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 आलेख


स्त्री का मन के चितेरे थे अनूपलाल मंडल



"समाज की वेदी पर उपन्यास के बहाने उनके रचना-संसार की पड़ताल

 

-गीताश्री

 

 

साहित्य के इतिहास के कुछ पन्नों से नयी पीढ़ी बिल्कुल अनजान है। दशको पीछे पलट कर देखते हैं तो चकित रह जाते हैं। वहां कितनी समृद्ध और अनूठी विरासत है जो लुप्त हो रही है। प्रेमचंदोत्तर काल के एक ऐसे ही विरल रचनाकार रहे हैं अनूपलाल मंडल जिनकी रचनाओं का विपुल भंडार है लेकिन नयी पीढ़ी उनसे लगभग अनभिज्ञ है। मंडल जी साहित्यकार के रुप में पचास के दशक में ही स्थापित हो चुके थे। जो कभी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,पटना के प्रथम प्रकाशनाधिकारी पद पर काम कर चुके हैं, अपने पद पर रहते हुए उस दौर के बड़े-बड़े लेखको की पुस्तके प्रकाशित करवाई, उन्हें समय-समय आयोजनो में बुला कर बिहार का साहित्यिक माहौल बनाते रहे, आज उनकी किताबें दुर्लभ हो गई हैं। कुछ उपन्यास तो पुर्नप्रकाशन का मुंह जोह रहे हैं। उनका फिर से प्रकाशन हो तो नयी पीढ़ी को अनमोल निधि मिलेगी। उनके कई उपन्यास हैं, परंतु हम यहां उनके एक महत्वपूर्ण उपन्यास समाज की वेदी पर बात करेंगे। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आश्चर्य होता रहा कि स्वतंत्रता आंदोलन की छाया में रची गई इतनी मार्मिक प्रेम कहानी समय के गर्त में कैसे दबी रह गई। उस दौर के अन्य उपन्यासो की चर्चा आज भी होती है और उसके किरदारों ने कई पीढ़ियों को अपने प्रभाव में लिया है।

इस उपन्यास की पृष्ठभूमि , किरदार, उद्देश्य, कथानक सबकुछ महान की श्रेणी में रखा जा सकता है। कुछ बिंदुओं को छोड़ कर इस उपन्यास में चर्चित होने की, पाठको का प्रेम पाने की काबिलियत थी। कुछ नागवार गुजरने वाली बिंदुओं पर भी बात होगी और उसे कतई ये कह कर नहीं बख्शा जाएगा कि वो वक्त ही ऐसा था। जब वैसे वक्त में वेश्या उद्धार जैसा उद्देश्य लेकर लेखक कथा कहते हैं, तब उनसे बहुत उदारता की उम्मीदें होती हैं। वे समाज की सारी रुढियों से लड़ते हैं,चाहे धर्म का मामला हो या जाति का। अमीरी, गरीबी के भेद से लड़ने वाला नायक भला धर्म के चगुंल में कैसे फंस सकता है। इस प्रसंग से नायक के चरित्र की दुर्बलता ही प्रकट होती है। यह बात खटकती है, इस पर आगे बात होगी।

फिलहाल उपन्यास की शैली की बात करते हैं। पूरा उपन्यास पत्र शैली में लिखा गया है। पूरी कहानी चिट्ठियों के मार्फत कही जा रही है। नायक, नायिका दोनों अपने प्रिय जनों को खत लिख कर सारी बात बताते हैं। नायक अपने भाई को और नायिका अपनी प्रिय सखि को। उनके जवाब की प्रतीक्षा नहीं है। उनसे कथा कही जा रही है। हो सकता है, पत्रनुमा शैली उपन्यास विधा के लिए पुरानी हो गई हो। समय के साथ शैली बदलती है, नयी शैली विकसित होती है। मौजूदा दौर में शिल्पगत काम बहुत हो रहे हैं। कहीं कहीं शिल्प की जटिलता कथानक को अबूझ बना देते हैं। कहन को अवरुद्ध कर देते हैं। जितनी जटिल संरचना होगी, उपन्यास उतना ध्यान खींचेगा, शायद ये मंशा होती है। जबकि हर कथा अपना शिल्प साथ लेकर आती है। इन दिनों भाषा से लेकर शिल्प तक में चौकाऊं प्रयोग हो रहे हैं। पचास साल बाद उस पर वैसे ही बात होगी जिस तरह हम मंडल जी की पत्रनुमा शैली पर बात कर रहे हैं। यह शैली वर्तमान दौर के लिए आउटडेटेड है, क्योंकि जीवन से चिट्ठियां ही खत्म हो चुकी है। उनका अस्तित्व खत्म हो चुका है। उनकी जगह तकनीक ने ले ली है। चिट्ठियों के इंतजार का रोमांच और आनंद जीवन से जा चुका है। प्रेम भले तकनीक के सहारे जिंदा है, प्रेमपत्र नष्ट हो चुके हैं। न डाकिये का इंतजार है, न गीत गाती हुई नायिका- आएगी जरुर चिट्ठी मेरे नाम की...तब देखना...। न रोज डाकखाना जाकर नायिका अपने प्रेमी की चिट्ठियों के बारे में पूछताछ करेगी।

चिट्ठीविहीन दौर में पत्रनुमा शैली नयी पीढ़ी को अजूबा लग सकती है। लेकिन जिस पीढ़ी ने चिट्ठियों का आनंद लिया है, प्रेमियों के खतों का इंतजार किया है, उन्हें यह शैली बहुत पसंद आएगी। बल्कि एकदम युवा पीढ़ी के लिए यह शैली अजूबा भले हो, उन्हें एक खोये हुए रोमांच का पता जरुर दे सकती है। एक संवेदनशील मन विचलित होगा और संभव है, खोये हुए शिल्पों की वापसी हो।

ऐसा नहीं है कि पत्र-शैली कोई अनूठी शैली है या पहली बार लिखा गया है। विश्व साहित्य में इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।

एदिता मॉरिस का उपन्यास ' वियतनाम को प्यार ' बस चिट्ठियों में है। नागासाकी में परमाणु हमले के शिकार और वियतनाम में नापाम बम से झुलसे लड़के और लड़की के बीच सिर्फ पत्र में पूरा उपन्यास है।

हेलेन हैंफ का उपन्यास 84, चैरिंग क्रॉस रोड भी बस चिट्ठियों में है। अमेरिका की एक लड़की- जो उपन्यास की लेखिका भी है- 20 साल तक इंग्लैंड की एक दुकान से किताबें मंगवाती है। उससे बने संबंध पर उपन्यास है।

कहानियां तो कई होंगी- हिंदी में भी और दूसरी भाषाओं में भी। उपन्यास भी और होंगे। इतना जरुर कह सकते हैं कि यह शैली बहुत मोहक है और पठनीय भी।

पत्र-शैली में लिखे इस उपन्यास की पहली विशेषता यही है । कई विशेषताओं में से एक और प्रमुख है- प्रेम का महिमा गान। स्त्री-जीवन और उसके चरित का महात्म्य। नायक एक वेश्या-पुत्री के प्रेम में दीवाना हो चुका है। वह दीवानों की तरह चिट्ठी लिखता है और स्वीकारता है उस स्त्री के प्रति अपना निष्कपट, निष्काम प्रेम, जिस नायिका को वह गंगा में डूबने से बचाता है। यहां स्वाभाविक ढंग से प्रेम प्रवेश करता है। स्त्रियां अक्सर अपने रक्षको से प्रेम कर बैठती हैं, और पारंपरिक नायक अपनी रक्षिता से। यहां भी वही घटित हुआ है।

