समीक्षा
सीमित आकाश के बाहर अनंत उड़ान की कहानियां
प्रताप
दीक्षित
वर्तमान समय विपरीत भंगिमाओं का
समय है. इस परिदृश्य में स्त्री की नियति कुछ ज्यादा ही त्रासद हुई. बदलते समय के
साथ स्त्री कि दुनिया क्या वास्तव में बदली है? दार्शनिक-चिन्तक विटेंगेस्टीन के
अनुसार (पैराडोक्स ऑफ ट्रुथ) यह सत्य का एक पक्ष है. स्त्री के संसार का द्वार उस
अंतहीन जंगल में खुलता है जिसमें कितनी ऊबड़-खाबड़ संकरी पगडंडियाँ, खंदक, कांटेदार
पेड़ और खाइयां हैं कि उसकी कोई मुक्कमिल तस्वीर नहीं बनती. पुराने अंधेरों से निकल
कर वह चकाचौंध भरे अंधेरों में गुम हो गई है. उसके अस्तित्व का मापदंड एक मनुष्य की
भांति उसकी मानसिक-बौद्धिक क्षमताओं के बजाय दैहिकता के आधार पर आज भी किया जाता
है. आयातित स्त्री विमर्श की विडम्बना यह है प्रतिरोध स्वरुप स्त्री होने की
अस्मिता से ही वह पलायन कर रही है. पुरुष के साथ सह-अस्तित्व के विपरीत सम्पूर्ण
पुरुष समाज को शत्रु-शोषक के कटघरे में खड़ा कर दिया.
इस परिप्रेक्ष्य में ‘स्वप्न,
साजिश और स्त्री’ की कहानियां पल-प्रतिपल बदलती दुनिया में स्त्री के बहाने
इतिहास, समाज, समय, मनोविज्ञान, परिवार के साथ समय और समाज को पर्त-दरपर्त खंगालती
हैं. स्त्री विमर्श को दैहिक मुक्ति-दयनीयता तक सीमित करने की कोशिशों को नकारते
हुए सामजिक मूल्य संरचनाओं को रचनात्मक अनुभवों में बदलती हैं. स्त्री के उस रूप
की तलाश, जो बार-बार धुंधलके के आवरण में ओझल हो जाता है. यह कहानियां स्त्री के
प्रचिलित, दैहिक-भावनात्मक विमर्श के बरक्स बदली हुई स्त्री के सपनों, अकेलेपन,
अनंत आकाश के विस्तृत आयामों, आकांक्षाओं, त्रासदियों, विस्थापन के सतह के यथार्थ
से परे, नए यथार्थ का सृजन करती हैं. गीता श्री स्त्री के अंदर की दुनिया की अनेक
अनजान तहों का उत्खनन करती हैं.
‘डायरी, आकाश और चिडियाँ’,
‘कहाँ तक भागोगी’, ‘लकीरें’ स्त्री के अकेलेपन, सपनों, विद्रोह और स्वयं की तलाश
की कहानियां हैं. किस्सागोई के प्रचिलित मिथक को तोड़ती ‘डायरी, आकाश और चिडियाँ’
की रोली आज के तथाकथित आधुनिक समाज में अकेली नहीं है जिसने अपने सपनो के सृजित
काल्पनिक संसार में अपने को बंद कर लिया है. असीम आकांक्षाओं के बीच अकेलेपन की
निपट यातना और उनसे निजात पाने के लिए उसके पास विकल्प भी नहीं. एक लड़की के अंदर
छिपी दूसरी नितांत अपरिचित लड़की को जानना-पहचानना कितना कठिन होता है. सपने अँधेरे
में देखे जाते हैं. सपनों और अंधरों में निरंतर द्वंद्व चलता रहता है यह. सफलता की
होड़, पिता-माँ के संबंधों में दरार बच्चों को अकेलपन के अंधेरों में घिरने को विवश
कर देते हैं. स्त्री में परकाया प्रवेश की शक्ति होती है. रागिनी (रोली की मौसी)
रोली की व्यथा समझती है. आधुनिक जीवन शैली की विडंबना और विरोधाभास है कि माँ को
रोली के मिल जाने की खुशी उतनी नहीं है जितनी
चिंता, ‘आखिर लड़की रात को कहाँ रह कर आई? कुछ किया तो नहीं?’ कहानी अकेले रोली की नहीं, अकेली पद गई पूरी पीढ़ी की है.
