प्रवीण जी,
स्त्री-मुक्ति को लेकर गीताश्री जो भी कह रही हैं,उसे आप उनकी व्यक्तिगत झुंझलाहट और विचार समझ रहे हैं,ये अकेला वाक्य आपके बौद्धिक दायरे को साबित करने के लिए काफी है। गीताश्री क्या देश और दुनिया की कोई भी स्त्री,स्त्री-मुक्ति के स्वर को मजबूत करनेवाला कोई भी पुरुष वही सोचगा,कहेगा जो कि गीताश्री कह रही हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि स्त्रियों को लेकर होनेवाली बहसों को आप बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे हैं। दूसरा कि मनु(आपके हिसाब से भगवान मनु)के श्लोकों का जो हवाला दे रहे हैं,क्या एक स्त्री की दशा को देखने-समझने विश्लेषित करने औऱ उससे बेहतर होने की सारी विचारणा मनुस्मृति से ही ली जाएगी। क्या इसके आगे मुक्ति की कोई भी खिड़की नहीं खुलती? आप इस मसले पर थोड़ी कोशिश तो कीजिए,आपको अंदाजा लग जाएगा कि मनुस्मृति का क्या स्वर है,वो स्त्रियों को शामिल करते हुए भी किस तरह का समाज चाहते हैं?यत्र नारी पूज्यन्ते का हवाला दिया,व्यक्तिगत स्तर पर मुझे इस बात का रत्तीभर भी भरोसा नहीं है,इसके कई कारण हैं,इसके विस्तार में न भी जाउं तो सिर्फ दो बातें कहना चाहूंगा। एक तो ये हम स्त्री को देवी के रुप में देखने औऱ साबित करने में इतने उतावले नजर क्यों आते हैं? पुरुष इच्छा पर स्त्री को देवी या तो फिर दासी ये दो किस्म का ही दर्जा क्यों देते हैं? आप एक स्त्री पर घर के बरामदे में हुक्म जमाते हैं,रसोई में उसके हाथ जलने की परवाह किए 365 दिन करारी रोटी की डिमांड करते हैं,दिनभर की थकी-हारी होने पर भी रात गहराते ही उसके शरीर से अपने भीतर की कामेच्छा को शांत करते हैं। जब आप एक स्त्री के साथ ये सब कुछ करते हैं तो क्या आप उस स्त्री को देवी के तौर पर मानकर ऐसा कर रहे होते हैं? क्या आपका धार्मिक कठमुल्लापन इस बात की इजाजत देता है कि आप स्त्री को देवी मानते हुए उसके साथ संभोग करें। अच्छा,आप किसी दासी के साथ शारीरिक संबंध बनाने,चकरी की तरह अपने आगे-पीछे घुमाने में यकीन रखते हैं। मुझे नहीं लगता कि इन दोनों स्थितियों में ऐसा करना चाहेंगे। मेरा कहना सिर्फ इतना भर है कि जब आफ अपने जीवन में देवी और दासी से हटकर,हांड-मांस की स्त्री के साथ संभोग करने से लेकर संवेदना,भावुकता,सामाजिक लोकाचार औऱ भी दुनियाभर की चीजों के स्तर पर जुड़ते हैं तो उस स्त्री को लेकर बात करने का स्पेस आफ क्यों खत्म करना चाहते हैं। नागरिक समाज में एक स्त्री नागरिक की हैसियत से जीती है औऱ उसको अधिकार है कि वो अपने उपर होनेवाले अत्याचारों,शोषण,भेदभाव और उत्पीड़न से जुड़ी बातों को हमारे सामने रखे। यहां ये साफ कर दूं कि हर स्त्री के साथ पुरुषों द्वारा शोषण और भेदभाव का स्तर वही नहीं होता जिसे आप अपका महान ग्रंथ या तो समझ नहीं पाता या फिर जो अखबारी बयान के अन्तर्गत नहीं आता। इसमें कई बारीकियां हैं,कई महीन विभाजन है।आप हमें मनु की इकॉनमी समझा रहे हैं। मन की तो बात छोड़ दीजिए और पुरुषों के कमाए धन को स्त्री की झोली में लाकर डाल देने की बात भी मत कीजिए। आप हमें सिर्फ इतना भर बता दीजिए कि इतना सबकुछ होने के वाबजूद भी क्या स्त्री अपनी इच्छा से,अपनी सुविधा और जरुरत के हिसाब से अपनी ही हड्डी बजाकर कमाए गए पैसों को खर्च करने के लिए आजाद है। सच्चाई तो यही है कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों द्वारा अर्जित पैसों से स्त्री को साज-सिंगार की थोड़ी-बहुत छूट भले ही दे दे,गृहस्थी चलाने की छूट भले