अगर वह स्त्री अतीव सौंदर्यमयी, छुईमुई हुई तो वह रीझ जाता है।

नायक धीरेन अपने भाई के पत्र में लिखता है-

ओह । नारी हृदय का परिचय न था मुझे। मेरे कृष्ण, मैं तो समझता हूं, संसार उसे उपेक्षणीया, समझकर यथार्थ में अपनी बुद्धिहीनता का, वज्र मूर्खता का ही परिचय दे रहा है।

अहा, वह कितनी कोमल है और कितनी स्निग्ध। कितनी दया है उसमें और कितना ममत्व, कितना अपनापन है, और कैसी स्वार्थ-शून्यता और कैसा है उसका उत्सर्ग। कैसा अनुराग, कैसी मादकता। अहा, कैसा छलकता सौंदर्य है, कैसा सौरभ, कितना उसमें मधु है और कैसी मदिरा ।

हमारी दृष्टि में उसका कौन-सा स्थान है। क्या पुरुष वर्ग की यह ना-कद्रदानी नहीं है। स्त्री सुधा-सीकर सींचित प्रतिमा है, विलास की सामग्री नहीं है।  

एक स्त्री के माध्यम से स्त्री समुदाय को समझने की कोशिश यहां दिखाई देती है। नायक इसके पहले अन्य संकीर्ण सोच वाले पुरुषों की तरह ही स्त्रियों के प्रति अनुदार है और अनादर से भरा हुआ है। यहां एक पुरुष का हृदय परिवर्तन होता है और वह पूरे समुदाय को स्त्रियों के प्रति अपनी सोच बदलने का आवाहन करता दिखाई देता है। एक स्त्री के करीब जाकर, उससे प्रेम करने के बाद नायक की सोच बदलती है। यहां मूल में प्रेम है जो सदियों से चली आ रही सोच को बदल कर रख देता है। स्त्रियों के प्रति नयी सोच विकसित होती हुई दिखाई देती है।

यहां याद करे, ये वही दौर था जब गांधी समेत देश के तमाम समाज सुधारकों ने स्त्री की दशा-दिशा पर चिंताएं जताई थीं और उनके सुधार पर जोर दिया था। जिस कालखंड में यह उपन्यास लिखा गया होगा तब तक देश में महिलाओं के अधिकारों की बात जोरो शोरो से होने लगी थी। समाज और देश ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को देख कर अपनी राय बदली थी। उस समय पश्चिम में भी स्त्रियों ने आंदोलन करके अपने हकों की मांग रख दी थी। वहां भी स्त्रियों का जीवन बदला, समाज का नजरिया बदला और वे कामकाजी होने का हक हासिल कर सकीं। गूंगी, सजावटी गुड़ियां की छवि से, एक अच्छी हाउस वाइफ बनने की ट्रेनिंग से बाहर निकलीं। उसकी गूंज भारत में भी सुनाई देने लगी थी। जिन्हें समाज सुधारको ने सुना , कुछ अंग्रेजी हुकुमत का दबाव भी रहा कि स्त्रियों के अधिकारों के बारे में बातें होने लगीं। समाज में उनकी नयी छवि बनने लगी और उन्हें घरेलू उपयोगिता की वस्तु समझने के बजाय समाज, राजनीति में दखल देने लायक भी समझा जाने लगा।

समाज बदलता है तो साहित्य भी बदलता है। राजनीति बदलती है तो साहित्य पर उसका असर पड़ता है।

यह उपन्यास उसी दौर में लिखा गया जब पूरब और पश्चिम में एक साथ स्त्रियों की भूमिका को लेकर नजरिया बदल रहा था।

इस उपन्यास के बारे में एक विद्वान डॉ दुर्योधन सिंह दिनेश ने लिखा था कि उपन्यास का नायक सपूंर्ण नारी-जाति को आदर की निगाह से देखता है, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या। वे लिखते हैं- नारी पात्रों के माध्यम से उपन्यासकार एक ऊंचा आदर्श प्रस्तुत करता है।

हालांकि उस काल में कुछ शुचितावादियों को यह बात अखरी होगी कि वेश्याओं के प्रति इतना आदर क्यों व्यक्त किया गया है। पाठको और आलोचको के भी अपने-अपने पूर्वग्रह होते हैं। उनके अपने विचारों की कसौटी होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास को विस्मृत कर दिया गया होगा। और तत्कालीन समाज जब किसी कृति को दबा देता है तो उस पर दशकों की धूल जम ही जाती है।

सवाल उस वक्त उठे होंगे। लेकिन यह नायक कोई सामान्य इंसान नहीं था। वह देशप्रेमी था जो अपने देश की गुलामी से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था। मंडल जी खुद भी स्वतंत्रता सेनानी थे। जैनेंद्र और शिवपूजन सहाय के समकालीन थे और स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण कई बार जेल गए. वहां यातनाएं भोगी हैं। जैसे इस उपन्यास का नायक धीरेन बाबू झेलता है। बताते हैं कि मंडल जी ने स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद कभी स्वतंत्रता सेनानी का पेंशन नहीं लिया। उनके समकालीन विद्वान छेदी पंडित लिखते हैं कि इस बारे में पूछे जाने पर मंडल जी ने खरा-खरा जवाब दिया था- गुलामी की जंजीर तोड़ने में स्वल्प सहयोग कर मैंने अपना ही काम किया था, दूसरे का नहीं। मैं गुलामी के बंधन से मुक्त हूं, इससे बढ़कर क्या लाभ हो सकता है। मैंने पैसे के लिए कष्ट नहीं उठाया था, अपितु भारत मां की सेवा की थी। मां की सेवा का मूल्य थोड़े ही लिया जाता है। 

उपन्यास का नायक भी त्याग की भावना से इस तरह भरा हुआ है कि इसके लिए अपने प्रेम, परिवार सबको छोड़ कर फांसी के फंदे पर झूल जाने को तैयार है। यहां एक बात पुष्ट होती है कि हर लेखक अपने जीवन से कुछ न कुछ लेता है। कमसेकम उन जीवन-मूल्यों को अवश्य लेता है जिससे कोई कृति महान बनती है। इस उपन्यास में वे तमाम मूल्य मौजूद हैं जिनसे कोई कृति कालजयी हो सकती है। मंडल जी के बारे में उस दौर के वरिष्ठ लेखक श्रीरामबृक्ष बेनीपुरी जी ने भी उनके बारे में कहा था- अनूप उपन्यास लेखक हैं, किंतु उसका जीवन स्वंय एक उपन्यास है।

बेनीपुरी जी और अनूप जी एक दूसरे के प्रति गहरी आत्मीयता से भरे हुए थे। यह बात बेनीपुरी जी के निधन के बाद अनूप जी के लिखे संस्मरण आलेख में मार्मिक ढंग से प्रकट होती है। बेनीपुरी जी प्रतिभाओं को बखूबी पहचानते और उन्हें निखारते थे। उन्हें फलने-फूलने का सुअवसर देने में माहिर थे। वे अनूप जी से बिना मिले ही उनके प्रशंसक हो चुके थे। स्वंय अनूप जी ने अपने संस्मरण में लिखा है, बेनीपुरी जी से पहली मुलाकात के बारे में। उन्हें देखते ही बेनीपुरी जी ने मस्ती भरे लहजे में कहा था -

वाह भाई वाह। खूब मिले-खूब मिले। मैंने तो कयास भी नहीं किया था कि उन कहानियों का लेखक कोई बिहारी ही होगा। मगर आप तो अपने निकले-अपने घर के निकले।

