मर्दाने चरित्र प्रमाण-पत्र

Posted By Geetashree On 4:18 AM


मनीषा

चरित्र चरमराने से परेशान औरतों में लेखक, साहित्यकार, पत्रकार, बैंकर, अदाकार, कवि, कलाकार, डॉक्टर, इंजीनियर, से लेकर भाजी वाली, घरेलु काम वाली, बीपीओ में रात्रि-पाली करने वाली, नर्स, घरवाली, मास्टरनी या बाबूगिरी करने वाली सभी शामिल हैं। अपने समाज में औरत होने का मतलब ही है, दुविधाओं में ग्रस्त रहना। दूसरों यानी पुरूषों के लिए शोक में लिपटी रहना। आचार-व्यवहार पर चरित्र की चाशनी का मुलम्मा चढ़ाये फिरना। पुरूषों ने बेहद चतुराई से स्त्री के चरित्र को हमेशा अपनी दया का मोहताज प्रचारित किया है। औरतों पर त्वरित टिप्पणी कर उनकी छवि बनाने-बिगाडऩे का ठेका वे हमेशा से अपने अंगूठे के नीचे रखने को स्वतंत्र रहे हैं। आज भी उनके लिए यह निर्णय सुनाना कि अमुक लडक़ी बहुत ‘घटिया’ है, काफी पौरुषेय दंभ देने वाला होता है। लड़कियों को लेकर पुरुषों में काफी अलग किस्म की शब्दावली प्रयोग होती है, जिसका जिक्र भी करना अभद्रता माना जा सकता है। बुरी, चरित्रहीन, छिनाल, बाजारू, रंडी जैसी शब्दावली इनके लिए आम है। दरअसल, ये आज भी औरत को प्रोडक्ट से ज्यादा नहीं समझते। अपनी बीवी और बच्ची के अलावा इनको बाजार में टहलती, दफ्तर में काम निपटाती, बस में सफर करती, बैंक में नोट गिनती, सडक़ पार करती, भाजी-सौदा-सुलभ खरीदती हर औरत का चरित्र गंदा लगता है।
जबकि, असलियत यह है कि समाज की सारी औरतों को चरित्र-प्रमाण पत्र बांटने में जुटे ये लोलुप किसी औरत को साफगोई से देखना जानते ही नहीं! मनोविज्ञान चीख-चीख कर अब कहता है कि पुरुषों के दिमाग में हर छठे मिनट पर सेक्स घूमता है। अपनी इस कामुकता पर उन्हें लगाम लगाने की जरूरत महसूस नहीं होती। मेरी एक पत्रकार मित्र बड़ी आहत हैं, ऐसे ही कुछ उद्दंडी पुरुषों की टिप्पणियों से।
हिंदी की एक बड़ी उपन्यासकार भी आहत हो जाती हैं, ऐसी ही छींटाकशी से। ये प्रबुद्ध औरतें हैं। इनकी समाज-परिवार में अपनी पहचान है। अपनी बात भी उचित ढंग से रखने में सक्षम हैं ये। बावजूद इसके, ये उन्हीं दकियानूस जंजालों में उलझ जाती हैं। कोई (पुरुष) हमारे चरित्र का निर्माता कैसे हो सकता है? ऐसी कौन-सी परिस्थितियां हैं, जो उन्हें निर्णायक मानने पर मजबूर करती हैं? जो पुरुष किसी भी औरत को कपड़ों की तमाम परतों में लिपटी होने के बावजूद अपनी नजरों से नग्न ही निहारता है, उसके बारे में क्या कहा जाए? हम सब औरतों को यह अहसास नहीं है कि पुरुष जब औरतों को देखते हैं तो सबसे पहले उनकी नजरें छाती पर अटकती हैं। वे जुबान से कुछ भी बोलें, पर उनके चेहरे के हाव-भाव पढ़ कर हम समझ ही लेते हैं कि पुरुष मन में क्या चल रहा है।

