Posted By Geetashree On 3:41 AM Under , ,
मी टू अभियान नहीं, आंदोलन है

आत्मा का अंधियारा पक्ष है यौन हिंसा


-गीताश्री

दस साल पहले महिला एक्टिविस्ट तराना बुर्के ने जब अपना दुख-दर्द दुनिया से साझा करते हुए कहा होगा कि यह दुख मेरी आत्मा की गहराई में धंसा हुआ है और मेरी आत्मा का अंधियारा पक्ष है, तब दुनिया ने बहुत गौर से इसे नहीं सुना, न ही खास तवज्जो दी। उस समय किसी को अहसास नही होगा कि एक दशक में दुनिया इतनी बदल जाएगी कि उन समाजो की स्त्रियां भी यौन हिंसा की बातें सार्वजनिक रुप से कबूलने लगेंगी, जो अब तक पर्दे में थीं। या जो अब तक लोकलाज से चुप थी।
उस समय भी वह अभियान नहीं , एक आंदोलन था जिसे दस साल लगे, दुनिया भर की स्त्रियों को जोड़ने में। अब तक का ये सबसे तेजी से फैलने वाला अभियान साबित हुआ जो न सिर्फ स्त्रियों में बल्कि पुरुषों में भी खासा लोकप्रिय हो गया। दुनिया भर की स्त्रियां इससे जुड़ चुकी हैं। अपना दुख संकेतों में साझा कर रही हैं।
यह अभियान फिर से जिंदा तब हुआ जब अभिनेत्री एलिसा मिलैनो ने यौन हिंसा की शिकार रही सभी महिलाओं और लड़कियों से आगे आकर यह हैशटैग चलाने का आग्रह किया, जिससे लोगों को स्थिति की गंभीरता का अहसास हो सके. अभी भी यौन हिंसा की पीड़ित लडकियां अपना मुंह खोलने से डरती हैं. वे अभी तक सामाजिक लोकलाज के दायरे से बाहर नहीं निकल पाई हैं.यह हैशटैग बहुत ही जल्दी महिलाओं के बीच लोकप्रिय हुआ, क्योंकि इसने शायद उन्हें उस दर्द को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने की हिम्मत दी. उनकी घुटन को किसी न किसी तरह से बाहर निकलने के लिए प्रेरित किया.
इस अभियान की प्रेरणा तराना ने दुबारा इसके जिंदा होने पर कहा कि यह किसी एक स्त्री का विलाप नहीं है, यह आंदोलन है और सभी भुक्तभोगियों को खुल कर सामने आना चाहिए।
तराना के इस अपील ने न सिर्फ इसे फिर से जिंदा किया बल्कि सबको उकसाया भी। नतीजा इसी महीने फिर से यह अभियान शुरू होकर पूरी दुनिया में फैल गया।
इसने पूरी दुनिया की महिलाओं को उनका दर्द साझा करने के लिए प्रेरित किया. जब यह हैशटैग भारत आया तो भारत में न केवल आम स्त्रियों ने बल्कि बड़ी बड़ी हस्तियों ने इसमें अपने अनुभवों को साझा किया.
पश्चिम और भारत के अनुभवों में एक बात बहुत हटकर थी कि जहां पश्चिम में महिलाओं ने अपने अनुभवों को साझा किया, वहीं भारत में ऐसा नहीं हुआ. यहाँ पर लड़कियों ने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न को स्वीकार तो किया, उन्होंने यह तो कहने की हिम्मत की, कि उनके साथ गलत हुआ, मगर कितना गलत हुआ और किसने गलत किया, यह स्वीकार नहीं किया.
आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है? इसकी वजह शायद सामाजिक रूप से अस्वीकृति ही रही होगी. जहां पश्चिम में वे अपनी घुटन से बाहर निकल सकीं, वहीं भारत में यह घुटन कहीं और तो नहीं गहरा गयी क्योंकि इसने उन्हें उस दर्द को बाहर तो निकालने के लिए उकसा दिया, मगर कहीं न कहीं उस दर्द को पूरा नहीं वे बता सकीं क्योंकि शायद यहाँ पर सामाजिक बहिष्कार का भय उनके इस साहस पर भारी पड़ गया. जिस समाज में यौनशुचिता ही चरित्र का पैमाना होती है, उस समाज में स्त्रियों को यह  भी कहने के लिए अभी भारी साहस जुटाना होता है कि उनके साथ कहीं न कही गलत हुआ था.
अगर भारतीय स्त्रियां खुल कर लिखने लगे तो सारा सामाजिक-पारिवारिक ढांचा ही गड़बड़ा जाएगा। यही भय अभी तक स्त्रियों को सता रहा है। सिर्फ मी टू लिख कर शेयर करने से आंदोलन को गति नहीं मिलती है। जब तक कि उसके मामले सामने न आएं और दुनिया की आंखो पर पड़ी पट्टी न हट जाए। यह खतरा कौन मोल ले। बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसी बात है।
फिल्म जगत में कास्टिंग काउच के बारे में खुल कर बताने वाली हीरोइनो के साथ अच्छा सुलूक नहीं होता है, अगर स्त्रियां अपने आंगन के आतंक के बारे में बताने लगें तब उनका जीना दूभर हो जाएगा। स्त्रियां इस भय में हैं मगर एक बात तो है कि उन्हें इस आंदोलन से इतना साहस तो मिला कि वे स्वीकार कर सकीं। अब तक स्वीकार ही कहां था।
आज हम बच्चियों को गुड टच और बैड टच समझा रहे हैं। बीस साल पहले यह सीख कहां थी। न जाने कितने घरो में, लगभग सौ में निन्यानवें स्त्रियां बचपन से लेकर बड़ी होने तक यौन हिंसा का शिकार हुई हैं। अब तक मामला दबा रह जाता था। इज्जत के डर से घरवाले मामले को दबा जाते थे। इससे लड़की और परिवार की ही बदनामी होती थी। दूसरी बात कि अधिकांश बच्चियों को यह नहीं पता होता था कि उनके पहचान वाले उनके साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं। बच्चियों के सथ खेल खेल के नाम पर उनके सगे ही उनका यौन शोषण करते रहे हैं, बच्चियां अनभिज्ञ थीं। जागरुकता तो अब आई है।
याद होगा कि एक दशक पहले लेखिका पिंकी विरमानी की किताब बिटर चॉकलेट आई थी। जिसमें बचपन में किए गए यौन शोषण का पूरा चिट्ठा दर्ज था। वह किताब आई, गई हो गई। समाज तब भी न चेता। अधिकांश भारतीय घरों में अब भी उतनी सजगता और सतर्कता नहीं है। अब भी यौन हिंसा की शिकार स्त्रियां आज भी घुटन में जी रही हैं। यह अभियान उनको मंच तो दे रहा है, लेकिन खुल कर बोलने का साहस नहीं। जब तक खुलेंगी नहीं, यौन हिंसा रुकेगा नहीं। लोग एक्सपोज नहीं होंगे, तो लगाम लगेगी नही। यह भियान सफल नहीं होगा।
मी टू महज अभियान बन कर रह जाएगा, आंदोलन का रुप नहीं लेगा।

