नैतिकता के ठेकेदारों की दुनिया में फिर से खलबली मची है. अचानक उन्हें नैतिकता खतरे में दिखाई दे रही है. उनके हिसाब से परदे के पीछे जो नरक करना हो करो..सामने आए तो मारे जाओगे. क्योंकि इससे समाज का ढांचा गड़बड़ा जाएगा..परिवार नामक संस्था कमजोर पड़ जाएगी..भारतीय समाज यूरोपीय समाज में बदल जाएगा.
समलौंगिको को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए सरकार ने कानून बदलने की अभी सोच ही रही है कि ठेकेदार सामने आ गए है और छाती पीट रहे हैं. उस वक्त ये ठेकेदार सो जाते हैं जब किसी लड़की का सामूहिक बलात्कार होता है या किसी दलित लड़की को सरेआम नंगा करके घुमाया जाता है. सरकार को भी इन्हीं से भय है..पता नहीं क्या हंगामा कर बैठे। समलैंगिकता को इतना बड़ा मुद्दा ना बना दे कि संसद का अगला सत्र हंगामेदार हो जाए.
सोच जब गहरी हो जाती है तब इरादे कमजोर पड़ जाते हैं। सरकार इस पर सोच विचार करने की बात करके फिलहाल हंगामे को टालने मूड में दिखाई दे रही है। समलैंगिक संबंधों को गैरकानूनी ठहराने वाले आईपीसी के सेक्शन 377 को बदलने के लिए जैसे ही सरकार ने इसकी पुर्नविवेचना की आवश्यकता पर जोर दिया वैसे ही किसी का दुनिया आबाद हो उठी तो समाज के ठेकेदारों के पेशानी पर बल पड़ गए..सरकार ने कहा ही है कि वह समाज के सभी तबको से बात करने वाली है और इनमें धार्मिक संस्थाएं भी शामिल होंगी. कानून मंत्री वीरप्पा मोइली बयान सुने-कैबिनेट को इस मुद्दे पर विचार करने कहा गया है लेकिन जल्दीबाजी में कोई फैसला नहीं लिया जाएगा. पता नहीं सरकार किस मूड में है..अगर धार्मिक संगठनो को शामिल करेगी तो भारत में समलैंगिक समाज को मान्यता मिलना असंभव है. विरोधी दल अपना विरोध जता रहे हैं कि भारत को यूरोप नहीं बनने देंगे. भारत में अप्राकृतिक(कानून की नजर में 10 साल की सजा का प्रवधान) यौन संबंधों के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन यूरोपीय देशों में इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा संवैधानिक अधिकार मानते हैं। क्या भारत में नहीं होना चाहिए एसा..क्या यहां के लोगो को व्यक्तिगत पसंद चुनने का हक नहीं होना चाहिए. माना कि यहां वहां के समाजो में काफी अंतर है..मगर यहां मसला व्यक्तिगत आजादी का है जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज की पहली पहचान, पहली शर्त्त होती है. सरकार के कुछ मंत्री भी डर रहे है कि इस तरह के संबंध को छूट देने से देश की कानून व्यवस्था बिगड़ेगी। कोई तर्क दे रहा है कि इस कानून को मान्यता देने से ,माज में अराजकता फैल जाएगी, कोई इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ मान रहा है तो कोई इसे भयानक बीमारियों से जोड़ कर देख रहा है...। हमें समझ में नहीं आता कि आखिर दो व्यक्तियो के बीच प्रेम अपराध कैसे हो सकता है। अपनी लैंगिकता का उत्सव मनाने में जुटे लोगो की बातें तो इक बार सुनो..