वे सचमुच खुश हैं, आजाद है और बिंदास है...
गीताश्री
हमारे लिए ये चौंका देने वाली खबर थी। भूटान के 30 वर्षीय वत्तर्मान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक कुंवारी मां के बेटे थे। उनके पिता ने बाद में उनकी मां से शादी की। वतर्मान राजा दूसरी रानी के बेटे है जो बड़ी रानी कीही छोटी बहन हैं। बाद में राजा ने दो और शादी की। ये चारो सगी बहने हैं और साथ रहती है। राजा को इन सबसे प्यार हो गया था, संबंध कायम हो गए थे, लिहाजा बड़ी रानी ने इनसे शादी की इजाजत दे दी। इस मुद्दे पर राजा को जनता ने सवालो से घेर लिया था। राजा कहीं पब्लिक मीटिंग को संबोधित कर रहे थे। एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ। उसने पूछा-आप राजा हैं, आपने तीन शादी क्यो की. राजा ने सीधा उतर नहीं दिया। कहां—आप निशचिंत रहिए, आपका अगला राजा एक ही शादी करेगा।
ये अवांतर प्रसंग हो सकता है लेकिन यहां इसका जिक्र करना इसलिए जरुरी है कि भूटानी समाज में कुंवारी मां का बेटा राजा बन जाता है और कोई हाय तौब्बा नहीं मचती। सालो बाद एक सवाल उठता है और राजा के आश्वासन पर खत्म हो जाता है। भारतीय समाज में आप स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते। यहां सब उल्टा होता। यहां तो औरत की मर्जी के बिना कई शादियां रचा डालते हैं लोग। बिना औरत की इजाजत के भूटानी पुरुष दूसरी शादी नहीं कर सकता। हिमालय की सुंदर वादियो में बसे इस थंडर ड्रैगन के देश में औरतो की आजादी के बारे में आप कल्पना भी नहीं कर सकते। भूटान की राजधानी थिंपू में घूमते हुए अचानक मंजरी पूछती है, .यार यहां एक भी जोड़ा नहीं दिखा जो सड़को पर चोंच लड़ा रहे हों। ये एक खुले समाज की देन है। बंद समाजो में पाबंदियो की खुलेआम कैसे धज्जियां उड़ाई जाती हैं इसका साक्ष्य प्रस्तुत करने की जरुरत नहीं है। यहां लड़कियो पर कोई पहरा ही नहीं है, रोक टोक नहीं है तो क्यो सड़को या पार्को में अपनी दमित इच्छाओं का प्रकटीकरण करें।
यहां के चहलपहल भरे बाजार के एक दूकान में खरीदारी करते हुए जो नजारा दिखा उसे हमने नोटिस किया। काउंटर पर बैठी सुंदर सी स्त्री अपने बच्चे को स्तनपान करा रही है। ग्राहक आ-जा रहे हैं, पैसे ले- दे रही है,बच्चा वैसे ही दूध पीए जारहा है। स्त्री को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कहां और किस हाल में बैठी है। किसी और समाज में यह दृश्य मनोरंजन या हास्य का सबब बन जाता। यहां ये आम है। वर्जनारहित समाजो में एसा खुलापन सहज स्वीकार्य है। अच्छा हुआ कि भूटान कभी किसी साम्राज्य का उपनिवेश नहीं रहा। नहीं तो गुलामी का पाठ जरुर पढा होता। इसीलिए वहां स्त्रियों को घरेलु दासता और पुरुष स्वामित्व को स्वीकारने के लिए उनके दिमाग की कंडीशनिंग नहीं हुई है।
भूटान की स्त्रियों की हर किस्म की आजादी कई स्त्री विरोधी अवधारणाओं की खिल्ली उड़ाती है। फ्रंसीसी दार्शनिक ओमस्तु कोंत का कथन है---स्त्री समुदाय की असमानता पर्ण सामाजिक स्थिति का मूल कारण नारी शरीर की प्राकृतिक दुर्बलता में निहित है। स्त्रियां स्वाभाविक एवं प्राकृतिक तौर पर पारिवारिक जिम्मेदारियों, प्रजनन, शिशुपालन आदि के लिए ही बनी होती हैं। और वे कभी भी सामाजिक तौर पर पुरुषो के समकक्ष नहीं हो सकती। भूटानी स्त्रियों की आजादी देखिए और इस कथन की सत्यता को परखिए, मजा आ जाएगा। उनकी जीवन शैली इसका घोर विरोध करती है।
