बुर्का से मुक्ति का समय

Posted By Geetashree On 7:57 AM
एक कविता की पंक्तियां याद आ रही है...तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है, तू इस आंचल का एक परचम बना लेती तो अच्छा था....।

यह पृथ्वी पर बुर्का से मुक्ति का समय है। हमने अपने घूंघट उतार फेंके हैं। हमारे सिरों से आंचल खिसकर हमारी मुक्ति का परचम बन गया है। वक्त आ गया है। दुनिया की बुर्कानशीनों...समझो..सुनो..देखो...कि अब तक किस साजिश के तहत हम काले कपड़ो में लपेट कर छुपा दिए गए थे। हमारे सिऱ तपती गरमी में भी काले कपड़ो में जकड़े रहते थे। ये लबादा नहीं, हमारी पहचान छुपाने की साजिश थी। एक सुंदर लड़की सड़क पर चलती फिरती काली आत्माओं में बदल जाती थी। कहीं हिजाब, कहीं नकाब तो कही बुर्का...। परदानशीं हुए हम और आप बेपरदा होकर घूमते रहे। पोशाक से लेकर आत्मा तक गुलाम बना दी गई। हमें पाठ पढाया गया कि पोशाक भी हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। हमें उन्हें बचाना है तभी हमारी पहचान, हमारी संस्कृति बचेगी। हम इससे बाहर गए तो हमारा धरम खतरे में।
मैंने दुनिया के कई मुसलिम देश देखे हैं...वहां की लड़कियों को करीब से देखा है। हिजाब और बुर्के से मुक्ति की उनकी छटपटाहट देखी और महसूस किया है। सीरिया जैसे आधुनिक देश में भी आधुनिक लड़कियां हिजाब में लिपटी हुई मिलीं। उनकी पीड़ा ये थी कि उनके प्रेमियो ने लंबे समय तक उनके खुले गेसू नहीं देखें। जब तक निकाह नहीं हुआ तब तक क्या मजाल कि एकांत में भी वे गेसुओं को देखने की हिमाकत कर जाएं। ईरानी फिल्मों का तो अब तक ये हाल है कि परदे पर स्त्रियां खुले बालों में दिखाई ही नहीं जा सकती। चाहे घर के अंदर का दृश्य हो या खेल के मैदान का। इसके खिलाफ मुसलिम महिलाओं को ही क्रांति करनी होगी। प्रतिबंध की नौबत ही क्यो आए। काफी हद तक शहरी महिलाओं ने क्रांति की है,कठमुल्लों को कोप झेला है, झेल रही है, विरोध के आगे वे डट कर खड़ी हैं। देखादेखी हिम्मत आ रही है। मगर बहुसंख्यक अभी भी काली पोशाक की गिरफ्त में है।
जहां महिलाएं पहल नहीं कर रही वहां सरकार को दखल देना पड़ रहा है। हाल ही में फ्रंस सरकार ने क्रंतिकारी कदम उठाया और बुर्के पर रोक के विधेयक को मंजूरी दे दी। जिसमें सार्वजिनक जगहो पर मुसलिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी का प्रावधान है। इसस जुलाई में इसे संसद में रखने का रास्ता साफ हो गया है। वहां की सरकार का तर्क है कि सावर्जनिक जगहो पर वैसे कपड़े पहनने की इजाजत नहीं होगी जिनका उद्देश्य चेहरा छिपाना हो। कानून के मसौदे केअनुसार यदि कोई महिला बुर्का या नकाब पहनती है तो उसे 150 यूरो का जुर्माना देना होगा। यही नहीं तालिबान की नजर में शाबाशी लायक काम करने वाले शख्स को फ्रांस जेल भेजने के लायक समझता है। कानून में साफ किया गया है कि किसी महिला को जबरन बुर्का पहनाने वाले व्यक्ति को एक साल की कैद और 20 हजार डालर के जुर्माने का प्रवधान किया गया है।
बुर्कानशीन महिलाओं को आर्थिक दंड इसलिए कम दिया जाएगा कि लोग यह मानतो हैं कि महिलाओं को बुर्का पहनाने के लिए मजबूर किया जाता है। जैसे ही लड़की बड़ी होती है उस पर परदा थोप दिया जाता है। बंद समाज की औरते क्या करें..उन्हें समाज की पाबंदी के साथ जीने की आदत डाल लेना पड़ता है।

