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 आलेख


स्त्री का मन के चितेरे थे अनूपलाल मंडल



"समाज की वेदी पर उपन्यास के बहाने उनके रचना-संसार की पड़ताल

 

-गीताश्री

 

 

साहित्य के इतिहास के कुछ पन्नों से नयी पीढ़ी बिल्कुल अनजान है। दशको पीछे पलट कर देखते हैं तो चकित रह जाते हैं। वहां कितनी समृद्ध और अनूठी विरासत है जो लुप्त हो रही है। प्रेमचंदोत्तर काल के एक ऐसे ही विरल रचनाकार रहे हैं अनूपलाल मंडल जिनकी रचनाओं का विपुल भंडार है लेकिन नयी पीढ़ी उनसे लगभग अनभिज्ञ है। मंडल जी साहित्यकार के रुप में पचास के दशक में ही स्थापित हो चुके थे। जो कभी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,पटना के प्रथम प्रकाशनाधिकारी पद पर काम कर चुके हैं, अपने पद पर रहते हुए उस दौर के बड़े-बड़े लेखको की पुस्तके प्रकाशित करवाई, उन्हें समय-समय आयोजनो में बुला कर बिहार का साहित्यिक माहौल बनाते रहे, आज उनकी किताबें दुर्लभ हो गई हैं। कुछ उपन्यास तो पुर्नप्रकाशन का मुंह जोह रहे हैं। उनका फिर से प्रकाशन हो तो नयी पीढ़ी को अनमोल निधि मिलेगी। उनके कई उपन्यास हैं, परंतु हम यहां उनके एक महत्वपूर्ण उपन्यास समाज की वेदी पर बात करेंगे। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आश्चर्य होता रहा कि स्वतंत्रता आंदोलन की छाया में रची गई इतनी मार्मिक प्रेम कहानी समय के गर्त में कैसे दबी रह गई। उस दौर के अन्य उपन्यासो की चर्चा आज भी होती है और उसके किरदारों ने कई पीढ़ियों को अपने प्रभाव में लिया है।

इस उपन्यास की पृष्ठभूमि , किरदार, उद्देश्य, कथानक सबकुछ महान की श्रेणी में रखा जा सकता है। कुछ बिंदुओं को छोड़ कर इस उपन्यास में चर्चित होने की, पाठको का प्रेम पाने की काबिलियत थी। कुछ नागवार गुजरने वाली बिंदुओं पर भी बात होगी और उसे कतई ये कह कर नहीं बख्शा जाएगा कि वो वक्त ही ऐसा था। जब वैसे वक्त में वेश्या उद्धार जैसा उद्देश्य लेकर लेखक कथा कहते हैं, तब उनसे बहुत उदारता की उम्मीदें होती हैं। वे समाज की सारी रुढियों से लड़ते हैं,चाहे धर्म का मामला हो या जाति का। अमीरी, गरीबी के भेद से लड़ने वाला नायक भला धर्म के चगुंल में कैसे फंस सकता है। इस प्रसंग से नायक के चरित्र की दुर्बलता ही प्रकट होती है। यह बात खटकती है, इस पर आगे बात होगी।

