प्रेम में वासना

Posted By Geetashree On 11:24 PM
कृष्ण बिहारी
मैं
इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि प्रेम में वासना का कोई स्थान नहीं है. मैं न स्वयं से झूठ बोल सकता हूं और न दूसरों से. प्रेम में आदर्श और अशरीरी जैसी स्थिति की जो लोग वकालत करते हैं, वह मेरी समझ में केवल लाचारी है. हमारे देश में चूंकि प्रेम को लेकर समाज स्त्री- पुरूष की सोच में बंटा हुआ है और स्त्री आज भी यह कह पाने की स्वतंत्र स्थिति में नहीं है कि उसने अपने प्रेमी के साथ जिस्म शेयर किया है. इसलिए वह ज़ोर देकर झूठ बोलती है कि प्रेम में शरीर की मांग बेमानी है. वह डरती है कि यदि उसने शरीर के सच को स्वीकार किया तो उसका भविष्य नष्ट हो जाएगा.
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Rangnath Singh
November 16, 2009 at 3:54 AM

जिस जटिल परिघटना को बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी न सुलझा सके उसे मुझ जैसे चिड़ीमार क्या खा कर सुलझाएंगे। अनुभवी लोग आगे आएं और कृष्ण बिहारी जी की तरह अभिव्यक्ति के खतरे उठाएं।

वीरेन्द्र जैन
November 16, 2009 at 6:50 AM

ठीक किया कि इस पोस्ट को चर्चा का विषय बनाने के लिये पुनर्प्रस्तुत किया

Ashok Kumar pandey
November 16, 2009 at 7:13 AM

लेख दरअसल कहीं पहुंचता नहीं है ना ही आज तक के विमर्श में कुछ नया जोडता है। कामकाजी महिलाओं को लेकर पहले पन्ने की टिप्पणी तो वीभत्स है और नारी के प्रति आपके दृष्टिकोण की परिचायक भी।
मेरा मानना है कि शरीर प्रेम का अभिन्न हिस्सा है परंतु बिना न्यूनतम कमिटमेण्ट का सेक्स असल में एक दूसरे से भी धोखा है। एक दूसरे की इज़्ज़त और पूरी तरह बराबरी के जनवादी आधारों पर ही प्रेम पनप सकता है।

प्रज्ञा पांडेय
November 16, 2009 at 8:08 AM

प्रशांत जी और राजेश अगवाल जी की टिपण्णी पढ़कर ऐसा लगा जैसे कि वे लोग सच को स्वीकार नहीं कर पाए और बात से किनारा कर गए . प्रेम जैसे विषय पर आज तक बहुत कुछ लिखा गया है . प्रेम के आगे पीछे के पक्ष इतने जटिल रहे हैं कि उसका विश्लेषण कभी नहीं हों पाया और वह हमेशा अधूरा ही रहा , लेकिन यह लेख पढ़कर लगा कि प्रेम का असली चेहरा लेखक ने बेनकाब कर दिया है आज तक प्रेम का असली स्वरुप खोजने में व्यर्थ ही जुटे रहे . प्रेम का असली रूप तो प्रेम विहीन है .. प्रेम कभी स्त्री विरोधी नहीं होता है बल्कि प्रेम ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जिसमें स्त्री पुरुष दोनों की बराबर कि साझेदारी होती है ..प्रशांत जी आप ५ पेज पढ़ने में अपना समय एक बारअवश्य नष्ट कर लें .सीस उतारे भुंई धरे तब पैठे घर मांहि. दुबारा प्रेम जैसी जरुरी और वाहियात बात आपको परेशां नहीं करेगी पहली बार .. पूर्णता में .प्रेम पर कुछ पढ़ने को मिला . लेखक को बहुत बहुत बधाई .

ushma
November 16, 2009 at 9:29 AM

बहुत सुंदर लेख है !कम से कम किसी ने हिम्मत तो की !निश्चित रूप से यह लेख मार्ग दर्शन का काम करेगा !काफी हद तक प्रेम के अन्तर्विरोध खुल के सामने आये हैं !एक बात आपसे कहना चाहूंगी कि आध्यात्म इसके खिलाफ नही है !मेरा मानना है कि प्रेम में आकर्षण का सबसे बडा कारण यह है कि जब हम प्रेम को देखते है तो किसी और को नही अपने को देखते है !उसकी आँखों से अपने आप को देखना ,अपने विस्तार को देखना ...फिर कतर व्योंत कहाँरह जाता है !आप कि बात -प्रेम पूर्ण समर्पण चाहता है ! चाहना बाकी कहाँ रहा ...पहले प्रेम तो पूर्ण हो .. दुनिया की बात मत कीजिये वहाँ स्वार्थ और अहंकार का बोलबाला है !प्रेम को समस्या बना कर छोड़ दिया गया है ! आज के समय में मानसिक अस्पताल सबसे ज्यादा कमाई कर रहे हैं !बहुत से लोग आज भी मध्य युग में रह रहें है !नई पीढ़ी की जो हालत है ,
वह इसीलिए है कि हम विषय को खोलना ही नही चाहते है !

