क्या पुरुष दाता है और स्त्री याचक

Posted By Geetashree On 9:46 PM
गीताश्री

लव गुरु की प्रेमिका का महान लेख मेरे सामने हैं। इनके ब्लाग और एक अखबार में छपा हुआ। तमाम महिला संगठनो और महिला आंदोलनो को मुंह चिढाता हुआ. उसे व्यर्थ साबित करने पर आमादा। स्त्रियों ने अपने अधिकारो के लिए अब तक जितनी लड़ाईंयां लडी और सशक्तिकरण का अधूरा-सा ही सही, लक्ष्य हासिल किया, उसपर सवाल खड़े कर दिए। मेरे समेत तमाम महिलाओं के होठो पर एक सवाल खौल रहा है..कि ये कौन बोल रहा है उनकी जुबान से। कौन है जो उनके भीतर पुरुष भाव बन बैठ गया है। कौन है जो एक स्त्री को महिला संगठनो को अप्राकृतिक घटना मानने पर विवश कर रहा है और उसकी असफलता के लिए बददुआएं दे रहा है। कोई तो हैं इसके पीछे। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन छिप कर वार कर रहा है, अपनी ही छाया से छाया-युद्द के लिए तैयार कर रहा है। इनके बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि हे महिलाओं इन्हे माफ करना कि ये नहीं जानती ये क्या कर गई है। ये कहना जरुरी है कि ये जानती हैं कि उनसे क्या लिखवा लिया गया है। अभी जिस फंतासी में ये जी रही है वहां पुरुषों का महिमा गान अनिवार्य है। इनके पास उपाय क्या है। कहां जाएंगी..क्या करेंगी। दूसरी महिला का हक छिनने वाली सित्रयां हमेशा पुरुषो की भाषा बोलती हुई पाई गई हैं। इस अंधेरे और क्रूर समय में जहां स्त्री के लिए उजाला अब भी एक उम्मीद की तरह है...एसे में कोई स्त्री अपनी ही बिरादरी की अस्मिता को कैसे नकार सकती है। हैरानी के सिवा क्या किया जा सकता है। अब इनकी बातें सुनिए....ये कहती हैं, पुरुष वीर्यदान करता है और स्त्री उसे ग्रहण करती है। ये कैसी आत्मस्वीकारोक्ति है...क्या कोई स्वाभिमानी स्त्री इनकी इस स्थापना को स्वीकार कर पाएगी। कभी नहीं...तब तो बलात्कार करने वाला पुरुष भी इनके हिसाब से वीर्य दान करता है और लड़कियों को चुपचाप उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए। हाय तौबा मचाने की क्या जरुरत। इनकी नजर में स्त्री- पुरुष का यही पारंपरिक रिश्ता है। एक सवाल पूछना चाहती हूं कि क्या कभी कोई पुरुष प्लान करके वीर्य दान करने चला है क्या। क्या स्त्री याचक है...पुरुष कर्ण की तरह दानवीर। कर्ण जैसे बड़े बड़े दानवीर भी बिना मांगे दान नहीं देते। फिर ये पुरुष किस स्त्री से पूछ कर अपनी वीर्य दानदिया। ये दान है या स्त्रियों को गटर समझ कर उड़ेल दिया गया कचरा है,कुंठा है, राहत है, आंनंद है, शरीर का वो तत्व है जिसकी नियती प्रवाहित होना है... ये पुरुष कब से दाता हो गए। क्या औरते उनसे उनका कचरा मांगने याचक की मुद्रा में खड़ी है..कहीं दिखती हैं क्या।ये स्त्री-पुरुष के बीच दाता और याचक का रिश्ता कौन बना रहा है। कौन दे रहा है अपनी नई स्थापनाएं। कवि राजकमल चौधरी का एक वक्तव्य यहां लिखना जरुरी है। वह लिखते हैं...स्त्री का शरीर बहुत स्वास्थ्यप्रद है। लेकिन कविता के लिए नहीं, संभोग करने के लिए। स्त्री शरीर को राजनीतिज्ञों,सेठो, बनियों और इनके प्रचारको ने अपना हथियार बनाया है, हमलोगो को अपना क्रीतदास बनाए रखने के लिए.... राजकमल जी बहुत साल पहले कैसी नंगी सचाई लिख गए हैं..पढिए। स्त्री शरीर को एसा स्टोरेज मत बनाए कि कई बार जबरन उड़ेला गया कचरा भी ग्रहण करने के भाव से कबूल किया जाए। आगे मैं राजकमलजी के स्त्री के बारे में और भी बयान लिखने वाली हूं..ताकि पता चले कि पुरुष क्या सोचते हैं। बेहतर होता कि पुरुषों को हितैषी बताने वाले वक्तव्य देने से पहले कुछ महान लोगो के विचार पढ लिए जाते। उदाहरण और भी हैं...