भारतीय समाज को जानने वाला भूटान में हमारा गाइड फूंगशू बताता है, हमारी औरतें भावनात्मक और आर्थिक दोनो रुप से बेहद मजबूत हैं। उन्हें बराबरी के लिए लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती। वे जब चाहे पति बदल सकती हैं। चाहे जितनी शादी कर सकती हैं। कुंवारी मां बन सकती हैं, समाज का रवैया उदार रहता है। ताने उलाहने या खाप पंचायत जैसी कोई चीज नहीं होती हमारे यहां। हम महिलाओं को समानाधिकारों की कोई लड़ाई नहीं लडऩी। हमें इसकी दरकार नहीं। हमारे पास राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समानाधिकार पहले ही सुरक्षित हैं। 1981 में भूटान सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महिला संगठन के उदघाटन भाषण में कहे गए ये शब्द तीसरी दुनिया के देशों में रहने वाली
महिलाओं को आवाक कर देने वाले हैं। समान अधिकारों की ये गौरवशाली घोषणा
दरअसल इसलिए भी चौंका देने वाली है क्योंकि तकरीबन 6 लाख, 92 हजार की
आबादी वाले इस छोटे पर खूबसूरत देश की सीमाओं से लगे अपेक्षाकृत विशालकाय
देशों भारत, चीन, नेपाल और बांगलादेश में रहने वाली महिलाएं एक लंबे समय
से अपने-अपने समाजों में समानाधिकारों के लिए जंग छेड़े हुए हैं।
ये अवांतर प्रसंग हो सकता है लेकिन यहां इसका जिक्र करना इसलिए जरुरी है कि भूटानी समाज में कुंवारी मां का बेटा राजा बन जाता है और कोई हाय तौब्बा नहीं मचती। सालो बाद एक सवाल उठता है और राजा के आश्वासन पर खत्म हो जाता है। भारतीय समाज में आप स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते। यहां सब उल्टा होता। यहां तो औरत की मर्जी के बिना कई शादियां रचा डालते हैं लोग। बिना औरत की इजाजत के भूटानी पुरुष दूसरी शादी नहीं कर सकता। हिमालय की सुंदर वादियो में बसे इस थंडर ड्रैगन के देश में औरतो की आजादी के बारे में आप कल्पना भी नहीं कर सकते। भूटान की राजधानी थिंपू में घूमते हुए अचानक मंजरी पूछती है, .यार यहां एक भी जोड़ा नहीं दिखा जो सड़को पर चोंच लड़ा रहे हों। ये एक खुले समाज की देन है। बंद समाजो में पाबंदियो की खुलेआम कैसे धज्जियां उड़ाई जाती हैं इसका साक्ष्य प्रस्तुत करने की जरुरत नहीं है। यहां लड़कियो पर कोई पहरा ही नहीं है, रोक टोक नहीं है तो क्यो सड़को या पार्को में अपनी दमित इच्छाओं का प्रकटीकरण करें।
यहां के चहलपहल भरे बाजार के एक दूकान में खरीदारी करते हुए जो नजारा दिखा उसे हमने नोटिस किया। काउंटर पर बैठी सुंदर सी स्त्री अपने बच्चे को स्तनपान करा रही है। ग्राहक आ-जा रहे हैं, पैसे ले- दे रही है,बच्चा वैसे ही दूध पीए जारहा है। स्त्री को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कहां और किस हाल में बैठी है। किसी और समाज में यह दृश्य मनोरंजन या हास्य का सबब बन जाता। यहां ये आम है। वर्जनारहित समाजो में एसा खुलापन सहज स्वीकार्य है। अच्छा हुआ कि भूटान कभी किसी साम्राज्य का उपनिवेश नहीं रहा। नहीं तो गुलामी का पाठ जरुर पढा होता। इसीलिए वहां स्त्रियों को घरेलु दासता और पुरुष स्वामित्व को स्वीकारने के लिए उनके दिमाग की कंडीशनिंग नहीं हुई है।