इस अभियान में बड़ा आंदोलन बनने की पूरी संभावना है, अगर भारतीय स्त्रियां खुल कर बोलने का साहस जुटाएं। यौन हिंसा के मामले में जीरो टॉलरेंस की सख्त जरुरत है।

अन्यथा, इस तरह का हैशटैग स्त्रीवादी आंदोलन के विरोधियों को भी आलोचना का एक मौका दे देता है कि आधी आबादी बदलाव के लिए कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाई।


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November 12, 2019 at 8:51 AM

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Om Sapra
September 7, 2020 at 9:19 PM

उत्तम और गंभीर विचार।
दरअसल, पूरे समाज की मानसिकता अंधेरे कुएं में पड़ी गल सड़ चुकी है। इस सोच को बदलना अति आवश्यक है। इसमें बालक और बालिकाओं में शिक्षा, सजगता जरूरी है। अच्छा टच और बुरा टच अभियान इसी का अंग है।
इस अभियान को दैनिक जीवन का अपरिहार्य अंग बनाना बेहद आवश्यक है। जहा नारी की उपासना अर्थात सम्मान होता है वहीं देवता निवास करते हैं। अर्थात वह समाज और परिवार देवत्व से सराबोर होते हैं। वहां देवत्व अर्थात एक अनुपम स्नेह, शांति और विवेक कार्य करते हैं। तभी वह समाज या परिवार आदर्श बन सकता है।
तभी जीवन में एक नए प्रभात का हम इंतज़ार कर सकते हैं।
हम सभी को आशावान होना जरूरी है।