मनीषा
‘लेखिकाओं को छिनाल’ बताकर विभूतिनारायण ने अपने सारे किये-कराये पर खुद ही तेजाब डाल दिया। क्या पता ये बैंक ऑफ-द-माइंड पड़े सड़ांध मार रहे उनके घिनौने विचार हों या अपनी गुस्ताखियों का पुलिंदा खुलने से भयभीत बचाव में की गई बयानबाजी। मैं राय से यह जरूर जानना चाहूंगी कि अगर यही ‘टर्म’ पुरुष के लिए में इस्तेमाल करना चाहूं तो कैसे और क्या होगा?यह घटिया शब्द किसी सभ्य व्यक्ति की जुबान पर तब भी नहीं आ सकता, जब वह क्रोधित हो या बदले की भावना से किसी ‘खास’ को गरिया रहा हो। इस तरह की तमाम स्त्रियोचित गालियां पुरुषों की कुंठाओं का प्रतिफल हैं, जिनका इस्तेमाल वे शेखी बघारने के लिए कितना ही करते फिरें पर सच्चाई यही है कि ढलान पर जाती मर्दानगी और शिथिलता उनके दिमाग को इस कदर कब्जिया लेती है कि सोचने-समझने की क्षमता ही वे खो बैठते हैं।
‘लेखिकाओं को छिनाल’ बताकर विभूतिनारायण ने अपने सारे किये-कराये पर खुद ही तेजाब डाल दिया। क्या पता ये बैंक ऑफ-द-माइंड पड़े सड़ांध मार रहे उनके घिनौने विचार हों या अपनी गुस्ताखियों का पुलिंदा खुलने से भयभीत बचाव में की गई बयानबाजी। मैं राय से यह जरूर जानना चाहूंगी कि अगर यही ‘टर्म’ पुरुष के लिए में इस्तेमाल करना चाहूं तो कैसे और क्या होगा?यह घटिया शब्द किसी सभ्य व्यक्ति की जुबान पर तब भी नहीं आ सकता, जब वह क्रोधित हो या बदले की भावना से किसी ‘खास’ को गरिया रहा हो। इस तरह की तमाम स्त्रियोचित गालियां पुरुषों की कुंठाओं का प्रतिफल हैं, जिनका इस्तेमाल वे शेखी बघारने के लिए कितना ही करते फिरें पर सच्चाई यही है कि ढलान पर जाती मर्दानगी और शिथिलता उनके दिमाग को इस कदर कब्जिया लेती है कि सोचने-समझने की क्षमता ही वे खो बैठते हैं।
औरतों के जननांगों पर अपना निशाना साधने वालों की कूवत पर अब तक स्त्रियों ने प्रश्नचिन्ह नहीं लगाए, इसीलिए मूंछों पर ताव देकर ये अनर्गल प्रलाप सार्वजनिक रूप से कर पा रहे हैं। चरित्र-प्रमाण-पत्र बांटने को लालायित रहने वाले मर्दों का दिमाग ही नहीं खराब है, इनमें अपनी कारस्थानियों का ठीकरा औरतों के सिर फोडऩे की आदत भी जबर्दस्त है। काफी समय बेमजा काटने के बाद आखिर हिंदी वालों ने विभूति की जबान से फिसले विशेषण को स्यापा है। यह कहते हुए मुझको जरा भी संकोच नहीं हो रहा कि स्त्री हर हर एंगेल से शोषण करने वाले उनके विरोधी भी अब एक हो चले हैं।
राय के यह कहने पर कि हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है, वह मुख्य रूप से शरीर केंद्रित है... मैं तो हमेशा से पूछती आई हूं कि स्त्री विमर्श को देह से कैसे मुक्त करेंगे, इसका कोई नुस्खा है तो बताएं। यह संकीर्ण और बीमार मानसिकता है, जो औरत की देह का तो बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल करने में कोई संकोच नहीं करती। लेकिन जब वही स्त्री मुक्ति की आवाज उठाती है तो उसको जलील करने, नीचे ढकेलने और कमजोर बनाने में कोई कोताही नहीं बरती जाती। औरत यदि शरीर ही छोड़ दे तो उसके पास बचता ही क्या है, वंशबेल पर पुरुषों का कब्जा, कुलनाम पर पुरुषों का कब्जा, घर/ परिवार की मुखियागिरी पर पुरुषों का कब्जा, कोख और चरित्र पर पुरुषों की बपौती। फिर बचा क्या है?