भूटान की स्त्रियों की हर किस्म की आजादी कई स्त्री विरोधी अवधारणाओं की खिल्ली उड़ाती है। फ्रंसीसी दार्शनिक ओमस्तु कोंत का कथन है---स्त्री समुदाय की असमानता पर्ण सामाजिक स्थिति का मूल कारण नारी शरीर की प्राकृतिक दुर्बलता में निहित है। स्त्रियां स्वाभाविक एवं प्राकृतिक तौर पर पारिवारिक जिम्मेदारियों, प्रजनन, शिशुपालन आदि के लिए ही बनी होती हैं। और वे कभी भी सामाजिक तौर पर पुरुषो के समकक्ष नहीं हो सकती। भूटानी स्त्रियों की आजादी देखिए और इस कथन की सत्यता को परखिए, मजा आ जाएगा। उनकी जीवन शैली इसका घोर विरोध करती है।
भारतीय समाज को जानने वाला भूटान में हमारा गाइड फूंगशू बताता है, हमारी औरतें भावनात्मक और आर्थिक दोनो रुप से बेहद मजबूत हैं। उन्हें बराबरी के लिए लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती। वे जब चाहे पति बदल सकती हैं। चाहे जितनी शादी कर सकती हैं। कुंवारी मां बन सकती हैं, समाज का रवैया उदार रहता है। ताने उलाहने या खाप पंचायत जैसी कोई चीज नहीं होती हमारे यहां। हम महिलाओं को समानाधिकारों की कोई लड़ाई नहीं लडऩी। हमें इसकी दरकार नहीं। हमारे पास राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समानाधिकार पहले ही सुरक्षित हैं। 1981 में भूटान सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महिला संगठन के उदघाटन भाषण में कहे गए ये शब्द तीसरी दुनिया के देशों में रहने वाली
महिलाओं को आवाक कर देने वाले हैं। समान अधिकारों की ये गौरवशाली घोषणा
दरअसल इसलिए भी चौंका देने वाली है क्योंकि तकरीबन 6 लाख, 92 हजार की
आबादी वाले इस छोटे पर खूबसूरत देश की सीमाओं से लगे अपेक्षाकृत विशालकाय
देशों भारत, चीन, नेपाल और बांगलादेश में रहने वाली महिलाएं एक लंबे समय
से अपने-अपने समाजों में समानाधिकारों के लिए जंग छेड़े हुए हैं।
दरअसल, राजतंत्र व्यवस्था के बावजूद भूटान ने सन 1950 के आसपास अपने आपको
आधुनिक दुनिया के समक्ष धीरे-धीरे परतों में खोलना शुरु किया, आखिरकार
एक ऐसा देश दुनिया के सामने आया कि जिसके पास प्राकृतिक वरदान भी है।
महिलाओं की मुस्कान भी है, परपंराओं का गौरव भी है और आकांक्षाओं का आकाश
भी। विश्व को सकल राष्ट्रीय खुशी(ग्रास नेशनल हैप्पीनेस) का फॉर्मूला देने वाले इस देश में एशिया के
किसी भी अन्य देश की तुलना में महिलाओं के चेहरे खिलखिलाते और स्वाभिमान
से दमकते दिखाई देते हैं। यह एक विरोधाभास ही है कि दुनिया के लिए कोई 50
साल पहले ही आपने दरवाजे खोलने वाले इस देश की करीब एक तिहाई जनसंख्या
अभी भी गरीबी रेखा से नीचे है। मातृत्व मृत्युदर उच्च है, शहरों में घर
और बाहर के कामों की जिम्मेदारियां निभाने वाली 16-17 साल से ऊपर की उम्र
की लड़कियां ही हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, पारिवारिक स्थिरता कमतर
होती दिखाई देती है। पर यहां अगर आप महिलाओं से मिलें तो आपको शिकायतें
सुनने को नहीं मिलेंगी। इनके चेहरों पर खिली मुस्कान ही शायद ‘सकल
राष्ट्रीय खुशी’ है।
थिंपू के एक होटल में कार्यरत एमी की मानें तो ‘यहां महिलाओं को अपनी
जिंदगी खुद चुनने की आजादी है।’ अपने हर फैसले का एकाधिकार उनके पास है।
वो चाहें तो एक से अधिक पुरुषों से विवाह रचा सकती हैं या फिर, अपनी शादी
तोड़ सकती हैं। इतना ही नहीं, पुरुष भी अगर चाहे तो एक ही समय में एक से
अधिक बीवियां रख सकता है पर उसमें पहली बीवी की रजामंदी आवश्यक है।
थिंपू में ही पर्यटन उद्योग से जुड़ी मिंक बताती है कि पारंपरिक समाज
होने के कारण यहां महिलाओं को एड़ी तक के वस्त्र पहनना अनिवार्य है, पर
साथ ही इतना खुलापन भी है कि कोई भी महिला अपने बच्चे को सरेबाजार