फिलहाल उपन्यास की शैली की बात करते हैं। पूरा उपन्यास पत्र शैली में लिखा गया है। पूरी कहानी चिट्ठियों के मार्फत कही जा रही है। नायक, नायिका दोनों अपने प्रिय जनों को खत लिख कर सारी बात बताते हैं। नायक अपने भाई को और नायिका अपनी प्रिय सखि को। उनके जवाब की प्रतीक्षा नहीं है। उनसे कथा कही जा रही है। हो सकता है, पत्रनुमा शैली उपन्यास विधा के लिए पुरानी हो गई हो। समय के साथ शैली बदलती है, नयी शैली विकसित होती है। मौजूदा दौर में शिल्पगत काम बहुत हो रहे हैं। कहीं कहीं शिल्प की जटिलता कथानक को अबूझ बना देते हैं। कहन को अवरुद्ध कर देते हैं। जितनी जटिल संरचना होगी, उपन्यास उतना ध्यान खींचेगा, शायद ये मंशा होती है। जबकि हर कथा अपना शिल्प साथ लेकर आती है। इन दिनों भाषा से लेकर शिल्प तक में चौकाऊं प्रयोग हो रहे हैं। पचास साल बाद उस पर वैसे ही बात होगी जिस तरह हम मंडल जी की पत्रनुमा शैली पर बात कर रहे हैं। यह शैली वर्तमान दौर के लिए आउटडेटेड है, क्योंकि जीवन से चिट्ठियां ही खत्म हो चुकी है। उनका अस्तित्व खत्म हो चुका है। उनकी जगह तकनीक ने ले ली है। चिट्ठियों के इंतजार का रोमांच और आनंद जीवन से जा चुका है। प्रेम भले तकनीक के सहारे जिंदा है, प्रेमपत्र नष्ट हो चुके हैं। न डाकिये का इंतजार है, न गीत गाती हुई नायिका- आएगी जरुर चिट्ठी मेरे नाम की...तब देखना...। न रोज डाकखाना जाकर नायिका अपने प्रेमी की चिट्ठियों के बारे में पूछताछ करेगी।

चिट्ठीविहीन दौर में पत्रनुमा शैली नयी पीढ़ी को अजूबा लग सकती है। लेकिन जिस पीढ़ी ने चिट्ठियों का आनंद लिया है, प्रेमियों के खतों का इंतजार किया है, उन्हें यह शैली बहुत पसंद आएगी। बल्कि एकदम युवा पीढ़ी के लिए यह शैली अजूबा भले हो, उन्हें एक खोये हुए रोमांच का पता जरुर दे सकती है। एक संवेदनशील मन विचलित होगा और संभव है, खोये हुए शिल्पों की वापसी हो।

ऐसा नहीं है कि पत्र-शैली कोई अनूठी शैली है या पहली बार लिखा गया है। विश्व साहित्य में इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।

एदिता मॉरिस का उपन्यास ' वियतनाम को प्यार ' बस चिट्ठियों में है। नागासाकी में परमाणु हमले के शिकार और वियतनाम में नापाम बम से झुलसे लड़के और लड़की के बीच सिर्फ पत्र में पूरा उपन्यास है।

हेलेन हैंफ का उपन्यास 84, चैरिंग क्रॉस रोड भी बस चिट्ठियों में है। अमेरिका की एक लड़की- जो उपन्यास की लेखिका भी है- 20 साल तक इंग्लैंड की एक दुकान से किताबें मंगवाती है। उससे बने संबंध पर उपन्यास है।

कहानियां तो कई होंगी- हिंदी में भी और दूसरी भाषाओं में भी। उपन्यास भी और होंगे। इतना जरुर कह सकते हैं कि यह शैली बहुत मोहक है और पठनीय भी।

पत्र-शैली में लिखे इस उपन्यास की पहली विशेषता यही है । कई विशेषताओं में से एक और प्रमुख है- प्रेम का महिमा गान। स्त्री-जीवन और उसके चरित का महात्म्य। नायक एक वेश्या-पुत्री के प्रेम में दीवाना हो चुका है। वह दीवानों की तरह चिट्ठी लिखता है और स्वीकारता है उस स्त्री के प्रति अपना निष्कपट, निष्काम प्रेम, जिस नायिका को वह गंगा में डूबने से बचाता है। यहां स्वाभाविक ढंग से प्रेम प्रवेश करता है। स्त्रियां अक्सर अपने रक्षको से प्रेम कर बैठती हैं, और पारंपरिक नायक अपनी रक्षिता से। यहां भी वही घटित हुआ है।

अगर वह स्त्री अतीव सौंदर्यमयी, छुईमुई हुई तो वह रीझ जाता है।

नायक धीरेन अपने भाई के पत्र में लिखता है-

ओह । नारी हृदय का परिचय न था मुझे। मेरे कृष्ण, मैं तो समझता हूं, संसार उसे उपेक्षणीया, समझकर यथार्थ में अपनी बुद्धिहीनता का, वज्र मूर्खता का ही परिचय दे रहा है।