वह स्वतंत्रता आंदोलन का दौर था और स्वंय बेनीपुरी जी भी आंदोलन में सक्रिय थे। गांधी जी तभी विचार की तरह देश-दुनिया में फैल रहे थे। समाज के कमजोर तबको को लेकर उनकी चिंताएं सबको प्रभावित कर रही थीं। साहित्य भी कहां अछूता रहता। अनूप जी के साहित्य पर उस दौर के समाज सुधारको के विचारों का गहरा असर दिखाई देता है। गांधी जी ने उस दौर में वेश्याओं को चरखा से जोड़ा था। उनके विवाह पर जोड़ दिया था और देश के नवयुवको को उनसे विवाह करने के लिए झकझोरते हुए कहा था कि उनसे विवाह के लिए आगे बढ़े, उन्हें अपनाएं।

इस उपन्यास का नायक पूरी तरह गांधी के विचारो को अपना लेता है, कमसेकम इस मामले में। हालांकि कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है। सबकुछ स्वत:स्फूर्त, स्वप्रेरित दिखाई देता है। किसी कृति की सफलता इसी में है कि वह विचारों को ऊपर ऊपर तैरने न दे, अपने स्वभाव में समा ले। उपन्यास का नायक ऐसा ही है। स्वभाव से उग्र किंतु भीतर से प्रेमिल और उदार।  

नायक का स्वतंत्रता संग्रामी होना, एक वेश्या का उद्धार करने का खयाल, उसे समाज में आदर-सम्मान दिलवाने की जिद। अंग्रेज सरकार से माफी नहीं मांगना और हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूलने को तैयार होना। नायक पत्र में बार-बार समाज के सामने सवाल उठाता है – कोई स्त्री अगर कोठे पर बैठी है तो इसका दोषी कौन है। समाज है, जिसने उसे इस ओर ढकेला। समाज ने ही उसे ढकेला और समाज ही उसके प्रति दकियानूसी विचार रखता है।

ऐसा नहीं है कि नायक उस स्त्री से दैहिक रुप से मोहित है। वह पत्र में लिखता है –मैं मानता हूं कि वह कलुषित कोख से पैदा हुई है पर उसके सदाचरण और सरलता के सामने बड़ी-बड़ी सती कहलाने वाली माताओं की कन्याएं भी किसी दशा में ठहर न सकेंगी।

लेखक यहां पर कुलीन वर्ग को आइना दिखाते हैं जिन्हें अपनी उच्च कुल का बहुत घमंड होता है। इस प्रसंग में लेखक ने तिलमिला देने वाली भाषा का प्रयोग किया है। जाहिर है, उच्च कुल के पाठको को यह बात बहुत बुरी लगी होगी। या उन्हें चुभी होगी जो स्त्री को सिर्फ भोग्या समझते थे।

लेखक को इस खतरे का आभास रहा होगा तभी उनका नायक पत्र में अपना पक्ष स्पष्ट करता है - मैं मातृजाति का सम्मान करता हूं, बड़े आदर से देखता हूं, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या।

यह बहुत बड़ा और साहसिक बयान है, उस समय का।

नायक इससे आगे बढ़ कर लिखता है- मैं तो मंत्र-मुग्ध हूं उस पर। उदभ्रांत हूं, फिदा हूं, पागल हूं। और मुझे न चाहिए। मैं इतनी-सी निधि पाकर ही अपने को सदाशिव-सा सुखी और अश्विनी-सा अमर समझूंगा।

यहां प्रेम की पराकाष्ठा है, दीवानगी की हद है और सुखी दांपत्य जीवन की उत्कट आकांक्षा है।

चूंकि यह नायक प्रधान उपन्यास है, इसलिए नायक के चरित्र के विकास में कलमतोड़ लेखन किया गया है। जैसा पांरपरिक नायक होता है, धीरोदात्त नायक की छवि उभरती है। बल्कि नायिका का चरित्र शुरु में थोड़ा दबा हुआ दिखाई देता है, बाद में जाकर उसके चरित्र का उदात्त पक्ष उजागर होता है। पुराने खयालों की नायिका अपने प्रेमी नायक को पत्र में लिखती है- स्त्री, पुरुष की इच्छानुवर्तिनी है। उसे क्या अधिकार कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध एक डग भी आगे बढ़ाए।

नायिका अबला जरुर है लेकिन अज्ञानी नहीं। वह कई बार सचेत नागरिक की भूमिका में दिखती है। जब वह अपने पत्र में एक देश की गुलामी के बारे में लिखती है- क्या यह जुर्म नहीं है कि लोगो को धोखा देकर अपना स्वार्थ साधन करें। यह जुर्म नहीं कि किसी के शरीर पर नहीं, मन पर, दिमाग पर प्रभुत्व स्थापित करके उसमें दासत्व का काम लें।

नायिका के इस कथन से स्पष्ट होता है कि उसे देश की परतंत्रता का अहसास है। जिस तरह से धोखे से देश गुलाम बना, उसे अतीत पता है। एक गुलाम मुल्क में बोलने पर पाबंदी होती है, नागरिको के हालात दासों की तरह होते हैं। ऐसे में उसका प्रेमी सत्ता से लड़ रहा है। वह इस लड़ाई का महत्व जानती है इसीलिए प्रेम को बाधक नहीं बनने देती। जबकि उसके प्रेम का आवेग बहुत प्रबल है। पत्रों में जिस तरह वह अपना मन खोलती है, जैसी दीवानगी लिखती है, और जिस तरह मीर जैसे महान शायर के शेरो का इस्तेमाल करती है, वह अदभुत है। इससे उसके चरित्र के अलग गवाक्ष खुलते हैं।

जब वह लिखती है-

नजर आती नहीं अब दिल में तमन्ना कोई

बात मुद्दत के तमन्ना बर आई है

या

था जो मैं उससे मिलिए तो क्या-क्या न कहिए मीर

पर कुछ कहा गया न गमे दिल यह मुझसे हाय

वो दौर था जब खतों में शेर ओ शायरी खूब लिखे जाते थे। फुटपाथों पर मोहब्बतों की सस्ती शायरी की पतली, रंगीन पुस्तिकाएं मिलती थीं, जिन्हें आशिक और माशूकाएं खरीदती थीं। लिखती हूं खत खून से, स्याही मत समझना ...टाइप की सस्ती शायरी खूब चलन में थी। सस्ती, फूहड़, भोंडी शायरियों के दौर में कोई स्त्री मीर जैसे शायर की शायरी कोट करती है, वह उसकी उम्दा पसंद और कुलीन समझदारी का परिचायक है। 

प्रेम में आकंठ डूबी स्त्री को मालूम है कि उसकी राह कठिन है। उसका प्रेम आसानी से हासिल होने वाली शय नहीं। वह जिसस प्रेम कर बैठी है वह अलग दुनिया, अलग समाज का वाशिंदा है। दोनों की सामाजिक हालात नितांत भिन्न हैं। दोनों के सामने सामाजिक परिस्थितियां दीवार बन कर खड़ी हैं। नायक एक साथ दोनों से लड़ रहा है। एक तरफ देश के लिए दूसरी तरफ अपनी प्रेमिका के लिए। दो मोर्चो पर एक साथ लड़ता हुआ नायक संशय में है कि वह प्रेम संबंध का निर्वाह कर पाएगा या नहीं।

