणी नहीं करता। विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है , पर विचार वैचारिकता की श्रेणी में ही हो तो ज्यादा ही अच्छे लगते है , परन्तु जब किसी के किसी निजी विचार से किसी की व्यक्तिगत ,संस्कृति ,सभ्यता या परम्पराओं का अपमान हो , तो वे निजी विचार भारी विवाद का कारण बनते है। आप के इस लेख से मै आहत हुआ । स्त्री पुरुष समंधो के बारे में जो आप लिखती है मुझे नहीं पता उसका उद्देश्य क्या है (प्रसिद्धि या फिर कोई पूर्वाग्रह या झुंझलाहट ) परन्तु मैं उसे आप की निजी अभिव्यक्ति मानता हूँ। आज जो आप ने भगवान् मनु को लेकर लिखा है ( मुझे नहीं पता की आप ने मनु-स्मृति पढ़ी है या नहीं ) उसमे मै अपना विरोध दर्ज कराते हुए मनु-स्मृति के दो चार श्लोको का अर्थ यहां पर रखूंगा।

स्त्रियों के बारे में भगवान् मनु क्या सोच रखते थे यह एक श्लोक से ही सिद्ध हो जाता है--यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र देवताः। यत्रेतः तू न पूज्यन्ते सर्वा त्रता पद क्रिया (मनु स्मरति अध्याय २ श्लोक ५६ ) अर्थात : जहा नारियों का सम्मान होता है वहा देवता (दिव्य गुण ) निवास करते है, और जहां इनका सम्मान नहीं होता है , वहां उनकी सब क्रियायें निष्फल होती है। समाज में स्त्रियों की दशा बहुत उच्च थीं, उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। आर्थिक मामलो की सलाहकार और समाज-व्यवस्था को निर्धारित करने में भी स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्हें भाग्योदया कहा जाता था,,प्रजनार्थ महाभागः पूजार्हा ग्रहदिप्तया। स्त्रियः श्रियस्च गेहेषु न विशेषो स अस्ति कश्चन (मनु स्मरति अध्याय १ श्लोक २६अर्थात :संतान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्य उदय करने वाली आदर सम्मान के योग्य है स्त्रिया , शोभा लक्ष्मी और स्त्री में कोई अंतर नहीं ये घर की प्रत्यक्ष शोभा है।

ये है हमारी संस्कृति। आज कल जो कथित प्रगतिवादी स्त्रियां और कुछ पुरुष भी भारतीय समाज को पुरुष पोषक समाज और धर्म को पुरुष पोषक धर्म बताते है, कहते है पुत्र और पुत्री में समानता नहीं है और इस अव्यवस्था के लिए भगवान् मनु को दोषी ठहराते है वहीं भगवान् मनु मनु-स्मृति में कहते है ...
पुत्रेण दुहिता समाः अर्थात : पुत्री पुत्र के समान ही होती है। इतना ही नहीं भगवान् मनु तो पिता की संपत्ति में पुत्रियों के समान अधिकार की भी बात करते है। वो कहते है...अविशेषेण पुत्राणाम दायो भवति धर्मतः। मिथुनानां विसर्गादौ मनु स्वयम्भुवो Sब्रवीत (मनु-स्मृति, अध्याय ३ श्लोक १४ ) ।

नख दंत विहीन नायिका का स्वागत है....

