पहले औरत होकर तो देखें

Posted By Geetashree On 1:08 AM
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फिल्म इश्किया देखने के बाद.....

'मैं औरत होता तो पता भी नहीं चलता की परी हूं या तवायफ। यह गाली किसे है? औरत को या औरत के रूप में तवायफ को? या फिर दोनों को ही। क्योंकि कुछ लोगों को तो फर्क शायद नजर ही आता हो। दफ्तर में किसी से हंस कर बात कर लो, शाम टहलते हुए किसी के साथ चाय पी आओ, किसी के साथ फिल्म चलने का कार्यक्रम रख लो। सस्ती या सबके साथ चली जाती है यार (एक आंख दबाए बिना इस वाक्य को न बोलें) सुनने में कितना वक्त लगेगा। अब तो यह नई सदी है। इसलिए नदी सौगातें भी हैं। किसी एक लड़की के साथ हमेशा घूमते फिरो तो खुद के कानों में जल्द ही यह शब्द पड़ेंगे, 'दोनों धारा 377 हैं बे। लड़कों के साथ घूमो तो परी या तवायफ के फर्क के बीच का महीन अंतर लेकर। जब उनकी जो मर्जी होगी, जब जैसी परिस्थिति होगी वे अपनी सुविधा से नामकरण कर देंगे। दो दशक पहले एक फिल्म आई थी, एक ठाकुर बिना हाथ वाला। दो चिरकुट चोर। ठाकुर ने उनमें शोले दहकाए। पैसे जो चिरकुटों ने चाहे, काम जो ठाकुर ने चाहा। बरसों लोगों के दिलो-दिमाग पर तीनों राज करते रहे। 21 वीं शताब्दी तक आते-आते ठाकुर का स्वरूप बदल गया। वह खूबसूरत औरत हो गई। मासूम लेकिन शातिर। चिरकुट चोर वही रहे। मासूम ठकुराइन ने चिरकुटों को फिर इस्तेमाल किया। काम और पैसा जो उसने चाहा। ठाकुर इंतकाम की आग में जल रहा था, ठकुराइन विरह की। विरह की आग भभकती नहीं, धीमी सुलगती है सुस्त। उसकी आंखें दर पर लगी रहीं, अपने प्रियतम की खातिर। ऐसा निर्दयी बलम जो मर कर भी नहीं मर सका। जिंदा रहा उस घर में, उन गैस सिलेंडरों में, उस रसोई में जहां फिर ठकुराइन हमेशा चूल्हे पर खाना पकाती दिखी। एक चिरकुट से लहसुन छील देने की गुजारिश करती हुई। जबकि पूरे घर में सिलेंडर ही सिलेंडर रखे थे। बुजुर्ग संगीत का रसिक, विरहन गुनगुनाने की शौकीन। बुर्जग संजीदा है, अकेली जिंदगी में न संजीदगी रही थी न शरारत। इसलिए पहले संजीदगी ने दस्तक दी। लेकिन सिर्फ दस्तक दी। इकरार कहीं नहीं। बस एक सपने की इमानदार स्वीकारोक्ति। 'आपसे मिलने के बाद फिर जीने की इच्छा होने लगी है। या शायद अपनी योजना के लिए डाला जाने वाला दाना। लेकिन इश्क तो इश्क है। इश्क को पाने की खातिर इश्क के जरिए इश्क का बदला लेना। इश्क जब परवान चढ़ता है तो खत्म करने या खत्म होने के सिवाय दूसरा रास्ता कहां छोड़ता है। रग-रग में दौड़ता अकेलापन, उन सालों का हिसाब संजीदगी से नहीं लिया जा सकता। इसलिए शरारत जीत जाती है। फिर यह जीना तवायफ हो जाना क्यों है?
तेजाब डाल कर किसी की आत्मा जला देना। चेहरे से वह नूर छीन लेना और खुश होना कि साली हमारी नहीं तो किसी की नहीं। यह हरामीपन क्यों नहीं है? एक ब्याहता रखना और दफ्तर जा कर मानसिक भूख शांत करने के नाम पर वैचारिक बहस के दरवाजे से मन पर कब्जा कर लेना, कमीनगी क्यों नहीं है? कोई ठौर दे, मुसीबत में काम आए, अगल मन में मुगालता पाल ले और बाद में कहे, 'अगर मैं औरत होता... अगर औरत होता तो समझता कि जिसका पति इतना चाहने के बाद भी अपने हाथों सिंदूर पोंछ कर चला जाए तो क्या होता है। अगर औरत होता तो समझ पाता कि भलाई के रास्ते पर किसी पुरुष को ठेलने की एक तवायफ ने क्या कीमत चुकाई थी। यदि औरत होता तो ही समझता न कि सोने की जंजीर में बना ताजमहल कैसे उसके सपने के घर को मकबरा बना गया है। लेकिन वह औरत होता तब न...। यह बोलने के पहले औरत तो होता। भले ही तवायफ होता।
Anonymous
February 8, 2010 at 1:25 AM