अहा, वह कितनी कोमल है और कितनी स्निग्ध। कितनी दया है उसमें और कितना ममत्व, कितना अपनापन है, और कैसी स्वार्थ-शून्यता और कैसा है उसका उत्सर्ग। कैसा अनुराग, कैसी मादकता। अहा, कैसा छलकता सौंदर्य है, कैसा सौरभ, कितना उसमें मधु है और कैसी मदिरा ।

हमारी दृष्टि में उसका कौन-सा स्थान है। क्या पुरुष वर्ग की यह ना-कद्रदानी नहीं है। स्त्री सुधा-सीकर सींचित प्रतिमा है, विलास की सामग्री नहीं है।  

एक स्त्री के माध्यम से स्त्री समुदाय को समझने की कोशिश यहां दिखाई देती है। नायक इसके पहले अन्य संकीर्ण सोच वाले पुरुषों की तरह ही स्त्रियों के प्रति अनुदार है और अनादर से भरा हुआ है। यहां एक पुरुष का हृदय परिवर्तन होता है और वह पूरे समुदाय को स्त्रियों के प्रति अपनी सोच बदलने का आवाहन करता दिखाई देता है। एक स्त्री के करीब जाकर, उससे प्रेम करने के बाद नायक की सोच बदलती है। यहां मूल में प्रेम है जो सदियों से चली आ रही सोच को बदल कर रख देता है। स्त्रियों के प्रति नयी सोच विकसित होती हुई दिखाई देती है।

यहां याद करे, ये वही दौर था जब गांधी समेत देश के तमाम समाज सुधारकों ने स्त्री की दशा-दिशा पर चिंताएं जताई थीं और उनके सुधार पर जोर दिया था। जिस कालखंड में यह उपन्यास लिखा गया होगा तब तक देश में महिलाओं के अधिकारों की बात जोरो शोरो से होने लगी थी। समाज और देश ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को देख कर अपनी राय बदली थी। उस समय पश्चिम में भी स्त्रियों ने आंदोलन करके अपने हकों की मांग रख दी थी। वहां भी स्त्रियों का जीवन बदला, समाज का नजरिया बदला और वे कामकाजी होने का हक हासिल कर सकीं। गूंगी, सजावटी गुड़ियां की छवि से, एक अच्छी हाउस वाइफ बनने की ट्रेनिंग से बाहर निकलीं। उसकी गूंज भारत में भी सुनाई देने लगी थी। जिन्हें समाज सुधारको ने सुना , कुछ अंग्रेजी हुकुमत का दबाव भी रहा कि स्त्रियों के अधिकारों के बारे में बातें होने लगीं। समाज में उनकी नयी छवि बनने लगी और उन्हें घरेलू उपयोगिता की वस्तु समझने के बजाय समाज, राजनीति में दखल देने लायक भी समझा जाने लगा।

समाज बदलता है तो साहित्य भी बदलता है। राजनीति बदलती है तो साहित्य पर उसका असर पड़ता है।

यह उपन्यास उसी दौर में लिखा गया जब पूरब और पश्चिम में एक साथ स्त्रियों की भूमिका को लेकर नजरिया बदल रहा था।

इस उपन्यास के बारे में एक विद्वान डॉ दुर्योधन सिंह दिनेश ने लिखा था कि उपन्यास का नायक सपूंर्ण नारी-जाति को आदर की निगाह से देखता है, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या। वे लिखते हैं- नारी पात्रों के माध्यम से उपन्यासकार एक ऊंचा आदर्श प्रस्तुत करता है।

हालांकि उस काल में कुछ शुचितावादियों को यह बात अखरी होगी कि वेश्याओं के प्रति इतना आदर क्यों व्यक्त किया गया है। पाठको और आलोचको के भी अपने-अपने पूर्वग्रह होते हैं। उनके अपने विचारों की कसौटी होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास को विस्मृत कर दिया गया होगा। और तत्कालीन समाज जब किसी कृति को दबा देता है तो उस पर दशकों की धूल जम ही जाती है।