Vibrentyuwa
November 16, 2009 at 8:26 PM

दो शक्तियों का परस्पर संघर्ष प्रकृति का नियम है . इस संसार की उत्पत्ति ही दो विपरीत शक्तियों के संघर्ष का परिणाम है . प्रेम है तो घृणा भी ,दरअसल दोनों एक दुसरे से भिन्न न होकर एक ही पथ के पथिक हैं . प्रेम के बरक्स घृणा तो है पर वासना को प्रेम के विपरीत न मान कर उसी में समाहित जाना जाता है .


अज्ञेय ने इन दोनों शक्तियों के बारे में लिखा है : एक संयोजक है ; फूलों से भंवरों का मिलन ,विटप से लता का आश्लेषण ,रात्रि से अन्धकार का प्रणय आदि में ....

दूसरा विच्छेदक है ; आंधी से वृक्षों का विनाश ,दावानल से वनों का जलना ,व्याध द्वारा कपोतों के मारे जाने में आदि .

कभी-कभी दोनों प्रकार की शक्तियों का सम्म्मिलन एक हिन् घटना में होता है जब हम भौंचक रह जाते हैं .कुछ भी सहजता से समझना कठिन होता है प्रेम भी शायद एक ऐसी ही घटना है .


अपन भी अपना सच खोज रहे हैं ........... हाँ अभी तक की खोज से इतना जरुर कहूँगा समाज में प्रचलित शब्दावली और उसके चलताऊ अर्थो के आधार पर प्रेम ,वासना ,सेक्स, काम आदि को समझना मुश्किल है .

ushma
November 24, 2009 at 8:03 PM

रोहित पाण्डेय जी ! क्या आप लिखते हैं ? मै नहीं मानती ! क्योंकि कुछ भी लिखने के लिए जरुरी होता है कि कोई भी चीज पहले ध्यान से पढ़ें ..अब देखिये न ...आपने मेरा नाम तक ध्यान से नही पढ़ा ..मेरा नाम उषारानी नही ..उषा राय है !कम से कम इतनी जल्दबाजी .लेखक को तो नही होनी चाहिए ! किसी बात से असहमति हो , मतभेद हो , जायज है
पर कटुता ??? अपने गिरेबान में झांक कर देखे ! आप से क्या उम्मीद करें ???

प्रज्ञा पांडेय
November 24, 2009 at 10:28 PM

रोहित जी ... प्रेम गली अति सांकरी लेख पर आपकी टिपण्णी पढ़ कर हमने आपको जाना ! .! आपने उस लेख पर जो टिपण्णी की वह तो आपके विचार हैं लेकिन उसके खोखलेपन से आप बच नहीं पाए . आपने लिखा है की आपने एक बेहतर उपन्यास की भूमिका लिख दी है पात्रों का चयन कर पूरा कर दीजिए. पठनीय होगा, बिकेगा भी. देह के बिना रचना कैसी? आपके ही वाक्य है !उनके लिए संतोष की बात है कि प्रज्ञा और उषारानी भी सहमत है.
देह और वासना को आप ..अछूत मानते हैं . यह तो समझ में आया यह भी कि आप उच्चकोटि के व्यक्ति हैं जिसको प्रेम देह इत्यादि में किसी प्रकार रूचि नहीं है .. हमें भी आपके व्यक्तिगत मामलों में कोई रूचि नहीं होती .यदि . आपने हमारे नाम का इस्तेमाल अपनी टिपण्णी में इतने घटिया तरीके से न किया होता ? आपने क्या समझा हमें ? देह ? ऐसा लगता है कि किसी भी स्त्री के प्रति आप सम्मान पूर्ण नजरिया नहीं रखते हैं .हम जानना चाहते हैं कि आपकी उम्र क्या है. ? . आपने लिखा है की कृष्ण बिहारी जी ने देह और प्रेम को उसी तरह परोसा है जैसा वे अपनी कहानियों में करते है .. आपकी इस बात से यह भी साफ़ ज़ाहिर है की आप कृष्ण बिहारी जी की कहानियों को नापसंद करने के बाद भी पढ़ते हैं!
बेशक आप टिप्पणियां लिखिए लेकिन महिलाओं के नाम का इस्तेमाल बिना उनकी इजाज़त के आइन्दा कभी न करिए . आपको यह बता देना बेहद ज़रूरी है कि उषा मेरी परम मित्र है और विदुषी है अगर आप में थोड़ी भी वैचारिक समझ है तो . आपको क्षमाप्रार्थी होना चाहिए .!
प्रज्ञा

Anonymous
January 5, 2010 at 3:15 AM

मैं समझता हूं कि करूणा है जिससे दुनिया बची हुई है. प्रेम और करूणा में अन्तर है .करूणा का जहां असीम विस्तार है, वहीं प्रेम एक संकरी गली है. प्रेम राजपथ नहीं है कि उस पर एक साथ और सबके साथ दुनिया चले. प्रेम में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है..........
इन पंक्तियों का लेखक असाधारण है !यह खोज है ! हमारे यहाँ पढने की आदत कम हो रही है! अन्यथा बिना ठीक से पढ़े ,बिना उद्धरण के प्रतिक्रिया नही आती ! मेरी एक सहेली उच्च पद पर तैनात हैं ,उन पर आरोप लगाया जाता है कि वे गाली देती हैं ,उन्होंने अपने बचाव में सिर्फ इतना कहा कि मै सत्यमेव जयते कहती हूँ तो इन्हें गाली लगती है !लेखक का यह दम ख़म ही है ,जिसे लगातार , असहमति के बावजूद भी पढ़ा जा रहा है !