bahut khub.achhchha laga dhanybaad..

ओमकार चौधरी
February 8, 2010 at 1:54 AM

किसी संवाद लेखक या फिल्म निर्देशक ने यदि किसी खास चरित्र निभा रहे पात्र से कोई ऐसा संवाद बुलवा दिया है, जिस से आपको पीड़ा हुई तो इसका मतलब ये नहीं है कि पूरी मर्द जात को गलियां निकाली जाएँ. फिर आपमें और उस निर्देशक की मानसिकता में क्या अंतर रह गया है ? अति रंजना ठीक नहीं है. उसने जो संवाद बुलवाया, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन आपने जिस भाषा का उपयोग किया है, वह भी शालीनता को लाँघ रही है.

Pratibha Katiyar
February 8, 2010 at 7:30 AM

मैंने फिल्म नहीं देखी, और कमेंट करने से पहले फिल्म देखना $जरूरी है. इसलिए नहीं किया था. लेकिन किसी ने भाषा की नैतिकता का ठीकरा हमेशा की तरह फिर से औरतों के ही सिर पर फोड़ दिया तो रहा नहीं गया. जितनी कड़वाहट जमाने ने औरतों को दी है उसके बाद भाषा कैसे न तेजाबी हो जायेगी. हर बात पर हाय-हाय करने की आदत भी क्या आदत है. मर्म समझने की कोशिश करिये ना...लेख सचमुच अच्छा है और जरूरी भी. बाकी फिल्म देखने के बाद...

सुशीला पुरी
February 8, 2010 at 7:33 AM

अरे यार आकांक्षा !!!!!!!! दुनिया को औरत की आँख
से देखता कौन है ? जब उसकी नज़र से देख नही सकते तो औरत कैसे हो पाएंगे ? कलेजा चाहिए .

Rangnath Singh
February 8, 2010 at 8:03 AM

कुछ बातें हमारे उपचेतन में बैठी होती हैं। हम अनजाने में उसे कह बैठते हैं। हो सकता है यह डायलाग लिखते वक्त लेखक ने इतनी दूर तक न सोचा हो। लेकिन अब इस पोस्ट को पढ़ने के बाद जरूर सोचेगा। लेखक ने इश्किया और शोले को अलग नुक्ताए-नजर से देखा है। और ये बात काबिले तारीफ है।

मैंने इश्किया नहीं देखी है। लेकिन यदि फिल्म के जिस चरित्र ने यह डायलाग बोला है उस चरित्र से मिलते -जुलते पात्र समाज में यही 'डायलाग' बोलते हैं तो डायलाग राइटर की तारीफ करनी होगी कि उसने चरित्र के हिसाब से डायलाग लिखा है। चरित्र लम्पट है तो वह संतो की भाषा नहीं बोलेगा। चाहे किसी को बुरा लगा या भला। कहानी से किसी एक डायलाग को काट कर पढ़ने से तो बड़े-बडे ढह जाएंगे।

साथ ही यह भी याद रखने की जरूरत है कि कोई रचना हमेशा पालिटिकली-करेक्ट नहीं होती।

प्रज्ञा पांडेय
February 12, 2010 at 8:50 PM

औरत के दर्द को औरत ही जानेगी दूसरा नहीं .आज एक १५ साल की निश्छल लड़की भी महसूस करना शुरू कर देती है कि सामाजिक स्तर पर समान होने का हक पाने के बाद भी वह दोयम दर्जे पर है लड़कों के फिकरे उसको सामान ही होने का एहसास कराते हैं .पुरुष कैसे जानेगे ये दर्द!!आकांक्षा को बेबाक लेखन के लिए बधाई .