उसके लिए प्रेम से पहले देश है। वह प्रेम को त्याग सकता है, देश को नहीं। वह देश पर कुर्बान हो सकता है, प्रेम पर नहीं। नायिका उसकी दुविधा को समझ जाती है। अपने प्रेम पत्र में वह अपना पक्ष रखते हुए नायक को समझाती है। इस प्रसंग में नायिका का उदात्त चरित्र दिखाई देता है। यहां वह एक अलह स्त्री के रुप में दिखाई देती है जो अपने क्रांतिकारी प्रेमी के संग हर हाल में खड़ी होना चाहती है।

वह नायक को पत्र में लिखती है- प्रणय का अर्थ विलासिता नहीं। जो प्रणय सात्विकत्ता का सहायक नहीं होता, वह प्रणय नहीं, वासना है। और नीचों के बीच यह प्रवृत्ति देखी जाती है।

उपन्यास की नायिका हसीना उर्फ सुधामयी देशहित के लिए अपने प्रेम को न्योछावर करने को तैयार है। वह खुद को इस बात के लिए तैयार कर लेती है कि अपने प्रेमी को चंदन तिलक लगा कर देश पर बलिदान होने के लिए भेजेगी। वह अपने प्रेमी की बाधा नहीं, सहायिका बनना चाहती है।

नायिका को सुधामयी नाम नायक का ही दिया हुआ है। यहां एक मुसलिम नायिका का नाम बदल कर सुधामयी करने के पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं बल्कि हसीना की मोहकता है जो नायक को अमृत की तरह लगती है। लेकिन यहां पर एक बात खटकती है जो किसी भी उदार नायक के चरित्र से मेल नहीं खाती। वह हसीना का नाम सुधामयी रखते हुए उसे एक प्रस्ताव देता है कि मेरे जीवन में आने के लिए हिंदू धर्म में दीक्षा लेनी होगी।

नायिका सहर्ष तैयार हो जाती है।

इस पूरे उपन्यास को बस यही पक्ष कमजोर कर देता है। एक क्रांतिकारी नायक, इतना उदारचेता लेकिन धार्मिक रुढ़ियों को काट नहीं पाता है। उसके आगे झुक जाता है। यहां तो प्रेम के सारे फार्मूले फेल होते हैं, कोई शर्त्त होती नहीं प्यार में...यहां प्रेम बहुत उदात्त होते हुए भी एक शर्त्त में बांध दिया गया है। यह बंधन, यह शर्त्त समाज की तरफ से नहीं है, यही तो दुखद और आश्चर्य की बात है । यह प्रसंग नायक के चरित्र का स्खलन है, उसे कमजोर साबित करता है। वह प्रेम के लिए अपनी धार्मिक कूपमंडूकता से बाहर नहीं निकल पाता। प्रेम में डूबी हुई एक विवश नायिका सहमति दे देती है। उसके सामने चारा ही क्या है। उसे प्रेम हो चुका है और वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार है। नाम, पहचान और अपना धर्म भी। अपनी खुशी-खुशी प्रेम में अक्सर प्रेमी जोड़े ऐसी कुर्बानियां देते हैं। भारतीय समाज ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। लेखक को कमसेकम यहां पर स्त्री की अस्मिता का खयाल रखना चाहिए था और नायक के उदात्त चरित्र का । यह प्रसंग एकदम अनुचित लग रहा है। इस प्रसंग के न होने से उपन्यास के कथानक या उद्देश्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

वैसे विद्रोही नायक भी एक सामान्य मनुष्य भी होता है, इस आधार पर इस प्रसंग को छोड़ कर आगे बढ़ा जा सकता है। आगे कुछ और बातें सत्य हैं, किंतु चुभने वाली हैं।

उपन्यास के अंत में सजायाफ्ता नायक अपने भाई को पत्र में लिखते हैं- पिता के वचनों पर क्षुब्ध न होना, हिंदुओं के बूढ़ों का दिमाग, बुढ़ापा में सही रास्ते पर नहीं रहता है।  

एक देशभक्त प्रोफेसर, हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाला, राजविप्लवी, बोलशेविक क्रांति का प्रचारक नायक के मुख से बार-बार हिंदू धर्म की दुहाई हैरान करती है।

अंतिम पत्र में वे नायिका को निर्देश देते हैं – हिंदू देवता के पाणिग्रहण कर लेना। नायिका अपनी सखि कुंदन को लिखती है कि वे ऐसा चाहते हैं ताकि उसका नरक से उद्धार हो सके। वो उनके बाद सात्विक जीवन व्यतीत कर सके।

यहां सवाल उठते हैं कि क्या एक गुलाम देश का एक क्रांतिकारी युवक कट्टर हिंदूवादी था? क्रांति और धार्मिक कट्टरता एक साथ कैसे चल सकती है? इस प्रसंग में उपन्यासकार से कहीं तो चूक हुई है।

लेखक की इसी दुविधा को लेकर राहुल सांस्कृत्यायन ने इनके बार में लिखा था- उपन्यास तो आप सुंदर लिख लेते हैं। पर मुझे एक बात आपकी बिल्कुल नापसंद लगी और वह यह कि आपके पात्र में मर्दानापन नहीं झलकता। वक्त आने पर छुई-मुई हो जाता है। उसका तेज, उसका शौर्य न जाने कहां चला जाता है। यह ठीक लक्षण नहीं। उपन्यासों में ऐसी कमी उन्हें दुर्बल बना देती है। प्रेम करने चलते हो तो पांव लड़खड़ाने से भला कहां, कैसे काम चलेगा। साधु बनो तो पूरे साधु बनो, चोर बनना है तो पक्का चोर बनो। साहित्य में अधकचरे से काम नही चला करता।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी कुछ इसी तरह कहा था- आपके उपन्यास केंद्र और परिधि में नायक-पात्र की दुर्बलता उजागर हुई है, क्योंकि लिखते-लिखते आप ऐसी जगह जाकर नर्वस हो हो जाते हैं, जहां नायक-नायिका को दिलेरी दिखानी चाहिए, उसे दुस्साहसिक होना चाहिए।

प्रेम और धर्म के मामले में नायक दुर्बल साबित होता है। प्रेम को अधर में छोड़ देता है, प्रेमिका को एक क्रांतिकारी की हिंदू विधवा के रुप में जीवन बसर करने को प्रेरित करता है। लेकिन कुछ मामलो में नायक के विचार बहुत खुले हुए हैं। इस उपन्यास में कई जगह सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया है। बिहार में व्याप्त दहेज प्रथा पर सीधा प्रहार किया है नायक ने। नायक के पिता बेटे का विवाह करने पर आमादा हैं और पारंपरिक सोच वाले पिता की तरह दहेजप्रथा में विश्वास करते हैं। नायक इसके सख्त खिलाफ है। वह कुल कपूत कहलाने को तैयार है लेकिन दहेज लेने को तैयार नहीं। वह जानता है कि पितृसत्ता ने न सिर्फ स्त्रियों का नुकसान किया है बल्कि पुरुषो का भी पुत्र रुप में बहुत दोहन-शोषण किया है, दहेज की बलिवेदी पर उन्हें चढ़ा कर, उनकी बेमेल शादियां करा कर, बेटों का विक्रय करके।

अपने भाई को पत्र में लिखते हैं- पिता मुझे बेच कर संपत्तिशाली बनना चाहते हैं। यदि उन्हें द्रव्य प्यारा है तो द्रव्य प्राप्ति के और भी कितने साधन हैं। फिर एक दीन परिवार की सूखी हड्डियों से रक्त चूसने का यह असफल प्रयास क्यों करते हैं? क्या उन्होंने इसी स्वार्थ को साधने के लिए मुझे ऊंची शिक्षा देने का आयोजन किया था?”