Posted By Geetashree On 8:37 PM 9 comments

शक्ति की पूजा-आराधना का वक्त आ गया है। साल में दस दिन बड़े बड़े मठाधीशों के सिर झुकते हैं..शक्ति के आगे। या देवि सर्वभूतेषु....नमस्तस्ये..नमो नम...। देवी के सारे रुप याद आ जाते हैं। दस दिन बाद की आराधना के बाद देवी को पानी में बहाकर साल भर के लिए मुक्ति पा लेने का चलन है यहां। फिर कौन देवी...कौन देवी रुपा.
ये खामोश देवी तभी तक पूजनीय हैं, जब तक वे खामोश हैं...जैसे ही वे साकार रुप लेंगी, उनका ये रुप हजम नही होगा..कमसेकम अपनी पूजापाठ तो वे भूल जाएं।
आपने कभी गौर किया है कि शक्ति की उत्पति शक्तिशाली पुरुष देवों के सौजन्य से हुई है। इसमें किसी स्त्री देवी का तेज शामिल नहीं है। शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज के तेज से मस्तक के केश, विष्णु तेज से भुजाएं, चंद्रमा के तेज से स्तन, इंद्र के तेज से कमर, वरुण के तेज से जंघा, पृथ्वी(यहां अपवाद है) के तेज से नितंब, ब्रह्मा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पैरों की उंगलियां, प्रजापति के तेज से सारे दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौंहें, वायु के तेज से कान तथा अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न भिन्न् अंग बनें....।
कहने को इनमें तीन स्त्रीरुप हैं..अगर उनके पर्यायवाची शब्द इस्तेमाल करें तो वे पुरुषवाची हो जाएंगे। इसलिए ये भी देवों के खाते में...। ये पुरुषों द्वारा गढी हुई स्त्री का रुप है, जिसे पूजते हैं, जिससे अपनी रक्षा करवाते हैं, और काम निकलते ही इस शक्ति को विदा कर देते हैं। इन दिनों सारा माहौल इसी शक्ति की भक्ति के रंग में रंगा है...जब तक मू्र्ति है, खामोश है, समाज के फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करती तब तक पूजनीया है। बोलती हुई, प्रतिवाद करती हुई, जूझती, लड़ती-भिड़ती मूर्तियां कहां भाएंगी।
हमारी जीवित देवियों के साथ क्या हो रहा है। जब तक वे चुप हैं, भली हैं, सल्लज है, देवीरुपा है, अनुकरणीय हैं, सिर उठाते ही कुलटा हैं, पतिता हैं, ढीठ हैं, व्याभिचारिणी हैं, जिनका त्याग कर देना चाहिए। मनुस्मृति उठा कर देख लें, इस बात की पुष्टि हो जाएगी।
किसी लड़की की झुकी हुई आंखें...कितनी भली लगती हैं आदमजात को, क्या बताए कशीदे पढे जाते हैं। शरमो हया का ठेका लड़कियों के जिम्मे...।
शर्म में डूब डूब जाने वाली लड़कियां सबको भली क्यों लगती है। शांत लड़कियां क्यों सुविधाजनक लगती है। चंचल लड़कियां क्यों भयभीत करती हैं। गाय सरीखी चुप्पा औरतों पर क्यों प्रेम क्यों उमड़ता है। क्योंकि उसे खूंटे की आदत हो जाती है, खिलाफ नहीं बोलती, जिससे वह बांध दी जाती है। जिनमें खूंटा-व्यवस्था को ललकारने की हिम्मत होती है वे भली नहीं रह जाती। प्रेमचंद अपनी कहानी नैराश्यलीला की शैलकुमारी से कहलवाते हैं..तो मुझे कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊं...।
आगे चलकर से.रा.यात्री की कहानी छिपी ईंट का दर्द की नायिका घुटने टेकने लगती है--हम औरतों का क्या है। क्या हम और क्या हमारी कला। हमलोग तो नींव की ईंट हैं, जिनके जमीन में छिपे रहने पर ही कुशल है। अगर इन्हें भी बाहर झांकने की स्पर्धा हो जाए तो सारी इमारत भरभरा कर भहरा कर गिर पड़े।...हमारा जमींदोज रहना ही बेहतर है .....।
लेकिन कब तक। कभी तो बोल फूटेंगे। बोलने के खतरे उठाने ही होंगे। बोल के लब आजाद हैं तेरे...। कभी तो पूजा और देवी के भ्रम से बाहर आना पड़ेगा। अपनी आजादी के लिए शक्ति बटोरना-जुटाना जरुरी है।
ताकतवर स्त्री पुरुषों को बहुत डराती है।
जिस तरह इजाडोरा डंकन के जीवन के दो लक्ष्य रहे है, प्रेम और कला। यहां एक और लक्ष्य जो़ड़ना चाहूंगी...वो है इन्हें पाने की आजादी। यहां आजादी के बड़े व्यापक अर्थ हैं। पश्चिम में आजादी है इसलिए तीसरा लक्ष्य भारतीय संदर्भ में जोड़ा गया है। एक स्त्री को इतनी आजादी होनी चाहिए कि वह अपने प्रेम और अपने करियर को पाने की आजादी भोग सके। यह आजादी बिना शक्तिवान हुए नहीं पाई जा सकती। उधार की दी हुई शक्ति से कब तक काम चलेगा। शक्ति देंगें, अपने हिसाब से, इस्तेमाल करेंगे अपने लिए..आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब झर गईं आपकी चाहतें। ज्यादा चूं-चपड़ की तो दुर्गा की तरह विदाई संभव है। सो वक्त है अपनी शक्ति से उठ खड़ा होने का। पीछलग्गू बनने के दिन गए..अपनी आंखें..अपनी सोच..अपना मन..अपनी बाजूएं...जिनमें दुनिया को बदल देने का माद्दा भरा हुआ है।
इस बहस का खात्मा कुछ यूं हो सकता हैं।
सार्त्र से इंटरव्यू करते हुए एलिस कहती है कि स्त्री-पुरुष के शक्ति के समीकरण बहुत जटिल और सूक्ष्म होते हैं, और मर्दो की मौजूदगी में औरत बहुत आसानी से उनसे मुक्त नहीं हो सकती। जबाव में सार्त्र इसे स्वीकारते हुए कहते हैं, मैं इन चीजों की भर्त्सना और निंदा करने के अलावा और कर भी क्या सकता हूं।