एक स्त्री के लिए बाहरी बंदिशों
से ज्यादा कठिन उसके अपने बनाये खुद के बंधन भी होते हैं. धार्मिक आचार संहिताएं भी इन में एक है जिसके
कारण वह दोहरी जिंदगी जीती रहती है. इनकी आड़ वह सब कुछ करना चाहती है जो ‘ऐसी’
लड़कियां करती हैं. मजहब से ज्यादा कठिन अपने से भागना होता है. ‘कहाँ तक भागोगी’
बताती है कि अपनी पहचान किसी नैतिक संहिता की मोहताज नहीं होती. ‘लकीरें’ का सत्य
है कि स्त्री चाहे गाँव की हो जिसका बेटा चोर है या महानगर की कोठी की जिसके आंसू
सूख चुके हैं- स्थिति एक सी होती है – सूख चुकी नदी की भांति. कही स्त्री ही नहीं
समूची मानवीय बुनियाद की तलाश करती है.
प्रेम, समर्पण और छलना की
कहानियां हैं – ‘रिटर्न गिफ्ट’, ‘बदन देवी की मेहंदी का मनडोला’ और ‘ड्रीम्स
अनलिमिटेड’. ‘रिटर्न गिफ्ट’ कच्ची उम्र के अनकहे प्रेम की कोमल-अप्रतिम गाथा है
जिसमें कोई प्रतीक्षा नहीं. कहानी केवल
नीतू-नरेंद्र के वियोग की नहीं, दोनों के बीच आभाव, समाज, वर्ग के कारण आयी दूरी
बिना कुछ कहे व्यक्त कर देती है. कहानी क्षण को समय-खंड से अलग कर देती है. उनका
मिलना भी तो क्षण में ही सिमटा हुआ था जो देश-काल का हिस्सा नहीं होता. शायद
स्त्री की नियति हमेशा ‘वन फॉर सारो’ की ही होती है. स्त्री को देह मात्र समझने की
प्रवृत्ति से अलग स्त्री के समर्पित प्रेम के अनाम रिश्ते, आजादी-आत्मनिर्णय और
उसकी असीम जिजीविषा कि कहानी है ‘बदन देवी की मेंहदी का मनडोला’. एक स्त्री में ही
विकास-सुविधा विहीन स्थिति में भी जीने का जज्बा होता है. यह स्त्री ही है जिसकी
चाहत में अधिकार नही होता. इस पेम को समझना आसान नहीं होता – ‘हिसाब-किताब रखने
वाले रिश्ते नहीं समझते तो किसी की पीड़ा क्या समझेंगे?’ प्रेम में
पवित्रता-नैतिकता ऐसा कुछ नहीं होता. इसी की काव्यात्मक अभिव्यक्ति हैं कहानी के
अंश- ‘इनके बीच था एक अनाम रिश्ते का सुकूनदेह उजाला. नदी पर समुद्र का ज्वार था
जो पूर्णिमा के चाँद को निर्वसन देख उफान पर था. लहरों ने चाँद पर फेनिल दुपट्टा
फैला दिया था. इसमें न सती का सतीत्व भंग हुआ था और न तपस्वी का तप.’
सपने हमेशा आयामहीन होते हैं.
स्त्रियों की दुनिया में इन्हें और विस्तार मिला है. परन्तु वर्तमान बाजार ने
प्रेम, संवेदना और सपनों को स्वार्थ सिद्धि के लिए पुल या जिंस में बदल दिया है.
कहानी में दो स्त्रियां प्रेम में छली जाती हैं. हर स्त्री के अंदर एक नदी होती
है. लेकिन इन स्त्रियों के अंदर की नदियों का संगम तब होता है जब उन्हें एक ही
व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त किये जाने का भास होता है. मीडिया की चकाचौंध के पीछे
अँधेरे की दुनिया में राइमा और सोनिया (ड्रीम्स अनलिमिटेड) का दुःख इन्हें एक डोर
में बंधता है.
