ओ किटी..रहोगी याद

Posted By Geetashree On 12:15 AM 11 comments



गीताश्री

‘मैकलुस्कीगंज? एंग्लो इंडियनों का यह गांव आखिर है क्यों? यही एक सवाल है जो संपूर्ण मैकलुस्कीगंज को संतप्त करता रहा है।’
डेनिस गहरी सांस लेकर कहते थे-‘इसलिए कि हमारी यह नस्ल ईश्वर का एक क्रूर मजाक रही है बेटे। कहते हैं, लॉर्ड कर्जन ने एक बार कहा था कि ईश्वर ने हम ब्रिटिशों को बनाया, ईश्वर ने इंडियंस को बनाया और हमने एंग्लो इंडियंस बनाया। यही विडंबना एंग्लो इंडियंस की रही है बेटे। हम न अंग्रेज थे, न ही हिंदुस्तानी...। फिर क्या थे हम...?’

‘बेटे, एंग्लो इंडियन समुदाय एक ऐसा भटका जहाज था जिसके लिए कोई बंदरगाह नहीं था। पर ई.टी.मैकलुस्की ने एक छोटा सा खूबसूरत बंदरगाह अपने अथक परिश्रम से जरूर बना दिया था।

मि.मैकलुस्की के सपनों का कब्रिस्तान..एंगलो-इंडियनों के अतीत के अस्तित्व की कहानी कहता एक बेपनाह सन्नाटा भर रह जाएगा यहां रोबिन..बस एक दर्दभरा सन्नाटा..। पर उस दर्द को भी आने वाले समय में कौन महसूस करेगा रोबिन..कौन? चलो, अच्छा ही है,एक संतप्त नस्ल अपनी समाप्ति पर है..
(मैकलुस्कीगंज उपन्यास का अंश)