हमें तो डर है कि यह मसला भी राजनीति का शिकार होकर ना रह जाए. दिल्ली समेत कई शहरो में समानांतर दुनिया के लोगो ने खुशियां तो मना ली..सरेआम खुल कर..बयान भी दिए...टीवी चैनलों पर चीख चीख कर कहा कि हमने नहीं चुना ये रास्ता..इसको समझो. हमें ईश्वर ने बनाया एसा तो हम क्या करें...। हालाकिं ये पूरा सच नहीं है। कई बार कुछ लोग खुद चुनते हैं इस रास्ते को..खासकर औरतें..जब वे शासक पुरुषों के चंगुल से मुक्ति चाहती है तब। मर्द क्यों होते हैं समलैगिक, ये तो वही जानें..शायद प्रकृति उन्हें बना कर भेजती है..लेकिन औरते इस मामले में कई बार अपना रास्ता खुद चुन लेती है। कुछ प्राकृतिक रुप से समलैगिंक होती भी हैं। दोनो ही मामले में एक स्त्री या इनसान को अपनी देह पर इतना अधिकार तो है ना कि वो अपनी मर्जी से सेक्स जीवन का चुनाव करे। ना जाने कितनी लड़कियों और पुरुषों को जबरन शादी के बंधन में बांध कर उनका जीवन बरबाद कर दिया गया है। मेरे जानने वाले एक मेकअप मैंन की व्यथा सुने जिनकी शादी हाल ही में कर दी गई। घरवाले उसकी बात सुनने तक को तैयार नहीं थे। अंत क्या हुआ...बीबी दो दिन में यह कहते हुए छोड़ गई कि तुम्हें पुरुष की जरुरत है मेरी नहीं..। आज वो अपने भविष्य के इस अंधेरे से अकेले जूझ रहा है..
क्या उसे हक नहीं कि जिसके साथ वह कंफर्टेबल है उसके साथ जीवन शुरु कर सके..समाज में रह सके..लोग उसे हीन नजर से ना देखें..क्या घरवालों को उसकी समस्या को समझना नहीं चाहिए..इसी साल एक चर्चित फिल्म दोस्ताना आई थी..बहुत चली और सराही गई। इसमें एक बात गौर कने लायक है कि एक दकियानूसी मां आखिर अपने बेटे के समलैंगिक होने को स्वीकार लेती है. ये अलग बात है कि बेटा समलैगिंक नहीं है..मगर फिल्म इसी उद्ददेश्य से बनाई गई है कि समाज अपना रवैया बदले। एसे रिश्तों से लोगो को परिवार का ढांचा बखरता क्यों दिखाई दे रहा है..जबकि एसे कई सफल जोड़ो ने बच्चे तक गोद लिए हैं, परिवार बनाया है. कहां हैं समस्या..एसा भी नहीं कि कानून बनते ही सारे लोग इसी रास्ते पर चल पड़ेंगे..जो जैसा है वै वैसा ही जीवन चुनेगा..बस एक समानांतर दुनिया जरुर बन जाएगी जो आपसे ज्यादा खुली और आजाद होगी..कुंठा रहित..
June 29, 2009 at 5:26 AM
मेरी व्यक्तिगत राय में ,ऐसा मुझे लगता है कि चूंकी इस देश का सांस्कृतिक ताना-बना दूसरे ढंग का है शायद /संभवतः इस कानून को बनाने / लागू करने की बात तो छोडिये अभी चर्चा या बहस में भी यह लम्बे समय तक प्रतीक्षा सूची में रहेगा .