वहां से आई एक अन्य खबर के अनुसार पकड़े जाने पर महिलाओं को जुमार्ना भरने के स्थान पर नागरिकता का पाठंयक्रम पूरा करना होगा। फ्रांस सरकार मुसलिम समुदाय से कह रही है कि वे इस कानून को दिल पर ना लें और इस प्रतिबंध को सकारात्मक दृष्टि से देखें।
लेकिन इस पर दुनिया भर में प्रतिक्रियाएं होंगी। कठमुल्ले बौखलाएंगे। स्त्रियों को राहत मिलेगी। अपनी देह पर संस्कृति के नाम पर अतिरिक्त पहरा लेकर चलने से आजादी मिल जाएगी। सवाल ये है कि क्या इस तरह के प्रतिबंध की जरुरत भारत में नहीं है। समाज अगर खुद को बदल ले तो सरकार को एसे कानून बनाने की जरुरत ही क्यो पड़े। सदियो से चली आ रही रुढियो को अब तक ढोए जाने का कोई अर्थ नहीं बचता। वो भी इस दौर में...जब लड़कियां जीवन के सभी वर्जित क्षेत्रो में सेंध लगा रही हैं, आगे बढ रही हैं। सारे बैरियरस तोड़ रही है। एसे में उन्हें लपेट कर रखना कहां तक जायज है। भारत में एसा प्रतिबंध तभी नहीं लगाया जा सकेगा। यहां संभव ही नहीं। हमारी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं. धर्मभीरुता और रुढियों के प्रति हमारा अतिरिक्त मोह कभी संभव नहीं होने देंगा। इस पर सोचना तक दुश्वार है। यह यूरोप में ही संभव है, जहां संसद के 100 प्रतिशत सदस्यो ने पक्ष में मतदान किया। भारत में रायशुमारी करके देख लीजिए...। बहस शुरु हो जाएगी और जातीय अस्मिता का सवाल खड़ा हो जाएगा। तालिबान कही ना कहीं भारतीय मानसिकता में भी जड़े जमा चुका है।

एसा नहीं होता तो गांव की औरते पंचायत की बैठको में सिर पर पल्लू रख कर ना भाषण देतीं। राजनीतिक महिलाएं सल्लज नारी बन कर वोट मांगने ना जातीं। कुछ गांवो में मैंने देखा है कि औरते स्कूटर चला रही है, मगर सिर पर पल्लू कस कर बांधा हुआ है। उसे उतारने की हिम्मत नहीं उनमें। गांव की सीमा में घुसते ही उन्हें अपने खोल में वापस आ जाना है। समाजसेवी भी उन्हें सारी प्रेरणा देते हैं, उन्हें घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने को उकसाते हैं, मगर उनके सिर पर पड़े पल्लू से मुक्ति का रास्ता नहीं दिखा पाते। इतनी हिम्मत नहीं कि सामाजिक ताने बाने से टकरा जाएं। भारतीय परिवेश में उनकी एसी मदद कोई और नहीं कर सकता, खुद ही करना होगा। मुसलिम महिलाएं भी चाहे तो शबाना, सईदा हमीद, शबनम हाशमी जैसी अनेक महिलाओं के प्रेरणा लेकर खुद को आजाद घोषित कर दें। बस एक यही बाधा पार करने की जरुरत है...। एक धक्का और...।
प्रज्ञा पांडेय
May 24, 2010 at 8:40 AM

परदे से मुक्ति का समय सचमुच आ गया है .. एक धक्का और .. आपकी इस बात में पूरी ऊर्जा है ... इतनी कि सच में बस एक ही जोर का झटका और चाहिये .. रास्ता साफ़ है फिर .. तो .. इतने दिनों बाद आपकी पोस्ट देखकर बहुत अच्छा लगा .. बधाई

माधव( Madhav)
May 24, 2010 at 9:08 AM

definitely

http://qsba.blogspot.com/

http://madhavrai.blogspot.com/

Udan Tashtari
May 24, 2010 at 10:07 AM

विचारणीय आलेख.