सवाल उस वक्त उठे होंगे। लेकिन यह नायक कोई सामान्य इंसान नहीं था। वह देशप्रेमी था जो अपने देश की गुलामी से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था। मंडल जी खुद भी स्वतंत्रता सेनानी थे। जैनेंद्र और शिवपूजन सहाय के समकालीन थे और स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण कई बार जेल गए. वहां यातनाएं भोगी हैं। जैसे इस उपन्यास का नायक धीरेन बाबू झेलता है। बताते हैं कि मंडल जी ने स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद कभी स्वतंत्रता सेनानी का पेंशन नहीं लिया। उनके समकालीन विद्वान छेदी पंडित लिखते हैं कि इस बारे में पूछे जाने पर मंडल जी ने खरा-खरा जवाब दिया था- गुलामी की जंजीर तोड़ने में स्वल्प सहयोग कर मैंने अपना ही काम किया था, दूसरे का नहीं। मैं गुलामी के बंधन से मुक्त हूं, इससे बढ़कर क्या लाभ हो सकता है। मैंने पैसे के लिए कष्ट नहीं उठाया था, अपितु भारत मां की सेवा की थी। मां की सेवा का मूल्य थोड़े ही लिया जाता है। 

उपन्यास का नायक भी त्याग की भावना से इस तरह भरा हुआ है कि इसके लिए अपने प्रेम, परिवार सबको छोड़ कर फांसी के फंदे पर झूल जाने को तैयार है। यहां एक बात पुष्ट होती है कि हर लेखक अपने जीवन से कुछ न कुछ लेता है। कमसेकम उन जीवन-मूल्यों को अवश्य लेता है जिससे कोई कृति महान बनती है। इस उपन्यास में वे तमाम मूल्य मौजूद हैं जिनसे कोई कृति कालजयी हो सकती है। मंडल जी के बारे में उस दौर के वरिष्ठ लेखक श्रीरामबृक्ष बेनीपुरी जी ने भी उनके बारे में कहा था- अनूप उपन्यास लेखक हैं, किंतु उसका जीवन स्वंय एक उपन्यास है।

बेनीपुरी जी और अनूप जी एक दूसरे के प्रति गहरी आत्मीयता से भरे हुए थे। यह बात बेनीपुरी जी के निधन के बाद अनूप जी के लिखे संस्मरण आलेख में मार्मिक ढंग से प्रकट होती है। बेनीपुरी जी प्रतिभाओं को बखूबी पहचानते और उन्हें निखारते थे। उन्हें फलने-फूलने का सुअवसर देने में माहिर थे। वे अनूप जी से बिना मिले ही उनके प्रशंसक हो चुके थे। स्वंय अनूप जी ने अपने संस्मरण में लिखा है, बेनीपुरी जी से पहली मुलाकात के बारे में। उन्हें देखते ही बेनीपुरी जी ने मस्ती भरे लहजे में कहा था -

वाह भाई वाह। खूब मिले-खूब मिले। मैंने तो कयास भी नहीं किया था कि उन कहानियों का लेखक कोई बिहारी ही होगा। मगर आप तो अपने निकले-अपने घर के निकले।

वह स्वतंत्रता आंदोलन का दौर था और स्वंय बेनीपुरी जी भी आंदोलन में सक्रिय थे। गांधी जी तभी विचार की तरह देश-दुनिया में फैल रहे थे। समाज के कमजोर तबको को लेकर उनकी चिंताएं सबको प्रभावित कर रही थीं। साहित्य भी कहां अछूता रहता। अनूप जी के साहित्य पर उस दौर के समाज सुधारको के विचारों का गहरा असर दिखाई देता है। गांधी जी ने उस दौर में वेश्याओं को चरखा से जोड़ा था। उनके विवाह पर जोड़ दिया था और देश के नवयुवको को उनसे विवाह करने के लिए झकझोरते हुए कहा था कि उनसे विवाह के लिए आगे बढ़े, उन्हें अपनाएं।