June 29, 2009 at 6:00 AM
भारतीय दंड संहिता में जब धारा तीन सौर सतहत्तर को शामिल किया गया तो जाहिर है की उस समय के परिवेश को ..और समाज को देखते हुए ही किया गया था..आज बहुत कुछ sachmuch ही बदल रहा है..अच्छा या बुरा..इस पर तो बहस जारी है..मैं अपने कार्यालीय अनुभव के आधार पर कुछ बातें कहना चाहता हूँ...अदालतों में धारा ३७७ के अर्न्तगत दर्ज कुल मुकदमों में से ८० प्रतिशत में नाबालिग़ मुजरिम होते हैं ,,,,,जिन पर बाल न्यायालय में मुकदमा चल रहा होता है..अन्य बीस प्रतिशत ही वयस्क होते हैं वो भी सिर्फ पुरुष....मैंने अभी तक एक भी महिला पर इस धारा के तहत मुकदमा दर्ज होते नहीं देखा...ऐसा मेरा अपना अनुभव है....तो जाहिर है की ..हो तो वो सब रहा ही है...हाँ jahaan तक उसे अधिकार के रूप में मान्यता की बात है..तो उस सन्दर्भ में भी बहस बहुत लम्बी हो जायेगी..क्या इससे जरूरी ये नहीं है की मर्सी किल्लिंग को मान्यता दी जाए..मगर भारत में यदि इस जरूरी कानून को भी मान्यता मिलने में न्यायपालिका तक असहमति दिखा रही हैं तो उसकी वजह है इसके दुरूपयोग की आशंका..आपने खुद माना है की जहां से इस व्यवस्था का आयात होना फिलहाल माना जा रहा है..जबकि असलीयत में भारतीय इतिहास में भी इसके कुछ निशाँ तो हैं ही....यदि उनका अनुकरण करने लगे तो ..एक शोध के अनुसार आज जिस ऐड्स नामक लाईलाज बीमारी से लोग लड़ रहे हैं..उसका उद्गम किसी पशु के साथ इंसानी यौन संसर्ग के कारण बताया गया..कहने की जरूरत नहीं की ..इस तरह के प्रयोग कहाँ किये जा सकते हैं..
देखिये बात ये नहीं है की सही है या गलत ..क्यूंकि इतना तो तय है की बहुत बड़ा यानि बहु मत मानता है निर्विवाद नहीं है..तो फिर अधिकार के रूप में क्यूँ....यदि समाज इसी तरह परिवर्तित करता रहा खुद को ..जैसा अभी कर रहा है..तो ये तो स्वमेव ही हो जाएगा..मगर अभी वक्त नहीं आया है..ऐसा मुझे लगता है..आज भी देश की अआधी जनता इन महानगरों से दूर रहती है...और वहाँ तक ये बातें अभी ...युगों दूर हैं...
हाँ एक महिला होने के बावजूद ..इतने गंभीर विषय पर शाशाक्त लेखन के लिए आप बधाई की हकदार हैं..धन्यवाद. यदि कुछ ज्यादा कह गया तो अन्यथा न लें...
June 29, 2009 at 6:01 AM
भारतीय दंड संहिता में जब धारा तीन सौर सतहत्तर को शामिल किया गया तो जाहिर है की उस समय के परिवेश को ..और समाज को देखते हुए ही किया गया था..आज बहुत कुछ sachmuch ही बदल रहा है..अच्छा या बुरा..इस पर तो बहस जारी है..मैं अपने कार्यालीय अनुभव के आधार पर कुछ बातें कहना चाहता हूँ...अदालतों में धारा ३७७ के अर्न्तगत दर्ज कुल मुकदमों में से ८० प्रतिशत में नाबालिग़ मुजरिम होते हैं ,,,,,जिन पर बाल न्यायालय में मुकदमा चल रहा होता है..अन्य बीस प्रतिशत ही वयस्क होते हैं वो भी सिर्फ पुरुष....मैंने अभी तक एक भी महिला पर इस धारा के तहत मुकदमा दर्ज होते नहीं देखा...ऐसा मेरा अपना अनुभव है....तो जाहिर है की ..हो तो वो सब रहा ही है...हाँ jahaan तक उसे अधिकार के रूप में मान्यता की बात है..तो उस सन्दर्भ में भी बहस बहुत लम्बी हो जायेगी..क्या इससे जरूरी ये नहीं है की मर्सी किल्लिंग को मान्यता दी जाए..मगर भारत में यदि इस जरूरी कानून को भी मान्यता मिलने में न्यायपालिका तक असहमति दिखा रही हैं तो उसकी वजह है इसके दुरूपयोग की आशंका..आपने खुद माना है की जहां से इस व्यवस्था का आयात होना फिलहाल माना जा रहा है..जबकि असलीयत में भारतीय इतिहास में भी इसके कुछ निशाँ तो हैं ही....यदि उनका अनुकरण करने लगे तो ..एक शोध के अनुसार आज जिस ऐड्स नामक लाईलाज बीमारी से लोग लड़ रहे हैं..उसका उद्गम किसी पशु के साथ इंसानी यौन संसर्ग के कारण बताया गया..कहने की जरूरत नहीं की ..इस तरह के प्रयोग कहाँ किये जा सकते हैं..
