एक लंबी चुप्पी के बाद.....

Posted By Geetashree On 3:40 AM Under , , ,

दोस्तो

मैं एक बार फिर से हाजिर हूं...लंबी चुप्पी के बाद। मैंने पिछले दिनों अपने शोधकार्य के सिलसिले में खूब यात्राएं की..
वन वन भटकी..देश विदेश चक्कर काट आई..अब थिर हो गई हूं...अब लिखने का काम शुरु...इन दिनों कविताएं, कहानियां..रचनात्मक लेखन का जुनून सा है...दोबारा ब्लाग से जुड़ रही हूं...सो सोचा..पहले आपको एक अनगढ कविता पढवाऊं..अनछपी..यात्रा के दौरान लिखी गई..किसी एकांत में..गीताश्री

तुम अपनी देह पहले अनुपस्थित करो यहां से,
मैं उठूंगी यहां से और मन के उस सिरे से उस सिरे तक जाऊंगी
तुम्हारी दुर्दम्य आकांक्षाओं को तुमसे बेदखल करके
उतर जाऊंगी उस पार

मैं जाऊंगी तुम्हारी अनुपस्थित देह के पास
जो धरी है किसी विस्तर पर
खाली चादर सी
धुली धुली खुली खुली.

तुम जब भी आओ मेरे पास
अपनी देह को इसी तरह वहीं कहीं छोड़ आया करो,
कि मुझे नहीं मालूम कि प्रेम में देह का दाखिल होना
कितना रौनक है कितना विराना
प्रेम है तो उत्सव-स्वांग है तो विराना...तुम उठते हो, इतना कहते हो
और अपनी देह को थामे दोनों हाथों से
प्रस्थान बिंदु के पास जाकर धर आते हो.
प्रवीण पाण्डेय
February 17, 2012 at 7:21 AM

पुनः स्वागत है, आपका लिखा पढ़ने का सुख मिलता रहे।

Anita Maurya
February 18, 2012 at 4:37 AM

Geeta ji.. kaphi dino se padh rahi hu aapko.. now m a big fan of urs.. lots of wishes..

Atul Shrivastava
February 18, 2012 at 8:53 AM

गहरे भाव।
गहरी अभिव्‍यक्ति।
बेहतरीन प्रस्‍तुतिकरण।

राजीव तनेजा
February 18, 2012 at 6:55 PM

स्वागत है पुन: आपका एक लम्बीSsss चुप्पी के बाद...
कविता की मुझे ज्यादा समझ नहीं है लेकिन फिर भी आपकी रचना गूढ़ अर्थों से भरी एवं परिपूर्ण लगी..

सु-मन (Suman Kapoor)
February 20, 2012 at 10:00 AM

बहुत सुन्दर .....

Udan Tashtari
February 26, 2012 at 5:17 AM

शुक्र है ये वो आये तो...गहरी कविता!!

प्रीतेश गुप्ता #प्रीतवाणी
January 3, 2014 at 2:48 AM

वाकई श्रृंगार की अद्भुत और मुखर अभिव्यक्ति है...किसी खामोश सहरा में अचानक तूफानी बारिश की तरह...


प्रीतेश गुप्ता #प्रीतवाणी
January 3, 2014 at 2:56 AM

वाकई श्रृंगार की अद्भुत एवं मुखर अभिव्यक्ति है... जैसे किसी खामोश सहरा में अचानक कोई तूफानी बारिश से प्रेम का संचार हुआ हो...

आपकी कृति पढ़कर... बड़े भाई गीतकार वैभव 'वंदन' की कुछ पंक्तियां याद आ रही है...

चांद-सूरज-सितारे गगन के लिए,
एक कांटा बहुत है चुभन के लिए...

मन अगर हो चमन तो सुमन भी खिले,
तन जरूरी नहीं है छुअन के लिए...-2

दूरियां अपने कोई सनम ना रहे,
कोई गम ना रहे, कोई भ्रम ना रहे।

एक हो जाएं गंगा-जमन की तरह,
तुम भी तुम ना रहो, हम भी हम ना रहें।।

रास्ता है कठिन, हमसफ़र चाहिए,
तुम ही तुम बस दिखो, वो नजर चाहिए...

मैं रहूं तुम रहो और कोई न हो-2
इस ज़मी पर मुझे ऐसा घर चाहिए...