ही दे दे(ये दोनों बातें अंततः उसके हित में ही जाते हैं) लेकिन इसके बीच से अपनी दशा सुधारने का किसी भी रुप में समर्थन नहीं करता। शायद आपको इस बात का अंदाजा नहीं कि जब अपने यहां स्त्री-मुक्ति का एक सिरा आर्थिक निर्भरता के तौर पर खोजा जाने लगा तो कुछ मामलों पर तो ये फार्मूला फिट हो गया लेकिन बहुत जल्दी औऱ ज्यादातर मामलों में स्त्रियों पर दोहरी जिम्मेदारी,लांछन और अर्जित धन पर उसके बेदखल होते रहने के मामले बने। कभी आप इसकी वजहों पर गौर करेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि आप ही की तरह के लोग स्त्री-मुक्ति के सवाल को देवी जैसी भावुकतावादी अवधारणा की ओर धकेलने के हिमायती रहे हैं और व्यवहार के स्तर पर दासी से भी बदतर व्यवहार करने के अभ्यस्त रहे हैं।कहना सिर्फ इतना है कि एक स्त्री को चाहे देवी के आसन पर बिठाया जाए,चाहे जलती हुयी सिगरेट उसके शरीर में घुसेड दिए जाएं,इसमें बहुत अंतर नहीं है,दोनों ही स्त्री को कमजोर करने की साजिश और हरकतें हैं इसलिए आप जैसे लोगों से इतनी भर अपील है कि स्त्री-मुक्ति औऱ बेहतरगी के लिए आरती उतारने के बजाए मानव अधिकारों औऱ संभव हो संविधान के पन्ने पलटने शुरु कर दें क्योंकि बिना इसके भय के आप सोशल इंजीनियरिंग के तहत,बहस और विमर्शों के हवाले से स्त्री-मुक्ति की बात समझने से रहें। उसके बाद आप गीताश्री से बहस करें तब आपकी बातों को मानने,न मानने की गुंजाइश पैदा होगी।
विनीत कुमार
स्त्री-मुक्ति को लेकर गीताश्री जो भी कह रही हैं,उसे आप उनकी व्यक्तिगत झुंझलाहट और विचार समझ रहे हैं,ये अकेला वाक्य आपके बौद्धिक दायरे को साबित करने के लिए काफी है। गीताश्री क्या देश और दुनिया की कोई भी स्त्री,स्त्री-मुक्ति के स्वर को मजबूत करनेवाला कोई भी पुरुष वही सोचगा,कहेगा जो कि गीताश्री कह रही हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि स्त्रियों को लेकर होनेवाली बहसों को आप बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे हैं। दूसरा कि मनु(आपके हिसाब से भगवान मनु)के श्लोकों का जो हवाला दे रहे हैं,क्या एक स्त्री की दशा को देखने-समझने विश्लेषित करने औऱ उससे बेहतर होने की सारी विचारणा मनुस्मृति से ही ली जाएगी। क्या इसके आगे मुक्ति की कोई भी खिड़की नहीं खुलती? आप इस मसले पर थोड़ी कोशिश तो कीजिए,आपको अंदाजा लग जाएगा कि मनुस्मृति का क्या स्वर है,वो स्त्रियों को शामिल करते हुए भी किस तरह का समाज चाहते हैं?यत्र नारी पूज्यन्ते का हवाला दिया,व्यक्तिगत स्तर पर मुझे इस बात का रत्तीभर भी भरोसा नहीं है,इसके कई कारण हैं,इसके विस्तार में न भी जाउं तो सिर्फ दो बातें कहना चाहूंगा। एक तो ये हम स्त्री को देवी के रुप में देखने औऱ साबित करने में इतने उतावले नजर क्यों आते हैं? पुरुष इच्छा पर स्त्री को देवी या तो फिर दासी ये दो किस्म का ही दर्जा क्यों देते हैं? आप एक स्त्री पर घर के बरामदे में हुक्म जमाते हैं,रसोई में उसके हाथ जलने की परवाह किए 365 दिन करारी रोटी की डिमांड करते हैं,दिनभर की थकी-हारी होने पर भी रात गहराते ही उसके शरीर से अपने भीतर की कामेच्छा को शांत करते हैं। जब आप एक स्त्री के साथ ये सब कुछ करते हैं तो क्या आप उस स्त्री को देवी के तौर पर मानकर ऐसा कर रहे होते हैं? क्या आपका धार्मिक कठमुल्लापन इस बात की इजाजत देता है कि आप स्त्री को देवी मानते हुए उसके साथ संभोग करें। अच्छा,आप किसी दासी के साथ शारीरिक संबंध बनाने,चकरी की तरह अपने आगे-पीछे घुमाने में