देखिये बात ये नहीं है की सही है या गलत ..क्यूंकि इतना तो तय है की बहुत बड़ा यानि बहु मत मानता है निर्विवाद नहीं है..तो फिर अधिकार के रूप में क्यूँ....यदि समाज इसी तरह परिवर्तित करता रहा खुद को ..जैसा अभी कर रहा है..तो ये तो स्वमेव ही हो जाएगा..मगर अभी वक्त नहीं आया है..ऐसा मुझे लगता है..आज भी देश की अआधी जनता इन महानगरों से दूर रहती है...और वहाँ तक ये बातें अभी ...युगों दूर हैं...
हाँ एक महिला होने के बावजूद ..इतने गंभीर विषय पर शाशाक्त लेखन के लिए आप बधाई की हकदार हैं..धन्यवाद. यदि कुछ ज्यादा कह गया तो अन्यथा न लें...
June 29, 2009 at 7:28 AM
गीताश्री जी
बधाई !!!!!!! हिम्मत से चलती है आपकी कलम , ये तो सच है की कुछ हो न हो समलैंगिकता पर राजनीत जरुर शुरू हो जायेगी ....हमें अपनी ख़ुशी चुनने का हक तो मिलना ही चाहिए .
June 29, 2009 at 7:46 AM
badi baat likhi hai gitashri ji! par sach me is sirf rajnit hogi.
June 29, 2009 at 11:52 AM
her insaan ko khush rahane ka haq hai. lekin bharat jaise desh men iss mudde per khul ker bahas hone men bhi thoda vaqt lagega aur virodh ka dhakosalaa kerenewale laathiyan bhi bhajenge.
June 29, 2009 at 11:43 PM
ये मुद्दा एक सवेदनशील मुद्दा है जिस पर समाज के अलग अलग तबको में एक स्वस्थ बहस की जरुरत है ..समस्या वहां शुरू होती है जब ऐसा कपल कुछ दिनों बाद एक बच्चे की चाह रखने लगता है ...तब उस बच्चे को कैसा वातावरण मिलेगा परेशानी यहाँ उत्पन्न होती है क्यूंकि तीन से छह साल की उम्र में बच्चो को जेंडर आईडेनटीफिकेशन की सामान्य वातावरण में दरकार होती है ..जाहिर है यहाँ किसी बच्चे का भी मूल अधिकार जुडा है ...वैसे भी समलिंगी दो प्रकार के होते है एक वो जो खुलकर समाज के सामने आन चाहते है ...दूसरे जो अपनी इस स्थिति को लेकर अपराधबोध महसूस करते है .तीसरे वे जो बाई सेक्स्यल होते है .समाज में बाई सेक्सुअल लोगो की संख्या ज्यादा है ...दूसरे प्रकार के लोगो को मनो चिकित्सक की आवश्यकता होती है ..समाज के स्ट्रक्चर में मौजूद मोरल फेब्रिक का ध्यान रखते हुए ..इससे पड़ने वाले प्रभावों का ध्यान रखते हुए जिसमे कुछ रोगों के फैलने की आशंका भी है....इनके मूल अधिकार जैसे नौकरी ,बेंक में खाता खोलना जैसे अधिकारों की रक्षा करते हुए ..एक लम्बी बहस की जरुरत है
June 30, 2009 at 1:55 AM