औरत का पर-पति की तरफ देखना भी पुरुषावली के अनुसार घृणित है परंतु पर-स्त्री को प्रणय-निमंत्रण देने को वे विजेता के तौर पर देखते हैं। पुरुषों को भ्रम है कि उनके जीवन में जितनी औरतें (अंतरंग) आती हैं, उनका पौरुष उतना ही स्ट्रांग होता जाता है। इसकी महिमा बखानते समय उनको ना तो अपने चरित्र के तार-तार होने का भय होता है, ना ही अपने यौन उच्छृंखलताओं पर किसी तरह की कोई ग्लानि ही। पुरुषों को हमेशा से भ्रम रहा है कि औरतों का वजूद उनकी दया के भरोसे ही धरती पर शेष है। वे औरतों को अपना शिकार मानते हैं और अपने पौरुष को परखने के लिए उसकी देह का इस्तेमाल शौक से करते फिरते हैं। चरित्र को केवल यौन शुचिता से जोडऩे की नासमझी रखने वालों की माफ करके हम महानता के खांचे में नहीं बने रह सकते। हमको जबरन उनके भ्रम को चकनाचूर करना होगा। उनकी दया को दुत्कारना होगा। साथ ही, उनके झूठे पौरुषेय दंभ को कुचलने में कोई संकोच नहीं करना होगा। सुविधाजनक स्थिति में जीने की इसी आदत के चलते निन्दा-रस के साथ-साथ चरित्र उधेडऩे की रसीली बातों से वे खुद को बचा नहीं पाते। अपने पास यह अधिकार सुरक्षित रखने को लालायित पुरुष ‘बुरी’ औरतों की श्रेणी में उन्हीें औरतों को रखते हैं, जो उनकी पहुंच से बाहर नजर आती हैं। अदभूत तर्क तो यह है कि हर मर्द मानकर चलता है कि वे औरतों का चरित्र प्रमाण-पत्र चुटकियों में खड़े-खड़े ही दे सकते हैं। चरित्र चाशनी का यह भ्रम-रस औरतों के दिमाग में इस कदर ठूंस दिया जाता है कि वे इस पर जरा सी खरोच से भी घबरा जाती हैं। यह जानते हुए भी कि इन बातों में तनिक भी दम नहीं है, औरतें कछुए के इस छद्म खोल मे खुद को छिपाने की हर पल कोशिश करती हैं। चरित्रवान औरतों की काबिलियत के कशीदे पढऩे वाले ही कीचड़ उछालने का काम भी करते हैं।

पौरुषेय उद्दंडताओं से त्रस्त औरतों की संख्या अकेले दिल्ली में 80 फीसद है जो घर से बाहर निकलने में ही खुद को असुरक्षित मानती हैं। नन्हीं-नन्हीं बच्चियों को पुरुषों की यौन कुंठाओं से बचाने में हमारी तमाम ऊर्जा लग जाती है, बावजूद इसके रोजाना पुरुष उनको हवस का शिकार बनाते हैं। चारित्रिक दोषों से घबराने वाली हमारी मानसिकता कब खत्म होगी, कहना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए ना तो सरकारें काम करेंगी और ना ही कोई आरक्षण काम आएगा। यह मानसिक दशा है, प्रेशर बनाने की साजिश। जिससे बचने का काम ऊर्जावान, सक्षम स्री को ही करना होगा। मर्दों के गढे पैमानों/ पैटर्न को उखाड़ फेंकना होगा और भयभीत हुए बिना ही उनको ललकारना होगा।
यह आज की समस्या नहीं है, भगवान राम पीढिय़ों से पुरुषोत्तम हैं यानी समस्त पुरुषों में उत्तम, पर उन्होंने भी अपनी गर्भवती पत्नी सीता के चरित्र पर लगे दोष के आधार पर उन्हें घर से निकाला दे दिया था। औरत के ‘चरित्र’ का पैमाना कौन तय करेगा और कैसे करेगा, यह सब पुरुष की निर्णय करते रहे हैं। चरित्र को दूध पर पड़ी मलाई बना दिया गया है, जिसको जो चाहे, आकर उतार दे? यह कोई आवरण तो नहीं है ढक कर रखा जाए।

