Posted By Geetashree On 8:14 PM Under , , ,
युवा कथाकार कवि पंखुरी सिन्हा की कहानी का आश्चर्यलोक 

पंखुरी सिन्हा के मन मिजाज को उसके बचपन से जानती हूं। उसके लेखन को बहुत देर से जान पाई। होस्टल में फुदकती हुई, गौरेया-सी, शाम को मस्ती में मेरे पास आने वाली एक नन्ही लड़की कब कहानीकार में बदल गई, पता ही नही चला। कुछ हम गाफिल रहे जमाने से, या जमाना हमसे रहा..। दोनों तरफ से दूरियां रहीं। पर जब दूरियां कम हुईं तो पंखुड़ी की कहानियां मेरे सामने आश्चर्यलोक की तरह खुली और खुलती चली गईं। उसने जब पहला संग्रह किस्सा-ए-कोहिनूर दिया, तभी से उसकी कहानियों को लेकर रोमांच रहा। जिसे आप करीब से जानते हो, उसकी कहानियां कुछ ज्यादा ही खुलती हैं आपके आगे। वह बोले न बोले, कहानियां खुद बोलती हैं। पंखुरी के मामले में मैंने यही पाया कि उसकी कहानियां बात करती है। बातूनी कहानियां हैं तभी उसकी कहानियों के भीतर से गुजरना जिंदगी से होकर गुजरने जैसा लगा कई बार। मैं जिस कहानी पर खास बात कर रही हूं, वह प्रदूषण कहानी है। नाम पढ कर पहली बार मुझे अटपटा लगा। पत्रकारीय भाषा में कहे तो सरकारी टाइप शीर्षक। पर कहानी को अंत तक पहुंचते ही शीर्षक के अर्थ खुलने लगते हैं। बहुत सांकेतिक हेडिंग है। ये प्रदूषण बाहरी नहीं, भीतरी है जिससे हम जूझते रहते हैं और दिमाग में कचरे का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं। इससे जिंदगी हराम हो जाती है और हम रास्ता भटक जाते हैं। जिंदगी के कुछ फैसले कठोर तो होते हैं लेकिन वे आपको मजबूत बनाते हैं, आत्मनिर्भर भी। रिश्तो के मायाजाल में फंसी हुई नायिका कहानी के अंत में न सिर्फ खुद को समझाती है बल्कि अपने पाठको तक अपना संदेश पहुंचाने में सफल दिखती है...अपने शहर को प्रदूषण से बचाइए। पर्यावरण के बहाने जिंदगी की ओर संकेत देती है और बाकी पाठको के विवेक पर छोड़ देती है।
कहानी में कई किरदार है। रचना, शिशिर, सौम्या, अनिर्वाण, चाचा जी इत्यादि। कुछ अनुपस्थित लोगो का भय भी जैसे मकान मालिक। महानगरो में रह रही सिंगल लड़की या लिव इन में रहने वाली लड़कियों-युगल जोड़ो को इस तरह के खौफ से साबका पड़ता है। कहानी में इस भय की छाया है जो बहुत जेनुइन लगती है। सारे किरदार सहज स्वभाविक हैं। यह कहानी अपने समय का सच है। एक पढने लिखने वाली, कम आय वाली नौकरी करने वाली लड़की को अपने लिए घर में भी स्पेस चाहिए और जिंदगी में भी। वह कभी, प्रेम में पड़ कर तो कभी आर्थिक कारणो से घर साझा कर तो लेती है लेकिन वह खुद खो जाती है। वह बोल्ड तो है लेकिन अपने चाचा की परवाह करने वाली सुघड़ लड़की भी। रचना शहरी और कस्बाई दोनो लड़की का काकटेल है। सौम्या पूरी तरह महानगरीय लड़की है, बिंदास और बेलौस। उसे शादीशुदा पुरुष से प्यार हो जाता है। फिर भी एक घर में रहने वाली सहेली के पुरुष मित्र पर फिदा हो जाती है। कहानीकार ने यहां बड़ी सधी हुई भाषा का इस्तेमाल किया है। वह कहीं भी सौम्या के प्रति कठोर नहीं दिखती पर कटाक्ष वाली भाषा का जरुर इस्तामल करती है। यह लाजिमी भी है कि एर पुरुष से प्यार करते हुए दोस्त के मित्र के सथ गणित पढने के बहाने फ्लर्ट करने लगना। और वही होता है, जो अक्सर इन मामलो में होता है। रचना और सौम्या के रास्ते अलग हो जाते हैं।रचना उसे घर छोड़ने को साफ साफ कह देती है पर घर का किराया उसे अखरने लगता है। फिर अनिर्वाण को उस घर में जगह मिलती है। एक घर में लेकिन अलग अलग कमरे में जीते हुए दो लोग। प्यार को लेकर एकदम स्पष्य विचार वाली ल़ड़की। वह खुद कहती है...जैसे जैसे समय बीतता गया. मैंने पाया कि प्यार नामक वह चीज बजाए कुछ खूबसूरत होने के अक्सर विस्फोटक झगड़ों में उबल पड़ती थी।
पंखुड़ी ने इस कहानी को रोचक शैली में लिखा है। कई बार रचना तटस्थ दिखती है या निस्संग। जैसे बाहरी चीजें उसे ढंकने का प्रयास कर रही हों और वह खुद को फंदे से छुड़ाने की तड़प में हो। वह समान्य लड़कियों से थोड़ी अलग है। किस्सागो पंखुड़ी आत्मविश्वास से लैस एक जटिल किरदार को रोचक ढंग से पेश करती है।