गीता जी, मुद्दा आपने बहुत अच्छा उठाया है और मैं व्यक्तिगत रूप से इसके पक्ष में भी हूं. जो जिसके साथ सहजता से रह सके उसे उसके साथ रहने दिया जाए। पर बताइए क्या ऐसा हो पाता है। अभी तो हम ढोल पीट रहे हैं कि ये लोग हमारे समाज का सत्यानाश कर रहे हैं। ऐसे तो अराजकता आ जाएगी और न जाने क्या-क्या...। मैं ऐसे लोगों से पूछना चाहती हूं कि आप लोग तो प्यार करने वाले लड़के और लड़की को भी चैन से जीने नहीं देते। उन्हें भी बेरहमी से कत्ल कर डालते हो या अलग कर देते हो। वो तो आपकी सामाजिक मान्यता और प्रकृति के नियमों पर ही चलते हैं। यानी साफ है कि आप ठेकेदार सिर्फ वही होने देना चाहते हैं, जो आप की मर्जी से हो. समलैंगिक होना तो एक बहाना भर है। कानून तो दहेज का भी है, तो क्या दहेज हत्याएं रुक जाती हैं, कानून तो छेड़छाड़ के लिए भी है, तो क्या सभी लड़कियां इससे अछूती हैं, कानून तो बलात्कार के लिए भी है, तो क्या लड़कियां सुरक्षित हैं। नहीं न तो क्या कानून भर बना देने से समलैंगिक अपने मन बांध लेंगे, अपनी इच्छाओं का गला घोंट देंगे। जब यह हो ही नहीं सकता तो फिर अखबार में फोटो छपवाने के लालच में यह विरोध क्यों.
लोग तो जीवनदायिनी पृथ्वी को नष्ट किए दे रहे हैं, पानी फेंक रहे हैं, पेड़ काट रहे हैं, पॉलिथिन से उर्वरा नष्ट कर रहे हैं, मेरे ठेकेदार भाइयों इस प्रकृति के लिए भी सोचो न. इसके लिए आवाज उठाओ, मुहिम चलाओ। दुनिया में दूसरों के दिल पर बंदिश लगाने के सिवा बहुत से काम हैं, मेरे समाज सुधारकों...सुन रहे हो
June 30, 2009 at 2:07 AM
समलैंगिकता पर इस कदर हंगामा काटने की जरूरत क्या है। अब काट ही दिया है तो अपन भी शामिल होने की जुर्रत करते हैं। मुद्दा यह नहीं है कि सेक्स के कौन से तरीके और किनके बीच जायज है और कौन से नाजायज। मेरी नजर में यह मुद्दा व्यैक्तिक स्वातंत्र्य और समाज के परंपरावादी व्याख्याकारों के बीच का है। सवाल सिर्फ एक ही है, क्यों व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को समाज के पैरोकार ध्वस्त करने में तुले रहते हैं। हर सभंव और हर युग में ऐसा होता है, यह कोई नया नहीं है। फ्रांस की क्रांति के बाद बेचारा मिराबो चीखते हुए गिलोटिन पर चढ़ गया कि मेरे विचारों-कार्यों को मेरी निजी जिंदगी पर क्यों थोपा जा रहा है। यह संघर्ष शाश्वत है और इस संघर्ष में मेरे ख्यालात गीताश्री के साथ हैं, क्योंकि उन्होंने व्यैक्तिक स्वातंत्र्य की वकालत करते हुए परंपरावादी समाज क पैरोकारों के खिलाफ आवाज बलंद की हैं, और वो भी एक स्त्री होकर।
July 3, 2009 at 8:42 AM
bebaak kalam aur bebaak vishay kabil e..taarif hai.mujhe lagta hai dilli high court ke nirnay ke baad bhi raah utni aasan nhn.per haan...ye nirnay vyaktigat rishton ke chunaav mein azaadi ki disha mein pehla kadam zarur hai.bharat jaise desh mein iss tarah ke rishte naye nhn..per shayad humein aadat ho chuki hai chhup chhupkar apne rishte aur zindagi jeene ki.yahaan her vyakti samaj ko jitna sweekar hai..utne pe hi haami bharta hai..karta sab kuch hai..per pakke taur pe chhupa ke.
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