क्या आप कभी मैकलुस्की गंज गए हैं?
अगर नहीं, तो लगता है भाग्य ने अब तक आपका साथ नहीं दिया है। दरअसल, झारखंड प्रांत की प्राकृतिक आभा- शोभा के बीच व्यवस्थित दुनिया के इस एकमात्र एंग्लो-इंडियन ग्राम को लेकर एक जुमला बड़ा मशहूर है, ‘मेक लक, देन कम टू गंज।’ यानी किस्मत बनाइए, तब गंज आइए।
यों गुजरे दशकों में भले ही कई बार इस गंज को ‘घोस्ट टाउन’ के फतवे से गुजरना पड़ा है लेकिन कुछ कुदरती बात है कि फीनिक्स पक्षी की तरह यह बार-बार राख से उठ खड़ा होता है। क्या मैकलुस्कीगंज का वजूद एक दिन दुनिया से मिट जाएगा? क्या जंगली हवा की सीढियों के संग वाकई गुम हो जाएगा यह अनूठा गांव? ऐसी तमाम आशंकाएं इस गांव के एंग्लो-इंडियन समुदाय को हमेशा बेचैन करती रहती हैं।
इन दिनों गंज के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आई है। गंज को पता चल गया है कि उनकी महागाथा लिखने वाले उपन्यासकार-पत्रकार विकास कुमार झा को अंतराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान के लिए चुना गया है। मैक्लुस्कीगंज उपन्यास में इकलौता एंगलो इंडियन शहर भले उदास है लेकिन इस खबर से वैसे ही हंस रहा है जैसे मिलन कुंदेरा के कथनानुसार उपन्यास में ईश्वर हंसता है।
पिछले दो दशकों से इस गांव से विकास कुमार झा का गहरा अपनापा रहा है और इसी अपनापे के बीच उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘मैकलुस्कीगंज’ तकरीबन पंद्रह वर्षों के गहन शोध के बाद पूरा हो पाया है।
इसी गांव की पगडंडी पर एक स्त्री झोला टांगे, साड़ी का पल्लू कमर में ठूंसे लगभग दौड़ती सी चली आ रही है। वह किट्टी मेमसाब हैं। गांव वाले उन्हें इसी नाम से बुलाते हैं।
उपन्यासकार ने लिखा है.. ‘किट्टी अब स्टेशन पर मजदूरी करती है। छोटे मोटे काम करती है। पर मैंने देखा था, आसपास के लोग तब भी किट्टी मेमसाब ही कह कर पुकारते थे। हैसियत गिर गई थी। पर किट्टी तो किट्टी थी रोबिन..उसके संस्कार तो थे ही..वह आधी अंगरेज..वह आधी सी हिंदुस्तानी औरत..।’
जब किट्टी करीब आई तो मैंने उपन्यासकार की आंखों से देखा। उसकी नीली आंखें दोपहरी में भी चमक रही थी इस बात से कि हम विकास जी का पैगाम लेकर आए हैं। वह चहकी.. ‘विकास जी को पूरा गांव प्यार करता है, और वह भी..। उन्होंने बहुत कुछ किया है हमारे गांव के लिए।’
पगडंडी पर धूल उड़ाती किट्टी के साथ चलते हुए फिर पंक्तियां याद आईं--रोबिन..तुम्हारे पापा उस किट्टी पर फिदा रहते थे..किट्टी की रंगत 62 साल की उम्र में भी वैसी ही है। झोपड़ी के बाहर प्लास्टिक की चरमराई हुई कुर्सियो पर धंसते हुए मैंने देखा कि दुबली पतली किट्टी पलक झपकते अमरुद के पेड़ की फुनगी पर गिलहरी की तरह सरसराते हुए चढ गई। ऊपर से पके अमरुद तोड़ कर हमारी तरफ फेंकती हुई कहती है.. ‘खाइए, मीठे हैं, हमारी मिठाई यही है।’ बेपनाह सन्नाटे के बीच फुनगी से टपकते अमरुद हथेलियों में समा नहीं रहे थे।
किट्टी कहती है, ‘यहां सब कुछ खत्म है। कुछ नहीं बचा है। सब चले गए, सब उजड़ गया। ये फल ही बचे हैं जिन्हें बेच कर गुजारा हो जाता है।’
किसी उपन्यास के किरदार से मिलना किसी पाठक के लिए कितना रोमांचकारी हो सकता है, ये मैंने किट्टी समेत अन्य कई किरदारो से मिल कर जाना।
स्वयं विकास के शब्दों में यह गांव मेरे लिए जागी आंखों का सपना है। वाकई इस औपन्यासिक महागाथा से गुजरना इस गांव के अंर्तमन की परिक्रमा करने जैसा है। अपने वास्तविक नामों के संग उपन्यास में मौजूद जीते-जागते अनगिनत पात्र जब गांव में मिलते हैं तो सुखद रोमांच सा होता है। मि. नोएल गॉर्डन, मि.मेडेज, किट्टी टेक्सेरा, जूडी मेडोंसा सरीखे अनगिनत चेहरे। पर एक अनेक संताप सबके चेहरे पर जो विकास के उपन्यास में भी गूंजता है.. हमारी नस्ल ईश्वर का एक क्रूर मजाक रही है। एक कविता... ‘एवरि पार्ट ऑफ मी इन अलाइव एक्सेप्ट माई फेस...।’ हमारे शरीर का हर हिस्सा जिंदा है, सिर हमारे चेहरे के। सच है कि यह संतान एंग्लो इंडियन लोगों के चेहरे से कभी ओझल नहीं हुआ।
