औरतों की ऐसी-तैसी करने वाले कबीर

Posted By Geetashree On 10:56 PM 8 comments

0 गीताश्री 0 कबीरदास को अब तक हम सब एक संत कवि के रुप में जानते रहे हैं, लेकिन कबीर का एक नया रुप भी है. स्त्रियों को गरियाते, उनकी लानत मलामत करते कबीर... धमकाते हुए कबीर कि अगर तुमने अपनी आजादी या चुनाव या स्वेच्छा की बात सोची भी तो पीट-पीट कर नीली कर दी जाओगी...

स्त्री की सारी आजादी छीन ली क्योंकि उसका कंत बहुत गुणों वाला पहले ही घोषित कर दिया गया है. और बेगुणी, बेलच्छनी, बेशऊर स्त्री को अब उसे ही सर्वस्व मान लेना है......

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सलाखो के पीछे कैद स्वाधीनता

Posted By Geetashree On 9:25 AM 6 comments
0 नीलाभ 0

तो आज था कि अभय ने अपने ब्लौग-- निर्मल आनन्द-- में जो सवाल उठाया है : हिन्दी में सितारा कौन है ? -- उस पर कुछ विचार किया जाये, लेकिन आज एक ऐसी बात हुई कि आप से किसी और विषय की चर्चा करने को मन हो आया है.
आज हमारी युवा मित्र सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय की १४ दिन की रिमाण्ड की अवधि पूरी हो रही थी और उन्हें पुलिस फिर से रिमाण्ड में लेने के लिये अदालत में पेश करने नैनी जैल से लाने वाली थी. बात को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको यह बता दूं कि सीमा आज़ाद मानवाधिकार संस्था पी.यू.सी.एल. से सम्बद्ध हैं, साथ ही द्वैमासिक पत्रिका "दस्तक" की सम्पादक हैं और उनके पति विश्वविजय वामपन्थी रुझान वाले सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अपनी पत्रिका "दस्तक" में सीमा लगातार मौजूदा जनविरोधी सरकार की मुखर आलोचना करती रही है. सीमा ने पत्रिका का सम्पादन करने के साथ-साथ सरकार के बहुत-से क़दमों का कच्चा-चिट्ठा खोलने वाली पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की हैं. इनमें गंगा एक्सप्रेस-वे, कानपुर के कपड़ा उद्योग और नौगढ़ में पुलिसिया दमन से सम्बन्धित पुस्तिकाएं बहुत चर्चित रही हैं. हाल ही में, १९ जनवरी को सीमा ने गृह मन्त्री पी चिदम्बरम के कुख्यात "औपरेशन ग्रीनहण्ट" के खिलाफ़ लेखों का एक संग्रह प्रकाशित किया. ज़ाहिर है, इन सारी वजहों से सरकार की नज़र सीमा पर थी और ६ तारीख़ को पुलिस ने सीमा और विश्वविजय को गिरफ़्तार कर लिया और जैसा कि दसियों मामलों में देखा गया है उनसे झूठी बरामदगियां दिखा कर उन पर राजद्रोह का अभियोग लगा दिया.
वैसे यह कोई नयी बात नहीं है. जनविरोधी सरकारें सदा से यही करती आयी हैं. हाल के दिनों में मौजूदा सत्ताधारी कौंग्रेस ने जिस तरह देश को बड़े पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों गिरवी रखने के लिये क़रार किये हैं और कलिंगनगर, सिंगुर, नन्दीग्राम, लालगढ़, और बस्तर और झारखण्ड के आदिवासियों को बेदखल करना शुरू किया है, वह किसी भी तरह की आलोचना को सहन करने के मूड में नहीं है. और इसीलिये हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था लोकतंत्र को लम्बा अवकाश दे कर अपनी नीतियों के विरोधियों को