औरत के विऱुद्ध औरत

Posted By Geetashree On 5:18 AM 9 comments

सास बहू से परेशान है, बहू सास से..ये कोई नई बात तो है नहीं। ये सिलसिला प्रेम की तरह ही आदिकालीन है। रिश्ते के साथ साथ ही उसकी जटिलताएं भी पैदा होती हैं। आप लोकगीतो को सुने, लोककथाएं सुने..हरेक जगह आपको सास-बहू रिश्तों की जटिलता का महागान सुनाई देगा। पिछले कई दिनों से एक खबर को मैं सिर्फ इसलिए नजरअंदाज कर रही थी कि उस पर लिखना अपने ही विरुध्द होना है। लेकिन जब बार बार कोई चीज एक ही रुप धर कर सामने आ जाए तो क्या करें। रहा नहीं गया। बहुत सोचा..किसी विचारक, किसी समाजशास्त्री की तरह...शायद उनकी तरह विचार ना कर पाऊं..मगर अपनी तरह, जरुर सोच सकती हूं।

पुरुषों की तरफ से उछाला गया एक बहुत पुराना जुमला है...औरत ही औरत की दुश्मन होती है। एसा कहकर हमेशा वे अपनी भूमिका से औरतों का ध्यान बंटाते रहे हैं।बल्कि घरेलु मामलों में तो बाकायदा औरत के खिलाफ औरत को इस्तेमाल करने का खेल खेलते रहे हैं हमेशा से। एक औरत को दूसरी से भिड़ाने की कला में माहिर पुरुषों को आनंद आ रहा होगा कि घर का झगड़ा लेकर उनकी औरतें सड़क पर घर की दूसरी औरत के खिलाफ खड़ी हो गई है। उनके चेहरे सास जैसे हैं और हाथों में नारों से पुती तख्तियां। वे अपनी बहुओं के खिलाफ खड़ी है।

सासो ने अब अपना यूनियन बना लिया है। देशभर की लगभग 700 परेशान सासो ने मिलकर आल इंडिया मदर्स-इन ला प्रोटेक्शन फोरम( एआईएमपीएफ) बना लिया है और अब बहू से उसी मंच से मोर्चा लेने को तैयार हैं। लगता है ये हारी हुई औरतो का फोरम है जो जंग जीतने के दावपेंच सीखने के लिए तैयार किया गया है। फोरम कार्डिनेटर नीना धूलिया ने कई अखबारों में बयान दिया है कि कई प्रताड़ित सांसे लंबे समयसे एक दूसरे के संपर्क में थीं। अब उन्हें हमने एक मंच दे दिया है। सास की इमेज इस कदर खराब कर दी गई है कि बहुओं की शिकायत पर पुलिस और समाज सास को ही दोषी मानता है।
टीवी में भी इन्हें वीलेन दिखाया जा रहा है, जबकि जीवन में सासें ज्यादा प्रताड़ित हो रही हैं। धूलिया को महिला आयोग से भी शिकायत है...कहती हैं, वह बहुओं का आयोग बन कर रह गया है। हम चाहते हैं कि आयोग सास की भी शिकायत सुनें, जिस तरह से बहुओं की सुनता है। इस फोरम ने हाल ही में हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का हवाला देता है जिसमें कहा गया है कि लड़कियां ससुराल से ज्यादा मायके में हिंसा का शिकार होती हैं। 15-49 साल की महिलाओं के बीच हुए सर्वे के मुताबिक 13.7 प्रतिशत महिलाएं अपनी मां से और 1-7 प्रतिशत अपनी सास के जरिए हिंसा का शिकार बनती हैं।