स्तनपान करा सकती है। एक बात जो यहां देखने योग्य है वो है महिलाओं का
आत्मविश्वास और भूटानी समाज का महिलाओं के श्रम, अस्तित्व, फैसलों और
शरीरिक सामर्थ पर विश्वास। किसी भी अन्य एशियाई देशों से दीगर यहां पुरुष
और स्त्री दोनों ही समान श्रम करते दिखाई देते हैं। मतलब साफ है कि यहां
लड़कियों और महिलाओं पर नाजुक होने का ठप्पा नदारद है।
भारतीय राज्य मेघालय की ही तरह यहां मातृसत्तात्मक समाज है जहां संपत्ति पर वैसे तो पुरुषों और
महिला का समान अधिकार है पर जमीन पर महिला अधिपत्य अब भी कायम है।
दरअसल, भूटान ही समस्त दक्षिण एशिया का वो एक मात्र देश है जिसने राष्ट्र संघ की योजना और लिंग भेद समापन संबंधी अनुमोदित सुझावों का बिना किसी झिझक के कार्यान्वयन किया है। शायद यही कारण है कि यहां परिवारों में पुत्र रत्न को प्राप्त करने की जुनूनी चाह दिखाई नहीं
देती। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, लड़कियों को जलाया जाना, संगठित महिला देह बाजार जैसा कुछ भी आपकी आंखों या कानों से यहां नहीं गुजरेगा। लड़कियां अपनी मनमर्जी से अपनी पसंद से अपना हमराह चुनती हैं।
सिर्फ एक बात है जो भूटान भ्रमण के दौरान बार-बार अखरती है, वो है महिला
साक्षरता की कमी। थिंपू में ही शिक्षिका के तौर पर कार्यरत तोशी दोरजी की
मानें तो यहां लडक़ों को मोंटेसटी में शिक्षा दी जाती रही पर महिलाओं के
लिए शिक्षा के रास्ते सन 1950 के बाद खुले। अब भूटान में महिला साक्षरता
38 प्रतिशत के आसपास पहुंच चुकी है जबकि पुरुषों की साक्षरता दर इससे
लगभग दोगुनी है। इसका एक कारण यह भी है कि पुरातन पीढिय़ों ने अपनी
लड़कियों को विद्यालय भेजने की बजाए कृषि कार्य सिखवाना अधिक महत्वपूर्ण
समझा ताकि वो आर्थिक रूप से समर्थ बन पाएं। शायद यही कारण है कि यहां
पुरानी पीढ़ी की महिलाओं में डॉक्टर , इंजीनियर, शिक्षक, समाजशास्त्री
महिलाओं की संख्या न्यूनतम है।
युनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम रिपोर्ट की मानें तो सन 2006 में
नेशनल असेंबली में महिलाओं की सहभागिता तीन प्रतिशत थी, न्यायपालिका में
6 प्रतिशत और राजकीय सेवा में 28 प्रतिशत के आसपास है। 1960 में विश्व के
लिए अपने दरवाजे खोलने वाले इस देश में नि:संदेह महिलाओं में साक्षरता
बढऩे के साथ-साथ प्रशासनिक और राजनीतिक सहभागिता दिन पर दिन बढ़ रही है।
आधुनिक दुनिया के समक्ष धीरे-धीरे परतों में खोलना शुरु किया, आखिरकार
एक ऐसा देश दुनिया के सामने आया कि जिसके पास प्राकृतिक वरदान भी है।
महिलाओं की मुस्कान भी है, परपंराओं का गौरव भी है और आकांक्षाओं का आकाश
भी। विश्व को सकल राष्ट्रीय खुशी(ग्रास नेशनल हैप्पीनेस) का फॉर्मूला देने वाले इस देश में एशिया के
किसी भी अन्य देश की तुलना में महिलाओं के चेहरे खिलखिलाते और स्वाभिमान
से दमकते दिखाई देते हैं। यह एक विरोधाभास ही है कि दुनिया के लिए कोई 50
साल पहले ही आपने दरवाजे खोलने वाले इस देश की करीब एक तिहाई जनसंख्या
अभी भी गरीबी रेखा से नीचे है। मातृत्व मृत्युदर उच्च है, शहरों में घर
और बाहर के कामों की जिम्मेदारियां निभाने वाली 16-17 साल से ऊपर की उम्र
की लड़कियां ही हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, पारिवारिक स्थिरता कमतर
होती दिखाई देती है। पर यहां अगर आप महिलाओं से मिलें तो आपको शिकायतें
सुनने को नहीं मिलेंगी। इनके चेहरों पर खिली मुस्कान ही शायद ‘सकल
राष्ट्रीय खुशी’ है।