कभी "आतंकवादी" और कभी "नक्सलवादी" या "माओवादी" घोषित करके जेल की सलाखों के पीछे ठूंसने का वही फ़र्रुख़ाबादी खेल खेलने लगी है. इस खेल में सब कुछ जायज़ है -- हर तरह का झूठ, हर तरह का फ़रेब और हर तरह का दमन. और इस फ़रेब में सरकार का सबसे बड़ा सहयोगी है हमारा बिका हुआ मीडिया. इसीलिए हैरत नहीं हुई कि सीमा की गिरफ़्तारी के बाद अख़बारों ने हर तरह की अतिरंजित सनसनीख़ेज़ ख़बरें छापीं कि ट्रक भर कर नक्सलवादी साहित्य बरामद हुआ है, कि सीमा माओवादियों की "डेनकीपर" (आश्रयदाता) थी और विश्वविजय माओवादियों के कमाण्डर हैं. यही नहीं, पुलिस और अख़बारों ने मिल कर ऐसा ख़ौफ़ का वातावरण पैदा करने की कोशिश भी की जिस से सीमा के परिवार और मित्रों का मनोबल टूट जाये.
अभय ने अपने ब्लौग मॆं पुस्तक मेले का ज़िक्र किया है. मज़े की बात है कि पांच फ़रवरी को उसी पुस्तक मेले में अभय, मैं और सीमा साथ थे और जिस साहित्य को पुलिस और अख़बार नक्सलवादी बता रहे हैं वे पुस्तक मेले से ख़रीदी गयी किताबें थीं.
बहरहाल, आज की तरफ़ लौटें तो सीमा और विश्वविजय की रिमाण्ड के चौदह दिन आज पूरे हो रहे थे और आज दोनों को अदालत में पेश होना था. हम ग्यारह बजे ही अदालत पहुंच गये. लगभग दो घण्टे के इन्तज़ार के बाद सीमा और विश्वविजय को अदालत में लाया गया. मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि दोनों इन चौदह दिनों में थोड़े दुबले भले ही हो गये थे लेकिन दोनों का मनोबल ऊंचा था. सीमा के चेहरे पर एक दृढ़्ता थी और विश्वविजय के चेहरे पर मुस्कान. सीमा हमेशा की तरह मुस्कराती हुई आयी और उसने गर्मजोशी से हाथ मिलाया. लगा जैसे सलाख़ों के पीछे क़ैद स्वाधीनता चली आ रही हो.
हम लोग काफ़ी देर तक सीमा से बातें करते रहे, बिना फ़िकर किये कि सरकार के तमाम गुप्तचर किसी-न-किसी बहाने से आस-पास मंडरा रहे थे और . जब हम आने लगे तो सीमा ने ख़ास तौर पर ज़ोर दे कर कहा कि उसे तो बयान देने की इजाज़त नहीं है, इसलिए वह पुलिस और मीडिया के झूठ का पर्दाफ़ाश नहीं कर पा रही, लेकिन मैं सब को बता दूं कि पुलिस की सारी कहानी फ़र्ज़ी है जैसा कि हम बार-बार देख चुके हैं
सो दोस्तो, यह रिसाला जैसा भी उखड़ा-उखड़ा है सीमा की बात आप सब तक पहुंचाने के लिए भेज रहा हूं. सीमा की रिमाण्ड की अर्ज़ी खारिज हो गयी है. २२ तारीख़ को उसे ज़मानत के लिए पेश किया जायेगा और आशंका यही है कि उसे ज़मानत नहीं दी जायेगी. आशंका इस बात की भी है कि स्पेशल टास्क फ़ोर्स सीमा और विश्वविजय को अपनी रिमाण्ड में ले कर पूछ-ताछ करें और जबरन उनसे बयान दिलवायें कि वे ऐसी कार्रवाइयों में लिप्त हैं जिन्हें राजद्रोह के अन्तर्गत रखा जा सकता है. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां सब कुछ सम्भव है-- भरपूर दमन और उत्पीड़न भी और जन-जन की मुक्ति का अभियान भी. यह हम पर मुनस्सर है कि हम किस तरफ़ हैं. ज़ाहिर है कि जो मुक्ति के पक्षधर हैं उन्हें अपनी आवाज़ बुलन्द करनी होगी. अर्सा पहले लिखी अपनी कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं :


चुप्पी सबसे बड़ा ख़तरा है ज़िन्दा आदमी के लिए
तुम नहीं जानते वह कब तुम्हारे ख़िलाफ़ खड़ी हो जायेगी और सर्वधिक सुनायी देगी
तुम देखते हो एक ग़लत बात और ख़ामोश रहते हो
वे यही चाहते हैं और इसीलिए चुप्पी की तारीफ़ करते हैं
वे चुप्पी की तारीफ़ करते हैं लेकिन यह सच है
वे आवाज़ से बेतरह डरते हैं
इसीलिए बोलो,
बोलो अपने हृदय की आवाज़ से आकाश की असमर्थ ख़ामोशी को चीरते हुए
बोलो, नसों में बारूद, बारूद में धमाका,
धमाके मॆं राग और राग में रंग भरते हुए अपने सुर्ख़ ख़ून का
भले ही कानों पर पहरे हों, ज़बानों पर ताले हों, भाषाएं बदल दी गयी हों रातों-रात
आवाज़ अगर सचमुच आवाज़ है तो दब नहीं सकती
वह सतत आज़ाद है.

औरत कैसी औरत है

Posted By Geetashree On 3:52 AM 7 comments
0 प्रतीभा कटियार 0
इश्किया देखने के बाद आकांक्षा पारे ने जो सवाल उठाए हैं उस पर कई कमेंटस आए...प्रतिभा जी ने भी कुछ लिखा है। बहस पर नई रोशनी डालता हुआ उनका लेख .यहां पेश हैं। इश्किया में इस्तेमाल गालियों पर बहुत बहस हुई..अखबारों में लेख लिखे गए, चैनलों पर बहसें हुईं...मगर एक संवाद अनदेखा रह गया जिसमें एक स्त्री के जरिए समूची स्त्री जाति को कठघरे में खड़ा कर दिया। तिलमिला देने वाले इस संवाद को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता..लोगबाग अब सफाई दे रहे हैं...तरह तरह के तर्क गढे जा रहे हैं...इस संवाद से हामारा वजूद खतरे में भले ना पड़ा हो..हमारी विश्वसनीयता पर हमले किए गए हैं...उसका प्रतिकार जरुरी...यह लेख उसी सिलसिले की कड़ी है... गीताश्री
औरत होने का क्या अर्थ है। विन्रम, सुशील, सच्ची...नैतिक, पारंपरिक उच्च चरित्रवाली ईमानदार, मृदुभाषी...ये फेहरिस्त काफी लंबी है।

अक्सर आसपास ऐसे जुमले सुनने में आते रहते हैं, एक औरत होकर उसने ये किया...देखो औरत होकर भी कैसा काम किया. उसकी भाषा देखो, औरतों की नाक कटा दी. एक औरत होकर क्राइम में...