इस उपन्यास का नायक पूरी तरह गांधी के विचारो को अपना लेता है, कमसेकम इस मामले में। हालांकि कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है। सबकुछ स्वत:स्फूर्त, स्वप्रेरित दिखाई देता है। किसी कृति की सफलता इसी में है कि वह विचारों को ऊपर ऊपर तैरने न दे, अपने स्वभाव में समा ले। उपन्यास का नायक ऐसा ही है। स्वभाव से उग्र किंतु भीतर से प्रेमिल और उदार।  

नायक का स्वतंत्रता संग्रामी होना, एक वेश्या का उद्धार करने का खयाल, उसे समाज में आदर-सम्मान दिलवाने की जिद। अंग्रेज सरकार से माफी नहीं मांगना और हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूलने को तैयार होना। नायक पत्र में बार-बार समाज के सामने सवाल उठाता है – कोई स्त्री अगर कोठे पर बैठी है तो इसका दोषी कौन है। समाज है, जिसने उसे इस ओर ढकेला। समाज ने ही उसे ढकेला और समाज ही उसके प्रति दकियानूसी विचार रखता है।

ऐसा नहीं है कि नायक उस स्त्री से दैहिक रुप से मोहित है। वह पत्र में लिखता है –मैं मानता हूं कि वह कलुषित कोख से पैदा हुई है पर उसके सदाचरण और सरलता के सामने बड़ी-बड़ी सती कहलाने वाली माताओं की कन्याएं भी किसी दशा में ठहर न सकेंगी।

लेखक यहां पर कुलीन वर्ग को आइना दिखाते हैं जिन्हें अपनी उच्च कुल का बहुत घमंड होता है। इस प्रसंग में लेखक ने तिलमिला देने वाली भाषा का प्रयोग किया है। जाहिर है, उच्च कुल के पाठको को यह बात बहुत बुरी लगी होगी। या उन्हें चुभी होगी जो स्त्री को सिर्फ भोग्या समझते थे।

लेखक को इस खतरे का आभास रहा होगा तभी उनका नायक पत्र में अपना पक्ष स्पष्ट करता है - मैं मातृजाति का सम्मान करता हूं, बड़े आदर से देखता हूं, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या।

यह बहुत बड़ा और साहसिक बयान है, उस समय का।

नायक इससे आगे बढ़ कर लिखता है- मैं तो मंत्र-मुग्ध हूं उस पर। उदभ्रांत हूं, फिदा हूं, पागल हूं। और मुझे न चाहिए। मैं इतनी-सी निधि पाकर ही अपने को सदाशिव-सा सुखी और अश्विनी-सा अमर समझूंगा।

यहां प्रेम की पराकाष्ठा है, दीवानगी की हद है और सुखी दांपत्य जीवन की उत्कट आकांक्षा है।

चूंकि यह नायक प्रधान उपन्यास है, इसलिए नायक के चरित्र के विकास में कलमतोड़ लेखन किया गया है। जैसा पांरपरिक नायक होता है, धीरोदात्त नायक की छवि उभरती है। बल्कि नायिका का चरित्र शुरु में थोड़ा दबा हुआ दिखाई देता है, बाद में जाकर उसके चरित्र का उदात्त पक्ष उजागर होता है। पुराने खयालों की नायिका अपने प्रेमी नायक को पत्र में लिखती है- स्त्री, पुरुष की इच्छानुवर्तिनी है। उसे क्या अधिकार कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध एक डग भी आगे बढ़ाए।

नायिका अबला जरुर है लेकिन अज्ञानी नहीं। वह कई बार सचेत नागरिक की भूमिका में दिखती है। जब वह अपने पत्र में एक देश की गुलामी के बारे में लिखती है- क्या यह जुर्म नहीं है कि लोगो को धोखा देकर अपना स्वार्थ साधन करें। यह जुर्म नहीं कि किसी के शरीर पर नहीं, मन पर, दिमाग पर प्रभुत्व स्थापित करके उसमें दासत्व का काम लें।