राय के यह कहने पर कि हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है, वह मुख्य रूप से शरीर केंद्रित है... मैं तो हमेशा से पूछती आई हूं कि स्त्री विमर्श को देह से कैसे मुक्त करेंगे, इसका कोई नुस्खा है तो बताएं। यह संकीर्ण और बीमार मानसिकता है, जो औरत की देह का तो बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल करने में कोई संकोच नहीं करती। लेकिन जब वही स्त्री मुक्ति की आवाज उठाती है तो उसको जलील करने, नीचे ढकेलने और कमजोर बनाने में कोई कोताही नहीं बरती जाती। औरत यदि शरीर ही छोड़ दे तो उसके पास बचता ही क्या है, वंशबेल पर पुरुषों का कब्जा, कुलनाम पर पुरुषों का कब्जा, घर/ परिवार की मुखियागिरी पर पुरुषों का कब्जा, कोख और चरित्र पर पुरुषों की बपौती। फिर बचा क्या है?
यह देह ही है, जिस पर अतिक्रमण करने को आमादा पुरुष तरह-तरह के स्वांग रचाता है। यह औरत की देह ही है, जो उस पुरुष को कोख में पोषती है, जो उसकी ‘शुचिता’ के प्रमाण-पत्र देता फिरता है। स्त्री सिर्फ देह है, मान्यवर। जिसके बिना ना तो आपका काम चल सकता है, ना ही हम औरतों का। नख से शिख समूची औरत को उसकी संपूर्णता के साथ जीने का अधिकार चाहिए। यह देह ही है, जिसके पीछे फिरता पुरुष दिमागी दीवालियेपन की स्थिति में पहुंच जाता है। ज्यादा दर्शन बघारने की जरूरत इसलिए भी नहीं है कि इस वाहियात जवाब में कही गई सारी बातें/ सारे तर्क स्त्री की देह को लेकर की हैं। जब आपका विचार ही देह मुक्त नहीं हो पा रहा तो हम अपनी देह (का विचार) त्यागने की बात सोच भी कैसे सकते हैं। आगे वे कहते हैं - यह भी कह सकते है कि यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सवकी तरह है। ‘बेवफाई’ पर भी क्या मर्दों का आधिकारिक जोर है। ‘वफा’ बात पुरुषों की जुबान पर वैसे भी शोभती नहीं। स्त्री विमर्श तो अभी अपने यहां शैशव में ही है। खुलकर लिखने की बात तो दूर, अभी तमाम पुरुषों के साये में पलने को मजबूर लेखिकाओं को ‘स्त्रीवाद’ शब्द ही डरावना लगता है।
स्त्रीविमर्श के नाम पर अपनी दुकानें चला रहे शिकारी स्त्रियों की देह को लेकर लार टपकाऊ बने फिर रहे हैं। इक्का-दुक्का पत्रकारों की हिम्मत और लेखिकाओं द्वारा किये जा रहे स्त्री विमर्श को उनके जैसे किसी पुरुष की छत्रछाया नहीं चाहिए, यह उनके लिए ही काफी है, जो अपनी नायिकाओं के भरोसे एकाध सीन रचने की कोशिश करके खुश हैं। रही बातें बिस्तरों की, तो क्या बिस्तरी उन्माद पर केवल पुरुषों का ही एकाधिकार है, क्या उनकी लतरानियों को रचने का साहस करने वाली स्त्री स्यापा करती ही उनको भाती है। यह याद रखना होगा कि आपसी सहमति से बने किसी के रिश्तों पर राय का प्रलाप, ‘अंगूर खट्टïे हैं’ जैसी लोमड़ी का रोदना नहीं लगता क्या। जिन लेखिकाओं की होड़ लगी है उनमें से जो प्रतिष् िठत पुरुषों की गोद में बैठकर वैचारिक वमन करती हैं, वे इनके चंगुल में नहीं आई होंगी, यह भी स्वीकारते चलना था इनको। अपनी सफलताओं का सेहरा जब तक पौरुषेय दंभ के हाथों बंधवाते रहेंगे हम, तभी तक इनके बीमार मगज हमें ‘साबित’ करने की चेतावनियां देने का साहस कर पायेंगे