फोरम का तर्क है कि वैज्ञानिक रुप से तय हो चुका है, आंकड़े साबित कर रहे हैं कि सासो को बेवजह बदनाम किया जा रहा है। असल जिंदगी में तो सासें ही पीड़ित हैं...जो सबकुछ चुपचाप सहन कर ले रही हैं।
एकबारगी में आपको ये लग सकता है कि ये मामला सीधे सीधे सासो की छवि बदलने की मंशा से जुड़ा है। नहीं...मामला इतना सीधा नहीं है। इसकी तह में जाएं..फोरम का उद्देश्य भांपिए। इनका अगला कदम दहेज कानून और घरेलु हिंसा कानून में बदलाव के लिए होगा। ये है असली मकसद। बहुओं को सताने, जलाने, घर से निकालने में सबसे आगे आगे रहने वाली सासों को भी पकड़े जाने पर जेल-यात्रा करनी पड़ती है, पुरुष के साथ साथ। जब पुरुष बहू को दबोचता है तब उसके उपर मिट्टी तेल कौन डालता है, कौन है जिसकी उंगलियों से आग की चिंगारी निकलती है..जिसमें एक जिंदा मासूम लड़की जल कर भस्म हो जाती है।

कौन है जो बहू के घर आने पर दहेज का सामान गिनती है और कम पाने पर सात पुश्तों को कोसती है। कौन है जो बेटे की पसंद की औरत को जीवन भर मन से स्वीकार नहीं पाती और उस औरत के रुप में अपनी हार मानती रहती है।

कौन है वो, जो बहू पर सबसे पहले ड्रेसकोड लादती है। बेटी बहू के लिए घर में दो नियम लागू करती है।

कौन है वो जिसके आते ही बहू को अपना रुटीन और रवैया दोनों बदलना पड़ता है।

कौन है वो..बहू के घर में आते ही जिसकी तबियत कुछ ज्यादा ही खराब रहने लगती है और रोज रातको पैर दबवाए बिना नींद नहीं आती।
कौन है वो जिसे बहू आने के बाद अपनी सत्ता हिलती हुई दिखाई देती है। कौन से वे हाथ जो सबसे पहले लडकी के दुल्हन बनते ही उसके चेहरे पर घूंघट खींच देते हैं।

और कितनी ही बातें हैं...कहने सुनने वाली...कुछ याद है कुछ नहीं।

जिस सर्वे का सहारा लेकर फोरम की जमीन तैयार हुई है, उसमें मायके के उपर उंगली उठाने का मौका मिल गया है। मायके में लड़की को शादी से पहले का ज्यादा वक्त बीताने का मौका मिलता है। जाहिर हरेक तरह के अनुभव होंगे। मां कभी अपने बच्चों के प्रति हिंसा से नहीं भरी होती। उसके पीछे लड़की को सुघड़ बहू बनाने की मंशा होती होगी..अपना समाज लड़कियों को बोझ समझने वाला समाज है..लड़कियां तो दोनों जगह मारी जा रही हैं। अगर .ये सिलसिला लंबा है...तो क्या सासें कभी बेटी या बहू नहीं रही होंगी। खुद को उनकी जगह रख कर देखें। कैसे भूल जाती है अपने दिन..उनके साथ भी तो सा ही हुआ होगा। फिर वे इस व्यवस्था के खिलाफ क्यों नहीं उठ खड़ी होतीं।