नायक जानता है कि वह इस तरह सामाजिक क्रांति करने वाला अकेला है या उसके जैसे सोचने वाले लोग कम हैं।

अपने भाई के पत्र में लिखता है – तुम कहोगे, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। ठीक है, पर इतना तो अवश्य होगा कि हमारी मृत्यु के बाद भावी संतानें इस पर कुछ तो विचार कर सकेंगी। इतना तो अवश्य सोंचगी कि हमारी मृत्यु का कारण क्या रहा है। माना कि तुरंत प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन विचार तैयार होंगे और फिर कभी तो यह बात उनके दिमाग में धंसेगी। वे इसका मूल्य समझेंगे।

एक उम्मीद पर खत्म होता है यह उपन्यास। एक संकेत देकर कि कोई ऐसा युगपुरुष आएगा जो अंग्रेजी शासन की काया पलट देगा। कथा में गांधी उदय के पहले का परिवेश लगता है। नायक की यह आशा , उम्मीद, यह घोषणा गांधी पर जाकर पूर्ण होती है।   

और अंत में नायक अंतिम पत्र में भाई को जो बताता है, वही इस उपन्यास का केंद्रीय विषय है।

वह लिखता है- मैंने जीवन में दो काम किए है, एक अबला का उद्धार और दूसरा देश के युवको को जाग्रत करने का काम।

प्रेम में अबला का उद्धार जैसे शब्द प्रेम को छोटा कर देते हैं। देश के युवको को जाग्रत करने का श्रेय नायक बखूबी ले जाते हैं।   

 

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Posted By Geetashree On 6:21 AM 0 comments

 रचना-सूत्र

-गीताश्री

एक कृति से दूसरी कृति जन्म लेती है. वह महान कृति होती है जिससे दूसरी कृति निकलती है. वह किताब महान जो दूसरी रचना का सूत्र देती है.

कसौटी कई तरह की होती है कृति को क़सने की. आज सबके पास एक कसौटी है.

जरुरी नहीं कि वह कसौटी सही हो. असली कसौटी की पहचान भी मुश्किल है. निगाहें चाहिए. सच आँख भर नहीं होता. आँख के रास्ते विवेक की आंच में सच को सींझना होता है. जैसे कोई बेटी , अपनी मां की नक़ल नहीं होती, उसकी अपनी मौलिक उपस्थिति होती है, अपने गुण दोष के साथ.

वैसे ही कोई कृति से जन्म लेने वाली दूसरी कृति होती है. अपनी स्वतंत्र चेतना और इयत्ता के साथ.

कहते हैं-

यह पृथ्वी अन्य ग्रहों की तरह एक ग्रह है. सूरज से टूट कर बनी हुई ठंडी पिंड.

इसके पास सूरज से ज़्यादा संसाधन हैं. इससे न सूरज का महत्व कम होता है न पृथ्वी उसकी कॉपी रह जाती है.

हमें कृतियों को उनकी स्वतंत्र चेतना के साथ स्वीकारने की तमीज़ हासिल करनी चाहिए.

 

 

 

Posted By Geetashree On 4:01 AM 0 comments

 

ब ह स

 

"क्या बाज़ार साहित्य का मूल्य तय कर सकता है? क्या बिक्री के आँकड़े साहित्य की श्रेष्ठता के मूल्यांकन के लिए कसौटी बन सकते हैं?"

 

बाज़ार साहित्य पर हावी है, कंटेंट से लेकर बिक्री तक. बाज़ार मूल्य अलग तरह से तय कर रहा है. एक जमात है जो बाज़ार को दिमाग में रख कर लिख रही है. उसका लक्ष्य किताब बेचना और पाठक बनाना है. उसे साहित्य की शुचिता या आग्रहों से कोई मतलब नहीं. वह पूरी तरह मुक्त है और मुक्ति की घोषणा कर चुकी है कि हमें साहित्य की श्रेणी में नहीं रखना तो मत रखो. हम आपके लिए लिख नहीं रहे. हम पाठकों के लिए लिख रहे. यानी टारगेटेडट ऑडियेंस के लिए लिख रहे. पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए लिख रहे. उन्हें ज़माने की नब्ज पता है कि नयी पीढी क्या पढ़ना चाहती है. भाषा से लेकर कंटेंट तक ख़ूब खिलवाड़ हुए हैं. पिछले कुछ सालों में स्वाद बदल गया है. सारे मानदंड टूट गए हैं. सब अपने हिसाब से, सुविधा से नये मूल्य गढ़ रहे हैं. ज़ाहिर है, नये मूल्य गढ़ते समय हम अपने समय का ध्यान रखते हैं. किताब की बिक्री का ध्यान रखते हैं. लेखकों पर दबाव रहता है कि किताब को कौन पढ़ेगा, क्यों पढ़ेगा? कैसा स्वागत होगा? बेस्ट सेलर बनेगी या नहीं.

क्योंकि बेस्ट सेलर होना साहित्य में सेलिब्रिटी होना है.

बेस्ट सेलर की अवधारणा बाज़ार की देन है. किताबें कब नहीं बिकी? पुराने लेखकों की किताबें आज भी ख़ूब बिकती हैं. पुस्तक मेले में जाकर देखे कोई कि बुक स्टॉल पर सबसे ज़्यादा किनकी किताब बिकती है? पुराने लेखक आज भी प्रासंगिक है, कंटेंट के लिहाज़ से भी और बिक्री के आधार पर भी. उनकी माँग कभी कम न हुई. मगर वे किसी प्रोपगेंडा का हिस्सा नहीं हैं. वे नहीं बोलते, उनकी किताबें बोलती हैं. बोलती रहेंगी. उनके मूल्य भी उनके तय किए हुए थे. तब उनके समक्ष बाज़ार नहीं, शुद्ध पाठक और अपना समाज था.

आज बाज़ार है और भिन्न रुचियों और व्यवसाय वाला पाठक है.

अधिक बिक्री कभी साहित्य की कसौटी नहीं हो सकती. बाज़ार तय नहीं कर सकता कि श्रेष्ठ साहित्य क्या है, बस यही काम बाज़ार नहीं कर सकता. बाज़ार तात्कालिक मोल दे सकता है, कालजयी होने का भाव नहीं.

इतना तो सबको पता है साहित्य में वक़्त से बड़ी कसौटी कोई नहीं और पाठक से बढ कर कोई ईश्वर नहीं.

यह ईश्वर नष्ट होने वाली प्रजाति है. इसकी अपनी समझ और विवेक की सीमाएँ हैं. जरुरी नहीं कि लेखक के स्तर के पाठक भी हो. हम उस अदृश्य प्रजाति पर दांव खेलते हैं जिस पर इतना भरोसा नहीं कि वह लेखक से ज़्यादा पढ़ा लिखा होगा. लेखक संवेदना के जिस धरातल पर खड़ा होकर लिख रहा है, पाठक की संवेदना उससे मिलती हो, उसके समानांतर हो. कम न हो.

मौजूदा समय में साहित्य को लेकर फ़ास्ट फ़ूड वाली प्रवृति दिखाई देती है. अख़बार की तरह बाँच कर किसी बेंच पर छोड़ कर चल देने की लापरवाही.

झटपट ...झट और पट !

किताबें झट से आती हैं पट से बिला जाती हैं.

जो दिमाग में अटक जाती है जिसे पीढ़ियाँ दोहराती हैं, सुनाती है वो है - सामाजिक मूल्यों और मानवीयता के पक्ष में खड़ी कृतियाँ. जिसमें प्रवेश करते की पाठक पनाह और विश्राम पा जाए.