नायिका के इस कथन से स्पष्ट होता है कि उसे देश की परतंत्रता का अहसास है। जिस तरह से धोखे से देश गुलाम बना, उसे अतीत पता है। एक गुलाम मुल्क में बोलने पर पाबंदी होती है, नागरिको के हालात दासों की तरह होते हैं। ऐसे में उसका प्रेमी सत्ता से लड़ रहा है। वह इस लड़ाई का महत्व जानती है इसीलिए प्रेम को बाधक नहीं बनने देती। जबकि उसके प्रेम का आवेग बहुत प्रबल है। पत्रों में जिस तरह वह अपना मन खोलती है, जैसी दीवानगी लिखती है, और जिस तरह मीर जैसे महान शायर के शेरो का इस्तेमाल करती है, वह अदभुत है। इससे उसके चरित्र के अलग गवाक्ष खुलते हैं।

जब वह लिखती है-

नजर आती नहीं अब दिल में तमन्ना कोई

बात मुद्दत के तमन्ना बर आई है

या

था जो मैं उससे मिलिए तो क्या-क्या न कहिए मीर

पर कुछ कहा गया न गमे दिल यह मुझसे हाय

वो दौर था जब खतों में शेर ओ शायरी खूब लिखे जाते थे। फुटपाथों पर मोहब्बतों की सस्ती शायरी की पतली, रंगीन पुस्तिकाएं मिलती थीं, जिन्हें आशिक और माशूकाएं खरीदती थीं। लिखती हूं खत खून से, स्याही मत समझना ...टाइप की सस्ती शायरी खूब चलन में थी। सस्ती, फूहड़, भोंडी शायरियों के दौर में कोई स्त्री मीर जैसे शायर की शायरी कोट करती है, वह उसकी उम्दा पसंद और कुलीन समझदारी का परिचायक है। 

प्रेम में आकंठ डूबी स्त्री को मालूम है कि उसकी राह कठिन है। उसका प्रेम आसानी से हासिल होने वाली शय नहीं। वह जिसस प्रेम कर बैठी है वह अलग दुनिया, अलग समाज का वाशिंदा है। दोनों की सामाजिक हालात नितांत भिन्न हैं। दोनों के सामने सामाजिक परिस्थितियां दीवार बन कर खड़ी हैं। नायक एक साथ दोनों से लड़ रहा है। एक तरफ देश के लिए दूसरी तरफ अपनी प्रेमिका के लिए। दो मोर्चो पर एक साथ लड़ता हुआ नायक संशय में है कि वह प्रेम संबंध का निर्वाह कर पाएगा या नहीं।

उसके लिए प्रेम से पहले देश है। वह प्रेम को त्याग सकता है, देश को नहीं। वह देश पर कुर्बान हो सकता है, प्रेम पर नहीं। नायिका उसकी दुविधा को समझ जाती है। अपने प्रेम पत्र में वह अपना पक्ष रखते हुए नायक को समझाती है। इस प्रसंग में नायिका का उदात्त चरित्र दिखाई देता है। यहां वह एक अलह स्त्री के रुप में दिखाई देती है जो अपने क्रांतिकारी प्रेमी के संग हर हाल में खड़ी होना चाहती है।

वह नायक को पत्र में लिखती है- प्रणय का अर्थ विलासिता नहीं। जो प्रणय सात्विकत्ता का सहायक नहीं होता, वह प्रणय नहीं, वासना है। और नीचों के बीच यह प्रवृत्ति देखी जाती है।

उपन्यास की नायिका हसीना उर्फ सुधामयी देशहित के लिए अपने प्रेम को न्योछावर करने को तैयार है। वह खुद को इस बात के लिए तैयार कर लेती है कि अपने प्रेमी को चंदन तिलक लगा कर देश पर बलिदान होने के लिए भेजेगी। वह अपने प्रेमी की बाधा नहीं, सहायिका बनना चाहती है।