थिंपू के एक होटल में कार्यरत एमी की मानें तो ‘यहां महिलाओं को अपनी
जिंदगी खुद चुनने की आजादी है।’ अपने हर फैसले का एकाधिकार उनके पास है।
वो चाहें तो एक से अधिक पुरुषों से विवाह रचा सकती हैं या फिर, अपनी शादी
तोड़ सकती हैं। इतना ही नहीं, पुरुष भी अगर चाहे तो एक ही समय में एक से
अधिक बीवियां रख सकता है पर उसमें पहली बीवी की रजामंदी आवश्यक है।
थिंपू में ही पर्यटन उद्योग से जुड़ी मिंक बताती है कि पारंपरिक समाज
होने के कारण यहां महिलाओं को एड़ी तक के वस्त्र पहनना अनिवार्य है, पर
साथ ही इतना खुलापन भी है कि कोई भी महिला अपने बच्चे को सरेबाजार
स्तनपान करा सकती है। एक बात जो यहां देखने योग्य है वो है महिलाओं का
आत्मविश्वास और भूटानी समाज का महिलाओं के श्रम, अस्तित्व, फैसलों और
शरीरिक सामर्थ पर विश्वास। किसी भी अन्य एशियाई देशों से दीगर यहां पुरुष
और स्त्री दोनों ही समान श्रम करते दिखाई देते हैं। मतलब साफ है कि यहां
लड़कियों और महिलाओं पर नाजुक होने का ठप्पा नदारद है।
भारतीय राज्य मेघालय की ही तरह यहां मातृसत्तात्मक समाज है जहां संपत्ति पर वैसे तो पुरुषों और
महिला का समान अधिकार है पर जमीन पर महिला अधिपत्य अब भी कायम है।
दरअसल, भूटान ही समस्त दक्षिण एशिया का वो एक मात्र देश है जिसने राष्ट्र संघ की योजना और लिंग भेद समापन संबंधी अनुमोदित सुझावों का बिना किसी झिझक के कार्यान्वयन किया है। शायद यही कारण है कि यहां परिवारों में पुत्र रत्न को प्राप्त करने की जुनूनी चाह दिखाई नहीं
देती। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, लड़कियों को जलाया जाना, संगठित महिला देह बाजार जैसा कुछ भी आपकी आंखों या कानों से यहां नहीं गुजरेगा। लड़कियां अपनी मनमर्जी से अपनी पसंद से अपना हमराह चुनती हैं।
सिर्फ एक बात है जो भूटान भ्रमण के दौरान बार-बार अखरती है, वो है महिला
साक्षरता की कमी। थिंपू में ही शिक्षिका के तौर पर कार्यरत तोशी दोरजी की
मानें तो यहां लडक़ों को मोंटेसटी में शिक्षा दी जाती रही पर महिलाओं के
लिए शिक्षा के रास्ते सन 1950 के बाद खुले। अब भूटान में महिला साक्षरता
38 प्रतिशत के आसपास पहुंच चुकी है जबकि पुरुषों की साक्षरता दर इससे
लगभग दोगुनी है। इसका एक कारण यह भी है कि पुरातन पीढिय़ों ने अपनी
लड़कियों को विद्यालय भेजने की बजाए कृषि कार्य सिखवाना अधिक महत्वपूर्ण
समझा ताकि वो आर्थिक रूप से समर्थ बन पाएं। शायद यही कारण है कि यहां
पुरानी पीढ़ी की महिलाओं में डॉक्टर , इंजीनियर, शिक्षक, समाजशास्त्री
महिलाओं की संख्या न्यूनतम है।
युनाइटेड नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम रिपोर्ट की मानें तो सन 2006 में
नेशनल असेंबली में महिलाओं की सहभागिता तीन प्रतिशत थी, न्यायपालिका में
6 प्रतिशत और राजकीय सेवा में 28 प्रतिशत के आसपास है। 1960 में विश्व के
लिए अपने दरवाजे खोलने वाले इस देश में नि:संदेह महिलाओं में साक्षरता
बढऩे के साथ-साथ प्रशासनिक और राजनीतिक सहभागिता दिन पर दिन बढ़ रही है।
November 6, 2010 at 6:19 AM
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति. आभार.
November 13, 2010 at 11:36 PM
... sundar prastuti !
November 17, 2010 at 9:39 AM
अच्छी रिपोर्ट ...!
November 30, 2010 at 6:37 PM
बहुत अच्छा लगा इस समान के बारे में पढ़कर।
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