यह पुरुषवादी प्रपंच की देन है जिसने औरतों को मुटï्ठी में भींचे रखने की चतुराई में गढ़ा है। पांच पतियों के साथ रहने वाली द्रोपदी चरित्रवान है, मॉडल से हीरोइन बनी पायल रोहतगी ने ज्यों ही फिल्म डायरेक्टर दिबाकर बनर्जी पर कास्टिंग काउच का आरोप लगाया तो सारा मीडिया (पुरुषवादी) अचानक फायर-बैक करने में जुट गया। सुधीर मिश्रा जैसा संवेदनशील नजर आने वाला गंभीर फिल्मकार बनर्जी की तरफदारी करने लगा। यह सच है कि आज की तारीख में पायल जाना-माना चेहरा है, वह चतुर है। उसको काम पाना आता है पर इसका यह मतलब तो नहीं कि उसके साथ जो हुआ, वह सिर्फ स्टंट था। फिल्म वाले तो प्रचार के नाम पर जाने क्या-क्या करने को पहले से ही तैयार रहते हैं। कुल मिलाकर, सारे आरोप अकेली लडक़ी पर मढऩे की यह घिनौनी सोच कब बदलेगी? लड़कियों को अपना चरित्र संभाल कर रखना चाहिए, पर लडक़ों को यह पाठ पढ़ाने की जरूरत क्यों नहीं होनी चाहिए? ठंडा पेय बेचने वाली मल्टीनैशनल कंपनी विज्ञापन करती है कि अपनी गर्लफैंड के सामने लड़कियों को कैसे ताको, पर उनमें इतना साहस है कि वे कहें कि किसी दूसरे मर्द को कोई ब्याहता कैसे देखेगी, क्योंकि यह फार्मूला पुरुष-विरोधी है, प्रोडक्ट की बिक्री पर इसकी निगेटिविटी दिख जाएगी। टीवी पर आने वाले सारे सीरियल्स यही बेचते हैं ना कि बुरी औरतें दूसरों के पतियों का शिकार करती हैं, जबकि भली औरतें पति से प्रताडि़त होने के बावजूद भी रोती-बिसुरती घुटती रहती है। यह सच है कि पुरुषों को छलने, उनको प्रलोभन देने, अपना काम बनाने और उनको बेवकूफ बनाने की उतावली में जनाना चालबाजी आम है। पर यह दुतरफा खेल है, यहां ना कोई कीचड़ है ना कमल। यहां दोनों रोग (एक)चरित्र हैं। 50-50, आपसी सहमति से बनाया गया कोई भी संबंध बेमानी नहीं होता। हां, ये गेट टू गेदर होता है, लाभ-अलाभ इसी में शामिल होते हैं। इसमें दोनों बराबरी से भागीदारी करते हैं इसलिए चरित्र केवल स्री का ही धूमिल हो, यह बात जमती नहीं। स्री को चरित्र में उलझाकर, पुरुष के भाग्य भरोसे छोडऩे वाली चतुराई के दिन पूरे हो चुके हैं।
पुरुष को चरित्र प्रूफ बनाये रखने की साजिश और परिवार का भाग्यविधाता होने का भ्रम अब खत्म हो चुका है। औरतें बेहद चतुराई से पुरुषों का चरित्र हरण करके अपना भाग्य बनाने की राह पर निकल चुकी हैं। उनको खोने के दर्द से ज्यादा आनन्द ‘झपटने’ का है।

(मनीषा दिल्ली के राष्ट्रीय सहारा अखबार में फीचर एडीटर है और स्त्री विमर्श पर धारदार लेखन के लिए जानी जाती हैं।)
डॉ .अनुराग
April 19, 2011 at 6:26 AM

पिछले दिनों जब छिनाल विवाद हुआ था तब एक बात सोच रहा था के पुरुष अपने अतीत के प्रेम प्रसंगों को गौरव शाली ढंग से श्रंखला बद लिखता है ओर लोग कसीदे पढ़ते है ओर औरत....जब सिर्फ मन की इच्छा जाहिर करती है तो वही लोग......
वैसे .सच कहूँ ये एक प्रूवन सत्य है ...आदमी अभी जिस्म से बाहर नहीं आ पाया है....

Vibha Rani
April 19, 2011 at 6:52 AM

औरतों के लिए चरित्र का एक ही पैमाना बना दिया गया है- यौन शुचिता. उनके लिए साठ पे पाठा होता मानुस है, मर्द और घोडे कभी बूढे नहीं होते, जितने दर जाओगे, उतने बहादुर और मर्द कहलाओगे- ये सब उनके उच्च चरित्र के प्रमाण पत्र हैं. औरतें इसमें शामिल कैसे हो सकती हैं? तब तो वे भी दूसरे मर्दों का शिकार करने लग जाएंगी कि नहीं? ये 'मर्द', जो दूसरे की बहू बेटियों, बीबियों का शिकार करते हैं, वे भी दूसरों के खसम, बेटों, बापों के ही तो शिकार करेंगी. अपने लिए वे कोई पुतला तो गढ नहीं लाएंगी. क्रिएटिव और अपनी पहचान रखनेवाली औरतों के लिए तो और मुसीबत है.वे छपने लगें तो सम्पादकों से फंस गईं, चअर्चित होने लगे तो अपने मालिकों से 'पट' गईं, प्रसिद्ध होने लगे तो असामियों से 'सट' गईं. मतलब कि बिना अपने आपको परोसे, वे उन्नति कर ही नहीं सकतीं. उनका जिस्म उनकी तरक्की, प्रगति का महामार्ग है. ऐसी सोचवाले के घर की औरतें, यकीन मानिए, सबसे अधिक प्रताडित होती होंगी, क्योंकि वे जिस चश्मे से सभी को देखते हैं, उसी की एक कमानी अपने घर की औरतों की आंक्झों मे भी गाड आते हैं.

Khushdeep Sehgal
April 19, 2011 at 6:58 AM

मर्दों के लिए हर जुल्म रावण, औरत के लिए रोना भी ख़ता,
मर्दों के लिए लाखों सेजें, औरत के लिए बस एक चिता,
मर्दों के लिए हर ऐश का हक़, औरत के लिए जीना भी सज़ा,
औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया...