कहानी की दोनों लड़कियां महानगर में जीने वाली लड़कियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अपने फैसले खुद लेने वाली लड़कियां हैं जो नैतिकता के किसी बंधे बंधाएं ढांचे या व्यामोह में नहीं फंसती। उन्हें गलत सही, पाप पुण्य का बोध परेशान नहीं करता। दोनों अपने समय संघर्ष के साथ जुड़े हैं और उन्हें अपने किए का कोई अफसोस नहीं। इन सबके बीच दोनों पुरुष पात्र अपनी अलग छाप छोड़ते हैं। अनिर्वाण भी रचना के लिए बहुत सहयोगी साबित होता है। उसकी देखरेख करता है और सौम्या के आग्रह पर उसे पढाता भी है। सौम्या का ब्वाय फ्रेंड शिशिर पहले से शादीशुदा है और दो बच्चो का बाप भी है। उसकी अपनी पत्नी से नहीं पटती। पर वह तलाक नहीं लेना चाहता। दो बच्चो की खातिर। सौम्या ने उसे इसी रुप में स्वीकार कर लिया है। वह शिशिर से हमबिस्तर भी होती है, कहानी में संकेतो के जरिए इसका जिक्र है। चादर पर पड़ी सिलवटे बताती हैं कि वहां क्या हुआ होगा। इसका ब्योरा देने की जरुरत नहीं होती। इसी तरह के छोटे छोटे रोचक ब्योरे कहानी को बड़ा फलक दे जाते हैं। हिंदी साहित्य की छाती- कूट आलोचना से परे, यह छोटी कहानी, नई लड़की की बात इस ग्लोबल समय में ठोस रुप में दर्ज करती है।   
अरुण चन्द्र रॉय
September 23, 2014 at 2:45 AM

अच्छी कहानी ! इस श्रंखला को आगे बढाइये और कुछ और अच्छी कहानी पढ़वइये गीता जी !

Unknown
September 27, 2014 at 10:54 PM

कहानी की सुन्दर व्याख्या। सधी हुई सशक्त्त भाषा। यह आलोचना कहानी की अनेक परतों को स्पर्श करती है. आखिरी सन्देश वास्तव में, मौसम, प्रकृति जैसे तत्वों की ताकत की बात करता है. एक पोस्टर में भेजे गए सन्देश सा, कि अच्छा यह भी है और इतना बड़ा कारक, संघारक, पालक। यहाँ, गीता दीदी को उनके सटीक शीर्षक के चुनाव की बधाई----वाक़ई आश्चर्य लोक से सामना होता है कहानी में.