हालांकि साइमन कमीशन की रिपोर्ट में अंग्रेजों ने जब इनकार कर दिया कि इस समुदाय की जिम्मेदारी हमारी नहीं होगी तो तत्कालीन भारतीय नेताओं ने ऐलान किया कि यह समुदाय भारत में सम्मान से रहेगा। इसी से मुग्ध होकर मि.टी.मैकलुस्की ने सन 1934 में एंग्लो इंडियन समुदाय का एक गांव बसाया। दरअसल, मैकलुस्की की समझ थी कि गांवों के देश भारत में इस समुदाय का भी अपना एक गांव होना चाहिए। गांव बसाने के सपने के साथ मैकलुस्की सारे भारत में कहां-कहां नहीं घूमे और आखिरकार जब वे कलकत्ता लौट रहे थे तो छोटानागपुर के इस वन्य अंचल पर उनकी नजर पड़ी। जंगल,पर्वत और नदी की नैसर्गिक आशा से संपन्न मुस्कुराती एक जमीन। यह इलाका रातू राजा की जमींदारी में था। मैकलुस्की ने रातू महाराजा के मैनेजर मि. पेपी के माध्यम से महाराजा से बातचीत की और अंतत: दस हजार एकड़ जमीन का एक डीड रजिस्टर्ड कराया गया ताकि एंग्लो-इंडियन समुदाय का यह गांव बस सके। मैकलुस्की ने तत्कालीन भारतीय वायसराय लॉर्ड इरविन को भी अनी यह योजना बतायी और द कॉलनाइजेशन सोसाइटी गांव इंडिया की मदद से हेसालंग, कंका और लपड़ा आदि जनजातीय गांवों को मिलाकर दुनिया का एकमात्र एंग्लो इंडियन गांव बसाया। देशभर से अनगिनत एंग्लो-इंडियन परिवार यहां आकर बसे। गांव गुलजार हो उठा। सो शुरू शुरू में स्थानीय आदिवासी इन गोरे-गारे साहबों और मेम साहबों को देख भयाक्रांत थे कि जिन गोरों ने देश को नीलाम कर दिया वे कहीं उनके गांव को भी तो नीलाम करने नहीं चले आए। पर धीरे-धीरे स्थिति सहज होती गई।
कई एंग्लो-इंडियन लोगों ने आदिवासियों से शादियों रचाकर आपस के अविश्वास को दूर कर दिया। किट्टी मेमसाहब ने एक आदिवासी रमेश मुंडा से विवाह किया। रमेश से उसके बच्चे सिम्बिया, इवान, लिंडा और बबलू हैं। विकास के उपन्यास में शरीफे के बीज बबूल से अदभूत मुलाकात होती है जिसे अपने बाप के नाम से ही नफरत है। बबलू को लगता है कि इस काले-कलूटे आदिवासी ने उसकी शाही खूनवाली मां किट्टी टेक्सेरा का जीवन नष्ट कर दिया। कुछ ऐसा ही एहसास गांव के डैनी को भी है जिसके एंग्लो-इंडियन पिता ने एक आदिवासी स्त्री से शादी की, जो उसकी मां थी।
मनोविज्ञान का यह बारीक तंतु अपने उलझ सुलझ के साथ बड़े अदभुत मिजाज में जहां इस गांव में मिलता है, दिखता है, वही विकास के उपन्यास के पृष्ठों में फैले इन पात्रों में भी। फिर भी विकास उस गंज से मिलवाते है। जो एक अदभुत मधुर आलाप है... जिसमें राग की सूक्ष्म परते बारीकी से खुलती हैं। इसलिए मैकलुस्कीगंज यानी राग का रस। यानी सुबह की धैर्यवंती। लय का लावण्य। यानी कंका पहाड़ी और चाट्टी नदी से शोभित वह नन्हा भारत, जहां एंग्लो इंडियन समुदाय के संग-संग राम-रहीम पुराने कुरान सब है। और गंज के जंगल की सघन झुरमुट में दिल्ली के एक व्यवसायी स्व. नरेशचंद्र बाहरी द्वारा बनवाया अधूरा ‘प्रेम मंदिर’ जिसमें मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारा सब है। और इस प्रेम मंदिर से जुड़ी एक दारुण लोमहर्षक कथा कि कैसे स्व. नरेश चंद्र बाहरी के बेटे ने अपनी पत्नी व बच्चों को मार डाला और उसे फांसी की सजा हुई। गंज के बंशी लोहार से पूछिये तो कहेगा- आज भी आधी राज को एक प्रेतनी रोती है... वही बाहरी खानदान की बहू। मैकलुस्कीगंज का नंदन कानन रहा है। बॉनर भवन आज विवाद में उलझा है। आजीवन अविवाहित रहीं मिस बॉनर ने इस घर को बड़े नाजों से सजा रखा था। पर आज यह मिस बॉनर की आया मरियम और आर.सी. मिशनवालों के बीच स्वामित्व के विवाद में उलझा पड़ा गहरी उदासी में हैं। गंज की यह तमाम उदासी, उल्लास और तड़प मैकलुस्कीगंज उपन्यास की पंक्ति-पंक्ति में समाहित है। खुशी से ढि़लमिलाते शहर के मन की बढती उदासी लेकर लौटना कैसा होता है..ये बता पाना शायद कठिन होता है।

