Posted By Geetashree On 4:01 AM Under , , ,

 

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"क्या बाज़ार साहित्य का मूल्य तय कर सकता है? क्या बिक्री के आँकड़े साहित्य की श्रेष्ठता के मूल्यांकन के लिए कसौटी बन सकते हैं?"

 

बाज़ार साहित्य पर हावी है, कंटेंट से लेकर बिक्री तक. बाज़ार मूल्य अलग तरह से तय कर रहा है. एक जमात है जो बाज़ार को दिमाग में रख कर लिख रही है. उसका लक्ष्य किताब बेचना और पाठक बनाना है. उसे साहित्य की शुचिता या आग्रहों से कोई मतलब नहीं. वह पूरी तरह मुक्त है और मुक्ति की घोषणा कर चुकी है कि हमें साहित्य की श्रेणी में नहीं रखना तो मत रखो. हम आपके लिए लिख नहीं रहे. हम पाठकों के लिए लिख रहे. यानी टारगेटेडट ऑडियेंस के लिए लिख रहे. पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए लिख रहे. उन्हें ज़माने की नब्ज पता है कि नयी पीढी क्या पढ़ना चाहती है. भाषा से लेकर कंटेंट तक ख़ूब खिलवाड़ हुए हैं. पिछले कुछ सालों में स्वाद बदल गया है. सारे मानदंड टूट गए हैं. सब अपने हिसाब से, सुविधा से नये मूल्य गढ़ रहे हैं. ज़ाहिर है, नये मूल्य गढ़ते समय हम अपने समय का ध्यान रखते हैं. किताब की बिक्री का ध्यान रखते हैं. लेखकों पर दबाव रहता है कि किताब को कौन पढ़ेगा, क्यों पढ़ेगा? कैसा स्वागत होगा? बेस्ट सेलर बनेगी या नहीं.

क्योंकि बेस्ट सेलर होना साहित्य में सेलिब्रिटी होना है.

बेस्ट सेलर की अवधारणा बाज़ार की देन है. किताबें कब नहीं बिकी? पुराने लेखकों की किताबें आज भी ख़ूब बिकती हैं. पुस्तक मेले में जाकर देखे कोई कि बुक स्टॉल पर सबसे ज़्यादा किनकी किताब बिकती है? पुराने लेखक आज भी प्रासंगिक है, कंटेंट के लिहाज़ से भी और बिक्री के आधार पर भी. उनकी माँग कभी कम न हुई. मगर वे किसी प्रोपगेंडा का हिस्सा नहीं हैं. वे नहीं बोलते, उनकी किताबें बोलती हैं. बोलती रहेंगी. उनके मूल्य भी उनके तय किए हुए थे. तब उनके समक्ष बाज़ार नहीं, शुद्ध पाठक और अपना समाज था.

आज बाज़ार है और भिन्न रुचियों और व्यवसाय वाला पाठक है.

अधिक बिक्री कभी साहित्य की कसौटी नहीं हो सकती. बाज़ार तय नहीं कर सकता कि श्रेष्ठ साहित्य क्या है, बस यही काम बाज़ार नहीं कर सकता. बाज़ार तात्कालिक मोल दे सकता है, कालजयी होने का भाव नहीं.

इतना तो सबको पता है साहित्य में वक़्त से बड़ी कसौटी कोई नहीं और पाठक से बढ कर कोई ईश्वर नहीं.

यह ईश्वर नष्ट होने वाली प्रजाति है. इसकी अपनी समझ और विवेक की सीमाएँ हैं. जरुरी नहीं कि लेखक के स्तर के पाठक भी हो. हम उस अदृश्य प्रजाति पर दांव खेलते हैं जिस पर इतना भरोसा नहीं कि वह लेखक से ज़्यादा पढ़ा लिखा होगा. लेखक संवेदना के जिस धरातल पर खड़ा होकर लिख रहा है, पाठक की संवेदना उससे मिलती हो, उसके समानांतर हो. कम न हो.

मौजूदा समय में साहित्य को लेकर फ़ास्ट फ़ूड वाली प्रवृति दिखाई देती है. अख़बार की तरह बाँच कर किसी बेंच पर छोड़ कर चल देने की लापरवाही.

झटपट ...झट और पट !

किताबें झट से आती हैं पट से बिला जाती हैं.

जो दिमाग में अटक जाती है जिसे पीढ़ियाँ दोहराती हैं, सुनाती है वो है - सामाजिक मूल्यों और मानवीयता के पक्ष में खड़ी कृतियाँ. जिसमें प्रवेश करते की पाठक पनाह और विश्राम पा जाए.

जहाँ वह घबरा कर बार -बार घुसना चाहे.

एक उदाहरण देकर समझाना चाहूँगी कि बेस्ट सेलर किताबें किसी मशहूर डिज़ाइनर की उस डिज़ाइन की तरह होती है जिसे प्रेट लाइनबोलते हैं, यानी एक डिज़ाइन की लाखों कॉपी, वह बेस्ट सेलर होती है. कभी डिज़ाइन की वजह से तो कभी नाम की वजह से. श्रेष्ठ साहित्य सव्यसाची के लहंगे की तरह है जिसका एक पीस ही तैयार होता है.

बाज़ार इसे भौंचक्का होकर देखता है, सराहता है, तरसता है, मूल्य नहीं लगा सकता.

बेस्ट सेलर उसी प्रेट लाइन डिज़ाइन की तरह है... बिकाऊ किताबें जो प्रकाशक और लेखक दोनों की जेब भर देती है.

समय के साथ फ़ैशन और जरुरत समाप्त !

बाज़ार बहुत ख़राब चीज़ नहीं मगर उसे किसी पुण्य की तरह चाहना ख़राब है. वो हावी होगा तो आप अपने साथ छल करेंगे. अपनी नहीं सुनते जो वे बाज़ार की आवाज़ें सुनते हैं. सुरीली पार्श्व गायकी के वाबजूद  कोरस के गायकों की पहचान कितनी स्थायी !!

बाज़ार यहाँ विफल है. उसकी अपनी सीमाएँ हैं. हैसियत है. वह निर्जीव चीजों पर प्राइस टैग लगा सकता है, उसे अमर नहीं कर सकता.

बेचना कसौटी नहीं है. कसौटी है समय ! उस पर छोड़ देना चाहिए.