वो तो भला जानिए कि इन दिनों बहूएं पति के साथ रहती हैं, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, कामकाजी हैं तो दूसरे शहर में हैं...कम मिलना होता है...प्रेम बचा हुआ है। एकल परिवार पर दुख मनाने वालों...साथ रहकर देखो...घर में दो अलग अलग फोरम की सदस्याएं जब टकराएंगी तब अपनी शामें किसी क्लब में या किसी महिला मित्र के साथ बैठ कर गम गलत करने का रास्ता तलाशते नजर आओगे। एसा नहीं कि इन दिनों सास-बहूएं साथ नहीं रहतीं। कई परिवार अभी साथ हैं..उनमें आपसी सामंजस्य भी अच्छा है। आपसी समझदारी हो तो मामला संगीन नहीं हो पाता। इस परिवार की बहू ना तो आयोग जाती है ना सास को किसी फोरम पर दहाड़ने की जरुरत पड़ती है।
ये सिर्फ शिगूफे के लिए बनाया गया संगठन है तो कोई बात नहीं...अपनी बेटी की सास को भी सदस्य
बनाने को तैयार रहें...
इस तरह के संगठन पुरुषों को मनोरंजन देते हैं और औरतो की लड़ाई को कमजोर करते हैं।
एक किस्सा हूं...एक ससुर महोदय ने अलग अलग घरों में रहने वाली दो बहुओं से एक ही सवाल पूछा और अलग जवाब पाए। सवाल था..इस घर की मालकिन कौन है, तुम या सासु-मां
छोटी बहू का सीधा जवाब-मैं हूं। यहां मैं रहती हूं, सासुमां जहां रहती हैं वे वहां की मालकिन हैं, मैं यहां रहती हूं....
इस सवाल जवाब से अनभिज्ञ बड़ी बहू से यही सवाल पूछा--सास की मौजूदगी दोनों जगह थी।
बड़ी बहू का जवाब--सासूमां हैं...वे जब तक यहां रहेंगी वह ही मालकिन, उनके जाने के बाद मैं...। जबाव दोनों सही...सोचिए कि कहां क्या हुआ होगा।

नहीं चाहिए घूंघट की आड़

Posted By Geetashree On 9:19 PM 12 comments

ये कहानी ज्यादातर घरों की है। मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी..जो शहर तो आ जाता है लेकिन खुद को शहरी चलन के हिसाब से ढाल नहीं पाता। आधुनिकता और पंरपरा के बीच पीसते हुए इस वर्ग की हालत दयनीय हो उठती है तब जब कोई लड़की या बहू अपने परिवार द्वारा थोपे गए रिवाजो के खिलाफ थाने में जा पहुंचती है।

ताजा घटना बताती हूं...दिल्ली से सटे एक उपनगर नोएडा की रहने वाली एक पढी लिखी बहू ने अपने ससुराल वालों की मानसिकता के खिलाफ नारा बुंलद कर दिया है..बेटी के जींस और बहू को घूंघट..नहीं चलेगा नहीं चलेगा...

जब घर वालों ने फरियाद नहीं सुनी तो बहू अपनी शिकायत लेकर थाने जा पहुंची। बहू ने शिकायत दर्ज कराई कि ससुराल वाले उसके साथ दोहरा रवैया अपना रहे है। (वैसे ये कोई नहीं बात नहीं), मानसिक उत्पीड़न कर रहे हैं, उसे किचन में भी घूंघट में रहना पड़ता है। जबकि उस घर की बेटियां जींस भी पहनती हैं। बहू के घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं मिलती। बहू होने के कारण उस पर जानबूझ कर रुढिवादी तौर तरीके थोपे जा रहे हैं। सिर से पल्लू सरक जाए तो ससुराल वाले गुस्सा हो जाते हैं। एक बार घूंघट के लेकर ससुराल वालों से कहा सुनी हो गई, बहू ने ससुराल छोड़ दिया और मायके वालों को साथ लेकर थाने पहुंच गई। पुलिस अधिकारी भी इस अजीबोगरीब शिकायत को लेकर पसोपेश में आ गए..फिर ससुराल पक्ष को थाने में बुलाया गया, दोनों पक्षों में देर तक बहस चली..आखिर में बहू के बेटी की तरह रखने के लिए ससुराल वाले सहमत हुए। पुलिस अधिकारी ने उन्हें दकियानूसी रवैया छोड़ने और नई व्यवस्था को लागू करने के लिए 10 दिन की मोहलत दी है।