नायिका को सुधामयी नाम नायक का ही दिया हुआ है। यहां एक मुसलिम नायिका का नाम बदल कर सुधामयी करने के पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं बल्कि हसीना की मोहकता है जो नायक को अमृत की तरह लगती है। लेकिन यहां पर एक बात खटकती है जो किसी भी उदार नायक के चरित्र से मेल नहीं खाती। वह हसीना का नाम सुधामयी रखते हुए उसे एक प्रस्ताव देता है कि मेरे जीवन में आने के लिए हिंदू धर्म में दीक्षा लेनी होगी।

नायिका सहर्ष तैयार हो जाती है।

इस पूरे उपन्यास को बस यही पक्ष कमजोर कर देता है। एक क्रांतिकारी नायक, इतना उदारचेता लेकिन धार्मिक रुढ़ियों को काट नहीं पाता है। उसके आगे झुक जाता है। यहां तो प्रेम के सारे फार्मूले फेल होते हैं, कोई शर्त्त होती नहीं प्यार में...यहां प्रेम बहुत उदात्त होते हुए भी एक शर्त्त में बांध दिया गया है। यह बंधन, यह शर्त्त समाज की तरफ से नहीं है, यही तो दुखद और आश्चर्य की बात है । यह प्रसंग नायक के चरित्र का स्खलन है, उसे कमजोर साबित करता है। वह प्रेम के लिए अपनी धार्मिक कूपमंडूकता से बाहर नहीं निकल पाता। प्रेम में डूबी हुई एक विवश नायिका सहमति दे देती है। उसके सामने चारा ही क्या है। उसे प्रेम हो चुका है और वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार है। नाम, पहचान और अपना धर्म भी। अपनी खुशी-खुशी प्रेम में अक्सर प्रेमी जोड़े ऐसी कुर्बानियां देते हैं। भारतीय समाज ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। लेखक को कमसेकम यहां पर स्त्री की अस्मिता का खयाल रखना चाहिए था और नायक के उदात्त चरित्र का । यह प्रसंग एकदम अनुचित लग रहा है। इस प्रसंग के न होने से उपन्यास के कथानक या उद्देश्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

वैसे विद्रोही नायक भी एक सामान्य मनुष्य भी होता है, इस आधार पर इस प्रसंग को छोड़ कर आगे बढ़ा जा सकता है। आगे कुछ और बातें सत्य हैं, किंतु चुभने वाली हैं।

उपन्यास के अंत में सजायाफ्ता नायक अपने भाई को पत्र में लिखते हैं- पिता के वचनों पर क्षुब्ध न होना, हिंदुओं के बूढ़ों का दिमाग, बुढ़ापा में सही रास्ते पर नहीं रहता है।  

एक देशभक्त प्रोफेसर, हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाला, राजविप्लवी, बोलशेविक क्रांति का प्रचारक नायक के मुख से बार-बार हिंदू धर्म की दुहाई हैरान करती है।

अंतिम पत्र में वे नायिका को निर्देश देते हैं – हिंदू देवता के पाणिग्रहण कर लेना। नायिका अपनी सखि कुंदन को लिखती है कि वे ऐसा चाहते हैं ताकि उसका नरक से उद्धार हो सके। वो उनके बाद सात्विक जीवन व्यतीत कर सके।

यहां सवाल उठते हैं कि क्या एक गुलाम देश का एक क्रांतिकारी युवक कट्टर हिंदूवादी था? क्रांति और धार्मिक कट्टरता एक साथ कैसे चल सकती है? इस प्रसंग में उपन्यासकार से कहीं तो चूक हुई है।