पिछले दिनों रवीश कुमार जी के ब्लॉग पर एक तस्वीर चस्पां की गई कि औरतें भी जेबकतरी हो सकती हैं...सावधान. कमेंट्स भी आये कि लो जी औरतों से तो ये उम्मीद नहीं थी या यहां भी आ गईं महिलाएं. संभ्रांत तबकों से आवाजें और घनी होती हैं. कोई औरत अगर आगे बढ़ जाती है तो उसका चरित्र निशाने पर, पर अगर नहीं बढ़ पाती तो उसकी कार्यक्षमता निशाने पर. घर के मोर्चे पर असफल तो नौकरी को दोष, नौकरी के मोर्चे पर ढीली पड़ी कभी तो घर को दोष. अगर सब साध ही लिया ठीक से उसकी स्मार्टनेस उसकी चालाकी कहलाती है. ये है आज का आधुनिक युग और आधुनिक सोच. औरत होने का अर्थ क्या होता है बार-बार सोचना पड़ता है. स्त्री विषयों पर मुखर होने के कारण अक्सर ऐसे मौकों पर जब कोई महिला कहीं भी किसी भी मामले में दोषी पाई जाती है तो मुझे घेरा जाता है कि देखा औरतों को आजादी देने का नतीजा. हम सब जानते हैं कि ऐसे जुमले कसने वाले बेहद एलीट, पढ़े-लिखे लोग होते हैं. ऐसे जुमलों से ज्यादा खतरनाक होती है उसकेपीछे की नीयत.
एक अजीब किस्म का सैडिस्ट अप्रोच. जो आगे बढऩे वाली महिलाओं में खामियां देखते या ढूंढते ही खिल उठता है. समझ में नहीं आता कि ये लोग कब समझेंगे औरत होने का अर्थ. औरत होते ही सारे गुणों की चादर में क्यों लपेट दिया जाता है किसी को. औरत होना भी इंसान होना ही तो है. सारे गुण-दोषों से युक्त. उसकी गलतियों की सफाई देना मेरा मकसद नहीं न ही उसका पक्ष लेने का. सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि जो इंसान है वो इंसानी गुणों से भी तो भरपूर होगा, दोषों से भी. गलत फिर गलत ही है एक जैसा चाहे स्त्री करे या पुरुष. इसमें लिंग भेद की गुंजाइश कब, कहां, कैसे आ जाती है. स्त्री भी एक इंसान है. उसमें भी गुण दोष सब हैं. आगे बढऩे के लिए वो भी वो सब कर सकती है जो अब तक सिर्फ पुरुष करते आये हैं. दांव-पेंच, झूठ-सच, अच्छा-बुरा सब कुछ. क्यों उसे अलग खांचे में फिट किया जाता है और एक की गलती के बहाने पूरी औरतों की बिरादरी और उनके संघर्ष पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाता है. इतने बरसों से तो पुरुषों ने एक-दूसरे का गला काटा है. भाई ने भाई का, बाप ने बेटे का, दोस्त ने दोस्त का. एक की टांग घसीट कर पीछे करना, खुद को आगे निकालना यही सब तो होता रहा है, हो रहा है. लेकिन गलती से कोई एक औरत अपनी किसी सहयोगी की आलोचना करे तो हो जाती है औरत ही औरत की दुश्मन. पुरुष ऐसे मौकों को हथियाने को तैयार बैठे रहते हैं. क्या स्त्रियों को इन खांचों से मुक्त होकर एक स्वतंत्र इंसान के तौर पर कभी देखा जायेगा. जहां उनसे किसी देवी होने की उम्मीद नहीं की जायेगी. उनकी गलतियां भी वैसी ही हैं जैसी किसी पुरुष की. न कम न ज्यादा. गलत को गलत कहना बुरा नहीं. बुरा है उसे जेंडर के खांचे में डालकर आनंद लेना.
प्रतिभा कटियार

पहले औरत होकर तो देखें

Posted By Geetashree On 1:08 AM 6 comments
0 आकांक्षा पारे 0
फिल्म इश्किया देखने के बाद.....