ये टकराव रुढिवादी मानसिकता और आधुनिक समाज के बीच है। लड़की ने एमबीए किया है, फ्रेंच भाषा में डिप्लोमाधारक है, पढी लिखी आजाद खयाल की एक लड़की पर घूंघट के लिए दवाब बनाना बेहद हास्यास्पद है। यहीं नहीं...सुसराल वाले उसे पायल समेत तमाम सुहाग चिह्न धारण करने के लिए कहते हैं। साड़ी में लिपटी लड़की उन्हें बहू के रुप में चाहिए। जिस परिवार में बेटियां आधुनिक पोशाक पहने वहां एक पढी लिखी बहू से साड़ी और घूंघट की उम्मीद कितनी अजीब लगती है। ये किस दुनिया, समझ और समय में जीने वाले लोग हैं।


.ये लड़की तो हिम्मतवाली निकली जो सबक सिखाने पर आंमादा हो गई है। ना जाने कितनी बहूएं आज भी वही पोशाक पहन रही हैं जो ससुराल वाले तय करते हैं। आप उनके घरों में जाएं तो बेटी बहू का फर्क साफ साफ नजर आएगा। कलह के डर से कई आधुनिक बहूएं वहीं कर रही हैं जो उन पर थोपा जा रहा है। मैं तो अपने आसपास देखती हूं...मैं भी खुद को इनमें शामिल करती हुए बताती हूं कि जैसे ही किसी के सास-ससूर गांव से दिल्ली आने वाले होते हैं वैसे ही आधुनिक बहूंओं की पोशाके बदल जाती है..खाली हाथों में कांच की चूड़ियां पड़ जाती हैं और मांग में लाल लाल सिंदूर चमकने लगता है। कुछ डर से करती है, कुछ इसे बड़ो का लिहाज बताती हैं तो कुछ का तर्क होता है--अरे कितने दिन रहना है उन्हें.. तक हैं उनके हिसाब से जी लो..जाने के बाद तो मर्जी अपनी। कौन सा वे देखने आ रहे हैं। एक बहू है उनके ससुराल वालों को बहू के जींस पहनने से इतनी नफरत है कि बहू बेचारी जींस पहन कर खींची गई तस्वीरें भी उन्हें नहीं दिखाती। एक और बहू है...जिसके ससुराल वालों के बहू का नाइटी पहनना पसंद नहीं। जिस दिन बहू घर में आई, सासु मां फरमान लेकर पहुंची...तुम चाहे घूंघट मत करो, नाइटी मत पहनना, तुम्हारे ससुर जी को पसंद नहीं, उन्होंने मुझे और अपनी बेटियो तक को नहीं पहनने दिया। कामकाजी बहू ने फरमान सुनते सिर पीट लिया। क्या करती...एक नाइटी के लिए परिवार की शांति भंग नहीं की जा सकती ना। सो..नाइटी को वैसे छुपा दिया जैसे कोई अपना खजाना छुपाता है।


पता नहीं कितनी बातें, कहानियां, कुछ सच हैं जिन्हें जानकर रुढिवादी मानसिकता पर कोफ्त होती है। एसे मामलों में पता नहीं ससुराल वाले कितना बदलते हैं, लड़कियां बदल जाती है। वे बदलने क लिए ही पैदा जो होती हैं...

दिल्ली के आसपास जितने भी गांव हैं, वहां बुरा हाल है। शादी हुई नहीं कि सिर पर पल्लू। आप दिल्ली यूपी के शापिंग माल में एसा नजारा देख सकते हैं। हरियाणा में तो पल्लू अनिवार्य है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी घूंघट प्रथा कम नहीं है। दिल्ली में रहने वाली बिहारी बहूंएं जब अपने गांव जाती हैं तो ससुराल की सीमा शुरु होते ही सिर पर पल्लू डाल लेती हैं। चाहे वे कितनी पढी लिखी हों। ज्यादा पढी लिखी बहू ने घूंघट किया तो घर घर में उसकी प्रशंसा होती है और वो सबके लिए उदाहरण बन जाती है। घूंघट नहीं किया तो लड़कियों की पढाई और उनकी आजादखयाली को जम कर कोसा जाता है।

राजनीति में आने वाली बहूओं ने और बेड़ा गर्क कर रखा है। वोट पाने के लिए विदेशों में पढी लिखी, पेजथ्री पार्टी की शान बढाने वाली बहूंएं अचानक घूंघट अवतार में नजर आने लगती हैं। राजनीति की पाठशाला में आने से पहले उनके सिर पर पल्लू पड़ जाता है। उम्मीद की जाती थी कि नई लड़कियां इस चलन को बदलेंगी मगर कुछ तो बदलने का नाम ही नहीं ले रही। नतीजा...समाज का रवैया आसानी से कभी बदला है जो बदलेगा।