क्या एक पुरुष के प्रति अगाध प्रेम एक स्त्री को घोर स्त्री विरोधी बना देता है। यही तो पुरुषो की चाल है...वह प्रेम करता है स्त्री को पाने के लिए, उस पर आधिपत्य जमाने के लिए..स्त्री सदियों से उसकी चाल नहीं समझ रही है और शिकार हो रही है। स्त्री के धड़ पर कई पुरुष चेहरे इन दिनों दिखने लगे हैं...अब आवाज भी भारी हो गई है। ये एक स्त्रीद्रोही मुद्रा है। आप महिला संगठन में शामिल ना होइए..आंदोलन ना चलाइए...मगर आप सालों के संघर्ष पर ऊंगली ना उठाइए। आप क्या जाने कि इस लड़ाई में कितनी महिलाओं ने अपना सबकुछ छोड़ा, सुरक्षा और सुविधाओं का लालच छोड़ा, आवाजे बुलंद की तब जाकर आधी आबादी ने सम्मान से सिर उठाना शुरु किया।


स्त्री स्वाधीनता का क्या अर्थ है इनके लिए नहीं, लेख से पता नहीं चलता। ये पुरुष के दिमाग से सोचने वाली लेखिकाएं नहीं जानतीं। क्योंकि खुद वे अपना मन भी नहीं जानती कि वो क्या चाहता है। उनका हाथ थामे कोई आगे आगे चल रहा है, जो उसे डिक्टेट भी कर रहा है...अपना मन तो बहुत पीछे छूट गया है। राजकमल जी के आईने में ही देखें तो इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि स्त्री स्वाधीनता का अर्थ है स्त्री जिस पारंपरिक संबंध को निभा रही है उससे मुक्त हो। ये मुक्ति कैसे संभव है। उसे सबसे पहले अपने लिए जीना होगा ना। स्वंय को कामना की वस्तु बनाए रखने के जतन करने में उम्र गुजारने वाली औरतो से क्या उम्मीद की जाए। पुरुष को तो वहीं स्त्री पसंद है जो आसानी से उसकी अधीनता स्वीकार कर ले।लेखिका जिसे दान कह रही हैं, वो पुरुषो की भाषा है। पुरुष की असली भाषासुनना हो तो राजकमल को पढा जाना चाहिए। वे जैसे नशा लेते हैं वैसे ही औरत लेते हैं। वे लेते हैं...देते नहीं। गौर फरमाए... भाषा को ध्यान से सुनिए...डिक्टेशन से ध्यान हटा कर। आदिम संबंधों में दान पुण्य जैसी कोई भावना नहीं होती। वहां आनंद का खेल है..एक दूसरे को परास्त करने और स्त्री को दमित करने का खेल.. यहीं से स्त्री को गुलाम बनाए रखने का कुचक्र शुरु होता है। स्त्री समझ नहीं पाती..वह याचक होने के आंनंद में डूब कर दानी के दर्शन कर धन्य हो जाती है। लेखिका ने जो कुछ भी कहा लिखा है वो एक मामूली सा सच है। अभी राजकमल का उल्लेख कर रही हूं. इनसे आगे पीछे जाने में बहस लंबी हो सकती है। सोउन्ही का कहा सामने रख कर अपनी बात समाप्त करती हूं....कोई भी मामूली-सा सच कह लेने के बाद खुश हो कर, निवृत्त होकर, औरतें शरमाती है..यह शर्म गलत नहीं है। लेकिन कविता नहीं है। एसी शर्म में सुंदरता नहीं होती, एक हल्के किस्म का नंगापन होता है। लेकिन अपना नंगापन कह लेने के बाद वे या तो फिर सिर झुका कर फैसले की प्रतीक्षा करने लगती है या फिर अपनी जीत का एलान करके वहां से चली जाती हैं। फिर कभी वापस आने के लिए। वापस जाना स्त्रियो की विवशता है।