बेरोजगार
May 24, 2010 at 11:03 AM

पूर्णतया सहमत. काश की फ़्रांस वाला कानून यहाँ लागू हो पता .........

मीनाक्षी
May 24, 2010 at 11:24 AM

आजकल हम अरब में बुर्के में ही बाहर निकल पाते हैं...कानून है सो क़हर है लेकिन अगर आज़ादी हो तो रेतीले इलाकों में अपने आप को ढक कर चलने में आसानी ही है..

nilesh mathur
May 24, 2010 at 11:24 AM

बहुत ही बागी तेवर हैं!

Geetashree
May 24, 2010 at 1:48 PM

आप सबका त्वरित टिप्पणी के लिए दिल से शुक्रिया। प्रज्ञा जी, जब मुद्दो पर मन बहुत बेचैन रहता है तो कुछ लिखा नहीं जाता। उनसे टकरा टकरा कर शब्द टूट जाते हैं...भाव छिटक जाते हैं..इन दिनों कुछ एसा ही हो रहा है। कहने को बहुत कुछ है..कहे तो कैसे..खैर..

मीनाक्षी जी, बुर्का में भी हिफाजत की गारंटी कहां है..

बाकी दोस्तो...तेवर तो बागी है, जमाने का क्या करे। धार कुंद करने पर आमादा है.समीर जी जानते हैं कि मेरे तेवर बारुद की तरह है..ना फटे तो भी गंधाता है।

Sachi
May 24, 2010 at 2:43 PM

फ्रांस, बेल्जियम, और कनाडा के क्यूबेक प्रांत के सार्वजनिक जगहों में बुर्का करीब करीब अतीत का हिस्सा होने को है| मैं सार्कोज़ी का समर्थन करता हूँ, मगर जब में हैदराबाद में था, तो एक बुजुर्ग मुस्लिम सज्जन ने मुझ से कहा कि इसी बुर्के के कारण कई परिवार लड़कियों को बाहर निकलने की छूट देते हैं, जिससे वे पढ़ लिख पाती हैं|

मेरे ख़याल से भारत के लिए अभी यह समय नहीं आया है| भारत सरकार तो इस मामले में कभी भी कुछ नहीं करेगी, इसके लिए प्रयास मुस्लिम महिलाओं को ही करना पड़ेगा|

M VERMA
May 24, 2010 at 3:56 PM

हमारी पहचान छुपाने की साजिश थी।'
और यह पहचान छुपाने की साजिश केवल बुर्का तक ही सीमित नहीं है वरन और भी कई तरह से पहचान छुपाई जा रही है उनमें से एक है तथाकथित संस्कारी परिवारों में संस्कार के नाम पर महिलाओं को नौकरी या अन्य दूसरे प्रकार के व्यवसाय से वंचित रखना. वास्तविक बुर्के से कम खतरनाक नहीं है मानसिक बुर्का.

सुशीला पुरी
May 29, 2010 at 7:00 PM

सचमुच इसकी पहल खुद ही करनी होगी !!!!, मुझे तो बहुत नाटकीय लगता है जब सोनिया गांधी गाँवो मे सिर पर पल्लू लेती हैं या महामहिम प्रतिभा देवीसिंह पाटिल बिल्कुल सिर से सरकने नही देतीं हैं साड़ी का आँचल । मुक्ति के लिए मानस तो खुद ही रचना होगा ।