मनीषा भल्ला
आओ, बैठो, नाड़ा खोलो..,
पंजाब राज्य समाज कल्याण विभाग का एक उच्च अधिकारी काम के सिलसिले में महिला कर्मियों को अपने कैबिन में बुलाकर यही कहता था। महिला कर्मचारियों का फक्क पीला चेहरा देखकर अधिकारी मुस्कुराते हुए कहता-ओह यानि अपना नहीं, फाइल दा नाड़ा खोल (अपना नहीं यानि फाइल का नाड़ा खोल)।
नाड़े से अधिकारी का मतलब फाइल का टैग था। दस साल पहले जब सरकारी कार्यालयों में यौन उत्पीडऩ संबंधी स्टोरी के तहत यह घटना एक दैनिक अखबार की सुर्खियां बनीं तो उत्पीडऩ का शिकार महिलाओं को पता भी नहीं था कि उनके घरों में उनके साथ क्या होगा। कार्यालय की तमाम महिलाएं अगले दिन अखबार के ऑफिस आ गईं और उनमें से कुछ रोने लगीं तो कुछ झगडऩे लगीं। महिलाओं ने कहा उनके पतियों ने उन्हें नौकरी छोडऩे के लिए कह दिया है। कुछ का कहना था कि उनके पति उनपर शक करने लगे हैं। कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ की इस घटना से महिलाओं के घर में बवाल हो गया लेकिन संगठित और असंगठित क्षेत्र में महिलाएं इससे कहीं ज्यादा यौन उत्पीडऩ का शिकार हो रही हैं। लेकिन वे न के बराबर ही मुंह खोलती हैं।
आखिरकार 13 साल के संघर्ष के बाद शीतकालीन सत्र में महिला यौन उत्पीडऩ रक्षा विधेयक 2010 पेश हुआ जो केंद्रीय मंत्रीमंडल की मंजूरी के बाद लोकसभा की स्थायी समिति के पास जा चुका है। लेकिन इसमें कई खामियां हैं। कई वर्ष पहले राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस विधेयक पर काम कर महिला संगठनों और वकीलों से व्यापक विचार विमर्श कर इसके कई प्रारूप तैयार किए थे लेकिन विधेयक जो कानून बनने जा रहा है उसमें उन विचार-विमर्शों की झलक दिखाई नहीं दे रही।
वर्तमान में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के मामलों की सुनवाई यौन उत्पीडऩ के विशाखा बनाम राजस्थान सरकार (1997) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के तहत की जा रही है। जिनके तहत यौन उत्पीडऩ की परिभाषा तय की गई थी। इसी आधार पर इस विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है। कार्यस्थल पर यौन शोषण रोकने के लिए इस विधेयक का महिला संगठनों ने स्वागत तो किया लेकिन विधेयक के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति जताई है।
इस बारे में अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन (एडवा) ने गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव के.सी जैन को एक सुझाव पत्र भी दिया है। संगठन की कानूनी संयोजक कीर्ति सिंह का कहना है कि विधेयक में कार्यस्थल पर यौन शोषण की झूठी और दुर्भावना से की गई शिकायतों को शिकायत करने वाली महिला के लिए दंडनीय बनाया गया है। यह विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के निर्णय के एकदम विपरीत है जिसमें साफ लिखा है कि शिकायत करने वाली महिला के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं की जाएगी। यौन शोषण से संबंधित सभी कानून इस भावना से बनाए जाते हैं कि यौन उत्पीडऩ की शिकायत करने वाली महिला को ऐसा वातावरण दिया जाएगा कि वह भयमुक्त होकर अपनी शिकायत दर्ज करा सके। क्योंकि अमूमन महिलाएं डर और अपमान की वजह से शिकायत नहीं करती हैं।
यौन उत्पीडऩ की शिकार महिला के बारे में आसानी से कह दिया जाता है कि महिला झूठ बोल रही है। उसके चरित्र पर लांछन लगाए जाते हैं। इन वजहों से महिलाएं शिकायत नहीं करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि विधेयक के अनुसार यदि महिला की शिकायत झूठी पाई गई तो महिला के ही खिलाफ कार्यवाई होगी। प्राकृतिक नियम है कि बिना सुबूत के किसी को सजा नहीं मिल सकती। यह नियम यहां भी लागू होता है।
अगर शिकायत करने वाली महिला के पास सुबूत नहीं है तो या वह यौन उत्पीडऩ साबित नहीं कर पाई तो उसके ही खिलाफ कार्रवाई होगी। इस भय से तो कोई महिला कभी शिकायत करेगी ही नहीं। महिला संगठनों का भी कहना है कि कम से कम महिलाओं को शिकायत करने के लिए भयमुक्त माहौल दिया जाए और यदि वह सुबूत नहीं जुटा पाती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। यौन मांगों के साक्ष्य जुटाना अक्सर मुश्किल होता है।
विधेयक की दूसरी कमजोरी यह है कि वह घरेलू कामगार महिलाओं पर लागू नहीं होता। इतने बड़े तबके को विधेयक में छोड़ दिया गया है।
तीसरा विधेयक में जिला अधिकारियों द्वारा स्थानीय स्तर पर सरकारी दफ्तरों में समितियों बनाए जाने का प्रावधान है। कमेटी बनाने का प्रावधान और निर्णय जिला अधिकारी के विवेक पर छोड़ा गया है। जिससे अधिकारी के निरंकुश होने का अंदेशा है।
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January 19, 2011 at 2:22 AM
बात आपकी पर्याप्त सही है किन्तु जैसे दहेज विरोधी कानून के दुरुपयोग इस रुप में देखने में आते रहते हैं कि महिला अपनी स्वयं की किसी गल्ति पर भी ससुराल वालों के खिलाफ दहेज मांगने की रिपोर्ट लिखवाकर उन्हें उल्टा फंसवा देती है, वैसी किसी स्थिति से बचाव की क्या व्यवस्था तब होगी ?