जहाँ वह घबरा कर बार -बार घुसना चाहे.

एक उदाहरण देकर समझाना चाहूँगी कि बेस्ट सेलर किताबें किसी मशहूर डिज़ाइनर की उस डिज़ाइन की तरह होती है जिसे प्रेट लाइनबोलते हैं, यानी एक डिज़ाइन की लाखों कॉपी, वह बेस्ट सेलर होती है. कभी डिज़ाइन की वजह से तो कभी नाम की वजह से. श्रेष्ठ साहित्य सव्यसाची के लहंगे की तरह है जिसका एक पीस ही तैयार होता है.

बाज़ार इसे भौंचक्का होकर देखता है, सराहता है, तरसता है, मूल्य नहीं लगा सकता.

बेस्ट सेलर उसी प्रेट लाइन डिज़ाइन की तरह है... बिकाऊ किताबें जो प्रकाशक और लेखक दोनों की जेब भर देती है.

समय के साथ फ़ैशन और जरुरत समाप्त !

बाज़ार बहुत ख़राब चीज़ नहीं मगर उसे किसी पुण्य की तरह चाहना ख़राब है. वो हावी होगा तो आप अपने साथ छल करेंगे. अपनी नहीं सुनते जो वे बाज़ार की आवाज़ें सुनते हैं. सुरीली पार्श्व गायकी के वाबजूद  कोरस के गायकों की पहचान कितनी स्थायी !!

बाज़ार यहाँ विफल है. उसकी अपनी सीमाएँ हैं. हैसियत है. वह निर्जीव चीजों पर प्राइस टैग लगा सकता है, उसे अमर नहीं कर सकता.

बेचना कसौटी नहीं है. कसौटी है समय ! उस पर छोड़ देना चाहिए.

 

 

 

 

 

 

Posted By Geetashree On 8:39 PM 0 comments

 वरिष्ठ लेखिका अनामिका का खत, गीताश्री के नाम

राजनटनी उपन्यास पढ़ने के बाद उपजी प्रतिक्रिया जो खत में ढली....


प्रिय गीता,

 

इतिहास के साथ, वह भी मिथिलांचल ओर तिरहुत - जैसे श्रुतिबहुल क्षेत्रों के साथ महाकाल की लुकाछिपी अपने साहित्य में मंचित करने वाली उषाकिरण खान की परम्परा में आज तुम भी खड़ी हो -अपनी राजनटनीकी मृणाल-सदृश बाँहें गले में लपेटे हुई। यह देखकर मेरी माँ, तुम्हारी जायसी-स्पेशलकी पुरानी प्रोफेसर कितनी खुश है, यह तो यहाँ आकर ही देख सकती हो !

रिक्त स्थानों की पूर्तिवैसे तो स्कूली बच्चों का प्रिय होमवर्क होता है, पर यही होमवर्क जब लेखक करने बैठते हैं ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखकतो उनसे एक चूक यह हो जाती है कि वे उस समय की भाषा और तत्कालीन परिवेश ज्यों की त्योंधर दीनी चदरियाभाव से उतार नहीं पाते।

तुमने लोकका बायस्कोप पकड़ा है जो मिथिलांचल में अभी भी बहुत नहीं बदला है, और बोली-बानी,  प्रकृति-पर्यावरण की छाँव में यह पूरा प्रसंग मंचित किया है कि कैसे एक अज्ञातकुलशील स्त्री या (जाति-वर्ण -संप्रदाय आदि के) फ़्रेम से बाहर पड़ने वाली तथाकथित रूप से अवर्णस्त्री भी उतनी ही उच्चाशाय हो सकती है, जितनी सामान्य स्त्री नहीं होती। गीता की नायिका, रवींद्रनाथ ठाकुर के गोराकी तरह देशकी सामान्य चौहद्दी के बाहर की है यानी मिथिला के बाहर की, कहीं और से आकर बसी हुई अदर है वह फिर भी  देशहित के लिए उतनी प्रतिबद्ध है जितनी स्थानीय जनता भी नहीं। इस बहाने तुमने, ‘देशप्रेमकी संकीर्ण परिभाषा को स्पष्ट चुनौती दी है और यह काम आज के संदर्भ में बहुत जरूरी माना जाएगा जब बाहर से आकर बसे हुओंको अपनामानने को जल्दी कोई तैयार ही नहीं होता।

दूसरी बात इसमें यह ध्यान देने लायक है कि  पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआकी श्रेणी में पड़ने वाले, सार  तुम्हारे अपने शब्दों में सारा दिन किताब में मुण्ड घुसाए रखने वालेवाले राजकुमार की तुलना में एक सामान्य लोक कलाकार की चेतना अधिक विकसित हो सकती है! स्वयं औपचारिक शिक्षा से विरत रहकर भी वह अपनी नैसर्गिक प्रज्ञा से यह समझ सकती है कि देश किसी देश प्रदेश की असली थाती उसकी कलाकृतियाँ और पाण्डुलिपियाँ होती हैं, उसके साधना ग्रंथ! और किसी लूट-पाट से अधिक दूरगामी व्याप्ति रख सकती है ज्ञान-थाती की चोरी! बंगाल का राजा अपनी सांस्कृतिक निधि चौगुनी करने की सूक्ष्म लालसा से प्रेरित है जो वह छल-बल से स्वयं हासिल नहीं कर पाता, वैचारिक राग-द्वेष से पीड़ित गद्दारों की मदद से उसका बेटा हासिल करता है, पर शठे शाठ्यं समाचरेतकी नीति आजमाती हुई राजनटनी उसका पासा पलट देती है, अपनी जान हथेली पर लिए हुए साथी नटों की मदद से पाण्डुलिपियों वाले बक्से ही बदल देती हे नाव पर लदवाने के पहले

हालाँकि राजकुमार उसे नए देश की महारानी बनाकर साथ ले जा रहा है! उसका यह निर्णय फॉर्स्टर के निर्णय की याद दिला देता है :

" I have to choose between betrayaing my country and but betraying my friend, I would rather betray my country."  

नटनी का जीवन फॉस्टर्र की उक्ति का सजग प्रतिपक्ष गढ़ता है और उसी शिद्दत से यह अनपढ औरत ग्रंथों का मोल चुकाती है जिस शिद्दत से रोजेविक की कविता में ऋवान्त अपने प्रतिपक्ष का मोल

‘‘और सफेदी का सही बखान है

रंग सुरमई

पक्षी का पत्थर

सूरजमुखी का दिसम्बर...

रोटी का सबसे सटीक बखान

भूख...

उसके भीतर ही है

एक नम छिद्रकोष

एक ऊष्म, भीतरी सतह,

सूरजमुखी रात के...

प्यास की स्रोत-सदृश परिभाषा है

राख, रेगिस्तान...

