यौन उत्पीडऩ विधेयक उम्मीदों पर खरा नहीं

Posted By Geetashree On 12:58 AM 11 comments
मनीषा भल्ला

आओ, बैठो, नाड़ा खोलो..,
पंजाब राज्य समाज कल्याण विभाग का एक उच्च अधिकारी काम के सिलसिले में महिला कर्मियों को अपने कैबिन में बुलाकर यही कहता था। महिला कर्मचारियों का फक्क पीला चेहरा देखकर अधिकारी मुस्कुराते हुए कहता-ओह यानि अपना नहीं, फाइल दा नाड़ा खोल (अपना नहीं यानि फाइल का नाड़ा खोल)।
नाड़े से अधिकारी का मतलब फाइल का टैग था। दस साल पहले जब सरकारी कार्यालयों में यौन उत्पीडऩ संबंधी स्टोरी के तहत यह घटना एक दैनिक अखबार की सुर्खियां बनीं तो उत्पीडऩ का शिकार महिलाओं को पता भी नहीं था कि उनके घरों में उनके साथ क्या होगा। कार्यालय की तमाम महिलाएं अगले दिन अखबार के ऑफिस आ गईं और उनमें से कुछ रोने लगीं तो कुछ झगडऩे लगीं। महिलाओं ने कहा उनके पतियों ने उन्हें नौकरी छोडऩे के लिए कह दिया है। कुछ का कहना था कि उनके पति उनपर शक करने लगे हैं। कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ की इस घटना से महिलाओं के घर में बवाल हो गया लेकिन संगठित और असंगठित क्षेत्र में महिलाएं इससे कहीं ज्यादा यौन उत्पीडऩ का शिकार हो रही हैं। लेकिन वे न के बराबर ही मुंह खोलती हैं।
आखिरकार 13 साल के संघर्ष के बाद शीतकालीन सत्र में महिला यौन उत्पीडऩ रक्षा विधेयक 2010 पेश हुआ जो केंद्रीय मंत्रीमंडल की मंजूरी के बाद लोकसभा की स्थायी समिति के पास जा चुका है। लेकिन इसमें कई खामियां हैं। कई वर्ष पहले राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस विधेयक पर काम कर महिला संगठनों और वकीलों से व्यापक विचार विमर्श कर इसके कई प्रारूप तैयार किए थे लेकिन विधेयक जो कानून बनने जा रहा है उसमें उन विचार-विमर्शों की झलक दिखाई नहीं दे रही।
वर्तमान में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ के मामलों की सुनवाई यौन उत्पीडऩ के विशाखा बनाम राजस्थान सरकार (1997) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के तहत की जा रही है। जिनके तहत यौन उत्पीडऩ की परिभाषा तय की गई थी। इसी आधार पर इस विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है। कार्यस्थल पर यौन शोषण रोकने के लिए इस विधेयक का महिला संगठनों ने स्वागत तो किया लेकिन विधेयक के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति जताई है।
इस बारे में अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन (एडवा) ने गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव के.सी जैन को एक सुझाव पत्र भी दिया है। संगठन की कानूनी संयोजक कीर्ति सिंह का कहना है कि विधेयक में कार्यस्थल पर यौन शोषण की झूठी और दुर्भावना से की गई शिकायतों को शिकायत करने वाली महिला के लिए दंडनीय बनाया गया है। यह विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के निर्णय के एकदम विपरीत है जिसमें साफ लिखा है कि शिकायत करने वाली महिला के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं की जाएगी। यौन शोषण से संबंधित सभी कानून इस भावना से बनाए जाते हैं कि यौन उत्पीडऩ की शिकायत करने वाली महिला को ऐसा वातावरण दिया जाएगा कि वह भयमुक्त होकर अपनी शिकायत दर्ज करा सके। क्योंकि अमूमन महिलाएं डर और अपमान की वजह से शिकायत नहीं करती हैं।
यौन उत्पीडऩ की शिकार महिला के बारे में आसानी से कह दिया जाता है कि महिला झूठ बोल रही है। उसके चरित्र पर लांछन लगाए जाते हैं। इन वजहों से महिलाएं शिकायत नहीं करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि विधेयक के अनुसार यदि महिला की शिकायत झूठी पाई गई तो महिला के ही खिलाफ कार्यवाई होगी। प्राकृतिक नियम है कि बिना सुबूत के किसी को सजा नहीं मिल सकती। यह नियम यहां भी लागू होता है।
अगर शिकायत करने वाली महिला के पास सुबूत नहीं है तो या वह यौन उत्पीडऩ साबित नहीं कर पाई तो उसके ही खिलाफ कार्रवाई होगी। इस भय से तो कोई महिला कभी शिकायत करेगी ही नहीं। महिला संगठनों का भी कहना है कि कम से कम महिलाओं को शिकायत करने के लिए भयमुक्त माहौल दिया जाए और यदि वह सुबूत नहीं जुटा पाती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। यौन मांगों के साक्ष्य जुटाना अक्सर मुश्किल होता है।
विधेयक की दूसरी कमजोरी यह है कि वह घरेलू कामगार महिलाओं पर लागू नहीं होता। इतने बड़े तबके को विधेयक में छोड़ दिया गया है।
तीसरा विधेयक में जिला अधिकारियों द्वारा स्थानीय स्तर पर सरकारी दफ्तरों में समितियों बनाए जाने का प्रावधान है। कमेटी बनाने का प्रावधान और निर्णय जिला अधिकारी के विवेक पर छोड़ा गया है। जिससे अधिकारी के निरंकुश होने का अंदेशा है।

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