ब्रसेल्स(बेल्जियम) से लौटकर गीताश्री
चॉकलेट के स्वाद, रहस्यमय सन्नाटे और ऐंद्रिक ठंडेपन में डूबे इस देश में संतान न होना उनके लिए अभाव नहीं, एक किस्म की आजादी और जिम्मेदारियों से मुक्ति है। वे खुद को संतानविहीन नहीं संतानमुक्ति समझती हैं। ऐसी ही हैं बेल्जियम की स्त्रियां। सरकार चिंतित हों तो होती रहे। घरवाले उत्तराधिकारी मांगें तो मांगते रहे। जनसंख्या घटती है तो घटे, उन्हें परवाह नहीं क्योंकि बच्चा न पैदा करना उनकी निजी स्वतंत्रता से जुड़ा है।उन्हें अपने कॅरिअर पर ध्यान देना है इसलिए अक्सर मातृत्व और करियर में से किसी एक को चुनना है। इनमें करियर का पलड़ा ज्यादा भारी है।
चॉकलेट के स्वाद, रहस्यमय सन्नाटे और ऐंद्रिक ठंडेपन में डूबे इस देश में संतान न होना उनके लिए अभाव नहीं, एक किस्म की आजादी और जिम्मेदारियों से मुक्ति है। वे खुद को संतानविहीन नहीं संतानमुक्ति समझती हैं। ऐसी ही हैं बेल्जियम की स्त्रियां। सरकार चिंतित हों तो होती रहे। घरवाले उत्तराधिकारी मांगें तो मांगते रहे। जनसंख्या घटती है तो घटे, उन्हें परवाह नहीं क्योंकि बच्चा न पैदा करना उनकी निजी स्वतंत्रता से जुड़ा है।उन्हें अपने कॅरिअर पर ध्यान देना है इसलिए अक्सर मातृत्व और करियर में से किसी एक को चुनना है। इनमें करियर का पलड़ा ज्यादा भारी है।
इस परिस्थिति को बदला नहीं जा सकता। दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह बच्चों का लालन पालन सिर्फ महिला की समस्या है। कोई समाज इस बोझ को साझा नहीं करता। क्रेच का अभाव है इसलिए बच्चे को जन्म देते ही इनके करियर पर विराम चिन्ह लग जाता है।राजकोषीय अध्ययन संस्थान के शोध के अनुसार बच्चे पैदा करने से पहले महिला कर्मियों के लिए प्रति घंटा औसत वेतन पुरुष के औसत का 91 प्रतिशत होता है। यह नौकरियों और बच्चों की देखभाल के बीच बाजीगरी कर रही कामकाजी माओं के लिए 67 प्रतिशत तक गिर जाता है। और यह कभी वापस पहले के स्तर पर नहीं आ पाता-तब भी जब बच्चे बड़े होकर स्कूल जाने लगते हैं।
इसे मीडिया में खासतौर से मम्मी मार्ग की उपाधि दी जाती है-एक ऐसा रास्ता जो कम वेतन और कम संभावनाओं की तरफ ले जाता है। कुछ साल पहले तक उन महिलाओं को बच्चा न होना खलता था। अब 30 वर्ष की उम्र के दौर वाली बहुत सी महिलाएं संतान पैदा करने और उनकी परवरिश करने को इस रूप में देखने लगी हैं कि इससे उनकी आजादी छिनती है, कॅरिअर की संभावनाएं कम होती हैं और वित्तीय जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। यह हालात यूरोप के बहुत से देशों में हैं जहां लगभग 10 प्रतिशत महिलाएं ऐसी होती हैं जो 45 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते बेऔलाद हो जाती हैं।
कुछ तो देर से शादी भी करती हैं।इस तथ्य की पुष्टि ब्रसेल्स में रहने वाली पामेला मोरनेयर करती हैं, ‘इनमें वे महिलाएं भी शामिल होती हैं जो अपनी मर्जी से बेऔलाद रहना पसंद करती हैं- और जो बच्चे पैदा करना टालती हैं या बच्चे पैदा करने में समस्याओं का सामना करती हैं या कुछ ऐसी भी हैं जो मां नहीं बन सकतीं।’पामेला के अनुसार ऐसी महिलाएं या उनका परिवार जरुरत पडऩे पर बच्चे गोद लेना पसंद करते हैं। इसके लिए सबसे बेहतर जमीन है भारत की। भारत में बढती हुई जनसंख्या सबसे बड़ी समस्या है। इन पर रोकथाम के लिए सरकार क्या क्या उपाय नहीं कर रही है।