स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानने वाले लोग किस मानसिकता में जी रहे हैं। क्या ये कोई वस्तुएं हैं जो बिना एक दूसरे के पूरी नहीं होंगी। वे दिन गए जब पूरक और अन्योनाश्रय संबंध वाली बातें की जाती थीं। ये अवधारणा भी मर्दवादियों की फैलाई हुई है। एसा नहीं कहेंगे तो स्त्री में पूर्ण होने की ख्वाहिश कैसे जागेगी और वह फिर उनके चंगुल में आएगी। ये सब स्त्री को गुलाम बनाए रखने वाली अवधारणाएं हैं। कुछ मामले में मैं मान सकती हूं कि एक दूसरे का साथ बहुत जरुरी है...मगर एक दूसरे के बिना बात नहीं बनेगी ये बात पुराने प्रतीको की तरह ही बहुत पुरानी पड़ चुकी है।अगर एक दूसरे के बिना अधूरे हैं तो एसा मानने वालों को तर्क देकर, उदाहरण देकर बताना चाहिए कि कैसे और किस तरह अधूरे हैं। दुनिया भर में एसे उदाहरण भरे भरे हैं कि एक अकेली स्त्री भी अपनी दुनिया बना सकती है, जहां पुरुष का साथ उसे गुलाम नहीं बना सकता। कहा जा रहा है कि स्त्री-पुरुष आपसी लड़ाई में झुलस जाएंगे, पस्त हो जाएंगे। एसा नहीं हुआ अब तक ना आगे होगा। अपनी चहारदीवारी से बाहर निकल कर जरुर झांकना चाहिए। इस निर्णायक लड़ाई ने दुनिया की सूरत कितनी बदल दी। ये लड़ाई किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं है। ये लड़ाई प्रवृत्ति के खिलाफ है, उस मानसिकता के खिलाफ है जो औरतो को गुलाम बनाए रखने की हिमायत करती है। जब लक्ष्य पवित्र हो, सामने हो, तो कोई झुलसता नहीं। हौसले पस्त नहीं होते। हौसलो का जो सिलसिला शुरु होता है उसकी धमक कई पीढियों तक जाती है। तभी विरासत में आजादी भी हासिल होती है। जैसे अंधड़ में जंग लगे दरवाजे भी भरभरा कर खुल जाते हैं, उसी तरह ये लड़ाई भी बंद दरवाजो और खिड़कियों के सांकल खोल देती है। साहस पूर्वक वह एक आजाद दुनिया की दहलीज पर पैर रखती है...देवी की छवि से मुक्त होकर वह साथी बनती हुई दिखती है। जिस घरेलु हिंसा का हवाला दिया गया है वो गलत है। कुछ केस इस तरह के आए हैं जिसमें ऊपरी तौर पर एसा लगता है कि घरेलु हिंसा कानून का इस्तेमाल गलत किया गया है। मगर उसकी तह में जाए बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा। पता नहीं कैसे इन्हें पुरुष-प्रताड़ना का लंबा इतिहास दिख रहा है।ये इतिहास ज्ञान कितना छिछला है। एक तरफ पूरक होने की बात कही जा रही हैदूसरी तरफ कहा जा रहा है कि पुरुषत्व को स्त्रीत्व द्वारा ही पराजित किया जा सकता है। रणचंडी बन कर नहीं...स्त्री को कोमलता और सहिष्णुता बनाए रखनी चाहिए। ये जुबान किसी समकालीन स्त्री की नहीं हो सकती। ये डिक्टेशन का असर है। यहां स्त्रीत्व की परिभाषा स्पष्ट नहीं की गई है। कोमलता और सहिष्णुता तो सदियों से रही है फिर क्यों नहीं जीत पाए पुरुषत्व को। ना जाने कितने सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। खारिज करना बेहद आसान है, लड़ाई के पीछे छुपे दर्द को मर्दो के चश्मे से समझना बहुत मुश्किल।
Anonymous
November 8, 2009 at 1:36 AM

Man is neither a donor nor woman is a receptor.physical process is immaterial. truth is beyond body. we r not only physical entity,life is above& more than body

Rangnath Singh
November 8, 2009 at 2:21 AM

विचारोत्तेजक और भावप्रवण लेख। हर पंक्ति से सहमति है।

प्रज्ञा पांडेय
November 8, 2009 at 7:00 AM

पुरुष दानवीर और स्त्री याचिका ! ये कहानी जाने कब तक चलेगी ..शायद जब तक स्त्रियाँ स्वयं को पूरी तरह से स्वतंत्र होंने कि घोषणा नहीं कर देंगी .. उसमें अभी देरी है क्योंकि अभी तक तो स्त्री का अस्तित्व ही सच्चाई के साथ परिभाषित नहीं हुआ है . . गीताजी आपने नुक्कड़ को पूरे हौसले के साथ संभाला है .. हम सब साथ हैं ..