लेखक की इसी दुविधा को लेकर राहुल सांस्कृत्यायन ने इनके बार में लिखा था- उपन्यास तो आप सुंदर लिख लेते हैं। पर मुझे एक बात आपकी बिल्कुल नापसंद लगी और वह यह कि आपके पात्र में मर्दानापन नहीं झलकता। वक्त आने पर छुई-मुई हो जाता है। उसका तेज, उसका शौर्य न जाने कहां चला जाता है। यह ठीक लक्षण नहीं। उपन्यासों में ऐसी कमी उन्हें दुर्बल बना देती है। प्रेम करने चलते हो तो पांव लड़खड़ाने से भला कहां, कैसे काम चलेगा। साधु बनो तो पूरे साधु बनो, चोर बनना है तो पक्का चोर बनो। साहित्य में अधकचरे से काम नही चला करता।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी कुछ इसी तरह कहा था- आपके उपन्यास केंद्र और परिधि में नायक-पात्र की दुर्बलता उजागर हुई है, क्योंकि लिखते-लिखते आप ऐसी जगह जाकर नर्वस हो हो जाते हैं, जहां नायक-नायिका को दिलेरी दिखानी चाहिए, उसे दुस्साहसिक होना चाहिए।

प्रेम और धर्म के मामले में नायक दुर्बल साबित होता है। प्रेम को अधर में छोड़ देता है, प्रेमिका को एक क्रांतिकारी की हिंदू विधवा के रुप में जीवन बसर करने को प्रेरित करता है। लेकिन कुछ मामलो में नायक के विचार बहुत खुले हुए हैं। इस उपन्यास में कई जगह सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया है। बिहार में व्याप्त दहेज प्रथा पर सीधा प्रहार किया है नायक ने। नायक के पिता बेटे का विवाह करने पर आमादा हैं और पारंपरिक सोच वाले पिता की तरह दहेजप्रथा में विश्वास करते हैं। नायक इसके सख्त खिलाफ है। वह कुल कपूत कहलाने को तैयार है लेकिन दहेज लेने को तैयार नहीं। वह जानता है कि पितृसत्ता ने न सिर्फ स्त्रियों का नुकसान किया है बल्कि पुरुषो का भी पुत्र रुप में बहुत दोहन-शोषण किया है, दहेज की बलिवेदी पर उन्हें चढ़ा कर, उनकी बेमेल शादियां करा कर, बेटों का विक्रय करके।

अपने भाई को पत्र में लिखते हैं- पिता मुझे बेच कर संपत्तिशाली बनना चाहते हैं। यदि उन्हें द्रव्य प्यारा है तो द्रव्य प्राप्ति के और भी कितने साधन हैं। फिर एक दीन परिवार की सूखी हड्डियों से रक्त चूसने का यह असफल प्रयास क्यों करते हैं? क्या उन्होंने इसी स्वार्थ को साधने के लिए मुझे ऊंची शिक्षा देने का आयोजन किया था?”

नायक जानता है कि वह इस तरह सामाजिक क्रांति करने वाला अकेला है या उसके जैसे सोचने वाले लोग कम हैं।

अपने भाई के पत्र में लिखता है – तुम कहोगे, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। ठीक है, पर इतना तो अवश्य होगा कि हमारी मृत्यु के बाद भावी संतानें इस पर कुछ तो विचार कर सकेंगी। इतना तो अवश्य सोंचगी कि हमारी मृत्यु का कारण क्या रहा है। माना कि तुरंत प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन विचार तैयार होंगे और फिर कभी तो यह बात उनके दिमाग में धंसेगी। वे इसका मूल्य समझेंगे।

एक उम्मीद पर खत्म होता है यह उपन्यास। एक संकेत देकर कि कोई ऐसा युगपुरुष आएगा जो अंग्रेजी शासन की काया पलट देगा। कथा में गांधी उदय के पहले का परिवेश लगता है। नायक की यह आशा , उम्मीद, यह घोषणा गांधी पर जाकर पूर्ण होती है।   

और अंत में नायक अंतिम पत्र में भाई को जो बताता है, वही इस उपन्यास का केंद्रीय विषय है।

वह लिखता है- मैंने जीवन में दो काम किए है, एक अबला का उद्धार और दूसरा देश के युवको को जाग्रत करने का काम।

प्रेम में अबला का उद्धार जैसे शब्द प्रेम को छोटा कर देते हैं। देश के युवको को जाग्रत करने का श्रेय नायक बखूबी ले जाते हैं।   

 

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