यकीन रखते हैं। मुझे नहीं लगता कि इन दोनों स्थितियों में ऐसा करना चाहेंगे। मेरा कहना सिर्फ इतना भर है कि जब आफ अपने जीवन में देवी और दासी से हटकर,हांड-मांस की स्त्री के साथ संभोग करने से लेकर संवेदना,भावुकता,सामाजिक लोकाचार औऱ भी दुनियाभर की चीजों के स्तर पर जुड़ते हैं तो उस स्त्री को लेकर बात करने का स्पेस आफ क्यों खत्म करना चाहते हैं। नागरिक समाज में एक स्त्री नागरिक की हैसियत से जीती है औऱ उसको अधिकार है कि वो अपने उपर होनेवाले अत्याचारों,शोषण,भेदभाव और उत्पीड़न से जुड़ी बातों को हमारे सामने रखे। यहां ये साफ कर दूं कि हर स्त्री के साथ पुरुषों द्वारा शोषण और भेदभाव का स्तर वही नहीं होता जिसे आप अपका महान ग्रंथ या तो समझ नहीं पाता या फिर जो अखबारी बयान के अन्तर्गत नहीं आता। इसमें कई बारीकियां हैं,कई महीन विभाजन है।आप हमें मनु की इकॉनमी समझा रहे हैं। मन की तो बात छोड़ दीजिए और पुरुषों के कमाए धन को स्त्री की झोली में लाकर डाल देने की बात भी मत कीजिए। आप हमें सिर्फ इतना भर बता दीजिए कि इतना सबकुछ होने के वाबजूद भी क्या स्त्री अपनी इच्छा से,अपनी सुविधा और जरुरत के हिसाब से अपनी ही हड्डी बजाकर कमाए गए पैसों को खर्च करने के लिए आजाद है। सच्चाई तो यही है कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों द्वारा अर्जित पैसों से स्त्री को साज-सिंगार की थोड़ी-बहुत छूट भले ही दे दे,गृहस्थी चलाने की छूट भले ही दे दे(ये दोनों बातें अंततः उसके हित में ही जाते हैं) लेकिन इसके बीच से अपनी दशा सुधारने का किसी भी रुप में समर्थन नहीं करता। शायद आपको इस बात का अंदाजा नहीं कि जब अपने यहां स्त्री-मुक्ति का एक सिरा आर्थिक निर्भरता के तौर पर खोजा जाने लगा तो कुछ मामलों पर तो ये फार्मूला फिट हो गया लेकिन बहुत जल्दी औऱ ज्यादातर मामलों में स्त्रियों पर दोहरी जिम्मेदारी,लांछन और अर्जित धन पर उसके बेदखल होते रहने के मामले बने। कभी आप इसकी वजहों पर गौर करेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि आप ही की तरह के लोग स्त्री-मुक्ति के सवाल को देवी जैसी भावुकतावादी अवधारणा की ओर धकेलने के हिमायती रहे हैं और व्यवहार के स्तर पर दासी से भी बदतर व्यवहार करने के अभ्यस्त रहे हैं।कहना सिर्फ इतना है कि एक स्त्री को चाहे देवी के आसन पर बिठाया जाए,चाहे जलती हुयी सिगरेट उसके शरीर में घुसेड दिए जाएं,इसमें बहुत अंतर नहीं है,दोनों ही स्त्री को कमजोर करने की साजिश और हरकतें हैं इसलिए आप जैसे लोगों से इतनी भर अपील है कि स्त्री-मुक्ति औऱ बेहतरगी के लिए आरती उतारने के बजाए मानव अधिकारों औऱ संभव हो संविधान के पन्ने पलटने शुरु कर दें क्योंकि बिना इसके भय के आप सोशल इंजीनियरिंग के तहत,बहस और विमर्शों के हवाले से स्त्री-मुक्ति की बात समझने से रहें। उसके बाद आप गीताश्री से बहस करें तब आपकी बातों को मानने,न मानने की गुंजाइश पैदा होगी।
विनीत कुमार
September 23, 2009 at 1:54 AM
apki baat bahut sahii hai .. aurat ko manusmriti se baahar aakar apani niji zameen per apane pair jamane dijiye jahan se usaki apani soch shuru hoti hai ..
September 23, 2009 at 4:08 AM
विनीत जी को साधुवाद .........अब तो शायद प्रवीण जी को समझ में आ गया होगा.
September 30, 2009 at 9:18 AM
आपकी प्रशंसा इसलिए कर रहा हूँ कि आपने कुछ कह जाने का भरसक प्रयत्न किया. वो बात अलग है कि कुछ कह नही पाए.
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