पैशन आफ लाइफ

Posted By Geetashree On 12:28 AM

गोवा में अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह में अबकि कई फिल्में देर तक याद रह जाने वाली हैं। वे आपके जेहन में घुस कर बैठ गई हैं, जैसे मेरे। मैं दिल्ली लौट आई मगर उनके किरदार मेरे जेहन में कुबुला रहे हैं। शायद मैं लंबे समय तक इन्हें झटक नहीं पाऊंगी। हमें शायद अपनी भारतीय संवेदना और भावुकता पर बड़ा नाज है। रिश्तो की भी हमारी जमीन बड़ी पुख्ता है। इन मूल्यों के कारण ही हम अपनी पीठ थपथपाते हैं और खुद को पश्चिम से अलग कर लेते हैं. उनकी फिल्मों को देखा तो कई चीजें साफ हुईं। पश्चिमी समाज सेक्स से ऊब गया है और उन मूल्यों की तलाश में है, जो उनके भीतर का भय दूर कर दे, जो उन्हें खुद से मिला दे। वे प्रेम और सेक्स को अलग अलग करके देखना सीख रहे हैं। उन्हें अब रिश्तों की गरमाई चाहिए, जिसमें अपने दर्द सेंक सकें। मैं दो फिल्मों का विशेष तौर पर यहां जिक्र करने वाली हूं, जिसने मुझे छू लिया। पैशन आफ लाइफ(जर्मनी) और बेस्ट आफ टाइम(थाईलैंड)।

पैशन..के शो से पहले इसके डायरेक्टर हाल में आए और कहा कि यह फिल्म थोड़ी जटिल है। आपको समझने में मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन एक गांठ खुल गई तो आप सहज हो जाएंगे। वही हुआ..फिल्म ज्यों ज्यों आगे बढती रही..उलझाती रही..सुलझाती रही..गांठे बनती और खुलती रहीं। पूरी फिल्म एक औरत के आवेग की कहानी है। वह अपनी सेक्सुआलिटी की खोज में लगी है, पूरे आवेग के साथ। वह प्रेम और सेक्स को अलग रखती है। वह सेक्स के जरिए प्रेम नहीं पाना चाहती। इसके जरिए अपने करीब आए पुरुष को ठुकरा देती है। यहां पर एक थ्योरी पलट जाती है कि औरत सेक्स करती है प्यार पाने के लिए...। नायिका प्रेम की तलाश में नहीं है..वह अपनी कामनाओं की खोज में है। इस खोज में वह यूरोटिक पार्लर में जाकर हर तरह के प्रयोग कर डालती है और अंत में कामुकता के आवेग में आकर वहीं एक नंगी नर्तकी (स्ट्रिपर) होकर रह जाती है।

फिल्म और भी कुंठा के मारे किरदार हैं। सबको अपनी तलाश है। सबके भीतर भय है। कुछ किरदार अपने कंधे पर अपना सलीब ढो रहे हैं। मन की गुप्त इच्छाओं और समाज के बनाए दोहरे मानदंडो के बीच निरंतर संर्घष चल रहा है। लेडी मारिया इन सबकी मार्गदर्शक हैं। सोशियोलाजिस्ट की भूमिका में।

सेक्स और लव दो अलग अलग चीजें हैं। सेक्सुआलिटि ही इनसान की असली पहचान होती है। शर्म एक किस्म का भय होता है। पाप की अवधारणा नैतिकतावादियों की देन है जो नहीं चाहते कि लोग अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी जिएं। जर्मनी की फिल्म पैशन आफ लाइफ(निर्देशक..रोनाल्ड रेबर) फिल्म की नायिका अपने ग्राहको को ट्रेंड करने से पहले सेक्स, जीवन, रिश्ते और प्रेम के बारे में साफ साफ समझाती है। समारोह में इन दिनों जितनी फिल्में आई हैं उन्हें देखकर दुनिया के रुझान का पता चलता है। सेक्स से ऊबा पश्चिमी समाज अब रिश्तों के तार सुलझाने और समझने, समझाने में लगा है। शायद इसीलिए रिश्तों पर केंद्रित फिल्मों की भरमार रही इस बार। ये फिल्में नकली वातावरण से ऊबकर जिंदगी के आम समस्याओं से जूझती दिखाई देती हैं। आम आदमी की जिंदगी को किस तरह सिनेमा में बदल दिया जा रहा है इसका उदाहरण कई फिल्में हैं।
थाईलैंड की फिल्म बेस्ट आफ टाइम भी दो अकेले इनसानों की जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती हुई एक नया रिश्ता कायम करने की जद्दोजहद में दिखाई देती है। रिश्तों का महाकाव्य रचती हुई इन फिल्मों में सिर्फ प्रेम की तलाश है। खुद के नए सिरे से तलाशने में जुटे दो अलग किस्म के लोग अपनी मर्जी का रिश्ता टटोल रहे हैं, जहां है उनकी चुनी और बनाई हुई दुनिया, उसके लोग और अर्जित की हुई आजादी। पैशन ाफ लाइफ की नायिका एक जगह स्वीकारती है कि वह कभी कभी खुद को बुद्द की तरह पाती है जो भोग में लिप्त हैं और एक दिन उसे उसकी आंख खुलती है तो वह यथार्थ से टकराता है। नायिका जानती हा कि वह जिस सेक्सुआलिटि की खोज में भाग रही है उससे एक दिन उसका भी मोह भंग होना है। वही होता भी है और उसका जीवन यथार्थ की फंतासी में उलझ कर रह जाता है।

जर्मनी की एक और फिल्म विदाउट यू आई एम नथिंग(निर्देशक..फ्लोरियन ईशिंगर) में एक २५ वर्षीय नायक की मुलाकात आठ साल के अलगाव के बाद अपने पिता से होती है। लेकिन पिता अपनी युवा प्रेमिका के चक्कर में आकर बदल चुका है। बेटा इस बदलाव को महसूस करता है। उसी समय पिता की प्रेमिका पिता-पुत्र के संबंधों में झांकने की कोशिश करती है। शायद इसके जरिए वह कोई ठोस रिश्ते की तरफ पहुंचना चाहती है। लेकिन संबंधों की तरफ जाने वाला यह असहज रास्ता उनमें से प्रत्येक को गहरे गर्त में ले जाता है।
सागर
December 1, 2009 at 2:07 AM

अच्छी रिपोर्ट... जारी रहें... हमारे director भी वहां जूरी मेम्बर बनकर गए है...

Udan Tashtari
December 1, 2009 at 7:40 AM

अच्छा लगा रिपोर्ताज पढ़कर बजरिये आपके.

Rangnath Singh
December 1, 2009 at 9:45 AM

बढ़िया है...

अनिल कान्त
December 1, 2009 at 9:06 PM

इस तरह की फिल्में हम भी देखना चाहते हैं लेकिन हमारे देश में इतनी बनती कहाँ हैं.
इधर कुछ सालों से नए निर्देशकों ने कुछ करने की कोशिश की है वरना तो दिल दुखता ही था

समचार पोस्ट
December 12, 2009 at 6:09 AM

aapke aarticle achhe lage