...दरअसल स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गये हैं... माफ करें, पर पुरुष तो कम से कम ऐसी बातें बोलने का मंूह की नहीं रखते, जल्लाद की जुबान से बकरे की खैरीयत जमती जो नहीं। आप इस तरह के वाहियात विशेषणों से शोभना बंद कर दीजिए, हमको मुक्ति खुद-ब-खुद मिल जाएगी। मुक्ति कोइ अमर फल नहीं है, जिसको खोज कर हमें खाना है। मुक्ति इसी खौफनाक दरिंदी मर्दवादी मानसिकता से चाहिए। यह भी वही मॉरल पुलिसिंग है, जो बजरंगे करते फिरते हैं। इस तरह के मर्दाना विचारों को मैं किसी खाप से कू नहीं मानती, जो लैंकिग विषमता का वमन करते हैं, वह भी वैचारिकता काचोंगा पहन कर। जिस दरिद्र विचार को उखाड़ फेंकने के लिए हम स्त्रीवादी वैचारिक आंदोलन चला रही है, उसका गला रेतने वाले किसी भी मर्दाना सोच को कुचलना खालिस मानवतावादी कदम कहलाएगा, क्योंकि ये सनकी खुराफातें भी इतिहास का हिस्सा होंगी, थू-थू के लिए ही सही।
... औरतें भी वही गलतियां कर रही है, जो पुरुषों ने की थी... पुरुषों की गुंडागर्दी और लिजलिजेपन को छिपाने का कितना मासूम तर्क लाए हैं, हमको रास्ते मत सुझाइए। जाइए अपनी सोच का इलाज कराइए। अपनी आनेवाली पीढिय़ों को मानवता का पाठ पढ़ाइए, ताकि वे आपकी मांओं/ बहनों को उनके गोपन अंगों के नाम से पुकारने से पहले थोड़ा झिझकें।... बेवफाई को समझने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति, धर्म या पितृसत्ता जैसी संस्था को ध्यान रखने की बात करने से पहले ठीक से समझ तो लीजिए, दरअसल आपको चाहिए क्या। स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री भक्ति करने वाले पुरुषों से भरे आपके साहित्य समाज में बैठे दरिंदों को आईना दिखाना शुरू भीतो नहीं हो पाया है अभी। हिंदी जगत में तो हिम्मत वाली औरतों की खोज इसलिए नहीं हो रही कि उनके कंधे पर रखकर बंदूक चलाई जा सके, बल्कि इसी डर से हो रही है कि उनकी धार को सामूहिक रूप से कुंद किया जा सके और उनको भोथरा करके अपनी जमात में शामिल करने में सफलता मिल सके।
August 3, 2010 at 8:22 AM
मनीषा ने बेबाक होकर सही बात कह दी ..हर एक शै पर तो इनका कब्जा है ...अब स्त्रियाँ पुरुषों के हाथ से बाहर जा रहीं हैं उन्होंने धर्म और चरित्र की परिभाषाएं बदली हैं इस तरह की बौखलाहटें तो होंगीं ही ! ...हम तो बस तब सच्चे हैं जब हमारी अंगुली भी कोई देखे नहीं हमें कोई छुए नहीं ....एक मन हमारा भी है ...यह स्वीकारने में क्या हर्ज़ है .गालियों से मुंह कबतक सिला जायेगा .!
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