January 19, 2011 at 2:34 AM
अच्छी जानकारी।
January 19, 2011 at 5:38 AM
आहिस्ता -आहिस्ता ही सही...कुछ खिडकिया खुलने लगी है ...
January 19, 2011 at 5:46 AM
वैसे तो भारत में कोई भी कानून अपने उद्देश्य में सफल नहीं है। उन्हें लागू कराने की जिम्मेदारी जिन विभागों के पास है उन की क्षमता बहुत न्यून है। इस कानून में यह प्रावधान कि उत्पीड़ित महिला की शिकायत झूठी पाए जाने पर उसे दंडित किया जायेगा, गलत नहीं है। क्यों कि किसी शिकायत के समर्थन में सबूत नहीं जुटा पाने से ही वह झूठी साबित नहीं हो जाती। उसे झूठी साबित करने के लिए भी पर्याप्त साक्ष्य का होना जरूरी है। इस तरह किसी भी शिकायत को झूठी साबित कर पाना इतना आसान भी नहीं है। फिर उसे संदेह से परे साबित करना तो और भी दुष्कर है।
January 19, 2011 at 8:32 AM
इस तरह का अनुचित व्यवहार और मौखिक अश्लील टिप्पणियों का तुरंत विरोध करना चाहिए। अन्यथा बात आगे बढ़ जाने पर हाथ से बाहर हो जाती है। ऐसे लोगों को छोड़ना नहीं चाहिए। चुप रहकर हम उनकी हिम्मत बढाते हैं।
January 19, 2011 at 8:36 AM
सरकारी प्रयास तभी सार्थक जब सामाजिक दबाव पड़ेगा ऐसे लोगों को बहिष्कृत करने का।
January 19, 2011 at 8:07 PM
फाइल का नाड़ा खोलकर उस अधिकारी के गले में डालकर खींच देना चाहिए था...
या एक काम और हो सकता है, ऐसे अधिकारियों के कमरे में रूपम पाठक (पूर्णिया विधायक हत्याकांड फेम) की फोटो लटका देनी चाहिए...
जय हिंद...
January 21, 2011 at 8:09 PM
यौन उत्पीड़न पर जानकारी अच्छी है , उदाहरण भी अच्छा है । लेकिन कामकाजी महिलाओं को दूसरी तरह के अनुभव भी होते रहते हैं उनका क्या जो अपनी फैमिनिटी को हथियार बना कर तरक्की के सोपान पर चढ़ती हैं और कड़ी मेहनत करने वाली महिलाएं बस देखती रह जाती हैं ।
February 4, 2011 at 2:28 PM
बेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - मेरे लिए उपहार - फिर से मिल जाये संयुक्त परिवार - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
February 4, 2011 at 10:49 PM
अश्लील मौखिक टिप्पणी,द्वीअर्थीय बात…………बताइये इसे कोई भीमहिला कैसे साबित कर पायेगी? ऐसे विधेयको या कानून का क्या फ़ायदा जहाँ कुछ साबित नही किया जा सके और अपराधी बरी हो जाये? अभी हमारे यहाँ कानून उतने सख्त नही है जिससे किसी को डर हो।
February 8, 2011 at 6:23 AM
वाकई यह कड़वा सच है ...एक यथार्थ है जिसे मानना कोई नहीं चाहता !
बहुत अच्छा लिखती हो गीता श्री ...
आपको शुभकामनायें !
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