 

इस क्रम में आगे कहें तो गीताश्री का सही बखान हैं यह उपन्यास, लिट्टी चोखाके बाद की ये रचनाएँ जो आम्रपाली  गाथा से होती हुई अब राजनटनीके मनोलोक तक पहुँची है और गंगा उस पारवाले नैतिक भूगोल के बतरसप्रवण भाषिक अवचेतन तक। उपन्यास अपने निर्बाध, रोचक कथाप्रवाह के कारण भी पठनीय है।

 

तुम्हारी

अनामिका 

 

 

 

Posted By Geetashree On 12:57 AM 2 comments
फिल्म




 हर अमृता को रिस्पेक्ट और हैप्पीनेस चाहिए , थप्पड़ वाला प्यार नहीं

-गीताश्री

ऐसी उम्मीद दिवास्वप्न है।
कहाँ है ? किस व्यवस्था से उसे उम्मीद है? वर्तमान पारिवारिक ढाँचे में तीन हज़ार साल से कोई बदलाव नहीं आया तो अब क्या आएगा? नसों में जो ग़ुलामी उतार दी गई है, उसे कैसे बाहर निकालेंगे? थप्पड़ एक फ़िल्म नहीं, स्त्री के स्वाभिमान का लहूलुहान चेहरा है. सदियों के थप्पड़ों का दाग चाँद पर है और स्त्री का चेहरा वही चांद है. आप चांद के चेहरे पर दाग के अर्थ ढूँढना बंद कर दीजिए. उसका जवाब आपकी ऊंगलियां हैं जो सदियों से किसी स्त्री का गाल ढूँढती चली आई हैं. चांद के चेहरे पर झाइयाँ नहीं है वो दाग. आपके ज़ुल्मों सितम की कहानी है... हिंसा की लिपि पुरुषों से बेहतर कौन लिख और पढ़ सकता है? हिंसा की लिपि कई स्तरों पर लिखी जाती है. मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर.
स्त्री के गाल और उसकी देह तो पहले से ही उस लिपि के लिए स्लेट का काम करते थे, अब उसकी आत्मा पर थप्पड़ के फफोले उगने लगे हैं.
सवाल एक थप्पड़ का नहीं है बाबा. मत ढूँढिए न ही तर्क दीजिए कि एक ही थप्पड़ तो मारा था. इतना तो चलता है. ये कोई बड़ी बात नहीं है. औरत को सहने की आदत डाल लेनी चाहिए.
याद दिलाऊँ।
तीन हज़ार साल पहले भिक्षुणी सुमंगला ने आज की अमृता की तरह ही थप्पड़ खाकर लिखा था कि अहो , मैं मुक्त हुई. मेरा पति तो मुझे उस छाते से भी तुच्छ समझता था जिसे अपनी जीविका के लिए बनाता था.
अमृता (तापसी पन्नू) का पति उसे क्या समझता रहा? फ़िल्म देखने वाले दर्शकों से क्या छुपा है? उनकी आत्मा जानती है कि लोग अपनी पत्नियों को क्या समझते हैं?
एक गाल जिस पर दुनिया भर का ग़ुस्सा और कुंठा छाप दिया जा सकता है.
एक सामान जिसे जब चाहे अपने घर से निकलने का हुकुम दिया जा सकता है.
एक देह जिसे जब चाहे बिस्तर पर पटका जा सकता है, रौंदा जा सकता है। उसकी मर्जी के विरुद्ध।
एक वर्कर जिसे जब चाहे घरेलू कामों में झोंका जा सकता है। रसोई जिसकी सबसे बड़ी जगह। जहां उसे हर हाल में आग में पकना, सींझना है।
एक कोख, जिसे संतानोत्पति के लिए जब चाहे लोड किया जा सकता है। वंश वृद्धि के नाम पर संतानें पैदा करते रहने का हुक्म दिया जा सकता है।
एक भ्रूण, मांस का लोथड़ा जिसका पता लगते ही कोख में ही कत्ल का जा सकता है।
ये तो कम है। जाने कितनी बातें गिनाई जा सकती हैं। इन सबके वाबजूद थप्पड़ तो इनाम है, रोज की बात है, उसका चाय और नाश्ता है। कहते हैं –ङर तो स्त्री से बनता है। मकान को घर वही बनाती है। कितना कड़वा सच है कि वह घर ही तो उसकी कब्रगाह है। वो घर कहां होता है उसका। संपत्ति में कहां होता है उसका नाम। पति को गुस्सा आए तो बाल पकड़ कर दरवाजे से बाहर धकिया सकता है। उसका सामान बाहर फेंकते हुए चुटकी बजाते हुए कह सकता है....निकलो बाहर, अभी के अभी निकलो...ये घर मेरा है....
एक चुटकी सिंदूर की कीमत एक चुटकी है। जो उसे पल भर में दर बदर कर देती है। आधी रात को अपना सामान लेकर कहां जाए। बेशर्म औरतें फिर भी वहां पड़ी रहती हैं।
नयी पीढ़ी की अमृता बेशर्म स्त्री नहीं है। उसमें स्वाभिमान बाकी है। वह उस रिश्ते में, उस घर में रहने से इंकार कर देती है।
फिल्म में एक जगह वह कहती है,  "पता है उस थप्पड़ से क्या हुआ? उस एक थप्पड़ से ना मुझे वो सारी अनफेयर चीजें साफ-साफ दिखने लग गईं जिसको मैं अनदेखा करके मूवऑन करती जा रही थी।"
अमृता अब तक अपनी शादी में अपनी जगह ढूंढ रही थी। उसे चोट लगी। क्योंकि उसने अपने लिए अलग से थोड़ी-सी खुशी भी नहीं बचा रखी थी। इस रिश्ते से बाहर आकर अब उसे अपने खालीपन को भरना है। वह बहुत साफ-साफ कहती है, "उसने मुझे मारा; पहली बार। नहीं मार सकता। बस इतनी सी बात है। और मेरी पिटिशन भी इतनी-सी है।"
बस इतनी-सी बात समाज को और मामूली लगती है। बस अमृता की लड़ाई इस थप्पड़ को मामूली नही बनने देने की है। थप्पड़ तो एक बहाना है, उसके माध्यम से समाज के सारे सगे संबंधियों के असली चेहरे, उनकी भूमिका एक्सपोज हो जाती है।
थप्पड़ अमृता (तापसी पन्नू) को लगता है मगर उसका असर उसकी पड़ोसी शिवानी (दिया मिर्जा), उसकी मां संध्या (रत्ना पाठक शाह), उसकी सास सुलक्षणा (तन्वी आज़मी), उसकी वकील नेत्रा (माया), उसकी हाउस हेल्पर (गीतिका विद्या) के जीवन में भी पड़ता हैं। सबके दुख उजागर होते हैं। अपने अरमानों के कब्रगाह पर बैठी मातमी ये सभी स्त्रियां शोक-पत्र की तरह पढ़ी जा सकती हैं।
ये स्त्रियां ऊपर-ऊपर शांत जीवन जी रही है। उनके भीतर जीवन जैसे थम चुका है। इसीलिए उन्हें एक थप्पड़ पर आश्चर्य नही होता। न ही कोई अफसोस। ये तो होता रहता है...टाइप मसला है। रात को लात-जूते खाओ, सुबह काम पर जाओ। भूल जाओ...आगे बढ़ो।
मेरे गाल, तुम्हारे थप्पड़....जश्न मनाओ।
सास कहती है- औरतों को बर्दाश्त करना सीखना चाहिए।
मां कहती है- मैंने नहीं सहा, बहुत कुछ करना चाहती थी, परिवार के लिए सब छोड़ दिया।
पति कहता है- मैं गुस्से में था, तुम बीच में आ गई।
भाई कहता है- उस वक्त वो तनाव में था, हो गया। हमें समझना चाहिए।
सबके पास अपने जस्टिफिकेशन है, तर्क हैं। किसी के पास एक सॉरी नही है। किसी को नहीं लगता कि ये गलत हुआ, बहुत गलत।