'मैं औरत होता तो पता भी नहीं चलता की परी हूं या तवायफ। यह गाली किसे है? औरत को या औरत के रूप में तवायफ को? या फिर दोनों को ही। क्योंकि कुछ लोगों को तो फर्क शायद नजर ही आता हो। दफ्तर में किसी से हंस कर बात कर लो, शाम टहलते हुए किसी के साथ चाय पी आओ, किसी के साथ फिल्म चलने का कार्यक्रम रख लो। सस्ती या सबके साथ चली जाती है यार (एक आंख दबाए बिना इस वाक्य को न बोलें) सुनने में कितना वक्त लगेगा। अब तो यह नई सदी है। इसलिए नदी सौगातें भी हैं। किसी एक लड़की के साथ हमेशा घूमते फिरो तो खुद के कानों में जल्द ही यह शब्द पड़ेंगे, 'दोनों धारा 377 हैं बे। लड़कों के साथ घूमो तो परी या तवायफ के फर्क के बीच का महीन अंतर लेकर। जब उनकी जो मर्जी होगी, जब जैसी परिस्थिति होगी वे अपनी सुविधा से नामकरण कर देंगे। दो दशक पहले एक फिल्म आई थी, एक ठाकुर बिना हाथ वाला। दो चिरकुट चोर। ठाकुर ने उनमें शोले दहकाए। पैसे जो चिरकुटों ने चाहे, काम जो ठाकुर ने चाहा। बरसों लोगों के दिलो-दिमाग पर तीनों राज करते रहे। 21 वीं शताब्दी तक आते-आते ठाकुर का स्वरूप बदल गया। वह खूबसूरत औरत हो गई। मासूम लेकिन शातिर। चिरकुट चोर वही रहे। मासूम ठकुराइन ने चिरकुटों को फिर इस्तेमाल किया। काम और पैसा जो उसने चाहा। ठाकुर इंतकाम की आग में जल रहा था, ठकुराइन विरह की। विरह की आग भभकती नहीं, धीमी सुलगती है सुस्त। उसकी आंखें दर पर लगी रहीं, अपने प्रियतम की खातिर। ऐसा निर्दयी बलम जो मर कर भी नहीं मर सका। जिंदा रहा उस घर में, उन गैस सिलेंडरों में, उस रसोई में जहां फिर ठकुराइन हमेशा चूल्हे पर खाना पकाती दिखी। एक चिरकुट से लहसुन छील देने की गुजारिश करती हुई। जबकि पूरे घर में सिलेंडर ही सिलेंडर रखे थे। बुजुर्ग संगीत का रसिक, विरहन गुनगुनाने की शौकीन। बुर्जग संजीदा है, अकेली जिंदगी में न संजीदगी रही थी न शरारत। इसलिए पहले संजीदगी ने दस्तक दी। लेकिन सिर्फ दस्तक दी। इकरार कहीं नहीं। बस एक सपने की इमानदार स्वीकारोक्ति। 'आपसे मिलने के बाद फिर जीने की इच्छा होने लगी है। या शायद अपनी योजना के लिए डाला जाने वाला दाना। लेकिन इश्क तो इश्क है। इश्क को पाने की खातिर इश्क के जरिए इश्क का बदला लेना। इश्क जब परवान चढ़ता है तो खत्म करने या खत्म होने के सिवाय दूसरा रास्ता कहां छोड़ता है। रग-रग में दौड़ता अकेलापन, उन सालों का हिसाब संजीदगी से नहीं लिया जा सकता। इसलिए शरारत जीत जाती है। फिर यह जीना तवायफ हो जाना क्यों है?
तेजाब डाल कर किसी की आत्मा जला देना। चेहरे से वह नूर छीन लेना और खुश होना कि साली हमारी नहीं तो किसी की नहीं। यह हरामीपन क्यों नहीं है? एक ब्याहता रखना और दफ्तर जा कर मानसिक भूख शांत करने के नाम पर वैचारिक बहस के दरवाजे से मन पर कब्जा कर लेना, कमीनगी क्यों नहीं है? कोई ठौर दे, मुसीबत में काम आए, अगल मन में मुगालता पाल ले और बाद में कहे, 'अगर मैं औरत होता... अगर औरत होता तो समझता कि जिसका पति इतना चाहने के बाद भी अपने हाथों सिंदूर पोंछ कर चला जाए तो क्या होता है। अगर औरत होता तो समझ पाता कि भलाई के रास्ते पर किसी पुरुष को ठेलने की एक तवायफ ने क्या कीमत चुकाई थी। यदि औरत होता तो ही समझता न कि सोने की जंजीर में बना ताजमहल कैसे उसके सपने के घर को मकबरा बना गया है। लेकिन वह औरत होता तब न...। यह बोलने के पहले औरत तो होता। भले ही तवायफ होता।