पिछले साल मैं महाराष्ट्र के दौरे पर गई थी। सूदूर, गांवों में, जहां महिलाओं ने सेल्फ हेल्प ग्रुप बना कर काम कर रही हैं। उनकी संस्था में इस समूह से मुलाकात हुई तो देखा सबने साड़ी पहन रखी है और सबके सिर पर पल्लू है। उनमें से कुछ मोपेड भी चलाती हैं। चलाते समय भी नके सिर पर पल्लू रहता है। मैंने पूछा तो पता चला कि ससुराल वाले कहते हैं कामकाज करना हो तो करो, चार पैसे आ जाए, किसे बुरा लगता है मगर परंपरा का पालन करते रहें। मैंने कंचन नामक युवा महिला को पल्लू के खिलाफ भड़काया, उसने कहा- क्या बताएं, हमें साड़ी पहन कर मोपेड चलाने में दिक्कत होती है, उस पर से ये पल्लू। हमारे गांव में परदा प्रथा इतनी है कि औरतों के लिए अलग से एसटीडी बूथ बने हुए हैं। एसे में हम पल्लू हटाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं।


औरतें आत्मनिर्भर होने के बावजूद मुक्त नहीं हैं अपने रिवाजो से, ढकोसले से..सामाजिक दबावो से...पोशाकों से..जिस जमाने में ये प्रथाएं औरतो पर थोपी गई होंगी तब समय कुछ और रहा होगा..दौर बदल गया है, दुनिया कहां से कहां चली गई...हम हैं कि उसी मानसिकता में जी रहे हैं। आज के समय में इस प्रथा को पोसने वालो से मेरा आग्रह है कि चाहरदीवारी की कैद में, खुद को पांच मीटर के कपड़े में लपेट कर चूल्हा फूंके, घूंघट की आड़ में रह कर...पता चल जाएगा कि एक लड़की कैसे झेलती है ये सब।

बंद समाज में बिना शादी सेक्स का नया चलन

Posted By Geetashree On 9:30 AM 6 comments


यकीन हो या ना हो, खबर सच है। क्योंकि खबर आई है उसी समाज के एक प्रतिनिधि के कलम से। किसी भी तरह के गैरशरीयत और गैरवाजिब यौन संबंधों पर बारीक और कड़ी नजर रखने वाले इसलामी देश सऊदी अरब में इन दिनों लीव-इन रिलेशनशीप का चलन जोर पकड़ रहा है। इसे तरजीह दे रहे हैं वहां के रुढिवादी लोग। ये वहां की नई पीढी का करिश्मा या उनकी प्रगतिशील सोच का अंजाम नहीं है ये। ये सीधे सीधे अर्थतंत्र से जुड़ा मामला है। ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले अखबार गार्डियन की एक रिपोर्ट ने शरिया और इसलामी कानून की रोशनी में महिला-पुरुष के रिश्तों को लेकर एक नए विवाद का सूत्रपात कर दिया है। इस अखबार से जुड़े पत्रकार सईद नियाज अहमद ने दावा किया है कि सऊदी अरब के रुढिवादी तबके में औरत और मर्द मिस्यार निकाह के जरिए यौन-पूर्ति को तरजीह दे रहे हैं। चूंकि इस विधि से निकाह करने में महिला के प्रति जिम्मेदारी नहीं रहती और शादी के बाद मिलने वाले शौहरी हुकूक(पति के अधिकारो से वंचित) से वह वंचित रहती है। इस रिश्ते के पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। और इसके फायदे गिनाए जा रहे है।


मसलन...इसमें दहेज, रिसेप्शन, वलीमा, घर की साज-सज्जा और बारात का खर्च..सबकी बचत कोई कम बड़ी बचत है क्या। बचत ही बचत...इसी बचत के लालच ने वहां लीवइन रिलेशनशीप को सामाजिक और धार्मिक स्वीकृति दिलवा दिया है।