फिल्मकार अनुभव सिन्हा यहां सबको कटघरे में खड़ा कर देते हैं। मुल्क और आर्टिकल-15 जैसी फिल्मों के निर्देशक अनुभव सिन्हा का यह थप्पड़ हिंदी सिनेमा को याद रहेगा। लेकिन इस फिल्म को घरेलू हिंसा के खांचे में न डाले। घरेलू हिंसा का सतही अर्थ निकालते है हम। यातना को कोई पैटर्न सेट है क्या। रात-दिन ताने मार कर मुर्दा कर देना, किस खांचे में डालेंगे। आपकी कसौटी पर खरी न उतरने वाली, औरत की आत्मा को छीलते जाने को क्या कहेंगे। भोजन-प्रेमी पेटुओ की पत्नियों को छप्पन भोग बनाना आना चाहिए, नहीं तो वो घरेलू सहायिकाओं को गले लगा लेंगे। जो उनकी लपलपाती जिव्हा के लिए भोजन तैयार करती रहती है। मध्यवर्गीय पुरुषों को अपनी औरतें काम पर दिखनी चाहिए। चाहे बच्चा उठाए हों या रसोई में खटर-पटर करती हुई। एक भुक्तभोगी औरत ने कहा था- आप कोई काम मत करो, जब पति घर में हों, तो बस उसके सामने काम करती हुई दिखो...उन्हें ये बात बहुत भाती हैं कि उनकी बीवी कितना काम करती है, उनके लिए कितनी समर्पित हैं।
पाखंड करो...प्रेम का पाखंड, समर्पण का पाखंड... ऐ जी, वो जी करते रहो, आरती उतारते रहो, नहीं तो वो आत्मा छील कर सुखा देंगे।
अनुभव सिन्हा यहां उनको एक्सपोज कर देते हैं। सिनेमाई खांचे तोड़ देते हैं। इसीलिए इस फिल्म को किसी जॉनर में न रखें। फिल्म थ्योरिस्ट रॉबर्ट स्टेम का मानना है कि कुछ बेहतरीन फिल्मों को जॉनर फ्री रखना चाहिए।
अनुभव की ये फिल्म वैसी ही है। सबसे अलग, सबसे जुदा। अलग शैली में अपनी कथा कहती हुई। फिल्म को प्रारंभ से ही ध्यान से देखना चाहिए। कथा-कोलाज से कुछ दृश्य है, अलग-अलग फ्रेम में। अलग अलग पात्र हैं, उनकी बातें हैं, उनके सुख-दुख हैं। बाद से सारे पात्र एक दूसरे से जुड़ते हैं। सबके जीवन में कोई न कोई समस्या चल रही है। सबके केंद्र में स्त्री है। यह स्त्री सिनेमा है या स्त्री के बहाने जिंदगी का सिनेमा है। जिंदगी अपने आप में एक जॉनर है। निर्मम और संघर्षपूर्ण । उसके पास दया-माया नहीं।
औरत तो दोहरा शिकार है। एक तो जिंदगी का कहर, ऊपर से उसकी जिंदगी भी अपने नियंत्रण में नहीं।
विवाह उसके लिए होलोकास्ट साबित होता है। जिसमें अपना मन, इच्छाएं और स्वप्न सब किसी और के नियंत्रण में दे देना होता है। विवाह एक यातना शिविर बन जाता है उसके लिए। यह फिल्म उसी यातना शिविर से बाहर निकलने का शंखनाद है। एक सलाह भी है कि वैवाहिक हिंसा को रोकना हो तो पहले थप्पड़ पर ही प्रतिवाद जरुरी है। हिंसा के बदले हिंसा की पैरोकारी नहीं करती ये फिल्म। फिल्म की नायिका अमृता चाहती तो भरी पार्टी में पति के थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से दे कर हिसाब बराबर कर सकती थी। उसने ऐसा नहीं किया। क्योंकि प्रतिशोध लेना उसका मकसद नहीं था। अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकल कर दुनिया को मैसेज देना जरुरी था।
बस एक कदम, एक कदम की दूरी पर है रिहाई। नायिका बिल्कुल लाउड नहीं होती है। कोई चीख या चिल्लाहट या विलाप उसके एक्शन में नहीं है। उसके पास है तो सिर्फ थोड़ी-सी खुशी पाने की चाहत। उम्मीदें, जो अब भी कहीं बची हुई थीं। अंधेरे में जुगनू भी रोशनी की उम्मीद की तरह होता है।
अनुभव की एक बात माननी पड़ेगी....
वे अपने पात्रों के प्रति बहुत क्रूर नहीं होते। फिल्म को दुखांत और सुखांत के बीच झूला बना कर छोड़ देते हैं। या कहें कि एक उम्मीद की चिंगारी छोड़ देते हैं। वे मानते हैं कि किसी इंसान में सुधार की गुंजाइश हमेशा होती है। अंत बिल्कुल फार्मूलाबद्ध नहीं कि तलाक के पेपर पर साइन होने से पहले दोनों मिल जाए। स्त्री का दिल पिघल जाए, वो माफ कर दे। दर्शक खुश, पैसा वसूल। ये मकसद नहीं था अनुभव का। मगर उन्होंने नायक क मुंह से सॉरी बुलवाया और ये कहलवाया कि वो अमृता का दिल फिर से जीतने की कोशिश करेगा।
पता नहीं , वो कितना कामयाब हुआ, या नहीं हुआ...बीच में एक बच्चा भी है, जो अमृता के गर्भ में है। उसके आने के बाद क्या परिस्थितियां रहेंगी, यह सब कुछ दर्शको के सोचने के लिए छोड़ दिया।
अनुभव ने फिल्म में कुछ पात्रों को बहुत सपोर्टिव दिखाया है। सारे पति हिंसक नहीं होते। जैसे दिया मिर्जा के दिवंगत पति। सपोर्टिव पुरुष जैसे नायिका का पिता। जैसा आजकल के पिता होते हैं। वे पत्नियों के मामले में बेहद संकीर्ण होते हैं, बेटियों के मामले में उनका व्यवहार उल्टा होता है। वे बेटियों के साथ हर लड़ाई में डट कर खड़े होते हैं। अपना दरवाजा उसके लिए खुला रखते हैं। यहां मां का किरदार कटघरे में है जो ये मानती है कि बेटी का असली घर उसका पति का घर होता है। बहुत बड़ा छलावा है, फरेब है औरतों के साथ। औरतो को बताइए कि तेरा कोई घर नहीं होता बन्नो। अपने दम बना घर।  
अमृता की वकील है, नेत्रा (माया) उसका किरदार एकदम रियल है। धनाढ़य पति और ससुर के दम पर वकालत में अपना सिक्का जमाती है, मगर उसका दम घुटता है। क्योंकि वह पति की नजर में सिर्फ एक सेक्स ऑब्जेक्ट है। एक ऐसी स्त्री जो उसकी पोजीशन का लाभ लेकर सफलता हासिल करती है। अंत में उस धन दौलत, पोजीशन सबको ठोकर मार कर खुद को पिंजरे से आजाद कर लेती है।
एक कामवाली बाई है। रोज घर में पति पीटता है। अंत में वो हाथ उठा लेती है। पति को पीटती हुई कहती है- तू पीट मुझे, मगर मुझे जिंदगी तो जी लेने दे...।
एक स्त्री है, दिया मिर्जा। सिंगल मदर, विधवा है। उसकी किशोर बेटी उसके लिए साथी ढूंढना चाहती है। नहीं मिलता तो अंत में मां , बेटी दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अकेले ही वे ज्यादा खुश है।
सिंगल औरतें हर थप्पड़, हर धौंस और हर कैद से मुक्त हैं। मन का साथी न मिले तो एकल जीवन सबसे बेहतर विकल्प।

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