विदा ओ किटी मेमसाब
किटी दूर अपनी झोपड़ी के बाहर छूट जाती है। धूल उड़ाती हुई मेरी जीप इतनी ही दूर होती जा रही थी जितनी किटी से उसकी संस्कृति। मैंने जीवन में पहली बार धूल में लिपटी, झोला टांगे और देहाती अंदाज में सूती साड़ी सपेटे किसी गोरी चमड़ी वाली को देखा था..सो देर तक वो छवि जेहन में धंसी रही। जब किटी का बोलना याद आता है..टिपिकल बिहारी अंदाज..या कहे हिंदी बेल्ट की हिंदी..उसकी झोपड़े में आज भी गौरवशाली इतिहास की तस्वीरें टंगी है। वक्त के साथ वे भी धुंधली हो रही हैं। किटी के बाद उन्हें कोई नहीं संभालेगा। फिलहाल किटी संभाल रही है और उससे मिलने आने वाले हरेक मेहमान को गर्व के साथ दिखाती है। यही तो बचा है उसके पास..मिटती हुई संस्कृति के बीच जीवन को बचा पाने की जड्डोजहद ज्यादा हावी होती है।
किटी पूरे गांव में फेमस हैं। उसको ढूंढ पाना कोई मुश्किल नहीं। गांव का कोई भी बता देगा कि किटी मेमसाहव कौन हैं और अभी कहां हैं। लोग उनसे मिलने आते हैं। जो भी इस गांव पर स्टोरी करने आता है, किटी से बिना मिले बात बनती नहीं। जैसे वह इस गांव के अंतिम सिरे को कस कर पकड़ कर खड़ी हो। मैंने उपन्यास पढा और उस गांव जाने और किटी से मिलने के लिए बेचैन हो गई थी। मेरी चाह जल्दी पूरी हुई। मैं रोमांच से भरी थी जब किटी मेरे सामने आ खड़ी हुई। विकास झा जी का नाम सुनते ही चहक उठी। मोबाइल पर उसने विकास जी से लंबी बात की...जैसे कोई विदेश में रह रहे अपने पाहुन से अपने दिल की बात करता है। मैंने किटी की वो सारी तस्वीरें खींची। फोन कटने के बाद किटी बोलती रही कि विकास जी ने इस गांव के हितो के लिए क्या क्या किया। कई बाते बताईं। वो याद नहीं रहीं। याद रही तो उसका गिलहरी बन जाना।
किटी के आंगन के अमरुद का स्वाद अभी तक नहीं उतरा है। रह रह कर रघुवीर सहाय की कविता की एक पंक्ति याद आती है..औरत की देह ही उसका देश हैं..। किटी की देह इसी गांव की मिट्टी में सनी हुई है। मैक्लुस्कीगंज ही उसका देश है।
कहती है..मैं क्यो जाती कहीं बाहर..यहां मेरे लोग हैं, मेरी जमीन है, मैं यहां खुश हूं..जिन्हें जाना था वे गए. किटी की पतली दुबली काया कंप कंपा जाती है।
उदासी बोलती है..लोग अब गांव को देखने आते हैं और मुझसे जरुर मिलते हैं..अच्छा लगता है। कोई टिकता नहीं। गांव के चारो तरफ माहौल ठीक नहीं है ना इसीलिए..। किटी का इशारा मैं समझ रही थी।