Ek ziddi dhun
November 8, 2009 at 7:13 AM

बात सही है. दिक्कत यही है कि बहुत सी `नारीवादी` कुल मिलाकर पुरुष साहित्यकारों का मनोरंजन करती हैं. राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह और फलां-फलां - सब के सब ऐसी लेखेकाओं को पसंद करते हैं. अब अनामिका का भी नाम ऐसे ही पोपुलर लेखन के लिए लिया जां सकता है.

sushant jha
November 9, 2009 at 12:32 AM

मैंने भी वो लेख पढ़ा था। मुझे भी अटपटा लगा जिसमें कोई तर्क नहीं था। लग रहा था कि जबर्दस्ती पुरुषों को महान साबित किया जा रहा है। एक महिला कैसे जीवन जीना चाहती है उसे तय करने का अधिकार उसी का है। इसमें दान और ग्रहण की भावना कहां से आ गई।

Pratibha Katiyar
November 9, 2009 at 1:45 AM

सही है!

चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345
November 9, 2009 at 2:48 AM

मामला साफ़ है...स्त्री को भरमाते रहो, चाहे दानवीर बनकर, चाहे साथी बनकर.

Roop Chaudhary (Editor)
November 10, 2009 at 1:23 AM

geeta shree ji ka lekh ek nai behas ki suruaat karta hai.is visay per imandari se charcha honi chahiye,meri ray me hamare vedo me mahila ko aadmi se kam nahi mana hai.mahila to janani hai pujyaneeya hai,use bhog ki vastu samajhana agyanta hogi.-Roop chaudhary.

चन्दन कुमार
November 10, 2009 at 9:08 PM

यह तो हमेशा से होता आया है, और मुझे नहीं लगता इस तुष्टीकरण की नीति में कोई बदलाव भई आने वाला है. महिलाएंभी कम कसूरवार नहींहैं, पुरूषों कीदी हुई चंद आज़ादी पर बहुत जल्द ही इतराने लगती हैं. लेकिनज़रूरत हैं खैरात की दी हुई आज़ादी को अपने अधिकार से छीने आख़िर उसका ये अधिकार है, न कि कोई उस पर रहमो करम कर रहा है.

Geetashree
November 10, 2009 at 10:09 PM

चंदन जी...आपके विचारो के लिए आपका बहुत बहुत आभार.आपने एक बात लिख कर फिर उसी मानसिकता की ओर हमारा ध्यान ले गए,जिससे हम जूझ रही हैं। ये इतराना क्या है..दी हुई चंद आजादी...। आपको कैसे लगता है कि कुछ स्त्रियां इतरा रही हैं। अपनी आजादी को भोगना इतराना है। आपको पता है अंधेरे के बाद जो उजाला आता है उसका जश्न कैसे मनाया जाता है। अमावस की रात हमने सदियों से झेली है...हमें खैरात में नहीं चाहिए आजादी। हमने उसी तरह हासिल किया है जैसे देश ने गोरो से जूझ कर। दोनो ही गुलामी थी। बिना लड़े मुक्ति संभव कहां होती है।

सुशांत जी, अगर आपने लेख पढा है तो आप समझ सकते हैं मेरी पीड़ा। ये जुबान उन ताकते की है जो हर हाल में स्त्रियों को अपने वश में करने की हिमायती है...चाहे प्यार हो या मार हो। इतनी सुंदर प्रतिक्रियाओं के लिए आप सबका आभार..हौसला बढाए रखिए...

सादर
गीताश्री

अनंत विजय
November 11, 2009 at 9:43 AM

शानदार लेख है । इसी तरह जोरदार आक्रमण ही पुरुषों को कुंभकर्णी नींद से जगाएगा और स्त्रियों को स्वतंत्रता हासिल होगी । इतिहास इस बात का गवाह है कि बगैर लड़े किसी भी तरह की आजादी संभव नहीं । आप अपनी लेखनी को एके 47 की तरह इस्तेमाल करते रहिए । पुरुषों को एक ना एक दिन अक्ल आ ही जाएगी

सुशीला पुरी
November 12, 2009 at 9:50 AM

आपकी बातों से सहमत होकर भी असहमति सी है .