इससे पैसो की घोर बचत होती है। वाह क्या दिमाग लगाया है। हमारे समाज में जब यह चलन आया तब भी और जब जोर पकड़ रहा था, तब भी ये सोच नहीं थी। यहां उद्देश्य बिल्कुल अलहदा थे और हैं भी। उस पर बहुत कुछ लिखा कहा जा चुका है। रिपोर्ट के अनुसार मिस्यार निकाह एक तरह का अनुबंध विवाह है जिसके तहत शादी के बंधन में बंधे बिना स्त्री-पुरुष जिस्मानी रिश्ते कायम कर सकते हैं। यह तरीका इस बात की भी छूट देता है कि जोड़े अलग रहकर यौन संबंध बना सकते हैं। मिसाल के तौर पर महिला अपने पिता के घर रह सकती है। जब चाहे पुरुष विशेष के पास जा सकती है। अगर किसी कारणवश जोड़े साथ नहीं रहते या किसी वजह से उनका रिश्ता टूट जाता है तो भी सेक्स के लिए वे चाहे तो मिल सकते हैं। मिस्यार शादी के रस्मों रिवाज से मुक्त होता है, साथ ही शादी के ताम-झाम से भी.रिपोर्ट के अनुसार सउदी अरब में यह चलन उन्हे ज्यादा रास आ रहा है जो कड़के हैं या जो महाकंजूस हैं। जेब खाली है मगर स्त्री अनिवार्य रुप से चाहिए। इस चलन से कुछ एय्याशों की बांछे खिल गई हैं। कुछ घटनाओं से उनकी मंशा साफ जाहिर हो रही है। एक शख्स अपनी पहली शादी टूट जाने से बड़ा परेशान था। उसे किसी ने सलाह दी कि वह मिस्यारी निकाह कर ले और मस्त रहे। अब तक वह व्यक्ति कई मिस्यारी विवाह कर चुका है। किसी रिश्ते में वह एक माह से ज्यादा देर तक नहीं रुका। रुकता भी क्यों..उसे धीरे धीरे इसमें मजा आने लगा होगा। हींग लगे ना फिटकरी...रंग चोखा आए...बिना दमड़ी खर्च किए, बिना किसी झंझट के उसे स्त्रियां मिलती रही वो एक के बाद एक...सफर करता रहा। ये सारे चलन पुरुष अपने हित को सोचकर ही बनाते हैं और उसे अपने स्वार्थ के लिए सामाजिक धार्मिक मान्यता दिलवा देते हैं। यह व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी को मिस्यारी प्रथा का प्रयोगशाला बना डाला, उसको औरतें जरुर नई नई मिलीं लेकिन वह किसी एक से भी कभी खुश नहीं रह सका। उसने उन औरतो पर ही आरोप जड़ दिया कि जितनी आईं वे सब पैसों, तोहफो की भूखी निकलीं। इल्जाम लगाते समय वह भूल गया कि वह खुद क्या कर रहा है। तब तो नई नई स्त्रियों का ख्वाब उसे उत्तेजना से भर देता होगा। लालची कह कर पीछा छुड़ाता रहा और आखिर आजिज आ गया। आदमी कई बार अपनी ही आकांक्षाओं का शिकार हो जाता है और अपनी ही आग उसे राख बना डालती है, जिस राख से कोई फीनिक्स पैदा नहीं होता। सऊदी की औरतो को भी आजादी का यह रास्ता बहुत रास आने लगा है। एसी खबरे आ रही है कि वे भी मिस्यारी अनुबंध को खुल कर अपना रही हैं। औरतो के नजरिए खबरे छप रही है कि मिस्यारी पत्नी एक से ज्यादा मिस्यारी पति से संपर्क बना रखा है। जानते हैं ये मिस्यारी पति कौन लोग हैं,,,,ये किसी औरत के पूर्णकालिक पति होते हैं जो अपाटर्मेंटस में फ्लैट लेकर मिस्यारी पत्नियां रखते हैं जिनके बारे में अपनी पूर्णकालिक पत्नी को भनक तक नहीं लगने देते। वहां स्त्रीवादी अब एसी ही पूर्णकालिक (पूर्णनिकाही) पत्नियों को उकसा रहे हैं कि वे क्यों किसी धोखे में रहें, क्यों ना वे भी एसे रिश्तों के बारे में सोचे। वे क्यों नहीं मिस्यारी पति तलाश लेतीं। मिस्यारी पति भी एक से ज्यादा मिस्यारी पत्नी रखने लगे है तो क्यों ना मिस्यारी पत्नियां अपने लिए एसी व्यवस्था कर लें। हिसाब बराबर....।