माँ और बेटी का रिश्ता सबसे निकट
का, एक अदृश्य प्राकृतिक डोर से बंधा हुआ, होता है. भले ही ऊपर से कितना द्वंद्व
दिखाई दे, एक-दूसरे के दर्द, देह या देह से परे अतृप्त इच्छाओं को माँ ही समझ सकती है और उसे करने के लिए बिना किसी
नैतिक हिचक के किसी सीमा तक तत्पर रहती है. ‘उजड़े दायर’ में बेटी को माँ की सलाह –‘अपनी
खुशियों का पता खुद ही ढूढना पड़ता है.’ इसी तरह ‘माई रे मैं तो टोना करिहों’ में
माँ सिल्बी को मानसिक रूप से बीमार बेटी की चिंता है – ‘अब तो इसके लिए भी तैयार
हूँ कि कोई पैसे लेकर भी इसके साथ कुछ कर ले, शायद ठीक हो जाए.’ देह की अनिवार्यता
और उसके विकल्प और उसके हिस्से के सुख की तलाश की कहानियां हैं.
ऊब, एकरसता और अकेलापन. इससे
निजात पाने के लिए रिश्तों के गहराने के बजाय छीजते संबंधों के साथ संवादहीनता
बढती गई. इस दूरी को पाटने के लिए बढ़ते
संचार साधनों के बीच खुशी ढूढने की कोशिश में हमने दूसरों को ही नहीं अपने
को भी छलने के लिए अभिशप्त होते गए. बाजार ने मुनाफे के लिए
मोबाइल पर मीठी-आकर्षक-सेक्सी बातों के लिए आवाजें और सुनने वाले दोनों खरीद लिए
हैं. ‘आवाजों के पीछे’ इसी मृगतृष्णा के
मायाजाल में पति-पत्नी दोनों धस चुके हैं. बरसों की घुटन के बाद रोशन अंधेरों गुम
हो जाने के लिए अभिशप्त. गनीमत इतनी है कि मटमैले, जलकुम्भी के पत्तों से ढंके
पानी में ‘सबसे बचा हुआ पानी चमक रहा था.’ इस व्यस्वस्था की दुरभिसंधि ने बौद्धिक
जगत को भी जकड़ रखा है. ‘मेकिंग ऑफ बबीता सोलंकी’ सांस्कृतिक-बौद्धिक जगत में
प्रायोजित तरीके से, विशेष रूप से स्त्री को प्रमोट करने छद्म का पर्दाफास करती
है. परन्तु इस ‘प्राप्य’ के पीछे धड़ विहीन
कितने चेहरों की विडंबनाएं छिपी हैं.
सपनों पर किसी का एकाधिकार नहीं
होता. अभावग्रस बच्ची, घरेलू नौकर, सुरताली जैसी लड़कियों की आँखों में पलते सपने
कुछ ज्यादा ही रंगीन होते हैं. घर में मालकिन की बेटी सुहानी को पहले तो सुरताली
को अपने घुँघरू पहन नाचते देख गुस्सा आता है. परन्तु यह बालमन, जो वर्गभेद नहीं
मानता, अगले दिन सुहानी थाप दे रही है और सुरताली बेसुध नाच. वर्गांतर की चेतना के
साथ यह कहानी बाल नही स्त्री मनोविज्ञान की कहानी है. वह स्त्री जो दूसरी स्त्री
की पीड़ा, सपनों, सुख-दुःख को समझती है.
‘भूत-खेली’ बदलते समय-समाज में
गाँव और वहां के लोग भी दूसरे ध्रुव के बासिंदे हो चुके हैं. एक ओर दुलारे बाबू
द्वारा भाई के हिस्से की सम्पति न देने के लिए स्वार्थ, तिकड़में, अन्धविश्वास
दूसरी तरफ रिश्तों की बची स्मृतियों के संजोये रखने की कहानी है.
गीता श्री की कहानियों में त्रासद
दुष्चक्र में घिरने की नियति के बजाय
स्त्री के रूपांतर, विकल्प और दिशा-बोध दिखाई देता है. वैक्तिक अनुभूतियों को
व्यापक मानवीय सरोकारों से जोडती हैं. एक निश्चित विषय, निश्चित शिल्प और निश्चित
निष्कर्ष पर आधारित कहानियों से विपरीत प्रचिलित मिथक को तोडती हैं.
प्रताप दीक्षित
एम डी एच 2/33, सेक्टर एच,
जानकीपुरम
लखनऊ 226 021
M 9956 398 603
dixitpratapnarain@gmail.com
March 25, 2016 at 8:14 AM
बहुत ही अच्छी समीक्षा, एक एक कहानी की सारगर्भित समीक्षा.
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