Geetashree
November 12, 2009 at 9:34 PM

सुशीला जी

पहली बार आपने असहमति की बात की है। मैं चाहती हूं कि आप जताएं..खुल कर। फिर कोई नई बात निकलेगी। ये लेख मेरी त्वरित प्रतिक्रिया थी, जूली का लेख पढ कर, जो पिछले हफ्ते सहारा में ही प्रकाशित हुआ था। मुझसे रहा नहीं गया। मैं उबाल खा गई। आप लिखो..इंतजार रहेगा।
सादर
गीताश्री

अविनाश वाचस्पति
November 14, 2009 at 12:43 AM

क्‍या ही अच्‍छा होता अगर राष्‍ट्रीय सहारा में प्रकाशित जूली के लेख का स्‍कैनबिम्‍ब पोस्‍ट के साथ्‍ा लगाया जाता। हम उसे पढ़ पाते और फिर अपनी प्रतिक्रिया दे पाते।

वैसे प्रतिक्रियास्‍वरूप उबलता हुआ यह लेख अपनी सच्‍चाई खुद बयां कर रहा है। यह तो बिना प्रतिक्रिया के भी लिखा जा सकता है। इसके लिए नये संदर्भों की जरूरत भी महसूस नहीं होती है।

जूली का लेख न सही, पर सभी संदर्भ में हमारे सामने मौजूद हैं जिनसे हम तीन चार पांच रोज ही हो रहे हैं।

सभी परोपकारी बन रहे हैं, दानवीर बन रहे हैं। वैचारिक दान भी इन्‍हीं में से एक है। इसी वैचारिक दान पर भविष्‍य का भविष्‍य टिका हुआ है।
पुराने संदर्भों को क्रांतिकारी दृष्टि से अवलोकित करता यह लेख अच्‍छा है। पर अच्‍छा तभी होगा जब इसमें कहीं गई एक एक बात सही होगी यानी अमल में आएगी।

Geetashree
November 14, 2009 at 1:18 AM

अविनाश जी, आपका सुझाव बहुत अच्छा है। आगे से ध्यान रखेंगे। मैंने उनके लेख के बहाने एक गंभीर समस्या की तरफ ध्यान खींचना चाहा है। किसी भी स्त्री के मन में दान वाली बात आज भी जमी हुई है तो उसे खुरच कर फेंक देना चाहिए।
सादर,
गीताश्री

Dr. Sudha Om Dhingra
November 17, 2009 at 6:26 AM

बहुत ज़ोरदार , भावप्रवण लेख है, हम आप के साथ हैं..

Sanjay Grover
November 18, 2009 at 7:57 AM

us post par usi blog par likhi apni tippni ko jyoN ka tyoN yahaN rakh raha huN. Zarurat huyi to baat aage bhi badhayeNge.




October 18, 2009 9:28 AM
sanjaygrover ने कहा…
कल जब मैं इस पोस्ट को पढ़ रहा था तो अंत तक कहीं ख़्याल भी नहीं था कि यह किसने लिखी है। बाद पढ़ने के जूली जी का नाम देखा। आज देखा तो उनका नाम ऊपर के हैडिंग में भी है। बहरहाल नाम में ज्यादा कुछ नहीं रखा है। इस पोस्ट की कुछ बातों से सहमत हूं तो कुछ से असहमत। असहमति लिखने के लिए जो मूड और माहौल चाहिए उससे थोड़ा-सा बाहर हूं। सही बात तो यह भी है कि इस किस्म की बहसों से थोड़ा-सा थक भी गया हूं और पक भी। कोशिश करुंगा कि जल्दी ही अपनी बात कहूं। लेकिन कोई ज़रुरी नहीं कि कहूं ही।

gaurav
November 20, 2009 at 11:27 PM

yeh koi jaruri nahi ki sirf mahila hi pratarit hai....kai purush bhi pidit hain apni mardani patnion jo hain to mahila par unme purushon ke gun hai....kahne ki baat nahi ki dabbu vyaktitva ke vyakti hamesha hi pratarit honge vo purush ho athwa mahila...buland vyaktitva ka vyakti kabhi pratarit nahi ho sakta hai....

Sanjay Grover
November 27, 2009 at 4:23 AM

प्रो. मटुक नाथ पर प्राणघातक हमला

http://nepathyaleela.blogspot.com/2009/11/blog-post_27.html

iski ninda honi chahiye.