एक जानकारी के मुताबिक बेल्जियम में प्रति वर्ष 6-7 हजार बच्चे भारत से गोद लिए जा रहे हैं। जब वे बच्चे बड़े होते हैं तो अपनी जड़ें खोजने भारत आते हैं। पहचान के संक्रमण से गुजरने वाले इन बच्चों की पीड़ा कुछ महीने पहले भारत में देखी गई जब बेल्जियम से आई दो लड़कियां हरियाणा में अपने मां-बाप की तलाश करती पाई गईं।
ऐसे पता नहीं कितने युवा भारत आते हैं असली मां-बाप को ढूंढऩे। भारत से गोद लेने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चली आ रही है। इधर भारत सरकार ने थोड़ी सख्ती कर दी है तो बेल्जियम वालों ने रूस, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया जैसे आर्थिक रूप से कमजोर देशों की तरफ देखना शुरू कर दिया है।यहां की जनसंख्या घटने की एक वजह समलैंगिकता भी है। लगातार इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। जब से ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता मिली है, ऐसे लोग खुलकर अपने संबंधों को जाहिर करने लगे हैं। आदमी आदमी साथ रहते हैं और बच्चा पाल लेते हैं।
इस वजह से कई घर टूट रहे हैं, तलाक की दर बढ़ रही है। ऊपर ऊपर शांति पसरी हुई दिखाई देती है पर अंदर अंदर गहरा तनाव है। वहां रहने वाले एक भारतीय ने बताया कि यहां मां-बाप छुटपन में ही बच्चों को सिखा देते हैं कि पहले लडक़ी के साथ 6 महीने रहो फिर शादी करो। 18 साल का होते-होते लडक़ा घर से बाहर हो जाता है। परिवार का महत्व वे समझे तो कैसे?
यहां कुछेक प्रमुख चौराहो पर विचित्र वेशभूषा में विद्रोही युवक-युवतियों की फौज घूमती रहती है। इसे वे अपने समाज के खिलाफ अपना विरोध प्रदर्शन मानते हैं। एक स्थानीय व्यक्ति ने इसे एक किस्म का युवा आंदोलन करार देते हुए बताया कि इनकी अपने अभिभावको से नहीं पटती। इसीलिए जीने का ऐसा तरीका अपना लिया है।
फ्रांस रेडियो में कार्यरत अन्नाबेले मोपास कहती हैं, ‘अमेरिकन संस्कृति और यूरोपियन संस्कृति एक जैसे ही हैं। इसीलिए यहां पारिवार का महत्व अपेक्षाकृत कम हैं।’एक शोध के मुताबिक यहां पांच में से एक स्त्री घरेलू हिंसा का शिकार है। यह बात भले हम भारतीयों के गले उतारना मुश्किल नजर आता है कि महिलाएं इन्हीं सारी वजहों से अब यह विकल्प चुनने लगी हैं कि वे बच्चे पैदा नहीं करना चाहतीं। फ्रांसीसी महिलाएं भी भारतीय महिलाओं की तरह बिना बच्चे के जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकतीं। हालांकि भारत में भी बड़े शहरों में संतानमुक्त स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है।
ब्रसेल्स की 33 वर्षीय शादीशुदा महिला ग्रेसी कहती हैं, ‘मैंने बच्चे नहीं पैदा करने का फैसला कॅरिअर की वजह से नहीं किया बल्कि यह एक जीवनशैली का मुद्दा है। मैं अपने जीवन का आनंद अपनी तरह से उठाना चाहती हूं।’ लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स एंड पोलिटिकल साइंस में समाज विज्ञानी डॉ. कैथरीन हकीम ने इस बारे में एक दिलचस्प अध्ययन किया है। वह कहती हैं-इसमें जरा भी शक नहीं कि ऐसे लोगों की संख्या बढ रही है जो संतान नहीं चाहते। बहुत से देशों में ऐसे लोगों की संख्या बढ कर 20 प्रतिशत हो जाएगी जो बेऔलाद रहना पसंद करते हैं और। जर्मनी में ऐसे लोगों की संख्या पहले ही 30 प्रतिशत हो चुकी है। क्योंकि इसे एक ऐसा देश माना जाता है जहां की ज्यादतर नीतियां पारिवारिक जीवन के लिए सहयोगी नहीं हैं।