जिन होठों ने इनको प्यार किया, उन होठों का व्यापार किया,
जिस कोख़ में इनका जिस्म ढला, उस कोख़ का कारोबार किया,
जिस तन से उगे कोपल बन कर, उस तन को जलील-ओ-ख़ार किया,
औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया...

जय हिंद...

Arvind Mishra
April 19, 2011 at 7:53 AM

पुरुषों के चरित्र विवेचन की एक प्रतिशोधात्मक अनर्गल प्रस्तुति!
मुझे नहीं लगता ऐसे उदगार किसी संतुलित विचार मंथन को दिशा देगें ....

देवेन्द्र पाण्डेय
April 19, 2011 at 11:22 AM

पुरूष-औरत इस विमर्श में एक चीज गायब है..प्रेम। यदि प्रेम नहीं होता, ऐसा मान लिया जाय तो फिर आज नहीं कल ऐसी सोच का सामना तो करना ही पड़ेगा।

Udan Tashtari
April 19, 2011 at 6:34 PM

पढ़ा!!

राजेंद्र अवस्थी.
April 20, 2011 at 8:28 AM

कुछ गंदी सोंच रखने वाले पुरुषों को ध्यान में रख कर लिखा गया लेख,
बढ़िया है....

प्रवीण पाण्डेय
April 21, 2011 at 11:15 AM

धारदार लेखन।

हल्ला बोल
April 23, 2011 at 11:06 PM

क्या आप सच्चे हिन्दू हैं .... ? क्या आपके अन्दर प्रभु श्री राम का चरित्र और भगवान श्री कृष्ण जैसा प्रेम है .... ? हिन्दू धर्म पर न्योछावर होने को दिल करता है..? सच लिखने की ताकत है...? महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवा जी, स्वामी विवेकानंद, शहीद भगत सिंह, मंगल पांडे, चंद्रशेखर आजाद जैसे भारत पुत्रों को हिन्दू धर्म की शान समझते हैं, भगवान शिव के तांडव को धारण करते हैं, जरूरत पड़ने पर कृष्ण का सुदर्शन चक्र उठा सकते हैं, भगवान राम की तरह धर्म की रक्षा करने के लिए दुष्टों का नरसंहार कर सकते हैं, भारतीय संस्कृति का सम्मान करने वाले हिन्दू हैं. तो फिर यह साझा ब्लॉग आपका ही है. एक बार इस ब्लॉग पर अवश्य आयें. जय श्री राम
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जरा सोचिये उपरोक्त सारी बाते आपका दिल स्वीकार करता है. पर हिन्दू खुद को हिन्दू कहने में डरता है, वह सोचता है की कही उसके ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप न लग जाय, जबकि हिन्दू धर्म है संप्रदाय नहीं. हमारे इसी डर ने हमें कमजोर बनाया है.
जरा सोचे -- कश्मीर में हमारी माँ बहनों की अस्मिता लूटी जा रही है. हम चुप हैं.
रामजन्मभूमि पर हमले हो रहे हैं........ हम चुप हैं.
हमारे धार्मिक स्थल खतरे में हैं और हम चुप हैं..
इस्लाम के नाम पर मानवता का खून बह रहा है . हम चुप हैं.
हम आतंकी खतरे के साये में हैं..... हम चुप हैं..
मुस्लिम बस्तियों में हिन्दू सुरक्षित नहीं हैं. हम चुप हैं..
दुर्गापूजा, दशहरा, गणेश पूजा सहित सभी धार्मिक जुलुस, त्यौहार आतंक के साये में मनाये जाते हैं और हम चुप है.
क्या यह कायरता हमें कमजोर नहीं कर रही है.
जागिये, नहीं तो जिस तरह दिन-प्रतिदिन अपने ही देश में हम पराये होते जा रहे हैं. एक दिन भारत माता फिर बाबर और लादेन के इस्लाम की चंगुल में होगी.
हमारी कायरता भरी धर्मनिरपेक्षता भारत को इस्लामिक राष्ट्र बना देगी.
धर्म जोड़ता है, आप भी जुड़िये.
भारतीय संस्कृति की आन-बान और शान और हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपने अन्दर के डर को निकालिए.
आईये हमारे इस महा अभियान में कंधे से कन्धा मिलाकर दिखा दीजिये, हम भारत माँ के सच्चे सपूत हैं.. हम राम के आदर्शों का पालन करते हैं. गीता के उपदेश को मानते हैं.
स्वामी विवेकानंद ने विदेश में जाकर अकेले हिंदुत्व का डंका बजा दिया... हम भी तो हिन्दू हैं.
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इसको अवश्य पढ़े....
इनका अपराध सिर्फ इतना था की ये हिन्दू थे