प्राइवेट फर्म में काम करने वाली मरिया कहती हैं, ‘मैंने 25 साल की उम्र में नसबंदी करा ली थी और बच्चे पैदा नहीं करने का फैसला करके मुझे अफसोस नहीं है।’ कैथरीन ऐसी ही महिलाओं की तरफ संकेत करती हुई कहती हैं-अब लोगों ने यह सोचना शुरु कर दिया है कि संतानविहीनता कोई अभाव नहीं, बल्कि परिवर्तित जीवन शैली का एक नमूना है।यूरोप में भी अब अमेरिका की तरह ऐसे गुट बनने लगे हैं जो संतानविहीन होने के समर्थन में अपनी बात रखते हैं।
ब्रिटेन में बाकायदा एक संतानमुक्त संगठन है-किडिंग एसाइड। इस तरह के संगठनों को इस बात की बेहद चिंता होती है कि प्रवासी लोग इतने बच्चे पैदा क्यों कर रहे हैं। बेल्जियम सरकार प्रवासी तुर्की और प्रवासी भारतीयों के बच्चों की बढ़ती संख्या पर चिंतित दिखाई देती हैं। तुर्की के लोग बच्चे पैदा करने में अव्वल हैं। ब्रसेल्स से सटे उपनगर एन्टवर्प में लगभग 400 गुजराती परिवार रहते हैं जिनका मूल व्यवसाय हीरे का व्यापार है। इनके परिवारों को संतान के मामले में यूरोप की हवा नहीं लगी है।इधर जनसंख्या की घटती दर से बेल्जियम समेत अन्य कई देश जैसे जापान और आस्ट्रेलिया भी चिंतित है। जनसंख्या को संतुलित करने के लिए समृद्ध देशों की सरकारों को काफी मशक्ïकत करनी पड़ रही है। जापान सरकार ने अपनी जनसंख्या नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर लोक लुभावन घोषणाएं कर दीं ताकि लोग अधिक से अधिक बच्चे पैदा कर सकें। आस्ट्रेलिया में शिशु जन्म दर बढ़ाने पर सरकार द्वारा बोनस दिए जाने की योजना के सकारात्मक परिणाम नजर आए हैं।
वहां जब से ‘एक बच्चा मम्मी का, एक बच्चा डैड का और एक बच्चा देश का’ जैसा नारा शुरू किया है, तब से लोगों में बच्चा पैदा करने के प्रति उत्साह बना है।
बेल्जियम में भी सरकार संतान वाले परिवारों को बहुत सारी सुविधाएं देती हैं। संतानमुक्त लोग इस तरह सरकारी सुविधाओं का बंटवारा सही नहीं मानते हैं।
लेकिन क्रेच(डे केयर सेंटर) की मांग को लेकर महिलाओं की जंग जारी है।
August 18, 2010 at 8:56 PM
कभी कभी कोई समाज किसी बीमारी का वेक्सिन तो बना लेता है ....पर उसके साइड इफेक्ट को कम करने की कोशिशे छोड़ देता है
August 19, 2010 at 4:10 AM
गीता जी, आपकी ब्रुसेल्स यात्रा के अनुभव सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं। मेरे विचार से मातृत्व स्त्री का निजी अधिकार होना चाहिए। वह कब और किससे मातृत्व धारण करना चाहती है, यह स्त्री पर ही छोड़ देना बेहतर है। क्यौंकि स्त्री को पुरुषों की अपेक्षा भावी पीढ़ी का स्वतः ध्यान रहता है। वह संतति को अवरुद्ध नहीं होने देगी। -(सुश्री) शरद सिंह
August 19, 2010 at 10:15 AM
सही बात है. कोख उनकी है मर्ज़ी भी उनकी. बाक़ी कौन. खामख़्वाह (!)
August 20, 2010 at 12:11 PM
मातृत्व स्त्री का अधिकार तो है पर इस अदिकार को किस हद तक ले जाना चाहिये । अच्छा है कि सरकार की पहल पर ही सही लोग इस तरफ ध्यान दे रहे हैं । हाल ही में इंडिया टु डे का एक अंक निकला था भारत के शहरो में तेजी से बढते इनफर्टिलिटी के बारे में । हमारे देश के लिये अभी ये वरदान लग सकता है पर इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं ।
August 28, 2010 at 2:57 AM
Kash Hamare desh mein bhi sabhi auraton ko aise aajadi hoti.....
Bahut samajoypagi jaankari ke liye aabhar
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